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जया जादवानी

उससे पूछो

'सुप्रसिद्ध कवि-साहित्यकार, आलोचक श्री संजय मूर्ति को इस वर्ष का साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनके नये कविता संग्रह 'उससे पूछो' पर दिया जा रहा है. भास्कर समूह की ओर से उनको अनेक बधाइयाँ ...'

इस छोटी सी खबर पर न्यूज़ पेपर पलटते हुये मेरी दृष्टि अनायास पड़ती है. मेरे भीतर कुछ ठहर सा जाता है.

'उससे पूछो

उसकी आवाज़ मेरी आवाज़ में मर्ज क्यों है

मुझसे नहीं

उससे पूछो

मेरे मौन में क्यों गूंजती है वह एक धुन की तरह ....'

पंखे की हवा में फड़फड़ाते न्यूज़पेपर को मैं अपनी हथेली से दबाये बैठी हूँ. मैंने अपनी हथेली हटा ली, वे फड़फड़ाते हुये इधर-उधर बिखर गये हैं ... उनके शब्दों की तरह ... जिन्हें किसी वक्त तो मैं सहेजकर रखती थी और किसी वक्त उड़ जाने देती ... यूँ ही हवा में ... बेमतलब ...

'शब्दों का नसीब सिर्फ़ उनकी पहचान से बदल सकता है, आपको कभी इनकी व्यर्थता का आभास होता है?'

'अक्सर. जब ये सही कानों तक नहीं पहुँचते.'

'तब आप क्या करते हैं?'

'कुछ नहीं. उम्मीद के साथ धैर्य से प्रतीक्षा करता हूँ. औरों की तरह एक कवि भी यही चाहता है. शब्द किसी मंत्र की तरह उसके अन्तःस्थल से उठे और दूसरे की आत्मा का स्पर्श करता हुआ उसके मर्मस्थल तक पहुँचे, पर ऐसा हमेशा तो नहीं हो सकता.' कहते-कहते उनके चेहरे पर किसी सोच की परछाई उतर आई थी.

जब वे पहली बार आये थे हमारे शहर में, तब हमारा किसी ने बस परिचय करवाया था, समूह के साथ. मैंने तुरंत अपने बैग से उनका कविता-संग्रह निकाला और उनके आगे कर दिया. आटोग्राफ के लिये. किंचित हैरानी से उन्होंने मुझे देखा आटोग्राफ देने से पहले सिर से पैर तक.

'आपका नाम पूछ सकता हूँ?'

मेरे लम्बे कद की वजह से उन्हें अपना चेहरा जरा सा उठाना पड़ा था.

मैंने जरा सा झुकते हुये उन्हें अपना नाम बताया, तो उन्होंने बड़े-बड़े शब्दों में पहले मेरा नाम, उन्हीं की कविता की दो लाइनें, फिर अंत में अपने हस्ताक्षर कर दिये. कुछ ही शब्द थे, पर पूरा ख़ाली पेज भर गया था. मैंने जब यही बात उनसे कही तो वे मुस्करा दिये.

'आपको क्यों पसंद हैं मेरी कवितायें?' किताब लौटाते हुये उन्होंने पूछ लिया था.

मैं अचानक गड़बड़ा गयी. अटकते हुये कहा, 'आपकी कविताओं में एक राग होता है. आलाप या धुन, कुछ भी कहें. मैं इन्हें पढ़ती हूँ तो मुझे लगता है मैं गा रही हूँ. ये हमें उन जगहों पर ले जाती हैं, जहाँ से हमें अपनी हकीक़त दिखाई नहीं देती या दिखाई भी देती है तो उसे अनदेखा किया जा सकता है.'

'यह तो हकीक़त से पलायन हुआ .'

'कोई जरूरी तो नहीं इसे इसी तरह कहें. फिर भी यह मेरा सच तो है ही. मैं इनकी शरण में इसलिये जाती हूँ क्योंकि मुझे अपनी हकीक़तों से डर लगता है.'

'आपके जैसी खूबसूरत लड़की की हकीक़त खूबसूरत होनी चाहिये, ऐसा मैं सोचता हूँ.'

'मैं भी यही सोचती थी.' मैंने तुरंत कहा और हम हंस पड़े थे.

'कविता एक नई दुनिया रचती है हमारे लिये. हमारी जानी-पहचानी दुनिया से अलग-अनोखी, नई, लगभग एतबार न करने लायक. फिर भी हमें सबसे ज्यादा यकीन उसी पर आता है. वही सबसे ज्यादा अपनी लगती है. वहीं तक पहुँचने की जद्दोजहद हम हर वक्त करते हैं. वह हमारे भीतर कुछ बदल देती है. चीजें वही होती हैं पर किसी दूसरे रंग में दिखने लगती हैं. अब आप इसे वास्तविकता का रंग कहें या ...' मैं खुद को आहिस्ता-आहिस्ता कहने की कोशिश करती हूँ. अपने आसपास की निरर्थक सच्चाईयों से ऊबे हुये हम कितनी गहरी ललक से उस दूसरी दुनिया की ओर ताकते हैं, जो एक कविता या प्रेम हमारे लिये रचते हैं.

'वास्तविकता का कोई रंग नहीं होता. वास्तविकता सूरज की रौशनी की तरह साफ़ और नंगी होती है. हम ही उसे तरह-तरह से ढंकने की कोशिश करते हैं.' उन्होंने मुस्कराते हुये कहा.

'यू आर राईट. पर उतनी साफ़ और नंगी सही भी तो नहीं जाती. सहने के लिये उस पर कोई रंग चढ़ाना जरूरी लगने लगता है. हो सकता है कविता उस पर रंग चढ़ाने का काम करती हो.' और मैं धीमे से हंस पड़ी, उनकी आँखों में देख कर कहा. 'इस नन्हीं सी कविता पर मैं इतना बोझ भी क्यों डालूं? यह बस है. अपने होने में सहज-सुन्दर. रौशनी के एक टुकड़े की तरह. आप चाहें तो इसके नीचे आकर खुद को देख सकते हैं. वह ऐतराज नहीं करती. न चाहें तो भी कोई बात नहीं. उससे उसका होना कम नहीं होता.'

'यू आर जीनियस .'

'आय एम् नाट अ जीनियस. मोस्ट आर्डिनरी गर्ल आय एम्. अभी तो मैं बस अपने पैरों के नीचे बिछे रास्ते को पहचानने की कोशिश कर रही हूँ.'

'देख लीजिये, कोई खड़ा तो नहीं किनारे पर?' उन्होंने शरारत से कहा था.

'खड़ा तो है पर वह रास्ते पहचानने में मेरी मदद नहीं करता. वह कहता है, जिसे चलना है, ढूंढना भी उसे ही होगा.'

'यह तो उसकी जिद है.'

'पता नहीं. और मैं जिद से टक्करें नहीं मारती.' मैं फिर मजाक के मूड में आ गई. वे भी हंस रहे थे. तब तक उन्हें मंच पर ले जाने को कुछ लोग निकट आ गये थे और मैं वहाँ से हट गयी थी.

प्रोग्राम शुरू हुआ. अध्यक्ष बने वे मंच पर ही बैठे रहे. पूरे तीन घंटे मैं दूसरों को सिर्फ़ इसलिये सुनती रही कि अंत में वे बोलेंगे. इस वक्त याद नहीं क्या कहा था उन्होंने पर अपने चुटीले अन्दाज़ में सबकी खिंचाई करते हुये बहुत बार हंसाया था श्रोताओं को. पीछे वालों ने जो बोरियत भर दी थी माहौल में, उसे वे काफ़ी हद तक दूर करने में सफ़ल रहे थे.

