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दायरों के बीच

राकेश भ्रमर

पिछले कुछ दिनों से यह उसकी नियमित दिनचर्या थी. शाम को कार्यालय से निकलने के बाद वह सामने वाले पार्क में जाकर कोने की एक बेंच पर बैठ जाता था और वहाँ टहलने वाले भांति-भांति के तथा हर उम्र के नर-नारियों की गतिविधियों को बड़े ध्यान से देखा करता था. इस क्रिया से उसके मन को बड़ा सुकून प्राप्त होता था और सुबह से शाम तक कार्यालय की किच-किच उठा-पटक और बॉस की डांट-फटकार से जो कचरा तनाव के रूप में उसके मस्तिष्क में भर जाता था वह पार्क में बैठने से धुएं की तरह क्रमशः बाहर निकलने लगता था और रात के अंधेरे में जब वह पूरी तरह शांत-मन हो जाता था तो चुपचाप अपना छोटा-सा बैग कंधे पर लटकाकर घर की तरफ चल देता था. घर की तरफ बढ़ते हुए फिर से उसके कदम ही नहीं मन भी भारी होने लगता था क्योंकि वह जानता था कि घर पहुंचने के बाद उसे घर की बहुत सारी ऐसी मुश्किलों और जरूरतों का सामना करना पड़ेगा जिनका समाधान तत्काल उसके पास नहीं होता था.

घर में पत्नी की फरमाइशें थीं. हालांकि वह कोई बेजा फरमाइश नहीं करती थी परन्तु घर के खर्चों में हाथ सिकोड़ने के बाद भी कोई खास कमी नहीं आती थी और महंगाई प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भांति और गरीब की बेटी तरह बेलगाम बढ़ती ही जाती थी. सरकार महंगाई भत्ता साल में दो बार बढ़ाती थी परन्तु आवश्यक वस्तुओं के दाम दिन-ब-दिन बढ़ते चले जाते थे. निम्न श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों और दिहाड़ी मजदूरों को महंगाई की मार सबसे अधिक झेलनी पड़ती थी क्योंकि भारतीय समाज के ढांचे में यही दो वर्ग ऐसे हैं जो संघर्षशील होते हुए भी सुविधाविहीन होते हैं (यहां पर उन सरकारी कर्मचारियों की बात करना बेमानी है जिनके मुंह में सदैव घी-शक्कर और सिर कड़ाही में होता है). इनकी तनख्वाह हमेशा नहीं बढ़ती है और जब बढ़ती है तो वह भी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर होती है.

कार्यालय में काम का बोझ उससे उपजा तनाव और घर की जरूरतों के बीच पिसता हुआ आम आदमी एक ऐसा निरीह प्राणी बनकर रह जाता है जिसके मन की व्यथा सुननेवाला न कार्यालय में उसका बॉस होता है न घर में पत्नी...पत्नी भी तो अपने तनाव से घिरी हुई होती है. स्कूल से घर पहुंचते ही बच्चों की फरमाइशें आरंभ हो जाती हैं- कभी उनकी किताब फट जाती है तो कभी कॉपियां जल्दी भर जाती हैं. पेंसिलें तो जैसे तोड़-तोड़कर खा जाते हैं और कलम की स्याही इतनी जल्दी सूख जाती है कि जैसे गर्मी में बर्फ की तरह पिघल कर निब के रास्ते बाहर बह जाती है. इसके अतिरिक्त प्रत्येक माह स्कूल की तरफ से कोई न कोई मांग आ जाती है- कभी किसी मेले के आयोजन के लिए पैसा जमा करना होता है तो कभी किसी प्रदर्शनी के लिए. स्कूल वाले न जाने कितने प्रकार की प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहते हैं जिनमें भाग लेने के लिए प्रवेश शुल्क के नाम पर बच्चों से 100 से लेकर 500 रुपये तक वसूल किए जाते हैं. यूँ तो सभी प्रतियोगिताएं अनिवार्य नहीं होती हैं परन्तु अगर कोई बच्चा उनमें भाग नहीं लेता है तो उसकी कक्षा अध्यापिका/अध्यापक उससे नाराज हो जाती है या हो जाता है और फिर घरेलू परीक्षाओं में उसे अच्छे अंक नहीं प्राप्त होते हैं. उसके बच्चों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि वह बहुत कम प्रतियोगिताओं में भाग ले पाते हैं लिहाजा पढ़ाई में अच्छे होने के बावजूद वह बस औसत अंक ही प्राप्त कर पाते हैं. उसे इस बात से बहुत कुढ़न होती है परन्तु उसके वश में भी तो कुछ नहीं होता. वश में होता तो वह भी बच्चों को अनाप-शनाप पैसा देकर फिजूल के क्रियाकलापों में भाग लेने देता और तब उसके बच्चे भी अच्छे अंक प्राप्त कर अगली कक्षा में प्रवेश करते. बच्चों की इन जायज फरमाइशों जो उसे गरीबी के कारण नाजायज लगती थीं का सामना पत्नी को ही करना पड़ता है और वह उनकी मांगों की पूर्ति किस प्रकार करती है यह वही जानती है. वह तो सारा दिन दफ्तर में रहता है. फिर भी अगर शाम को या छुट्टीवाले दिन बच्चे उससे कोई मांग करते हैं तो वह निरपेक्ष भाव से कह देता है मम्मी से कहो.

