सुबह साढ़े दस बजे न्यू डैली ढाबा खुला तो था, मगर इस समय यहाँ कोई था नहीं. था भी ढाबा पैरिस के लिटल इंडिया से दूर, गुमनाम से इलाके में. तो इतने बजे यहाँ कोई क्यों आता?
ढाबा पैरिस में ज़रूर था, मगर कहीं से इसे अप-स्केल नहीं कहा जा सकता था. ढाबा कह कर बुलाते थे, ढाबा जैसा ही था.
वसीम? कैश-रजिस्टर के सामने खड़े भाव-शून्य आँखों वाले आदमी से मैंने कहा. स्वर अनिश्चित था. बस एक शब्द कहा था, किसी का नाम. इस एक उच्चारण ने उस वीरान रेस्तोरां में एक लहर सी दौड़ा दी. देखते ही देखते उस खाली से दिखने वाले प्रतिष्ठान की हर खिड़की, दरवाज़े, ताख़, खाने और छेद से आँखें ताकती दिखने लगीं. मैं समझ गई कि ये इतने अरसे बाद किसी इंडियन लड़की का स्वर यहाँ बजा था जिसने इस सोती जगह को जगा दिया था. जानती थी कि बड़े तरसे हुए लोग थे ये. पढ़ रखा था सब. पानी के जहाज़ की तरह बड़े उल्लास, शान और उम्मीदों से धन और समृद्धि की तलाश में देश छोड़ कर निकले थे, पहुँच ऐसी जगह गए जहाँ से किनारा ही पाना नामुमकिन था. अटक गए थे. जैसे दरबों में बंद हों. तड़पते रहते थे, पर ज़ाहिर कुछ नहीं कर पाते थे.
मैं यहाँ कुछ दिन पहले वीकेंड में आई थी, अपने दो सहकर्मियों के साथ चाय पीने, समोसे खाने. बैकग्राऊंड में एक अच्छी सी ग़ज़ल बज रही थी. जब समोसे लेकर एक नौजवान आया, मैंने उस से पूछा कि ये ग़ज़ल गा कौन रहा है. उस नौजवान ने न केवल मुझे ये बताया कि गज़ल तलत अज़ीज़ की गाई हुई है, उस ने ये भी कहा कि आप वीक-डे में किसी दिन दस-साढ़े दस बजे आ जाएँ, मैं आपको ये सारे गाने कैसेट में भर कर दे दूँगा. मैं मान गई. आने के लिये आज का दिन तय किया था, सो हाज़िर हो गई थी. पैरिस में मैं अकेली रहती थी. कुछ देसी गाने साथ होंगे तो काम से लौटने पर कमरे में समय अच्छा व्यतीत हो पाएगा. ऐसा सोच कर हाज़िर हो गई थी.
लड़के ने अपना नाम वसीम बताया था. अब उस के इंतज़ार के दौरान मेरी वहाँ उपस्थिति के कारण किचन-स्टाफ़ में मच रही खलबली को चुपचाप खड़ी-खड़ी देख रही थी. मुझे वो सब अटपटा नहीं लग रहा था. इन लोगों को तो सामने एक अपने देश की लड़की खड़ी दिखाई दे रही थी, इसलिये मचल रहे थे. लेकिन क्या इन्हें मालुम था कि कम उम्र की दिखने वाली इस लड़की ने असल में बत्तीस साल पूरे कर लिये थे. दो साल के बेटे की माँ थी ये. माँ बनते ही लड़कियाँ अपनी अल्हड़ता खो देती हैं. दुनिया को समझदारी का चश्मा पहन कर देखने लगती हैं.
कैसेट ले कर वसीम बाहर आया. खामोश किस्म का था वो. शब्दों के बिना किसी आदान-प्रदान के उसने मुझे वो कैसेट पकड़ा दिया. मैं जो ब्लैंक कैसेट ले कर आई थी, लेने से इंकार कर दिया. फिर जैसे आया था, वैसे लौट कर अंदर चला गया. मैं हैरान सी मैट्रो की तरफ़ चल दी.