प्रोग्राम ख़त्म होते ही वे एक बार फिर अपने प्रशंसको के झुण्ड से घिर गये. क्या सोच सकता है एक आदमी अपने मनचाहे मुकाम तक पहुँचने के बाद? क्या महसूसता होगा? एक गहरी आत्मसंतुष्टि का भाव या कुछ छूट गये की कसक. क्या 'यह' ठीक वही है जो उन्होंने चाहा होगा? क्या ठीक 'वही' कुछ होता है या हम मान लेते हैं क्योंकि अब जो इतनी दूर आ गये हैं तो क्या किया जाये? वक्त मिला तो पूछूँगी उनसे. पर उस दिन तो नहीं मिल पाया था मनचाहा वक्त. उन्हें व्यस्त देख मैंने चुपचाप खिसक जाना ही मुनासिब समझा. और मैं लौट आई. अपनी चार कदम इधर, चार कदम उधर वाली दुनिया में.

इसके बाद हुआ बस इतना था कि मैंने एक ख़त लिखा था उन्हें साधारण सा. उनका जवाब भी आया, जिसमें मुझ जैसे फूल को हमेशा मुस्कराने की सलाह दी थी. मैंने वह ख़त संभालकर रख लिया था स्मृति की फ़ाइल में. अपनी-अपनी दुनियाओं में लौटते समय हममें से किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि आने वाले दिनों में क्या होने वाला है?

फिर वे दूसरी बार आये थे. अपनी बेकारी के दिनों को खुशगवार बनाने और व्यर्थता बोध को कस-कसकर पोंछने की कोशिश में मैंने रेडियो अनाउंसर की नौकरी कर ली थी. वे आये थे पांच साल बाद. नहीं लग रहा बीता हुआ कुछ भी, लग रहा है जैसे मैं अपने आप को ही जी रही हूँ.

उनके आने की खबर समूचे शहर से होती हुई रेडियो स्टेशन पर भी पहुँच गयी थी और हमने उन्हें इन्टरव्यू के लिये राजी कर लिया था.

'आख़िर पात्रता भी तो आवश्यक चीज़ है.' मैंने उन्हें किसी दुविधा से निकाला था.

'एग्जेक्टली! और उसके अभाव में वे कूड़ा हैं.'

'आपको कभी लगता है, एक दिन ये नहीं रहेंगे या रहेंगे तो इस रूप में नहीं. क्या आपको किताबों का भविष्य अंधकारमय दिखता है ?'

'जब तक मनुष्य है, ये जीवित रहेंगे. दरअसल ये किसी दूसरे को नहीं, हमें खोलते हैं. हमारा दर्द, हमारा रहस्य, हमारे अँधेरे, हमारी यातना. दूसरा इनकी रौशनी में अगर अपने दर्द, रहस्य, अंधेरों और यातना की झलकियाँ देख पाता है तो वह उसका सुख है. शायद तभी बार-बार मनुष्य शब्दों के आलोक में आता है. अपने अंधेरों से घबराकर, लिखे गये शब्द भविष्य की निधि हो जाते हैं. जब भी आगे कभी हम उन्हें पढेंगे, सूत्र वाक्यों की तरह, तो उनका वह अर्थ समय के साथ इस कदर बदल जायेगा कि आप उसके नये आलोक में फिर कोई अलग-अनूठा सत्य पा लेंगे.'

'तभी मनुष्य ख़त्म हो जाता है, शब्द जीवित रहते हैं.'

'हां, पर जिन्दा उन्हें मनुष्य ही रखता है. ये मनुष्य की चेतना में उतने ही सजीव रहते हैं, जितने उसके अनकांशयस या सबकांशयस में. दिखें न दिखें इनकी यात्रा मनुष्य की यात्रा से लम्बी है.'

'अगर मैं कहूँ, कहीं कोई मृत्यु नहीं है, पड़ाव है, हर जन्म अगली यात्रा के लिये, तो ?'

'वो भी एक यात्रा ही तो है. और अगर यात्रा है तो उसके अपने दुःख भी हैं, यातनायें भी, समझौते भी.'

'तो ये मनुष्य के मृत्यु भय का निवारण हैं, अगर एक अर्थ में मैं कहूँ.'

'इसे किसी और तरह से भी तो कहा जा सकता है.'

'कैसे?'

'ये मनुष्य के मृत्यु भय पर विजय हैं.'

'क्या इससे कोई फ़र्क पड़ता है ?'

'पड़ता है.'

'कैसे?'

'मृत्यु भय मनुष्य का क्षणिक सच हो सकता है, पर उसका चिरंतन सत्य तो मृत्यु पर विजय ही है.'

'पर प्रश्न फिर भी है कि मनुष्य की यातना के रास्ते में ये किस तरह उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं?'

'जब सारे रास्ते बंद हो चुकते हैं, तब अन्ततः शब्द ही मदद करते हैं हमारी. वहाँ अनंत रास्ते हैं, अनंत मंजिलें. चुनाव आपका है. कोई भी क्रांति हो, अस्तित्व में आने से पहले मनुष्य की चेतना में शब्द ही तो होते हैं. जमीन पर आने के बाद यही देह धारण करते हैं.'

'कहते हैं, कवि समाज को क्या देता है तो यहाँ सिर्फ़ कविता पर ही नहीं कवि पर भी प्रश्नचिन्ह है, आप इसके बारे में क्या कहना चाहते हैं?'

'कवि समाज को अपनी सोच देता है, अपने मूल्य देता है, एक नया संसार देता है. आय थिंक, तीन व्यक्ति एक धरातल पर साथ मिलते हैं...कवि, दार्शनिक और वैज्ञानिक. ये तीनों एक नये संसार का निर्माण करते हैं. संसार सिर्फ़ स्थूल ही तो नहीं है...जितना और जो दिखाई देता है, सिर्फ़ वही तो नहीं है. स्थूलता के परे क्या है? व्हाट इज़ लव ?इट्स ए जस्ट अनडिफाइंड एब्स्ट्रेक्ट....जिसे एक कवि भरता है, दार्शनिक भरता है....यही सृजन है वास्तव में.' यह वाक्य ही नहीं बहुत कुछ उन्होंने मेरी आँखों में देखते हुये कहा था. किसी-किसी वक्त मैं भूल जाती कि मैं उनसे इन्टरव्यू ले रही हूँ न कि हमारी पर्सनल बात है. फिर सामने रखा माइक मुझे अपनी ड्यूटी की याद दिला देता......

'सृजन आपकी नजर में ?'

'सृजन मुझे मानवीय और दिव्य एक साथ लगता है. वह काल, नश्वरता और द्वंद से मुक्ति है. आई राईट टू सेलीब्रेट....एक्सप्लोर ....लव...लैंगवेज़ एंड वर्ड. मैं उनके लिये लिखता हूँ, जिन्हें मैं प्रेम करता हूँ.'

'सबके लिये ऐसा हो, लगता नहीं.'

'पर मैं तो अपनी लगी की ही बात कर सकता हूँ.'

मुझे अचानक हंसी आ गयी. वे भी मुस्करा रहे थे.

पर सिर्फ़ इतना ही नहीं था एक घंटे के उस इन्टरव्यू में, जो अभी भी मेरे पास सुरक्षित है....और भी कई बातें थीं....आलोचना की स्थिति- उपस्थिति को लेकर फैलती निराशा, पुरस्कारों का छीजता सम्मान, संपादकों का घटता आदर, एक ही किस्म की रचनाओं की बाढ़...मूल प्रश्नों से भटकते विमर्श....

और अंत में मैं उनसे आग्रह करती हूँ वे अपनी कोई नई और पसंदीदा कविता पढ़ें...