मम्मी से कहा था. वह कहती हैं कि उनके पास पैसे नहीं हैं, पापा को बोलो. और आप कहते हो कि मम्मी को बोलो. हम क्या करें? बच्चे चिड़चिड़ा कर हाथ पटकते हुए कहते और रुआंसे हो जाते. वह निरुत्तरित रह जाता. जानता था पत्नी तभी बच्चों को ऐसा कहती है जब वह हर तरफ से हताश और निराश हो जाती है और उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता कि बच्चों की मांगों को पूरा कर सके तो वह टालने के लिए उनसे ऐसा कह देती हैं कि पापा से कहो.

बच्चे जब उससे इस तरह के सवाल करते तो वह हकीकत को जानते हुए भी पत्नी की तरफ सवालिया निगाहों से देखता. वह दूसरी तरफ देखने लगती. वह अच्छी तरह जानता था कि पत्नी के ऊपर निगाहों ही निगाहों में कोई सवाल उछाल देने से बच्चों की मांगें पूरी नहीं होनेवाली तो भी वह एक पुरुषजन्य अधिकार का इस्तेमाल करता हुआ दिखाई देता है कि बच्चों और घर की जरूरतों को पूरा करना पत्नी का कर्तव्य है, पति का नहीं. परन्तु उसके अंदर इतना साहस नहीं होता कि शब्दों में अपने अनुचित अधिकार का प्रयोग करे. वह अक्सर चुप ही रह जाता है. पत्नी की निरीहता का उसे एहसास होता है तभी तो...वरना अभावों में अक्सर वाक्-युद्ध से किसी का मन नहीं भरता.

यहां दोनों चुप रहकर अपनी घुटन को अंदर ही अंदर सहन करने का प्रयास करते रहते हैं.

जब तक उसके केवल दो बेटियां थीं और वह स्कूल नहीं जाती थीं तब तक उसकी तनख्वाह से घर के सभी खर्च पूरे हो जाते थे. पति-पत्नी अपने जीवन से खुश थे परन्तु बेटियों के बड़ा होते ही जब उन्हें आधुनिक चलन के अनुसार अपनी हैसियत से बड़े किसी पब्लिक स्कूल में मोटी रकम देकर दाखिला दिलाना पड़ा तो उसकी आंखों के आगे का उजाला धीरे-धीरे अंधेरे का काला रूप धारण करने लगा. खुशियां गमों में बदलने लगीं. पहले जो तनख्वाह भरी-पूरी लगती थी वह स्कूल के खर्चों के कारण इतनी कम लगने लगी कि उसे लगता उसे इतनी कम तनख्वाह क्यों मिलती है हालांकि ऐसी बात नहीं थी. उसके सहयोगियों को भी उतनी ही तनख्वाह मिलती थी जितनी उसको परन्तु जब मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो उसे हमेशा यही लगता है कि उसकी आमदनी दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा काफी कम है.

उसकी परेशानियों में इजाफा तब और हुआ जब भारतीय मानसिकता की विकृति के चलते दो बेटियों के होते हुए भी उसने एक बेटे की चाहत में अपनी दुबली-पतली हड्डियों का ढांचा मात्र पत्नी को तीसरी बार गर्भवती बना डाला. एक तो पेट में बच्चा और दूसरे खान-पान में कमी के चलते वह काफी कमजोर और शक्तिविहीन हो गयी. दो बच्चियों को संभालना उन्हें तैयार करके स्कूल भेजना जब उसकी पत्नी के लिए भारी पड़ने लगा तो उसने अपनी छोटी बहन को कुछ दिनों के लिए अपने घर बुला लिया. बहन के आने से बच्चों और पत्नी की देख-रेख ढंग से होने लगी परन्तु परिवार में एक अतिरिक्त व्यक्ति का खर्च उसके लिए भारी ही नहीं कठिन होने लगा. बहन ने पत्नी के लिए कुछ पौष्टिक खाने की वस्तुओं के लिए कहा तो उसके दिमाग में चकरघिन्नी की तरह कुछ नाचने लगा.