मैं पैरिस में मौलिक्यूलर-बायौलेजी में रिसर्च कर रही थी. कैसेट लेने के चक्कर में दिन ज़रा देर से शुरू किया था, लैब देर से पहुँचती, इसलिये लौटना भी देर से होता. इस वजह से अक्सर शाम को जिस जैनरल स्टोर में रुक कर जो छोटा-मोटा सामान खरीदना होता था, वो तब रुक कर लेना तय किया. कॉफ़ी और दूध दोनों खत्म हो गए थे, सुबह के नाश्ते के लिये ज़रूरी थे, वही ऐलिमैंटेसियॉन लक्ज़मबुर्ग की शैल्फ़ों में धीरे धीरे खोज रही थी. असल में अब भी मैं उस वसीम के बारे में सोच रही थी. सोच रही थी कि वो लड़का ज़रूर लाहौर के किसी पढ़े-लिखे, मिडल-क्लास परिवार से होगा, दिल का भला लगता था, लेकिन मिलनसार बिल्कुल नहीं था, ऐसा क्यों?
यूरोप आ कर अचानक पाकिस्तान के लोगों से मिलना होने लगता है. बड़ा अजीब लगता है. ये लोग कैसे बड़े हुए हैं, किन संस्कारों से बड़े हुए हैं, हमें बिल्कुल अंदाज़ा नहीं होता है. फिर जब हम इन से मिलते हैं, तो पाँव की ज़मीन के नीचे जैसे कोई लहर दौड़ जाती है, जैसे कोई कभी न बोले जाने वाला दफ़नाया हुआ सच करवट ले रहा हो ... करवट? मेरे पास खड़े कुछ लोग हँस रहे थे. मैंने सिर उठा कर देखा, तो देखा कि दुकान का सामान शैल्फ़ में लगाने वाले दो अफ़्रीकी लड़के मेरी ओर देख कर हँस रहे थे. शायद इसलिये कि देर से मैं उसी शैल्फ़ के सामने खड़ी कॉफ़ी ढूँढ रही थी. मेरे माँगने पर एक ने कॉफ़ी ढूँढ कर निकाल ली. मैं सामान ले कर लैब की ओर बढ़ गई.
पैरिस में मैं दो साल का रिसर्च असाईनमैंट कर रही थी. हर दूसरे वीकैंड पाँच सौ किलोमीटर दूर स्ट्रासबुर्ग अपने परिवार से मिलने जाती थी. मेरे पति, बिन्नी, का वहाँ जॉब था. बेटा उनके साथ रहता था. हर बार जो मैं लौटने को होती, बेटा ऐसे रोता, कि दिल दहल जाता, सीना फाड़ कर निकलने को करने लगता. मैं हिम्मत हारने लगती. तब बिन्नी कहता, मुझे लगा था तुम्हारा काम तुम्हारा पैशन है, इतनी जल्दी हिम्मत हार गई, ये कैसा पैशन है.
अच्छा है मैं अपने इन दो बॉय-फ़्रैंड से महीने में कुल दो बार मिलने जाती हूँ. मिलना भी हो जाता है, यहाँ मेरा काम सही गति से बढ़ पाता है. बिन्नी सही कहता है. जैसे एक माँ अपने बच्चे की देखभाल करती है, वैसे बाप भी कर सकता है, क्योंकि दोनो बच्चे को उतना ही चाहते हैं. वहाँ रहकर वो बेटे की देखभाल ज़्यादा सहूलियत से कर सकता है, इसीलिये कर रहा है. मुझे कोई गिल्ट महसूस नहीं करना चाहिये. वैसे भी हमारी ये पारिवारिक स्थिति अस्थाई है, हम दोनों को स्थिर जॉब की तलाश है. जब तक ऐसा नहीं होता, यों ही मेहनत करते रहेंगे, पैशन के पीछे भागते रहेंगे, यही ढर्रा चलता रहेगा.
पैरिस में मुझे अपने काम से बड़ी उम्मीद है. एक ख़ास तरह का मौलिक्यूल तैयार करना चाह रही हूँ, यकीन है तैयार कर पाऊँगी.
आजकल शहर में बहार है, खूब रौनक रहती है. बाहर निकलती हूँ तो चौंक जाती हूँ. शहर के बाग शानदार वैसे ही थे, अब जैसे किसी ने रंगों के ब्रश और मार दिये हैं. सूरज ने आखिरकार बादलों को चीर डाला है, अब चारों तरफ़ों को अपनी लम्बी पीली बरछियों से भेद रहा है. हर दिल तितली बने झूम रहा है. कदम किसी भूली हुई धुन की ताल पर चल रहे हैं. बिन वजह चेहरे मुस्कुरा रहे हैं. हाथ में हाथ डाले लोग उड़ती ग़ज़लों की तरह निकले जा रहे हैं. खुशियों की पच्चीकारी बन गया है ये पैरिस.