'उससे पूछो

वह अब तक कहाँ थी

अब जबकि सबके घर जाने का वक्त आ चुका

बचा है तेल जरा सा इस दिये में

और अंत के बाद की उम्मीद

बचाया नहीं जा सका कुछ भी

बहुत कुछ की चाह में

उससे पूछो

क्या बचा सकती है वह...... '

उन्हें याद थी अपनी कविता और वे मेरी तरफ़ देखकर पढ़ रहे थे. रिकार्डिंग रूम में हम दोनों अकेले थे, उनकी वह आवाज़ मैंने बहुत ध्यान से सुनी थी. क्या था उस आवाज़ में? एक ख़ालिस दर्द...अपनी अपूर्णता पर गर्व...हार जाने का अभिमान ...मैंने खुद को उन्हें देखने दिया.

कविता समाप्त होने के बाद की ख़ामोशी. मैं जरा सा हडबडाई. शब्द अपना काम ख़त्म कर जा चुके थे और अब वहां मौन पसरा पड़ा था. बिना कुछ कहे मैंने रिसीवर ऑफ़ कर दिया. जो जिसकी आवाज़ से उदित होता है, अच्छा है, वह उसी की आवाज़ से खत्म हो.

हम दोनों उठते हैं. मैं उनके लिये रिकार्डिंग रूम का भारी दरवाज़ा खोलती हूँ. वे मानो अपने चेहरे पर कितना कुछ लिखा मिटाने की कोशिश में मेरी बगल से गुज़र जाते हैं, बगैर मुझे देखे. उस लम्बे गलियारे में हम ख़ामोश चल रहे थे.

आधे घंटे डायरेक्टर की ऑफिस में बैठने और काफ़ी पीने के बाद वे बाहर निकले. मैं इधर-उधर चहलकदमी करती हुई उनके बाहर आने की प्रतीक्षा कर रही थी. डेढ़ बज गया था, दो बजे लंच ब्रेक होता है एक घंटे का. यह एक घंटा उनसे बात करके कुछ ख़ुशी कमाई जा सकती है. उन्हें छोड़ने कुछ लोग बाहर आने लगे तो उन्होंने माफ़ी मांग ली, कहा, वे चले जायेंगे, वे उनके लिये परेशान न हों.

'मैं बाहर तक छोड़ आती हूँ.' मैंने नजदीक आकर कहा तो मेरी बॉस संतुष्टि से सिर हिलाती हुई भीतर चली गयी.

'तो आप मुझे बाहर तक छोड़ेंगी....' उनके जाने के बाद उन्होंने शरारत से मुझे देखा.

'अगर आप इज़ाज़त दें तो.'

'सब कुछ माँगा नहीं जाता, बस मौका मिले ले लो. सामने वाले को पता नहीं चलना चाहिये आपने क्या ले लिया.'

मैंने मुस्कराते हुये सिर हिलाया और हम साथ चलने लगे.

'बाहर छोड़ना....इसके साथ 'छोड़ना' शब्द कितना ख़तरनाक है. आप इसे मेरे साथ बाहर आना भी कह सकती हैं, कमअज़कम छोड़े जाने का अफ़सोस तो न होगा.'

'शब्द बदल देने के बाद आप नहीं जायेंगे?'

'जाऊँगा....पर इस तरह नहीं. वैसे मैं कहीं जाना नहीं चाहता. मैं अपने देवताओं के पड़ोस में रहना चाहता हूँ.' उन्होंने मेरी आँखों में देखते हुये कहा.

'देवताओं से पूछ लिया है?'

'आपको लगता है उन्हें ऐतराज होगा ?'

'ऐतराज? वे अपना राज्य ख़ाली कर जमीन पर चले आयेंगे.'

'फिर तो मैं जमीन की देवियों को वहां ले जाऊँगा, उनसे बचाते हुये.'

उनसे बात करना ऐसा ही था, वाक्य पर वाक्य बनते जाते...खुद ब खुद....अप्रयास....न चाहते हुये भी. इस पर हैरत होती.

'वैसे मैं आपसे कुछ पर्सनल पूछना चाहती थी, पर यह सोचकर रुक गयी कि शायद आप पसंद न करें.'

'बचता नहीं है एक कवि या कलाकार के जीवन में कुछ अनछुआ. सारा कुछ तो दे देता है वह अपनी कला को. जिसे दूसरे लोग बचाने की कोशिश भी करते होंगे, कवि वह भी नहीं बचा पाता. यकीन मानिये, ऐसा कुछ अगर है भी तो निरर्थक है इस वक्त. हर समय का सच अलग -अलग होता है.'

'ट्रुथ इज़ द आलवेज़ इन द फार्म ऑफ़ मेकिंग.' मैंने बीच में ही कहा तो वे हंस दिये.

'सच का अपना एक सौन्दर्यशास्त्र होता है....उसी के भीतर प्रेम उदित होता है.' मुझे गहरी नजरों से देखते हुये उन्होंने कहा.

मैंने उनकी आँखों में देखा और देखती रही....कुछ लम्हे गुज़र गये, मैंने अपनी आँखें परे कर लीं.

'आपके पास एक अच्छी भाषा है और दिलकश आवाज़. आप अपनी साँसों का इस्तेमाल बखूबी करती हैं.' उन्होंने ही जैसे बात बदलने के लिये कहा.

'इस्तेमाल करना हम सभी सीख जाते हैं, एक न एक दिन अपने हुनर का. पर भाषा मेरी नहीं...भाषा मैं खुद हूँ....और मैं इसे प्रेम करती हूँ.'

'ऐसी बातें सिर्फ़ एक कवि ही कह सकता है और मैं जानता हूँ, आप कवितायेँ लिखती हैं...'

'मैं उन बेवकूफों में से हूँ जो हर वक्त अपने आपसे अपने होने की वजह पूछते रहते हैं...हमारे भीतर से जो फूटता है, वे भी प्रश्न ही होते हैं, उत्तर नहीं..शक्ल उनकी कोई भी हो.' मैं हंस पड़ी.

'आप स्वयं एक प्रश्नचिन्ह भी हैं. मैं आपको देखता हूँ तो एक अजीब सी हैरत में डूब जाता हूँ, जैसे, हम मकानों के बीच से गुज़रते -गुज़रते एकाएक इतने खुले में आ जाते हैं कि यकीन करना मुश्किल होता है, यह इसी के आस-पास था.'

'आप मेरी हौसला अफजाई कर रहे हैं.' मैं मुस्करा दी.

'उसकी जरूरत आपको कहाँ है? आप तो अच्छों -अच्छों के हौसले तोड़ देती होंगी.' उन्होंने फिर शरारतन कहा तो हम हंस पड़े. फिर मैंने ही कहा....

'मेरे लिखने का कोई उद्देश्य नहीं, मैं सिर्फ़ अपने लिये लिखती हूँ. मेरे होने की वजहें मेरी ही हैं.....मेरी हंसी, मेरा दुःख, मेरी कविता, मेरा प्रेम. मुझे लगता है, हम सब अगर सिर्फ़ अपनी -अपनी दुनिया ही उजरा सकें......'

'आप खुद से बहुत प्रेम करती हैं.' वे मुझे इस तरह देख रहे हैं कि मेरे चेहरे का रेशा -रेशा उनकी पकड़ में आ जाये.

'नहीं करना चाहिये ?' खुद से तो पता नहीं पर जिससे करती हूँ, उसे प्रेम करना खुद को ही प्रेम करने जैसा है, मैंने सोचा.

'मैंने ये नहीं कहा, सिर्फ़ पूछा.'