बहुत सोच-विचार कर और दोस्तों से सलाह लेकर कि ऐसे मौकों पर क्या किया जा सकता है उसने अपने भविष्यनिधि खाते से एक लाख रुपया निकलवा लिया. यह सारा पैसा पत्नी की डिलीवरी होने तक गर्मी में भाप की तरह उड़ गया. कुछ पैसा उधार भी लेना पड़ा.

परन्तु इतने पैसों का खर्च और कर्ज का बोझ उसे हवा की तरह हल्का लगा जब उसकी पत्नी ने नियत समय पर एक गोल-मटोल गोरे से बच्चे को जन्म दिया. कुछ पल के लिए वह अपने सारे गम भूल गया. दो-चार दिन तक वह बहुत उल्लास में रहा परन्तु अस्पताल से पत्नी के घर आते ही कुछ अन्य खर्चों ने घर में पैर पसार लिए. जच्चा-बच्चा के खर्च कम नहीं थे पहले वाले खर्चे अपनी-अपनी जगह पर तैनात थे. उसकी आमदनी का स्रोत एक था परन्तु खर्च के रास्ते अनेक थे. जरूरतें और उनके खर्चे आंख मूंदकर उसके सिर के ऊपर आकर बैठते जा रहे थे. बेटा होने की खुशी से उत्पन्न उसके चेहरे की मुस्कराहट धीरे-धीरे गायब हो गयी. अब तो हालत यह थी कि वह अपना चेहरा आइने में देखता तो लगता कि उसकी सारी लुनाई ही खत्म हो गयी है. उम्र के पहले ही पड़ाव में वह बुढ़ापे के कगार पर आकर खड़ा हो गया है.

बच्चा कुछ बड़ा हो गया और पत्नी के शरीर में कुछ ताकत आ गयी कि वह घर के रोजमर्रा के कामों को धीरे-धीरे अंजाम दे सके तो बहन ने भी अपने घर जाने की घोषणा कर दी. बहन ने जरूरत के समय उसके घर को अच्छी तरह संभाला था बच्चों की पढ़ाई का कोई हर्जा नहीं हुआ था तो अब बहन की विदाई के समय उसे खाली हाथ नहीं विदा कर सकते थे. परन्तु उसके हाथ खाली थे फिर भी पारिवारिक और सामाजिक धर्म का पालन करना ही था. अतएव उसने एक सहकर्मी से दस हजार रुपये उधार लेकर बहन के लिए कुछ कपड़े-लत्ते खरीद लिए. रस्म के मुताबिक तो कोई गहना-जेवर देना चाहिए था परन्तु अभी उसकी जेब इसकी इजाजत नहीं देती थी. उसने थोड़ा-बहुत सामान देकर खिसियानी हंसी के साथ बहन को इस वायदे के साथ विदा किया कि बच्चे के मुण्डन-संस्कार में अवष्य कोई कीमती चीज देगा.

बहन क्या उसकी वास्तविक आर्थिक स्थिति से अवगत नहीं थी. उसी परिवार में वह पैदा हुई थी. कठिन पारिवारिक परिस्थितियों में पलकर बड़ी हुई थी और उन्हीं परिस्थितियों में विदा होकर ससुराल गई थी. तो क्या अब वह अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों के दुःखदायी दिन भूल गयी थी. नहीं....अभी भी लगभग छः महीनों से वह भाई के घर रह रही थी. पहले और अब कि स्थितियों में कोई बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था. भाई की बात सुनकर बोली भैया, कैसी बात कर रहे हो? क्या मैं यहां कुछ लेने के लिए आई थी? भाभी की सेवा करना और जरूरत के वक्त भाई के काम आना हर बहन का फर्ज है. यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं भैया-भाभी की सेवा कर सकी. मैंने पुण्य ही कमाया है. फिर यहां लेने-देने की बात कहां से आ जाती है?

दीदी, मैं जानती हूं कि तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है. ननद से बढ़कर तुम मेरे लिए छोटी बहन जैसी हो. परन्तु भाभी और भैया का भी तो तुम्हारे प्रति कोई कर्तव्य बनता है. उसी नाते... उसकी पत्नी ने ननद को गले लगाते हुए कहा.

आप दोनों का आशीर्वाद ही मेरे लिए बहुत है. आपके आशीर्वाद से ही मैं अपनी ससुराल में सुखी हूं. बहन ने अभिभूत होकर कहा. उसकी पत्नी की रुलाई फूट पड़ी तो उसकी बहन भी रोने लगी. बच्चे कौतूहल और अचरज भरी आंखों से सभी को देख रहे थे. विदाई के ऐसे करुण दृष्य को देखकर उसकी आंखें भी भीग गयीं और उसने मुंह घुमाकर अपने आंसुओं को छिपा लिया.