मुझे बिन्नी के त्याग याद आते हैं. मेरे कदम लैब की ओर और तेज़ी से बढ़ने लगते हैं.
आज मुझे ऐलिमैंटेस्यौन लक्ज़मबुर्ग से कुछ नहीं उठाना था, तो वहाँ से गुज़रती हुई आगे बढ़ गई. इन्हीं ख़्यालों में खोई हुई बढ़ती गई कि पता नहीं कितनी और बहारें इस तरह कुर्बान करनी पड़ेंगी. सुनहरी धूप हर पेड़, बैंच, रास्ते चलते आदमी, औरत और बच्चे को लपेटे हुई थी और मेरी नज़रें उन सब पर से फिसलती हुईं ज़मीन पर गड़ रही थीं. मुझे अपने साथ कोई चलते हुए महसूस हुआ. फिर लगने लगा काफ़ी देर से कोई मेरे साथ ही चल रहा है. मैंने नज़र उठाई, उस ऐलिमैंटेस्यौन में काम करने वाले लड़के को पाया.
सैल्यू ! (हैलो) उस जैनरल स्टोर में काम करने वाले उन दो अफ़्रीकी लड़कों में से एक, वो लड़का था. वही बोला था.
मैंने एक औपचारिक मुस्कान से उसे जवाब दिया. हम दोनों चलते गए. उसने मेरा नाम पूछा, नाम जान कर दोहराया, मुनमुन, जैसे नाम को तौल रहा हो.
वो मुझे रोज़ाना सुबह यहीं से गुज़रते देखता है, उस ने मुझे बताया. फिर पूछा कि रोज़ाना मैं जाती कहाँ हूँ.
मैं उसकी सब बातों के जवाब विधिवत तरीके से देती गई. अपने कार्यालय की बिल्डिंग पर पहुँच कर रुकी, मुस्कुराई, उस से विदा लेने लगी. आ तूत अ लर ! (जल्द मिलेंगे!)
वो अचानक बोल पड़ा, सुन, मेरे साथ डेट पर चलेगी?
मेरे चेहरे की औपचारिक मुस्कान उड़ गई. सिटपिटाई सी उसे देखने लगी. उस की उम्र सत्रह-अट्ठारह से ज़्यादा की नहीं लग रही थी. लड़का था. वयस्कता का मुखौटा पहने हुए था. मैं उस पर झिड़क नहीं पाई. उलटा बोली, आईम सौरी, मैं ऐसा नहीं कर सकती.
शायद मैं अब फिर मुस्कुरा रही थी. एक अध्यापिका वाली मुस्कान मुस्कुरा रही थी. वो द्रुत पल जब उस लड़के का चेहरा मुरझा गया, फिर तुरंत ठीक भी हो गया, वो पल मुझ से दुबक नहीं पाया.
वो लड़का फिर कुछ कहने को हुआ. आवाज़ में कड़ापन ले आया था. बोला, क्यों? तू मेरे साथ डेट पर क्यों नहीं जा सकती है? मैं काला हूँ, तू भी काली है. फिर हम दोनों डेट पर क्यों नहीं जा सकते हैं?
उसकी बात सुनकर मेरे कान दचक गए. मैं अंदर तक सुन्न हो गई. ये कैसा तर्क था?
फिर भी, मैं उसका वो मुरझाया चेहरा भुला नहीं पा रही थी. साथ में कार्यालय के बाहर खड़ी थी, आते-जाते लोगों में कुछ जान-पहचान के भी थे. मेरे कदम अकस्मात चलने लगे. वो भी साथ चलने लगा.
नहीं, ऐसी बात नहीं है. मैंने आवाज़ में सद्भाव भरते हुए कहा. पहले तो मैं उम्र में तुमसे बड़ी हूँ. दो-गुना बड़ी. शादीशुदा हूँ. मेरा एक बेटा भी है.