'हां, मैं खुद से प्रेम करती हूँ और मेरे इस घेरे में जो भी आता है, उससे. खुद से प्रेम किये बिना आप दूसरे से नहीं कर सकते.'

'खुद से ज्यादा भी तो नहीं कर सकते.'

'ऐसी मांग कम भरोसे वाले करते हैं.'

अधिक भरोसे वाले क्या करते हैं?'

'वे कोई मांग नहीं करते.'

'उनका काम कैसे चलता है?'

'ये तो उन्हीं से पूछना पड़ेगा...' मैं टाल गयी.

'एड्रेस ? फ़ोन नंबर ?'उनके चेहरे पर शरारत है. हम हंसने लगते हैं.

'आपको कहा नहीं कभी किसी ने ?' हंसी के बीच ही उनकी आवाज़ आई.

'क्या ?'

'आपको देखते ही युद्धभूमि में खड़े सैनिक के शस्त्र छूट जाते हैं उसके हाथ से. आपके क़दमों में तो न जाने कितने दिलों के साम्राज्य पड़े होंगे, नहीं ?'

'कदर नहीं होती उसकी जो चीज़ आसानी से मिल जाये. क्या करुँगी वे साम्राज्य...जिन्हें छूने की चाह मेरे भीतर से न उठे.'

'आपको क्या चाहिये?' वे बहुत धीरे -धीरे चल रहे हैं, मैं भी.

'क्या ये बताना इतना आसान है ?'

'कोशिश करके देखिये. कभी हम कह नहीं पाते पर कम्यूनिकेट हो जाते हैं.'

'मुझे नहीं पता.'

'ओ...कम ऑन....बताने से आपका कुछ कम नहीं होगा, दूसरे को रास्ता मिल जायेगा.'

'आप आलरेडी एक रास्ते पर चल रहे हैं.' मैंने उनकी तरफ़ देखते हुये कहा.

'तो? रास्ता कोई मेरी देह थोड़े ही है जिसे मैं बदल न सकूँ. वैसे तो मैं इसे भी बदलने को तैयार हूँ.'

मैं हंस पड़ी, कहा कुछ नहीं.

'वैसे आप नहीं होंगी इस बात के लिये तैयार ?'

'नहीं...' मैंने शोख़ आवाज़ में कहा.

'वजह ?'

'मैंने इस पर बहुत मेहनत की है. अब दुबारा नहीं कर सकती.'

हम दोनों हंस दिये. चलते हुये उनकी कार तक आ ही गये आख़िर. दूर खड़ा ड्रायवर हमें देखते ही लपकता चला आया.

'आप चलेंगी तो मैं आपको घर छोड़ दूंगा. इस बहाने आपका घर देख लूँगा.'

'मेरी ड्यूटी शाम छः बजे तक है. डिनर पर हम ग्रीन हाउस में मिल रहे हैं. कार्ड मेरे पास है ही. वैसे भी जब तक मीडिया वाले न आ जायें, कुछ शुरू नहीं होता.' मैंने मुस्कराते हुये कहा.

'आप जब तक नहीं आयेंगी, कुछ शुरू नहीं होगा.'

वे झुके और कार में बैठ गये. कार सरकती हुई आगे चली गयी.

शहर से पचास किलोमीटर दूर 'सिंघानिया ग्रीन हाउस' में डिनर का आयोजन किया गया था. समस्त साहित्यकारों और कुछ गणमान्य नागरिकों के लिये. यह आयोजन बाहर से आये साहित्यकारों के स्वागत में है. समूचा माहौल सुन्दर और रोमांटिक है...पैरों के नीचे गुदगुदी-कटी सजी हरी-गीली घास...आसपास ठंडी हवा में झूमते किस्म -किस्म के पेड़...पेड़ों पर लगी रंगीन बल्बों की झालरें...अलग-अलग रंगों के छोटे -छोटे बल्ब, अलग-अलग वक्त पर जलते-बुझते जैसे कोई मायाजाल रच रहे हों. चौंक कर देखा होगा पेड़ों ने भी कि क्या हो गया? कौन चला आया हमारे बियाबान में बिना बताये? मनुष्य सबको हैरान करता है, खुद को भी. कुछ दूरी पर सुन्दर सी काटेज. दूर-दूर तक फैली हरियाली अँधेरे में घुल-मिल गयी है. बहुत दूर से देखो तो पता ही नहीं चलता, हकीक़त क्या है, फ़साना क्या? मुझे अपने इस ख्याल पर हंसी आती है, जैसे पास से देखने पर मैं जान ही जाती.

खाने के दस-बारह स्टाल सजे हैं, जरा-जरा सी दूरी पर. कुछ वेटर कोल्डड्रिंक सर्व कर रहे हैं. वे मुझसे दूर अन्य साहित्यकारों से बातचीत में मशगूल दिखने का अभिनय कर रहे हैं. जरा -जरा सी देर में वे मेरी तरफ़ देख लेते हैं या किसी वक्त चलते हुये दूर निकल जाते हैं तो फिर आसपास आ जाते हैं. मैं भी अपने ग्रुप के साथ कोल्डड्रिंक पीते हुये बतिया रही हूँ. डिनर के बाद कविताओं का प्रोग्राम होगा, हमने रिकार्डिंग की पूरी तैयारी कर ली है.

'चिराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है

उन्हीं को ढूंढ के लाओ, बहुत अँधेरा है.'

मोहम्मद रफ़ी का रिकार्ड बज रहा है. उसे सुनती हुई मैं अपने कलीग्स के बीच बैठी हूँ....उनकी रोजमर्रा की बातों से उबी हुई.....अनायास देखा...धीरे -धीरे लगभग सारे साहित्यकार उस काटेज की तरफ़ जा रहे हैं. मैंने मुड़कर अपनी कुलीग को देखा तो उसने हाथ से गिलास का शेप बनाया और होठों तक ले गयी फिर अभिनय करती हुई मेरे कंधे तक ढलक आई. मैं समझ गयी. वैसे तो आज मुझे भी किसी नशे की जरूरत है. मैं समझ नहीं पा रही अपनी हालत....कितने चैन से मैं जी रही थी...तो क्या वह चैन था? पता नहीं, पर दिखता तो था.

घंटे भर बाद जब सारे बाहर निकले, तब तक स्टाल पर सजी डिसेस के नीचे लगे छोटे -छोटे स्टोव जलने लगे थे. यह मध्य अक्टूबर की एक सिहरती रात है, जब जी करता है, कुछ न कहा जाये, बस चुप रहा जाये. हवा के झोंकों के साथ अजीब सी महक आ रही है...घास की या मिले -जुले पत्तों की, पता नहीं. इस सारी चहल -पहल से दूर सीमेंट की एक बेंच पर बैठी थी कि पीछे से किसी ने कंधे को छुआ भर......

'यहाँ क्या कर रही हैं ?' मैं ठीक थी, वे ही थे.

'प्रतीक्षा.' मैंने उठते हुये उन्हें देखा. शायद ज्यादा पीने की वजह से उनके गाल लाल से दिख रहे हैं....कान की लवें भी....आँखें जैसे किसी अद्रश्य आग में सुलग रही हों.

हम सब के भीतर कुछ न कुछ सदैव जलता रहता है....और अगर हम चाहते हैं कि ये यूँ ही जलता रहे, बुझे न क्योंकि इसका बुझना अपना भी तो बुझना है ....तो इसकी आग में हर दिन कुछ न कुछ डालना होगा ही, कुछ भी....कामनायें, प्रेम, यातना, उदासी...कुछ भी.

'मेरी तो नहीं...?' उन्होंने अपनी सुलगती आँखें मेरे चेहरे पर गडा दीं.