घर में अभाव की चादर लम्बी से और ज्यादा लम्बी होती गयी. आवश्कताएं बिना सीढ़ियों के ऊपर की तरफ चढ़ती चली जा रही थीं और एक दिन ऐसा लगा कि आसमान छूने लगी हैं. घरेलू परेशानियों से छुटकारा नहीं था. आवश्यकताओं में कटौतियां होती ही रहती थीं. पर उसने और उसकी पत्नी ने हमेशा कोशिश की कि बच्चों की जरूरतों में कम से कम कटौती हो. स्वयं के लिए भले ही दो साल में उसने एक जोड़ी शर्ट-पैंट बनवाई और पत्नी ने भले ही साल में केवल एक साड़ी करवा चौथ में खरीदी हो, परन्तु बच्चों की जरूरतों में कटौतियां करके कैसे गुजारा हो सकता था. उन्हें अभाव का दंष न झेलना पड़े, इसके लिए वह दोनों दिन रात प्रयत्नशील रहते थे.

इन्हीं परिस्थितियों के बीच से गुजरते हुए उसने कुछ समय के अपने लिए मानसिक सुख का रास्ता तलाश लिया था. प्रत्येक शाम को ऑफिस से निकलकर वह सीधे घर न जाकर पार्क में बैठ जाता था. यह सिलसिला तब शुरू हुआ था जब उसका बेटा भी स्कूल जाने लगा था. दो बेटियों की शिक्षा के भार से झुका हुआ उसका शरीर जैसे एक भारी पत्थर के नीचे दब गया था. यह पत्थर भी उसकी कमर के ऊपर गिरा पड़ा था. वह हिलना तो दूर कराह भी नहीं सकता था.

पार्क की दुनिया घर-परिवार की दुनिया से पूरी तरह भिन्न थी. यहां रंग-बिरंगे हंसते-खिलखिलाते लोग थे- मर्द-औरतें लड़कियां और बच्चे. यहां कोई किसी से मांग नहीं करता था. बस इस तरह चलता-फिरता दौड़ता और खेलता-कूदता था जैसे उन्हें कभी भूख नहीं लगती थी किसी चीज की उन्हें जरूरत नहीं महसूस होती थी. बस मस्ती से पार्क के स्वछन्द जीवन का आनन्द उठाना ही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय था. यहां न कोई अभाव था न कोई कष्ट. सभी खुश दिखते थे जैसे यही स्वर्ग हो.

पार्क के एक कोने की बेंच पर बैठकर वह निरंतर देखता रहता था, उन मटकों जैसे मोटे कूल्हे वाली औरतों को जो टहलने और अपने बदन की चर्बी की मोटी परतों को घटाने के बजाय पार्क की नर्म गुदगुदी घास पर दस-पांच औरतों के बीच बैठकर मज़मेबाजी करती थीं और बिना रुके बिना किसी की तरफ देखे अपने घर-परिवार पास-पड़ोस और न जाने कहां-कहां की कभी न खत्म होनेवाली बातों में मशगूल रहती थीं. इन औरतों के मोटे थुल-थुल बदन को देखकर लगता था जैसे उन्होंने अपने जीवन में खाने और सोने के अलावा कोई काम नहीं किया था. घर में महरी और बहुओं से काम लिया होगा और बैठे-बैठे बस उन्हें डांटने के लिए ही अपनी जुबान हिलायी होगी. इसी निकम्मेपन की निशानियां आज उनके मोटे शरीर में लटकती हुई दिखायी देती थीं और डांटते रहने से उन्हें बक-बक करने की ऐसी आदत पड़ गयी होगी, जो आज भी पार्क के बीच दिखायी दे रही है.

एक उसकी बीवी है, जिसे देखकर अक्सर उसे गलतफहमी हो जाती है कि क्या सचमुच वह किसी ऐसे घर की पत्नी है जहां सुबह-शाम दो वक्त की रोटी नसीब होती होगी. वह एक सूखे खेत की कमजोर पैदावार जैसी लगती थी. उसके चेहरे पर औरतों जैसी चिकनाई शादी के कुछेक साल तक ही रही थी. अब तो उसके हाथ-पैर सूखकर लकड़ी हो गये थे और पेट पीठ से चिपककर किसी कागजी रोटी की तरह दिखता था. तीन बच्चों की देखभाल और घर की रोजमर्रा की चिख-चिख में उसने अपने शरीर का कभी ख़्याल नहीं रखा और वह दिन-ब-दिन सूखती चली गयी. गनीमत यही रही कि उसके सास-ससुर नहीं थे, वरना इतने सारे लोगों के बीच वह एक चौथाई भी न रह जाती. आज वह कम से कम आधी तो बची ही थी.

