जया जादवानी से वार्तालाप
अगस्त 1, 2016
ई-कल्पना - समकालीन हिन्दी लेखिकाओं में मुझे आपके लिखने के स्टाईल में वही बात दिखती है जो मेरी पसंदीदा अमरीकी लेखिका जॉईस कैरल ओट्स में है. आप दोनों दमदार लेखक हैं, भावुक हैं, औरत की दहाड़ती आवाज़ हैं. आपकी कहानियाँ पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि आप अकेली रंगमंच पर स्पॉटलाईट के बीचोबीच दुनिया को भूल कर अपनी कहानी परफॉर्म कर रही हैं और हम दर्शकगण साँस रोके मंत्रमुग्ध सुन रहे हैं. कहानी खत्म होती है, हॉल तालियों से गड़गड़ा उठता है. इतनी निर्भीकता से अपनी कहानी कहने के लिये बहुत धन्यवाद. आपने लिखना कब शुरू किया?
ज.जा. - मुझे आपने काफ़ी ठीक जगह से पकड़ा है. मैं खुद को औरतों के पक्ष में दहाड़ता हुआ ही पाती हूँ. ये संयमित दहाड़ है. कभी -कभी खीझ होती है, जब लगता है कोई सुन और समझ नहीं रहा और जो सुन और समझ रहा है, उसके पास वह हौसला नहीं है कि पुरुष वर्चस्व के खिलाफ़ बिलकुल तार्किक और समझ के स्तर पर खड़ा हो सके. फिर उनका विद्रोह भी उनकी नासमझियों की भेंट चढ़ जाता है. आम तौर पर सतायी हुई औरत पुरुष को अपने दुश्मन की तरह देखती है. यह एक दूसरी गल्ती है.पहली गल्ती उसने खुद को मात्र 'देह' समझ कर की. हम एक अति से दूसरी की ओर जा रहे हैं. स्त्री की इस हालत के लिये सामजिक व्यवस्था और सामंतवादी सोच तो जिम्मेदार है ही, वह खुद भी कम जिम्मेदार नहीं है. खुद की 'चेतना' को जगाये बिना दूसरे से 'कृपा' की मांग करना मूर्खता है.जिस दिन वह गुलाम न रहना चाहेगी. कोई उसे गुलाम न बना सकेगा.
मैं इस तरह की कहानियां क्यों लिखती हूँ? इसके बीज मेरे बचपन में हैं. मैंने अपनी मां-दादी और चार बुआओं का जीवन देखा है, एक निहायत सामान्य किस्म का जिसमें तमाम किस्म के घरेलू झगड़े, चखचख, घर के अंतहीन काम, पुरुष के सामने खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़, कुंठाओं और लाचारियों, हताशाओं और निराशाओं से भरा जीवन. [ मैंने अपने नावेल 'मिठो पाणी खारो पाणी' में इसका विस्तार से जिक्र किया है.] मुझे बचपन से ही नफ़रत थी इस जीवन से. मैं मां को कहा करती थी, मुझे आपका दिया हुआ जीवन नहीं चाहिये, मुझे जो चाहिये मैं खुद बनाउंगी. फिर भी उन्होंने मुझे अपने ही जैसी जिंदगी दी, जिससे भाग निकलने में मुझे बहुत साल लग गये. सोलह साल की उम्र में मेरी इच्छा के खिलाफ़ मेरी शादी कर दी गयी. अभी मैंने मैट्रिक किया ही था और मैं एक कब्र से निकलकर दूसरी कब्र में चली गयी. मैंने खुद से कहा, जरा जोर से चीखना आवाज़ बाहर तक जाती रहनी चाहिये. जब लोग आपको मरा हुआ समझ लेते हैं तब उन्हें यकीन दिलाना मुश्किल होता है कि आप न सिर्फ़ जिंदा हो बल्कि पूरी ताकत से दहाड़ते, मुर्दों को भी उठाने की कोशिश कर रहे हो.