जल सकता था मेरा चेहरा, खुद मैं, पर हुआ मात्र इतना कि भीतर रखी बर्फ़ की सिल उतनी कठोर नहीं रही...ऊँगली से छू दो तो ऊँगली गीली हो जाये....इसके पहले तो....

'मुझे लगता है, हम सब कुछ न कुछ होने की, कुछ न कुछ घटने की प्रतीक्षा करते रहते हैं. हमें लगता है कुछ होगा और यकबयक समूचा जीवन बदल जायेगा, हम कुछ और हो जायेंगे.'

'और वह कभी नहीं होता.' उन्होंने बेंच पर बैठते हुये मेरी बांह पकड़ ली, कहा....'बैठो.'

'चलिये वाक् करते हैं. ये रास्ता गोल है, वापस यहीं ले आयेगा.'

'वैसे तो सारे रास्ते वहीँ ले आते हैं....जैसे पांच बरस लम्बा रास्ता...नहीं ?'

वे खड़े हो गये. हम उस आधे अँधेरे, आधे उजाले में बिछे, पेड़ों से ढंके रास्ते पर चलने लगे.....

'आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया?' उनकी छूटी हुई उँगलियाँ फिर मेरे हाथ पर कस गयीं.

होता है कभी -कभी...पर प्रतीक्षित की तरह नहीं, किसी और तरीके से...' उन्हें देखते हुये मैं मुस्करा दी.

'एक दिन मैं तुम्हें बताउंगी

तुम्हारी स्वप्नीली उत्पत्ति के बारे में

एक दिन मैं तुम्हें बताउंगी

तुम कैसे जन्मते हो हर रोज़ मेरे भीतर

किसी और तरीके से............'

उन्होंने मेरी ही कविता की लाइनें मुझे हतप्रभ करते हुये पढ़ीं...अपनी भारी बोझिल सुरूर में डूबी आवाज़ में. समूची गहमागहमी से दूर उस ठंडी रात में उनकी आवाज़ रुई के फाहों सी मेरे ऊपर झरती रही. कैसे एक वक्त का सच दूसरे वक्त के झूठ में बदल जाता है? जिसके लिये यह लिखी थी, उसने मेरे भीतर हर रोज़ जन्म लेना छोड़ दिया था या हर रोज़ मैंने गर्भ धारण करना. इसे मैं इस वक्त खुद भी नहीं समझना चाहती. मेरा हाथ अभी भी उनके हाथ में है और हम ख़ामोश चल रहे हैं. मैंने अपना हाथ खींचने की कोशिश की तो उन्होंने अपने हाथ उस पर कस लिये.....

'इसका कुछ और अर्थ न लीजियेगा प्लीज़....ये मात्र शब्द हैं.'

मैंने स्थिर आवाज़ में कहना चाहा पर मेरी आवाज़ भी काँप गयी मेरी देह की तरह.

उस क्षण पहली बार जाना, आवाज़ की भी एक देह होती है...हमारी देह से स्वतंत्र ....हमारी देह से जन्म लेते ही वह अपना वजूद खुद रच लेती है. मिलते हैं इसके नाक- नक्श हमारी देह से पर कोई बहुत जरूरी भी नहीं. कभी -कभी उसकी देह हमारी देह के बिलकुल विपरीत दिखाई देती है, हैरत होती है उसका रूप देखकर.....

'स्वतंत्र हूँ मैं किसी भी शब्द का कोई भी अर्थ लेने में....स्वतंत्र हूँ मैं तुम्हारा अस्तित्व अपने अस्तित्व में महसूसने में....तुम इसे मेरा दुस्साहस समझना चाहो तो समझो, मैं इसे अपनी जिद मानता हूँ.'

उनका आवेश देख मेरी तीनों देहें काँप गयीं.

'प्लीज़, बचपना नहीं, मेरा हाथ छोड़िये, मैं चली जाऊँगी.'

'अच्छा, हाथ छोड़ता हूँ, जिद नहीं...' उन्होंने एक झटके से मेरा हाथ हवा में उठा छोड़ दिया.

मुझे उनके इस पागलपन पर गुस्सा भी आया और हंसी भी.

'आपके लिये यह फन होगा, मेरे लिये नहीं....इसका मतलब ?'

'अगर प्रेम फन है तो मैं यह फन जीना चाहता हूँ. अगर यह अहसास है, अगर यह जोखिम है, साहस है, क्षणभंगुर है...जो भी यह है, जो भी यह हो सकता है.....मैं इसे एक बार जीना चाहता हूँ.'

वे अपने भीतरी आवेश और नशे में समूचे कांप रहे थे....हवा की मार से घायल उस दरख़्त की तरह...जो अपने वजूद को स्थिर रखने की बेहिस चाह के बावजूद पूरा का पूरा लड़खड़ाता चला जाता है.

'एक बात और.....वे लोग महान होंगे जो जीवन में सिर्फ़ एक बार प्रेम करते हैं, जिनका काम सिर्फ़ अपनी पत्नी से चल जाता है, जिनको दूसरों का संसार अपनी तरफ़ खींचता नहीं...जिन्हें दुनिया की असहनीय खूबसूरती बार -बार पागल नहीं बनाती.....जो..... मैं उनमें से नहीं हूँ.'

'इसका मतलब.....'मैंने कहना शुरू किया ही था कि किन्हीं क़दमों की आहट सुनाई दी और आपस में बातें करने की. दो लोग इधर ही आ रहे हैं, शायद हमें बुलाने. अपनी लम्बाई के चलते मैंने दो कदम आगे बढ़कर उन्हें आड़ दे दी, ताकि वे खुद को संभाल सकें. मेरा चेहरा आगुन्तकों की तरफ़ है और वे हमें इशारे से बुला रहे हैं. मैंने भी उन्हें अपने आने का इशारा दिया, वे लौटने लगे. मुझे पता है, हम दोनों का यूँ तन्हा घूमना न जाने कितने किस्से बनायेगा, जो उनके जाने के बाद भी इस शहर की हवा में चक्कर काटते रहेंगे....सूखे पत्तों की तरह बेमतलब...कभी छतों, कभी टूटी दीवारों, कभी आंगनों में गिरे हुये...जिन्हें कोई भी रौंद सकता है. तो? पत्तों का संसार यह नहीं, वह है जब वे शाख पर लगे होते हैं, अपनी पूरी जिजीविषा और वैभव के साथ. एक दिन मर जायेंगे सोचकर वे जीना नहीं छोड़ देते. मैंने अपने सिर से सारे विचार झटक दिये.

हम दोनों वापस आ रहे हैं....अपने-अपने अंधेरों से रौशनी की ओर. मैंने उनका चेहरा देखने की कोशिश नहीं की, न कुछ कहने की. यह वे लम्हे हो सकते थे, जब वे अकेला छोड़ दिया जाना चाहें.

इस तरफ़ शोर है, आवाज़ें हैं, प्लेयर पर लतामंगेशकर के पुराने गानों की धुन है....

'कुछ दिल ने कहा....कुछ भी नहीं

कुछ दिल ने सुना....कुछ भी नहीं

ऐसे भी बातें होती हैं

ऐसे ही बातें होती हैं.....'

मैं अपने भीतर उठते राग की आदिम धुन पर पैर रख इधर-उधर देख रही हूँ कि मेरी कलीग ने एक ख़ाली प्लेट मेरे हाथ में थमा दी और मुझे खींचकर लाइन में लगा दिया. सबके साथ मैं भी आगे सरकने लगी और इस वक्त से उस वक्त तक पहुँच गई, जब वे अपनी प्लेट अपने हाथों में लिये मुझे खोजते मेरे पास चले आये हैं.....