पार्क में वह उन सजी-संवरी औरतों को भी टहलते हुए नहीं बल्कि लगभग दौड़ते हुए देखता था जो शादी के बाद एक-दो बच्चों की मां बन गयी थीं और अब उनका शरीर कुछ मोटा-थुलथला हो गया था. अब उन पर जीन्स और टॉप नहीं फबते थे इसलिए वह बच्चों को एक तरफ खेलता छोड़कर टहलते हुए फिर से छरहरी बनने के प्रयास में लगी रहती थीं. ये औरतें चेहरे-मोहरे से अभी भी सुन्दरता के मापदण्ड पर खरी उतरती थीं, परन्तु जैसे ही किसी की नज़र उनके चेहरे से फिसल कर बदन के बाकी अंगों पर पड़ती थी, तो सुन्दरता के सभी भ्रम टूटकर बिखर जाते थे.

इसके अतिरिक्त पार्क में वह औरतें भी घूमने-फिरने के लिए आती थीं, जो नई-नवेली शादी करके अपने पिया के घर आई थीं. वह इसलिए टहलने के लिए निकलती थीं, क्योंकि उनको पता था कि अगर सारा दिन घर में बैठी रहीं, तो एक दिन अपनी छरहरी काया खो देंगी. एक बच्चा होने के बाद तो यही होनेवाला था, इसलिए अभी कुछ दिनों तक वह अपनी शारीरिक सुन्दरता को बरकरार रखना चाहती थीं. ऐसी औरतों के पति अक्सर उनके साथ होते थे और वह टहलने से ज्यादा एक दूसरे के बदन से चिपकने में ज्यादा व्यस्त दिखाई पड़ते थे. अपने पति के बदन से चिपकती हुई औरतें शादी के पहले बिताए गए पलों को याद करके अक्सर भूल जाती थीं कि वह अपने पति से चिपक कर चल रही हैं. ऐसे वक्त पर उन्हें अपने प्रेमी याद आ जाते थे.

बड़ी बारीकी से इन औरतों को देखता हुआ वह अक्सर सोचता रहता था कि नवब्याहताएं इसलिए अपने पति के बदन से चिपकने का प्रयास करती हैं, ताकि उसके पति को कहीं से ये न लगे कि शादी के पूर्व वह ऐसा ही अपने प्रेमी के साथ करती रही हैं, और आज उसके साथ विरक्ति का भाव दिखा रही हैं. शादी के पूर्व जो प्यार ये औरतें अपने प्रेमियों के ऊपर लुटा चुकी होती हैं, उसी की यादगार में उतना ही प्यार सरेआम वह पति के ऊपर उड़ेलने से पीछे नहीं रहती, बल्कि कई बार तो ऐसा लगता है, कि अपने पति के ऊपर वह प्यार की घटाओं की फुहारें नहीं छोड़ रहीं, बल्कि प्यार का नाटक कर रही हैं और नाटकीय प्यार हमेशा दर्षनीय होता है. प्यार किसी पार्क या रास्ते में दिखाने की चीज नहीं होती है. यह मन की ऐसी अनुभूति है, जो एकांत में ही तन-मन को आनंद देती है.

पार्क के खुले मैदान में कुछ बड़ी उमर के लड़के क्रिकेट खेलने में मस्त रहते. उनकी आंखों में सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी, विराट कोहली और गौतम गंभीर बनने के सपने होते थे, इसलिए पार्क में बिखरे अन्य रंगीन सपनों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता था. परन्तु कितने अफसोस की बात है कि इन लड़कों की आंखों में ध्यानचंद, परगट सिंह और धनराज पिल्लै बनने के कोई सपने नहीं होते थे. आधुनिक सभ्य समाज में सबसे चटक रंग पैसों का होता है और इसी रंग में सब इस कदर डूब जाते हैं कि दुनिया के बाकी रंग उनके लिए फीके हो जाते हैं, जबकि अन्य रंगों के बीच भी अथाह खुशियां छिपी होती हैं. इन लड़कों की आंखों में विष्वनाथन आनंद, प्रकाष पादुकोण, आदि बनने के भी सपने नहीं होते थे और लड़कियों की आंखों में इस तरह के सपने तो भूलकर भी नहीं आते थे क्योंकि पार्क के अंधेरे कोनों में वह जो खेल खेलती थीं, उस खेल का इन खेलों से बहुत बड़ा वैर होता है.