मुझे मालुम था कि उसे ये सब सफ़ाई देना ज़रूरी नहीं है, एक तरह से शायद अनुचित भी है. ये भी दिख रहा था कि वो मेरी बातें मान ही नहीं रहा था. उसे तो मेरी कही सब बातें अधपके, कच्चे से बहाने लग रहे थे. सिर झुकाए चुपचाप चले जा रहा था, हारा सा. पैरिस की साफ़-सुथरी साईडवॉक के काल्पनिक कंकड़ो को ठोकर मारते चले जा रहा था.
हम दोनों के बीच एक लम्बी खामोशी आ गई. हमने एक छोटा सा चक्कर काट लिया था. कार्यालय फिर सामने दिखने लगा था.
तुम्हारा नाम क्या है? मैंने माहौल सुधारने के लिये पूछ लिया.
सिदि. ज़मीन से नज़र बिना उठाए रूखे स्वर में उस ने जवाब दिया.
कहाँ से हो?
माली. इस बार जवाब एकटक देख कर दिया.
मेरी औपचारिक मुस्कान लौट आई. अच्छा सिदि ... सैल्यू, फिर मिलेंगे, कह कर मैं कार्यालय में घुस गई.
***
अगली बार जब मैं स्ट्रासबुर्ग गई तो बिन्नी अपनी स्थिति से खुश नहीं था. अब बस नौ से पाँच काम करने से काम नहीं चल पा रहा था. प्रयोग के नतीजों को समझने के लिये प्रयोगशाला में लम्बी अवधि रहना ज़रूरी था. कई दिनों से बेटा लैब में साथ देर रात तक रहता था. ब्लैकबोर्ड पर कुछ न कुछ बनाता रहता, वहीं खाता, सो जाता, फिर रात को डैड की गोद में घर लौटता. बिन्नी को ये सही नहीं लगता था. उसे बस एक रास्ता सूझता था. मैं अपना जॉब फ़ुल-टाईम से हाफ़-टाईम कर ज़रा ज़्यादा समय स्ट्रास्बुर्ग में बिताऊँ. यही किया.
जब पैरिस लौटी तो जानती थी कि हाफ़-टाईम काम का सुझाव सुन कर बॉस की प्रतिक्रिया क्या होगी. ज़रा ये बताईंगी कि आप यहाँ काम करने आई ही क्यों थीं? बॉस ने चिढ़ कर कहा था. और मैंने जब अपनी स्थिति दुबारा समझाने की कोशिश की, तो उन्होंने मुझे बीच बात में ही टोक दिया. कहा, ठीक है, सैक्रेटरी से जा कर बात कर लीजिये, और अपने ऑफ़िस से बरखास्त कर दिया.
इस बार पैरिस लौट कर बड़ी उदासी महसूस होने लगी थी. मुझे अपना भविष्य साफ़ दिखाई दे रहा था. मेज़ पर बिछी एक विघटित मशीन की भांति अपने सामने फैला दिखाई दे रहा था. अपना ध्येय दूर जाता दिख रहा था. वहाँ तक पहुँचने के लिये अब मेहनत काफ़ी नहीं थी. मेरे मन में उलझन थी, बहुत अशांति थी.
इस बार पैरिस लौट कर बहार का प्रहार भी कम महसूस हो रहा था, शायद मेहमान की तरह मौसम भी हफ़्ते-दो हफ़्ते के बाद बासा हो जाता है. इसीलिये उस दिन किसी की खिलखिलाहट सुन कर हैरानी हुई.
मन में जीवन के निर्णयों का बोझ ढोते हुए लक्समबर्ग गार्डन से गुज़र रही थी. सिर झुका कर चल रही थी. गार्डन में लोग लंच-टाईम के अंतराल में धूप के कुछ पल चुरा रहे थे. कुछ टहल रहे थे, कुछ बैंचों पर बैठे थे. मेरी नज़र उस खिलखिलाती आवाज़ को ढूँढने लगी. पहचानी आवाज़ थी. मेरी रूम-मेट क्लौदीन की आवाज़ थी. फिर वो मुझे दिख गई. उन्नीस साल की एक आकर्षक लड़की बैंच पर बैठी थी, अधेड़ उम्र के एक आदमी की गोद में. खिलखिला कर हँस रही थी. क्लौदीन मेरी खुशमिज़ाज़ रूम-मेट है. संस्कारों का रीसैट बटन कई साल पहले दबा चुकी थी. ओह मूनमून ... अच्छा और बुरा एक दूसरे की परछाईं होते हैं ... एक साथ होते हैं, एक दूसरे के विपरीत होते हैं, तो कभी एक दूसरे पर व्याप्त हो जाते हैं.