पिछले कुछ लम्हों की बनिस्बत अब वे काफ़ी सहज दिख रहे हैं. फिर भी क्षणों के तूफ़ान के गुजरने के चिन्ह तो अभी हैं ही. चाहे अशांति को ढंकती शांति की शक्ल में हों....

'कुछ लोग अपने बारे में कितनी तन्मयता से बातें करते हैं...' उन्होंने किसी की तरफ़ कहते हुये कहना शुरू किया.....

'मानो उनके जीवन में कितना कुछ है, जिसमें किसी दूसरे को दिलचस्पी हो सकती है.'

और अगले ही क्षण उनके चेहरे और आँखों में दूसरा ही रंग आ गया.....

'सच तो यह है जब तक आदमी के भीतर प्रेम का उदय नहीं होता, तब तक सब कुछ निरर्थक है और वह यह बात जानता है.' अब उन्होंने सीधे मेरी आँखों में देखा.....

'प्रेम दरअसल रौशनी का एक सैलाब है, इसके सामने बहुत देर तक खड़ा नहीं रहा जा सकता, क्यों ?'

मैं हंसती हूँ....पीछे हटती हुई, मैं नहीं चाहती हमारी बातें किन्हीं और कानों तक पहुंचे. पता नहीं अभी वे यह सब समझने की हालत में हैं या नहीं. शायद हैं, तभी मेरे साथ चलते हुये सुरक्षित कोने में आ जाते हैं.

'फिर तो प्रेम स्मृतियों में ही जिया जायेगा, क्योंकि जब -जब यह सैलाब हम तक आयेगा, हमारे पैर उखड जायेंगे.' मैंने माहौल को हल्का बनाये रखने के लिये कहा.

'और क्या? इतनी ताब इंसान में कहाँ कि वह सारी उम्र इस हरहराते समंदर के मध्य खड़ा रह सके. उसे तो किनारे पर पैर डुबोकर, बैठकर या बीतती उम्र की यादों की मूंगफलियां छीलकर खाते हुये ही संतोष करना पड़ता है.'

'जिनमें साहस नहीं होता, वही ऐसी बातें करते हैं.' मैंने तंज में कहा.

'तो आपका क्या ख्याल है?'

'यह समंदर में डुबकी नहीं, समन्दर में खो जाना है, समंदर ही हो जाना है. बाकी जो बचता है, वह बकौल आपके मूंगफली के छिलके ही हैं.'

'आय लव टु टाक टु यू....' उनकी साँसें और आवाज़ दोनों भारी हो गयी.

मैंने कुछ नहीं कहा, उन्हें देखती रही.

'तुम्हें देखते ही भीतर कुछ उगता है, तुम नसों में जुनून भर देती हो, पैशन. तुम प्रेम की एक ऐसी लहर हो, जिसकी चाह खुद समंदर को है, इसके बिना अधूरा है वह....'

मैंने अभी भी उन्हें कुछ नहीं कहा, बस उन्हें देखती रही.

'पांच साल के बाद आया हूँ मैं यहाँ...लांग-लांग फाइव ईयर्स. तुम बिल्कुल वैसी हो, समय ने तुम्हें छुआ तक नहीं है.'

'मेरा समय के साथ एक करार है.' मैंने हंसी में कहा.

'कैसा करार?'

'जिस दिन वह मुझे छू लेगा, मैं स्वयं को उसमें मर्ज कर लूंगी.'

'क्या मैं समय नहीं हो सकता ?'

'होना चाहेंगे ?' मेरी आवाज़ में अभी भी हंसी है.

'जिस -जिस भेस में तुम मुझे पुकारोगी, उस -उस भेस में मैं दौड़ा चला आऊंगा....नियति के आँगन से उठकर तुम्हारी ओर आता हुआ...भोर के तारे सा टूटकर तुम्हारी झोली में गिरता हुआ या दरख़्त के पत्तों सा तुम पर झरता हुआ....देवताओं के पड़ोस को छोड़कर मैं तुममें रहना चाहूँगा...शर्त यही है कि तुम मुझे पुकार लो.'

'तौबा.....' उस आग से खेलते -खेलते मैं स्वयं काँप गयी.

'शब्दों के जादूगर हैं आप...' मैंने मुस्कराकर माहौल को हल्का बनाने की व्यर्थ कोशिश की.

'जी करता है, तुम्हारी दिगम्बर देह को मैं शब्दों से ढांप दूँ....तुम साड़ी पहन लो शब्दों की.'

मेरा चेहरा लाल हो गया....'शब्दों में इतना साहस कहाँ कि दिगम्बर देह का सच झेल सकें...वे तो उसे छूते ही भक से जल उठेंगे सूखे पत्तों की तरह.' मैंने तीखी आवाज़ में कहा और प्लेट रखने के बहाने मुड़कर दूर चली गयी.

एक पेड़ के समीप पहुंची...झुककर अपनी प्लेट रखी और कुछ पल वैसे ही खड़ी रही...मेरी जबान पर कुछ तिक्त सा स्वाद था. मुझे पानी की तलब महसूस होने लगी....

मुड़ी तो महज एक मीटर के फासले पर वे मुझे अपनी ओर आते दिखे...मैंने इधर -उधर देखा... काफ़ी लोग खाने में मशगूल थे तो कुछ हम दोनों की लुकाछिपी भी देख रहे थे, छिपी-छिपी नज़रों से...अब ?वे मेरे सामने आकर खड़े हो गये ...

'अपने दोस्तों के साथ रहिये, वरना....' मेरी आवाज़ में मुस्कान भर आई.

'वरना....तुम मुझे ले जाओगी...'उन्होंने भी सहज ढंग से मजाक करते हुये कहा.

'वरना....वे कहेंगे, मैं आपको ले गयी. उधर देखिये, आधे लोग हमें ही देख रहे हैं...'

'देना चाहिये लोगों को बातें करने का अवसर...बेचारों की जिंदगी में और होता ही क्या है? तुम मानो या न मानो वे तो आते ही ऐसी तलाश में हैं कि कुछ मिल जाये....अगले कुछ दिनों के लिये...'

वे भी अब हल्के -फुल्के मूड की तरफ़ लौट रहे हैं. उनके हाथों में अभी भी उनकी प्लेट है. वे मुझे कुछ खाते हुये नहीं कुछ चुगते हुये दिख रहे हैं. हो सकता है, मुझे रोके रखने का ये महज एक बहाना हो.

'तो दो किस्म के लोग होते हैं. वे जो जीते हैं, दूसरे वे जो दूसरों को जीते हुये देखते हैं और उनकी बाबत अच्छी या बुरी बातें करके खुद को संतुष्ट करते हैं.'

बातें दूसरों की ओर मुड़ गयी हैं और अब मैं आराम से बातें कर सकती हूँ.

'दैट्स राईट. महत्वपूर्ण यह है मेरे लिये कि तुम खुद किनमें से हो ?'

'ये तो मुझसे बेहतर आप बतायेंगे.'

'मैं क्यों?'

'कोई लड़की अगर सुन्दर भी हो लोग उसकी बाबत नतीजे खुद ही निकाल लेते हैं, उससे पूछने की जरूरत नहीं समझते.'

'मैं तुमसे पूछता हूँ....' उन्होंने चम्मच प्लेट में छोड़ते हुये अचानक अपना चेहरा आगे किया...अपने एक हाथ से मेरी बांह पर दस्तक देते हुये नीची मगर दृढ आवाज़ में कहा...

'हलो...लिसिन....हू इज़ देयर? नो बडी? मे आय कम इन...इनसाइड ...हलो?'