पार्क के एक कोने में बच्चों के मनोरंजन और खेलकूद के लिए यंत्र लगे हुए थे. वहां सबसे अधिक चहल-पहल रहती थी. बच्चे खेलते थे तो उनकी माताएं या बाप उनके आसपास ही रहते थे कि खेलते-कूदते कहीं उनको चोट न लग जाए. इन बच्चों को देखते हुए उसे अक्सर कोफ़्त होती थी कि वह अपने बीवी और बच्चों को कभी कहीं घुमाने नहीं ले गया, कभी बाजार में भी लेकर नहीं गया. हाट-बाज़ार का सारा काम बीवी ही करती रहती थी. बच्चों ने कभी जिद् की तो वह अक्सर कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाता था कि बाद में कभी चलेंगे. उसकी टालने की आदत को बच्चे बखूबी पहचान गये थे और अब तो उन्होंने उससे कुछ कहना और मांगना बिलकुल बंद कर दिया था.

हां, महीने में एक बार जिस दिन उसकी तनख्वाह होती थी, वह तीन चाकलेट और चिप्स या कुरकुरे के तीन पैकेट ले जाना कभी न भूलता. बस इतना ही प्यार एक महीने में वह बच्चों को दे पाता था. बाकी प्यार वह अपनी मां से वसूल करते थे, या नहीं करते थे, उसने कभी जानने की कोशिश नहीं की. पार्क में खेलते-कूदते और अपने मां-बाप के साथ हंसते-बोलते बच्चों को देखकर उसके मन में एक हीनभावना जाग उठी और वह अपराधबोध से ग्रस्त हो गया. वह कैसे अपने बच्चों के प्रति इतना निष्ठुर और कठोर हो सकता था. अभाव सबके जीवन में होते हैं कष्ट सभी को व्याप्त होते हैं, कौन व्यक्ति बिना तक़लीफ़ के जीवन गुजारता है. आधी से अधिक दुनिया के लोग गरीब हैं, तो क्या वह हंसते-बोलते नहीं हैं, जीवन का आनंद नहीं उठाते?

उसके मन में एक कचोट सी उठती, परन्तु वह सोचने के अतिरिक्त और कुछ न कर पाता कि वह अपने बच्चों की खुशी के लिए क्या करे?

पार्क में हंसते-खिलखिलाते बच्चों को देखकर वह भावुक हो जाता और उसके अपने बच्चे उसके दिमाग में आकर बैठ जाते तो वह अपना ध्यान दूसरी तरफ करने के लिए जवान और सुन्दर लड़कियों की तरफ देखने लगता. पार्क में टहलने आनेवाली बहुत सारी जवान और सुन्दर लड़कियां होती थीं, जो या तो अपने प्रेमियों के साथ आती थीं और सबसे अलग हटकर कोनों में बैठी होती थीं या कुछ अकेली लड़कियां होती थीं जो केवल टहलने आती थीं, परन्तु कान में इयर फोन लगाकर या तो गाने सुनती थीं या फिर किसी से लगातार बातें करती रहती थीं. यह लड़कियां उम्र के ऐसे पड़ाव पर होती हैं कि अगर अपने प्रेमी से बात न करें, तो उनका आसमान खो जाता है, पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक जाती है और उन्हें भरा-पूरा संसार भी सूना वीरान लगने लगता है. उनके आसपास या मन में अगर उनका प्रेमी है, तो उनका संसार बहारों से गुलज़ार है, वरना सब कुछ श्मशान है. जिन युवतियों के हृदय में प्यार का अथाह सागर उमड़ा पड़ रहा हो और उनको अपनी बांहों में समेटने के लिए लड़कों की कोई कमी न हो, उनके लिए मां-बाप और भाई-बहन का कोई अस्तित्व नहीं होता है.

शाम जब अपनी चादर फैलाकर रात को निमंत्रण देने लगती तो वह देखता कि अचानक कहीं से तीन-चार दुबली-पतली चौदह-पन्द्रह साल के वय की लड़कियां पार्क में प्रकट हो जाती हैं. वह बेचैनी से मोबाइल पर किसी से बातें करती हैं. उनके हाव-भाव और षरीर की हरकतों को देखकर उसे लगता कि वह जवान होने के लिए कुछ अधिक ही बेताब दिखती हैं और आष्चर्यजनक रूप से थोड़ी देर में ही उतनी ही संख्या में कुछ उन्हीं की उमर के लड़के वहां प्रकट होते और वह सब लड़कियां एक-एक लड़के के साथ पार्क के अंधेरे कोने में खो जातीं. वह अपने सिर को घुमाकर इधर-उधर देखने का प्रयास करता, परन्तु तब तक रात घनी हो जाती थी. पार्क में बहुत ऊंचे-ऊंचे घने पेड़ थे और उनके नीचे घना अंधेरा होता था, जहां तक लैम्पपोस्ट की रोशनी नहीं पहुंच पाती थी. अतः वह नहीं देख पाता था कि वह लड़के-लड़कियां कहां बैठे हैं और आपस में क्या कर रहे हैं?