उसे जान कर मैं समझ पाई हूँ कि मजबूर इंसान परिभाषाओं में नहीं पड़ता है. जीने का तरीका तो इंसान को घेरने वाली दुनिया और परिस्थितियाँ तय करती हैं. तो फिर अच्छे-बुरे और सही-ग़लत के लपेट में पड़ने का क्या फ़ायदा! मजबूर आदमी करता वही है जो उसका मन सही समझता है. बचपन से ही क्लौदीन की पारिवारिक स्थिति कठिन थी. कुल मिला कर मुझे अपनी रूम-मेट पसंद है, वो जैसी है, मुझे भली लगती है. उसे मैं अपना मित्र मानती हूँ.
लेकिन उस वक्त जब वो उस ताऊ-नुमा आदमी की गोद में बैठ कर उसका गंजा सिर सहला रही थी, मैंने उसे अनदेखा कर आगे बढ़ते रहना सही समझा.
फिर भी, पास से जो गुज़री तो उसकी बात सुनाई दे ही गईं.
वो अब उस आदमी की शमशीर तलवार जैसी पतली मूँछ पर उंगली फेर रही थी और उसे बता रही थी कि वे कित्ती प्यारी हैं.
आदमी हँस कर उस से कह रहा था कि नहीं, वो तो तुम्हारी बातें हैं जो प्यारी हैं.
जिस पर क्लौदीन जवाब दे रही थी कि तुम इत्ते प्यारे हो, तभी तो मेरी बातें भी प्यारी हो जाती हैं.
इतना कह कर वो दुबारा उसका सिर सहलाने में लग गई थी. फिर कुछ सोच कर तुरंत खड़ी हो गई. चलो.
आदमी चकरा गया. पूछने लगा, कहाँ.
वो उसे खींच कर ले जाने लगी. गैलरीज़ लफ़ायैट. तुम्हारे सिर के बचाव के लिये एक अच्छी टोपी खरीदवाने.
ऐसा नहीं था कि उस वक्त मैं प्रसन्न चित्त थी, फिर भी उसका ये व्यवहार देख कर मुस्कुरा दी. मुझे मालुम था अपने स्टाईलिश कपड़े और ऐक्सैसरी वो खुद खरीदने के समर्थ तो नहीं थी, लेकिन उन्हें पाने और पहनने के तरीके उसे खूब आते थे.
लैब लौटी, तो मायूसी बढ़ गई. मेरे प्रयोग में इस्तेमाल आने वाली एक ज़रूरी मशीन खराब हो गई थी. ठीक होने में समय लगता, दो दिन बाद ही टैकनीशन आ पाता. पैरिस में अब इन पिछले दो महीनों से मैं हर सप्ताह तीन दिन ही काम करती थी, बाकी चार दिन स्ट्रास्बुर्ग में बिताती थे. दिन जो रातोंरात बहुमूल्य बन गए थे, मशीन के बिगड़ने से व्यर्थ जा रहे थे. मैंने तय कर लिया कि अब बाकी का हफ़्ता अपने परिवार के साथ बिताऊँगी. बैग उठाया. निकल पड़ी. सोचा था घर से सामान उठा कर स्टेशन के लिये निकल पड़ूँगी. घर पहुँच कर सबसे पहले चाय बनाऊँगी. चाय के साथ बिस्कुट होते तो कितना अच्छा होता. सीधा ऐल्मैंटेस्यौन में घुस गई.
यहाँ मैं बड़े दिनों बाद आ रही थी. ढाई-तीन महीने बाद. शैल्फ़ से डाईजैस्टिव बिस्किट उठाए और पहुँच गई दाम चुकाने. कैश-रजिस्टर पर पहुँचने पर ही मुझे उस अफ़्रीकी लड़के – सिदि – का ख़्याल आया. इस वक्त उसका साथी कैश-रजिस्टर पर खड़ा था. मुझे कोरी दृष्टि से देख रहा था. बड़े दिनों बाद आई हैं, बोला. कहीं गई थीं क्या? उसका स्वर रूखा सा था.