ये सब इतना अचानक और इस तरह हुआ कि मैं सकपकाकर पीछे हट गयी. मेरी कनपटियों पर कुछ जोर -जोर से बजने लगा....चेहरा पसीने से नहा गया...अनियंत्रित साँसों को संभालते हुये मैंने अपना चेहरा मोड़ा और दूर चली गयी. चलते हुये मेरे कदम लड़खड़ा रहे थे. चलते हुये मैं वहां पहुंची जहाँ ठन्डे पानी की व्यवस्था थी. यह क्या मज़ाक था ?किसी ने देखा होगा तो? देखा ही होगा, मैं ठन्डे पानी से अपना चेहरा धोती रही. पर सिर्फ़ इतना ही नहीं था ठन्डे पानी से अपना चेहरा धोते समय, मैंने जाना....इस सबको परे ठेलती एक और भी आवाज़ थी, जिसे सुनने को मैं कतई तैयार नहीं थी.

तभी देखा, दूर से मेरी कलीग आ रही है. वह आकर मेरे सामने खड़ी हो गयी, सख्त निगाहों से मुझे देखती...मैं चुपचाप पर्स से रूमाल निकाल अपना चेहरा पोंछती रही.

'और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा....चलें?' उसने व्यंग से कहा. मैं सिर हिलाते हुये उसके साथ चल पड़ी.

'सिर्फ़ एक लम्हा फूंकना

तुम मेरी सांस में सांस

मुझे जीवित कर देना

सिर्फ़ एक लम्हा

निहारना मेरी तरफ़

मुझमें पंख उगा देना

सिर्फ़ एक लम्हा

तुम मुझे देना शब्द एक

मुझे कालजयी बना देना.'

वे कविता पढ़ रहे हैं. नहीं, वे कविता नहीं पढ़ रहे, वे कुछ कह रहे हैं. नहीं, वे कुछ कह नहीं रहे, वे मुझसे कुछ पूछ रहे हैं...वे कुछ देख रहे हैं मुझमें....वे कुछ खोज रहे हैं. हमें क्या पता, कौन सी चीज़ कहाँ पड़ी है....कोई आता है, खोजता है, पता नहीं क्या -क्या मिल जाता है उसे? अब कोई इनसे पूछे जरा, तुम तो चले जाओगे कल .....ये जो जरा सा ले जा रहे हो, जरा सा दे जा रहे हो, कौन रखेगा उसका हिसाब?

स्टेज की तरफ़ जाते मेरे पैर लड़खड़ा गये....और मैं वहीँ ठिठकी खड़ी वह पूरी कविता सुनती रही. आवाज़ का रेशमी रेशा मेरे सामने इसलिये भी साफ़ था कि मैं उस भारी -भरकम काले स्पीकर की बगल में खड़ी निस्पंद सी मंच की ओर ताके जा रही हूँ. शायद दसेक कवि हैं...सफ़ेद चादरों पर बैठे...उनके पीछे लोकल संस्था का बैनर. माइक उनके सामने है और मेरे सामने वे...न सिर्फ़ वे....उनके शब्दों में आकार लेती हरियाली, घास पर टिकी ओस की बूंद, कुपित देवताओं का षडयंत्र....चट्टान की दरार से झांकता किसलय...उम्मीद के पार उठा एक झिझकता कदम...हजारों रंग बदलता आसमान. मनुष्य करोंड़ों कथायें रोज रचता है जिस प्रकृति की स्तुति में...वह हर क्षण अपना रूप बदलती है. जो तुमने अभी कहा, वह नहीं है. वह भी नहीं, जो तुम कहने वाले हो. न वह, जो आने वाले दिनों में कहोगे. प्रेम, प्रकृति और सत्य...क्या इनकी बाबत कुछ भी कहा जा सकता है?

मेरी आँखें समूचे स्टेज से गुजरती हुई उन्हीं पर आकर रुक गयी हैं. उनकी आँखें अपनी डायरी या पेपर जो भी उनके हाथ में है, पर टिकी हुई हैं. बीच -बीच में वे रुकते हैं, जब उनकी किसी लाइन या शब्द पर कोई 'वाह' कहता है या श्रोताओं में से एक हल्का सा शोर उठता है...कभी तालियों की गडगडाहट ....कभी दाद. मैं अपने होने की आहट को कम करती हुई स्पीकर की बगल में रखी कुर्सी पर बैठ जाती हूँ. पन्नों की सरसराहट ....वे अपनी अगली कविता पढ़ रहे हैं.....शब्द मेरे भीतर के अंधेरों में फुलझड़ियों की तरह फूटते हैं या दीपावली में जलते किसी अनार की तरह....इतनी रौशनी...इतनी कि तुम कुछ नहीं कर सकते....घुटने टेक देते हो.

स्टेज की बायीं तरफ़ रिकार्डिंग चल रही है. मेरे पैरों में इतनी ताकत नहीं है कि वहां तक पहुंचूं.

'हम बिल्कुल उसी तरह रहेंगे तुम्हारी स्मृति में

जैसे देह गंध / रति के बाद / रहती है अपने साथ.....'

जिस वक्त तुम्हें किसी की बहुत -बहुत जरूरत होती है, हर लम्हा, तुम्हारी देह, तुम्हारे मन को छीलता, उन्हें टुकड़े- टुकड़े करता गुज़रता है...वह तुम्हें नहीं मिलता. समंदर की उत्ताल लहरें तुम्हारी दीवारों से टकरा -टकरा कर तोड़ देती हैं तुम्हें और तुम तक़रीबन सारी उम्र उन टूटी दीवारों के सामने खड़े एक साबित घर की टूटी कल्पना को देखते रह जाते हो.

उन्होंने लगभग ग्यारह कवितायेँ पढ़ी छोटी -छोटी...आसपास के हल्के शोर से ऊपर उनकी आवाज़ किसी नदी में छोटी नाव की तरह तैर रही है. कविता की पतवार से उसे खेते हुये आहिस्ता -आहिस्ता वे मेरे निकट आ रहे हैं. मैं अपनी आँखों के पानियों में गले -गले तक डूबी किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रही हूँ....पर नहीं होतीं अनहोनियाँ इस तरह....होनियाँ ही नहीं होतीं जहाँ...जहाँ कभी कुछ नहीं होता. जी करता है किसी कंधे से लग जोर -जोर से रोऊँ. कहाँ है वह सख्त बर्फ़ की सिल्ली..जिसे इतनी मुश्किलों से जमाया था मैंने. अपने आपको पूरा ठंडा करके. कमाल है, कुछ शब्दों की गर्मी क्या उसे इस कदर पिघला सकती है?

वे जाकर अपनी जगह पर बैठ गये हैं. मैं ऐसे कोण पर खड़ी हूँ, जहाँ से वे मुझे आसानी से नहीं देख सकते. उनकी आँखें एक बार भटककर वापस लौट गईं. उनके बाद लगभग सभी ने कवितायेँ पढ़ी पर वे जो जादू रच चुके थे, उसका असर कोई कम नहीं कर पाया. दो घंटे का वह कार्यक्रम काफ़ी अच्छा रहा. प्रेस वालों के कैमरे के फ़्लैश लगातार चमकते रहे. कल के न्यूज़पेपर्स में इन सारों के इन्टरव्यू छपेंगे....वही -वही बातें...घटित के पन्ने सभी बांच लेंगे...अघटित के पन्ने कौन बांचेगा ?

और फिर जैसे कि हर चीज़ अंत की ओर जाती है, वह भी अपने अंत पर पहुंचकर ख़त्म हो गया.