आधुनिक संस्कृति की विकृति पर उसे अफसोस होता.

खैर, पार्क के तमाम रंग थे और दो-तीन घंटों में वह सारे रंग अपनी आंखों के रास्ते अपने दिलो-दिमाग में भर लेता. वह अपने को तरोताज़ा महसूस करता, परन्तु जब उसके कदम घर की तरफ उठते तो वह फिर एक घनीभूत पीड़ा से भर जाता. उसका ध्यान अपने बच्चों की तरफ चला जाता. वह उनके बारे में सोचने लगता, क्या वह अपने बच्चों को प्यार करता है? उसे स्वयं समझ में नहीं आता कि क्या वह सचमुच अपने बच्चों को प्यार करता है. उसकी हरक़तों से कभी ऐसा नहीं लगा. छुटपन में कभी-कभी उन्हें गोद में उठाकर चुमकार लेना ही क्या प्यार होता है? उसने उनकी ज़रूरतों की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया, उनकी पढ़ाई के बारे में कभी नहीं पूछा, उनको पास बिठाकर कभी कोई हंसी-मजाक नहीं किया, कोई किस्सा कहानी नहीं सुनाई, उन्हें प्यार से दुलारकर अपने पास नहीं सुलाया. रात होते ही बस इसका इंतजार किया कि पत्नी बच्चों को सुलाकर उसके पास आकर लेट जाए और वह अपनी ज़रूरत पूरी करके पत्नी को परे धकेलकर खुद आराम से खुर्राटे भरता हुआ सो जाए.

पार्क में बैठकर दूसरे लोगों की गतिविधियों को देखता हुआ अगर वह कुछ सुकून प्राप्त करता था तो अब उसके मन में अपने बच्चों को लेकर अपराधबोध भी जागने लगा था. यह सच है कि उसने अपने बच्चों के प्रति बहुत ज्यादती की है, उनकी सारी ज़रूरतों को पत्नी के ऊपर डाल दिया. उसने उन्हें अनाथ बच्चों की तरह अपने ही घर में अकेला छोड़ दिया कि वह अपने पिता का प्यार भी अपनी मम्मी से हासिल करें. कैसा बाप है वह? एक सरकारी नौकर है, इतनी कम तनख्वाह भी नहीं पाता है. लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो उससे कम तनख्वाह पाते हैं, परन्तु उससे ज्यादा खुश रहते हैं. क्या यह दुःख, तक़लीफ़ उसकी अपनी ओढ़ी हुई नहीं है?

वह जान-बूझकर अपने कर्तव्यों से बचता रहा है. वह एक निकम्मा और काहिल व्यक्ति है जो जिम्मेदारियों से बचता फिर रहा है. अपने ही बच्चों को उसने अनाथ जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया. उसके मन में जैसे हथोड़ियां बजने लगतीं और वह तिलमिला जाता.

पहले जहां पार्क में बैठने से उसे सुकून मिलता था, अब दूसरे ही भाव उसके मन को कचोटने लगते. हर पल उसके दिमाग में अपने बच्चे ही दिखाई देते, रोते-बिलखते, और वह तड़प जाता. उसकी निगाहें पार्क में खेल-कूद रहे बच्चों पर आकर अटक जाती. क्या वह अपने बच्चों को पार्क में घुमाने भी नहीं ला सकता? इसमें तो कोई पैसा नहीं खर्च होता? बस एक छुट्टी की ही तो दरकार होती है. वह तो हफ्ते में दो दिन उसे मिलती है...शनिवार और इतवार. हां, बच्चों को केवल इतवार की छुट्टी होती है. तो क्या इतवार को वह अपने बच्चों को घुमाने के लिए किसी पार्क में नहीं ले जा सकता? किसी मंदिर नहीं ले जा सकता? साल-छह महीने में हाट-बाज़ार नहीं घुमा सकता? इसमें कौन से अधिक पैसे लगते हैं? हा! धिक्कार है उसे? वह कौन सी काल्पनिक दुनिया में अपने अभावों का रोना लेकर जी रहा है?