मैंने उसे बताया कि अब मैं हाफ़-टाईम काम करती हूँ. पैरिस में कुल तीन दिन रहती हूँ. आज काम से जल्दी लौट रही थी ... ऐक्सपेरियौंस न मार्श पा ... रियं न मार्श. कुछ काम नहीं कर रहा था, उसे यही बता रही थी, निराश थी, स्वर भी निराश निकल रहे थे.
तभी शैल्फ़ के पीछे से सिदि आ गया. शायद सामान लगा रहा था. मुस्कुराते हुए आया. बोला, सैल्यू मुनमुन.
मैंने उसे जवाब दिया लेकिन कैश-रजिस्टर पर उसके दोस्त के सवाल खत्म नहीं हुए थे.
तीन दिन पैरिस में रहती हैं, बाकी के दिन कहाँ, वो पूछ रहा था.
स्वर में चहक लाती हुई बोली, स्ट्रास्बुर्ग में, अपने पति और बेटे के पास. इतना कह कर मैंने वॉलट में अपने बेटे की फ़ोटो सिदि को दिखाई.
कितने साल की हैं आप? दोस्त की पूछताछ चले जा रही थी. स्वर कठोर सा था.
बत्तीस साल, मैंने जल्दी से कहा, और दुकान से निकलने की तैयारी करने लगी. लेकिन मेरी नज़र उसके चेहरे से हट नहीं पा रही थी. उसका मुँह खुला रह गया था, आँखें फटी-फटी थीं, जैसे कि बूढ़ेपन का मैंने कोई गिनस रिकॉर्ड तोड़ दिया हो. तेज़ कदम उठा कर उस क्रूर सीन से मैं निकलने लगी. अगले पल बाहर पहुँच गई थी.
अच्छा था मैं जल्द अपने परिवार के साथ हूँगी, सोच रही थी. दुनिया में मन को सच्ची खुशी एक-आध चीज़ों से ही मिल पाती है.
कई कदम बढ़ गई थी जब मुझे अपने साथ चलते कोई महसूस हुआ. सिदि था.
सोच रहा था आज मैं भी जल्दी छुट्टी ले लूँ, वो बोला. एक तरह से अच्छा हुआ आपका काम आज रुक गया. अब हम दोनों पार्क में बैठ कर बातें कर सकते हैं. पता है, मैंने आज तक किसी भारतीय व्यक्ति से बात नहीं की, अगर बुरा न माने तो क्यों न रास्ते से कॉफ़ी लें, बिस्कुट तो आपने ले ही लिये हैं, पार्क में बैठ कर कुछ देर बातें करते हैं.
थकी सी थी. उस दिन हारी हुई भी महसूस कर रही थी, मान गई. कॉफ़ी ले कर हम पार्क गए, जहाँ शाम के वक्त काफ़ी लोग घूम रहे थे. कुछ देर की बातचीत में लगने लगा मैं दोस्त से बात कर रही हूँ.
मालूम है मुनमुन, मुझे हमेशा लगता था कि पढ़े-लिखे लोगों को कभी किसी बात की मुश्किल नहीं होती होगी. कॉफ़ी खत्म हुई, बिस्कुट के खाली पैकट का गेंद बना कर कूड़ेदान में फेंकते हुए वो कह रहा था. प्यार करने वाला परिवार भी सहारे के बजाय रोड़ा बन सकता है ... लेकिन जब मुश्किलें और रोड़े चेहरे की मुस्कान मिटाने लगें, तब उस को तो रोका जा सकता है न? मदाम, मेरे पास उस ही का इलाज है. चलिये, मेरे साथ टिम्बक्टू चलिये.
नहीं, मैं फ़ौरन हड़बड़ा कर खड़ी हो गई.
वो हँसने लगा. अरे, आप ने क्या सोचा मैं आप को माली जाने को कह रहा था. मैं खुद वहाँ से भाग कर आ रहा हूँ, वापस क्यों जाऊँगा?
फिर भी मैं घर लौटने की योजना बना रही थी.