तन्हा बचपन था सो मेरी लिखने की शुरुआत बचपन में ही हो गयी थी जब मैं नाइंथ में थी. बकवास ही होगा जो भी लिखा होगा. वह मेरी एक दूसरा संसार खोजने की शुरुआत थी. मैंने जितनी भी कवितायें, कहानियां, उपन्यास लिख मारे थे, सब खो गये. डर हमारा स्थायी भाव था. पैरों के नीचे ज़मीन नहीं थी. हम औरत होकर पैदा होने का दंड भुगत रहे थे. मेरे पिताजी बहुत क्रूर थे. उनकी क्रूरता की भेंट बहुत जीवन चढ़े. सालों मां को छटपटाते देखा और मरते भी. जब सांस चल रही हो तब मर जाना कितना त्रासद हो सकता है? जाना. जाना और भी बहुत कुछ कि घर के अन्दर और बाहर के दबाव ही आपको बनाते हैं. आपको अगर दिया हुआ जीवन नहीं चाहिये तो जो आपको चाहये, बनाना तो खुद पड़ेगा.
मैं सचमुच एक लम्बी और अंतरतम भेद देने वाली चीख हूँ, चाहती हूँ, इसे न सिर्फ़ सुना जाये बल्कि इसकी आवाज़ में अपनी आवाज़ भी मिलाई जाये.
ई-कल्पना - आपकी लगभग सभी कहानियाँ जो मैंने पढ़ी हैं नारी-केन्द्रित हैं. नारी संबंधी जो सामान्य धारणाएँ हैं, उन्हें आपने फिर से उठा कर नए नज़रिये से पेश किया है. उन में कुछ रोष है लेकिन क्योंकि आप बेहतरीन लेखिका हैं, आपकी राईटिंग में वो एक कन्ट्रोल्ड फॉर्म लिये हुए है. मैंने ये रोष कई औरतों में देखा है, माँओं में जिन्होंने अपनी बेटी-बेटों को अच्छी शिक्षा दे कर, फिर अपने जीवन के किसी फ़ेज़ में महसूस किया है. चौंका देने वाला रोष. क्या आपको भी ऐसा लगता है? अगर हाँ, तो आपके अनुसार मध्यवर्गीय औरतों के प्रति समाज कहाँ चूक गया?
ज.जा. -मुझे अक्सर लगता है, कोई दूसरा तो क्या, औरतें खुद ही खुद को समझ नहीं पा रही हैं. न ये कि वो क्या हैं न ये कि उन्हें क्या चाहिये? वे पुरुष की निगाहों से खुद को न सिर्फ़ देखती, काटती -छांटती भी हैं. उनका समस्त वजूद टुकड़ों-टुकड़ों में घर में छितराया रहता है जिसे पति- बच्चे और रिश्तेदार अपनी सहूलियत से बरतते हैं. रोष तो उसमें तब पैदा होता है जब वह जानने लगती है कि उसके साथ क्या हो रहा है? यह रोष तो हर जीवित मनुष्य का पैदाइशी गुण हैं.
समाज तो देखिये उन सभी के प्रति क्रूर होता है जो उसकी बनी- बनायीं दम घोंटू व्यवस्था के चुंगल से भाग निकलना चाहते हैं. मध्यवर्गियों को उसके चुंगल से निकलने में वक्त इसलिये ज्यादा लगता है कि यह फंदा बनाया भी उसी ने है और वह उन्हीं के बीच रहता भी है, पोसता भी वही है. तथाकथित 'बड़े' इस चुंगल से छूट जाते हैं. 'छोटों' को समझ में ही नहीं आता न समाज उन पर दबाव बना पाता है. रह गये वही जो उन्हीं कसौटियों पर खुद को कसते -कसते बाद में पछताने लगते हैं. हम जिसको मानेंगे, उसी से पकडे और जकड़े जायेंगे.
मैं तो खैर शुरू से ही विद्रोही रही हूँ पर वह औरत जिसे बचपन से दबाया और कुचला गया है, मध्यवय तक आते- आते या तो उसी व्यवस्था की पोषक बनती हैं या फिर फूट पड़ती हैं क्योंकि तब खतरे उतने उनके अस्तित्व पर होते नहीं. जो सिद्ध करना था, किया या नहीं कर पाई. तब तक उन्हें समझ में आने भी लगता है कि वे क्या चूक गयी हैं. बचपन से ही दूसरों से मिली धारणाओं से छुटकारा पाने में भी वक्त लगता है. यह चौंका देने वाला लगता जरूर है पर था तो वहीँ अन्दर खदबदाता, बाहर फूट पड़ने के अवसर टटोलता.