हम सबने सामान समेटा...जाने की हड़बड़ी करने लगे....वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे और मुझे लग रहा था बिना मिले जाना पड़ेगा. आज उनके सारे कार्यक्रम ख़त्म हो गये. कल वे जायेंगे, शायद दुपहर की किसी ट्रेन से...वापस दिल्ली.

बिना उनसे मिले आख़िर हम सब अपनी -अपनी गाड़ियों में घर की ओर रवाना हो गये. रास्ते में ही मोबाईल पर उनका मैसेज आया...टुमारो... 12' ओ क्लाक, इन शताब्दी, प्लीज़ कम.

मुझे जाना था, मैं गयी.

नहीं वे अकेले नहीं थे, दस-बारह लोगों से घिरे थे. स्टेशन की भीड़ को चीरती जब मैं उन तक पहुंची तो उन्होंने हैरान होने का अभिनय किया...

'आइये-आइये. मुझे लगा, आप नहीं आयेंगी.'

'काश! हम जो करना चाहते हैं, कर पाते.' मैंने मजाक करना चाहा पर सबकी उपस्थिति की वजह से ख़ामोश रही. पर आज मैं करुँगी अपने मन की. मेरे भीतर यह किसकी आवाज़ है? कौन है वो, जो रात भर जागती रही थी किसी नई सुबह की प्रतीक्षा में.

उन्होंने दूसरों से हो रही अपनी अधूरी बातों का सूत्र पकड़ा...मानो मेरा बस वहां खड़े रहना ही उनकी तसल्ली हो. कुछ लोगों के हाथों में उस दिन के न्यूज़पेपर्स थे, लगभग सभी में उनकी उपस्थिति दर्ज थी. कभी पूछूंगी उनसे, कितना बचाते हैं वे खुद को, कितना बताते हैं? पर जब तक वह वक्त आयेगा, सारे प्रश्न ही झर जायेंगे. अच्छा है, यह वक्त भी ख़ामोशी से गुज़र जाये और मैं कुछ कहने-सुनने से बची रहूँ.

तभी धड़धड़ाती हुई ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर रुकी और यात्रियों में भागादौड़ी मच गयी...दिल्ली जाने वालों में वे अकेले थे. कुछ को भोपाल जाना था, कुछ को कहीं और. उनकी सीट पर उनका सामान और न्यूज़पेपर्स के पुलिंदे रख दिये गये. उन्होंने काफ़ी तत्परता से सबको विदा किया. वे सब मुझे बड़ी अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते हुये उतर गये. उनके चेहरों पर क्रूर मुस्कान है...दूसरों की हंसी उड़ाती हुई...दूसरों को अपमानित और शर्मिंदा करती हुई. मुझे पता था, यही होगा. मैं नहीं आती, एक मैसेज कर देती पर नहीं, दूसरों के डर से मैं अपनी निगाहों में अकृतज्ञ नहीं हो सकती.

मैं उनके सामने वाली बर्थ पर बैठी हूँ. ए.सी. टू टायर की वजह से भी भीड़ काफ़ी कम है. आख़िरी कुछ मिनट्स और हैं...पता नहीं कितने? उन्होंने बैठते -बैठते परदे की आड़ बना ली और अब मैंने बगैर हडबडाहट के उनकी ओर देखा....

'थैंक्स...' उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर अपने होठों से छुआ और चूम लिया. उनकी आँखें बेतरह उदास हो आईं थीं.

'फार व्हाट?' आंसुओं की अचानक आई बाढ़ से खुद को बचाया मैंने, फिर भी गला रुंध ही गया. कभी -कभी भीतर बहता पानी बाहर भी बहने के रास्ते खोज लेता है.

'उस सबके लिये जो तुमने मुझे दिया और उस सब के लिये भी जो तुम मुझे नहीं दे सकीं...पर मैंने कुछ न कुछ ले ही लिया...और देखो, मैंने अपनी जिद अभी छोड़ी नहीं है.'

भावावेश में उनकी आवाज़ काँप रही है. मेरा हाथ अभी भी उनके गर्म और गीले हाथों में है.

'थैंक्स टु यू.' आंसुओं को पीछे धकेलती हुई मैं मुस्कराई.

उन्होंने कहा कुछ नहीं, मेरी आँखों में देखते रहे.

'आपने सख्ती से बंद मेरे दरवाज़े खोल दिये, अब मैं खुद से बाहर निकल सकती हूँ, अपने इगो से.'

'मैं समझा नहीं.' उनके चेहरे पर हैरानी उतर आई.

'आपने कहा था न, जहाँ से मिले, ले लो. मैंने ले ली यह समझ कि प्रेम जो हम पर ब्लिस की तरह बरसता है...इसे किसी भी कीमत पर मत खोओ...अपने इगो की कीमत पर तो हरगिज नहीं. ब्लिस इज़ द एक्सपीरियंस....ब्लिस इज़ नाट ए वर्ड ओनली...फार मी....'

'मुझे इसका मतलब समझाओगी ?'

'फिर कभी.' मैं उठी ....आज मैं जल्दी में हूँ. मैंने उनके हाथों से अपना हाथ अलग किया...एक आख़िरी थपकी दी उनके हाथों पर....

'रियली थैंक्स.'

इससे पहले वे कुछ कहें, परदा हटा के बाहर आ गयी. फिर नीचे....फिर रास्ते पर...किस रास्ते पर? जिस पर जाना तो बहुत पहले था...पर जा नहीं सकी थी...और कितनी देर करुँगी मैं ?

एक बार फिर मेरी गाड़ी जानी -पहचानी सड़कों पर दौड़ रही है...कितना वक्त हो गया हमें एक -दूसरे से रूठे हुये...एक -दूसरे को मनाये हुये...पुकारे हुये..एक -दूसरे को जिये हुये. क्या हो जाता है कभी -कभी कि हम अपने भीतर के सच से आँखें चुराने लगते हैं...और फिर कैसे किसी और के बहाने मेरा अपना सत्य अनावृत हो गया.

हो सकता है, घर पर न हों, फिर भी जाऊँगी एक बार, यह पल लौटाया नहीं जा सकता.

मेरी गाड़ी सीधे उनके घर के सामने रुकी, दरवाज़ा सदैव की तरह उढ़का हुआ ...वे बंद नहीं करते...फिर भी मैं बिना खटखटाये कभी भीतर नहीं गयी...मैंने खटखटाया ...बहुत-बहुत वक्त बाद.....

'हू'ज़ दैट ?' भीतर से वही आवाज़ आई, जिसे सुनने को मैं हमेशा आते -जाते लम्हे के बीच पाँव फंसाकर खड़ी हो जाती हूँ....

'मे आय कम इन ?'

 

जया जादवानी - परिचय

रायपुर, छत्तीसगढ़ की श्रीमति जया जादवानी को जीवन के रहस्यों और दुर्लभ पुस्तकों के अध्ययन, यायावरी, और दर्शन और मनोविज्ञान में विशेष रूचि है. हिंदी और मनोविज्ञान में इन्होंने ऐम.ए. किया है. इनकी 3 कविता संग्रह, अनेकों कहानी संग्रह, यात्रा वृतांत, 3 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. अनेक रचनाएँ अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया, सिन्धी, मराठी, बंगाली भाषाओँ में अनुवाद हो चुकी हैं, स्कूल के पाठ्यक्रम का भाग हैं और अन्दर के पानियों में कोई सपना कांपता है पर इंडियन क्लासिकल के अंतर्गत एक टेलीफिल्म बन चुकी है. इनकी कहानियों को कई बार सम्मानित किया गया है. इन्हे मुक्तिबोध सम्मान भी प्राप्त हुआ है.

सम्पर्क के लिये ई-मेल : jaya.jadwani@yahoo.com

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