तभी दूर से मेरा नाम पुकारती क्लौदीन आती दिखी. स्केट बोर्ड पर थी. उसके पीछे उसका कोई दोस्त चला आ रहा था. पास आ कर वो रुक गई. दोस्त उस ही की उम्र का था. रुक कर क्लौदीन ने उसकी कमर को अपनी बाहों से लपेट कर कहा, मेरा बॉय-फ़्रैंड - ऐरिक.
क्लौदीन सिर पर एक टोपी पहनी थी, उसी को उतार कर मुझ से शिकायत वाली आवाज़ में कहने लगी, देखो, मैं कितने प्यार से इसके लिये ये टोपी ले कर आई और ये है कि कुबूल ही नहीं कर रहा है.
तुम ने अपनी कमाई से खरीदी होती तो कुबूल करता, बॉय-फ़्रैंड ने उसके हाथ से टोपी ले कर उसे हवा में उछालते हुए कहा. टोपी ज़मीन पर गिरने से पहले सिदि ने पकड़ ली.
मैंने सब को सिदि का परिचय दिया. सिदि ने उन्हें बताया कि दिन में ऐलिमैंटेसियौन में और शाम को वो टिम्बक्टू नाम के क्लब में डीजे का काम करता है और उस शाम को भाग्य से उस की डीजे के काम से छुट्टी थी. मुनमुन का ऑफ़ मूड देख कर मैंने उसे अपने साथ आने का न्योता दिया तो देखो कैसे घबरा गई.
क्लौदीन बोली, तुम हमें न्योता दो, फिर देखो कैसे मैं इसे तुरंत राज़ी करती हूँ.
सिदि क्लौदीन के अंदाज़ में ही बोला, ठीक है, तुम मुझे ये टोपी दे दो, मैं तुम दोनों को न्योता दे देता हूँ, फिर तुम मुझे दिखाओ तुम कितनी जल्दी मुनमुन को राज़ी कर पाती हो.
हम हँस दिये, ऐरिक ने वो टोपी उसके हाथ से ली और उसे पहना दी और बोला, आओ, चलें? सब क्लब टिम्बक्टू के लिये चल पड़े.
मैंने शाम की ट्रेन को मिस हो जाने दिया. अगली ट्रेन सुबह तड़के थी. उसी को पकड़ने का फ़ैसला किया.
***
क्लब में घुसते ही भीड़ चीख उठी. यहाँ सिदि हीरो था.
क्लौदीन और ऐरिक को तुरंत ही सामने नाचते बवंडर ने सुड़प लिया. शुरू में फिर भी क्लौदीन का कभी झूमता हुआ हाथ दिखाई दे जाता, कभी सिर फुदक कर निकल आता.
सिदि अपने दोस्तों से मिल रहा था. मुझे ढूँढते हुए आ गया. तुम यहाँ खड़ी-खड़ी क्या कर रही हो, कह कर मुझे डाँस-फ़्लोर पर ले गया. वहाँ पहुँचते ही सिदि का पूर्ण रूपांतर हो गया. आँखें बंद कर के वो नाचने लगा. नृत्यमंच में मैं खंभे सी न लगूँ, ताल पकड़ कर मैं भी हल्के से नाच रही थी. सिदि ने जब आँखें खोलीं, तो शोर था इसलिये चिल्ला कर बोला, आज के बाद मैं शान से कह सकूँगा कि मैं एक इंडियन प्रिंसैस के साथ नाच चुका हूँ.
क्लौदीन भी हमारे पास आ गई. लैट्स शिमी, कहकर कंधे और कूल्हे मटकाने लगी.