ई-कल्पना - हमारे यहाँ अच्छे लेखकों की कमी नहीं है. कमी है तो पाठकों की. इसलिये देश का हिन्दी राईटिंग लैंडस्केप सक्रिय नहीं है. इसके अलावा, अच्छे लिटरैरी सीन बनाने को महत्व न दे कर, बड़े पब्लिशिंग हाऊसिस का बैस्टसैलिंग शीर्षकों को शैल्फ़ में रखने की ज़िद ने अब ये स्थिति बना दी है कि सम्पूर्ण पब्लिशिंग इंडस्ट्री गिनती के कुछ ही बहुत जाने-माने लेखकों के पक्ष में रिग्ड हो गई है. पश्चिम का ये ट्रैंड भारत में भी बड़ी तेज़ी से आ गया है. ये ट्रैंड हिन्दी पब्लिशिंग के लिये और भी गंभीर साबित हो रहा है. क्या ऐसी स्थिति से निकलने का आपको कोई रास्ता नज़र आता है.
ज.जा. - इससे निपटने के लिये जरूरी है कि सीधे पाठकों तक पहुंचा जाये. कैसे? इसके तरीके ईज़ाद किये जा सकते हैं. नये लेखक पर्याप्त सजग हैं. नई टेक्नालाजी ने उन्हें काफ़ी सुविधा और समझ दी है. हिंदी में भी इस टेक्नालाजी ने अपने पैर जमाये हैं. अब कहानी पढ़ी जाने की बनिस्बत सुनी जानी चाहिये. उसे इस ख्याल से भी लिखा जाना चाहिये कि सुनने में कैसी लगेगी. मुझे कोई टिप्स नहीं देनी है बल्कि मुझे ही टिप्स की तलाश रहती है कि मैं कैसे वह -वह कह सकूं और ज्यादा बेहतर तरीके से जो अभी तक छूटता आ रहा है. कैसे अपने शब्दों को इतना पावरफुल बनाऊँ कि वह आत्मा को भी आविष्ट कर ले. कैसे मैं इतना बरस सकूँ कि पाठक के मन की धरती और -और उर्वर हो सके. कैसे मैं उसकी द्रष्टि में और इज़ाफा कर सकूँ कि उसे 'हिडेन' चीजें दिख सकें. उसे मेरी रचनाओं में अपनी धडकनें सुनाई दें.
यह अवसर देने के लिये मैं आपकी शुक्रगुजार हूँ.
जया ज़ादवानी की कहानियाँ जीवन और जगत की आपाधापी के बीच किसी ख़ास क्षणों की दुर्लभ कौंध हैं. इनका सत्य कुरूपता और सौंदर्य के पार है. जो पाठक को चकित भी करता है और समझ भी देता है. जया की कहानियाँ मनुष्य की आत्मा से साक्षात्कार भी करती हैं और उसके स्वभाव का अवलोकन भी. उनकी कहानियाँ स्त्रीत्व की सहज ख़िलावट को कुचल डालने वाली समाजी क्रूरता पर प्रहार भी करती हैं. उन्हें रास्ता भी दिखाती हैं. उनकी कहानियों में चीख़ है, रुदन है, विद्रोह है पर भीतर कहीं गहरे बहती प्रेम की नदी भी है. यहाँ मनोजगत और दर्शन की वे ऊँचाइयाँ हैं जहाँ स्त्री और पुरूष अपनी नैसर्गिक स्थितियों में हैं, बनी बनायी विद्रपताओं में नहीं. ख़ानाबदोशों की तरह आपको नए नए लोकों की सैर करवाती हैं. प्रेम के उस शिखर पर ले जातीं हैं जो दुर्लभ है. वे दुर्लभ स्थितियों को सहज बनाती हैं. एक ऐसी पठनीयता जो देखना और जीना सिखाती है.