नो शिमी, सिदि बोला. अब उस्ताद लेडीज़ को सिखाएगा, कह कर पता नहीं कैसे अचानक हवा में टप्पे मारती हुई तालों पर उस ने काबू कर लिया. कभी तालों के संग-संग कभी उनके इर्द-गिर्द उसका छरहरा शरीर डोल रहा था. ताल से मेल तो उसके हाथ भी कर रहे थे. खुली हथेलियाँ हवा में जाल सा बिछा रही थीं. बस पाँव थे जो जबतब उठ रहे थे और जानबूझ कर ताल का तिरस्कार कर रहे थे और उस बेताल कदमताल में भी एक लय थी. बीच बीच में वो हुंकार रहा था, जोश भरी, ऊँची, लम्बी हुंकार. क्लौदीन भी उसका साथ देने लगी. दोनों सिर उठा कर नाच रहे थे, सिर पीछे फेंक कर नाच रहे थे, जंगल में दो मस्त शेरों की तरह नाच रहे थे. खोए से, रमे हुए, आँखें बंद किये. उठे कूल्हे संगीत की गति पकड़े हवा में गोल चक्कर बना रहे थे. फिर गति बढ़ी, बिगुल बजने लगे. तुरहियाँ गूंजने लगीं. ढोल चोटें खा-खा कर समर्थन दे रहे थे, गिटार यदाकदा झनक रहे थे. झनकते-झनकते स्वरमंडल की सीढ़ियाँ चढ़ कर अंततः उस पर अधिकार जमा रहे थे. मैं अपने चारों तरफ़ एक तिलस्मी सा वातावरण पा रही थी. खुद को अफ़्रीका में पा रही थी. मेरे सामने मेरे दोस्त ताल के रस में डूब रहे थे या मस्त थे, ये बता पाना सम्भव नहीं था. जब लगा कि सामने खड़े समस्त संगीतकारों ने सुनने वालों के समक्ष यथेष्ट प्रस्ताव रख दिये हैं, तब जा कर एक विषादपूर्ण आवाज़ ने अपना गीत शुरू कर दिया. मैं ऐसी जगह पहुँच गई जहाँ अपने जीवन में पहले कभी नहीं आई थी. गीत के अनजाने से बोल कानों में मंत्र समान गिर रहे थे. क्लब की हवा में मंडराते उन मंत्रों का जादु बाहर दुनिया के टोने से टक्कर लेता हुआ महसूस हो रहा था. मुझे लगने लगा कि उन मंत्रों ने ही अंदर के इस अनूठे साम्राज्य को संजोए रखा है. बाहर दुनिया लोगों को बेहुदा नाच नचाती है, यहाँ आ कर लोग अपना खुद पा लेते हैं. किसी जल्दी में नहीं रहते हैं. यहाँ पर हर आनंद जो आता है लम्बे ठहराव के लिये आता है.
***
अगली सुबह, तड़के, मैं स्ट्रास्बुर्ग की ट्रेन पकड़ने के लिये स्टेशन पर थी. सामने से सिदि को आता देख चौंक गई. हँसते हुए वो बोला, घबराओ मत, बस एक बात कहनी थी. कल मौका नहीं मिला. ज़रूरी है.
उसने कंधे पर एक झोला लटकाया हुआ था, उसमें अंदर बेढंगा सा कुछ था.
अंदर क्या है? मैंने पूछा. पिल्ला?
जवाब दिए बगैर उस ने पूछा, कैसा लगा टिम्बक्टू?
थ्रै बियं. अब मेरे स्वर से बड़प्पन हट गया था.
तुम्हे बस यही याद दिलाने आया था कि तुम मशीन नहीं हो, प्रिंसैस हो, इंडियन प्रिंसैस. जब कभी तुम्हे लगे कि तुम अपनी लड़ाई हार रही हो, मेरा सिखाया नाच याद कर लेना. ये कह कर वो हथेली से हवा में जाल बिछाने लगा. यू नो, प्रैंसिस डौंट फ़ाईट. प्रैंसिस औनली डौंस. बड़ी मुश्किल से लड़खड़ाती, फ़्रैंच-ऐक्सेंट वाली अंग्रेज़ी में वो बोला.
उस ने अपने झोले से एक सैनिक का हैलमैट निकाला. वो मालियन सेना की हैलमैट थी. मुझे देते हुए बोला, ये तुम्हारे बेटे के लिये... अब मेरे काम कभी नहीं आएगी... उसे बता ज़रूर देना कि लड़ाई एक बुरा खेल है. ये हैलमेट बस खेलने के लिये है. वो मुस्कुराया. ऑह्वा! फिर मिलेंगे.
मेनका शेरदिल फ़िज़कल कैमिस्ट्री में पी.ऐच.डी हैं. यूरोप में कॉस्मैटिक कम्पनी लोरीयाल में रसायनज्ञ हैं. इंडौलजी के पुराने ग्रंथ पढ़ने का शौक रखती हैं. कई लघु कथाएँ लिखी हैं. हाल में एक उपन्यास पूरा किया है.
लेखिका से सम्पर्क के लिये ई-मेल-menkasherdil@yahoo.com