पार्क में जितने हंसते-मुस्कराते हुए लोगों को वह देखता है, क्या उनके जीवन में कोई दुख और तक़लीफ़ नहीं होगी? क्या उनके बच्चों को ज़रूरतें नहीं होगी? क्या किसी चीज़ को लेकर वह अपने बच्चों को मना नहीं करते होंगे? ज़रूर करते होंगे. अभाव और कष्ट जीवन के अभिन्न अंग हैं. वह सभी के जीवन में एक प्रकार से चलते हैं, तो फिर वह इन्हीं लोगों की तरह अपने बच्चों और बीवी के साथ खुश क्यों नहीं रह सकता?

अचानक उसने सोचा, क्या वह पलायनवादी प्रवृत्ति का है? क्या वह वास्तविकता का सामना करते हुए डरता है...उसके अन्दर से एक आवाज आई, हां, वह निकम्मा और कायर है. वह अपनी अन्तर्रात्मा की आवाज से

कांप उठा. सचमुच, वह एक कायर व्यक्ति है. उसे याद आता है कि बचपन में जब से उसे होश आया था, मां-बाप ने उसे बहुत लाड़-प्यार से पाला था. उसकी मां उसे कोई काम नहीं करने देती थी, बाप भी उसे कुछ नहीं कहता था. दोनों बस उसे पढ़ने के लिए कहते थे. वह बड़ा हो गया और कॉलेज जाने लगा, तब भी मां ने उससे घर-बाहर का कोई काम नहीं करवाया. परिणामतः वह निकम्मेपन का शिकार होता गया, कामचोरी उसके मन में बस गयी. जिम्मेदारियों का बोझ उसके ऊपर कभी नहीं डाला गया. उसे जानने वाले लोग तो आश्चर्य करते हैं कि वह बी. ए. तक पढ़ कैसे गया? यह भी शायद भाग्य का खेल था, वरना वह तो किताब लेकर केवल पढ़ने का बहाना करता था.

बी. ए. करने के बाद वह नाकारा बैठा था तो किसी रिश्तेदार ने उसे टाइप सीखने के लिए प्रोत्साहित किया. टाइप सीखने के बाद उसी ने उसका फार्म कर्मचारी चयन आयोग की टाइपिस्ट-कम-क्लर्क की परीक्षा के लिए भरवा दिया. टाइपिंग और थोड़ी बहुत सामान्य जानकारी की बदौलत वह एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हो गया था. रिश्तेदार ने अगर रास्ता नहीं दिखाया होता, तो आज वह सड़क पर बैठकर भीख मांग रहा होता या फिर किसी दूकान में खुदरा सामान बेच रहा होता.

आज अपने बचपन के निकम्मेपन और कायरता की वज़ह से अपने परिवार की जिम्मेदारियों से भागता फिर रहा है. केवल इसलिए कि घर की सामान्य ज़रूरतों को पूरा करने की उसकी क्षमता नहीं है, या जिम्मेदारी का नाम लेते ही उसके होश उड़ जाते हैं और उसके पांवों तले ज़मीन खिसक जाती है. वह अभाव से उतना दुखी नहीं है, जितना अपनी गैरजिम्मेदाराना हरक़तों की वज़ह से...सोचता हुआ उसका मन बहुत बेचैन हो गया.

गौतम बुद्ध को एकांत वृक्ष के नीचे बैठकर ही ज्ञान प्राप्त हुआ था. और आज उसे पार्क के एक कोने में बैठकर भांति-भांति के लोगों को देखकर अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ था.

हर आदमी अपने दायरे में सिमटा हुआ है, परन्तु उसी दायरे में अगर उसके लिए दुख हैं, तो सुख भी हैं. यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने दायरे में दुख को लपेटकर रोता है, या सुख की चादर ओढ़कर सोता है.

जीवन है तो समस्यायें हैं, समस्यायें हैं तो संघर्ष है और संघर्ष करते हुए जीवन की समस्याओं से निबटना ही तो जीवन है. इस जीवन में हर मौके पर, कष्ट और अभाव में भी, मनुष्य खुश रहने के रास्ते ढूंढ़ लेता है तो क्या वह संघर्षमयी जीवन व्यतीत करते हुए अपने प्यारे-प्यारे तीन बच्चों और दिन भर बच्चों की मांगों और घर के कामों के बीच पिसती हुई पत्नी के साथ खुश नहीं रह सकता. क्यों नहीं रह सकता? सोचकर उसके मन में अतिरिक्त उत्साह का संचार हुआ और वह मन ही मन कुछ निर्णय लेता हुआ वह घर की तरफ चल पड़ा.

उस दिन घर पहुंचकर सबसे पहले उसने पत्नी से पूछा, बच्चे सो गए क्या?

पत्नी ने घोर आश्चर्य से उसे देखा. उसकी आंखों में अविश्वास के भाव तैर रहे थे. पत्नी की निगाहों का तेज वह बर्दाश्त नहीं कर सका और दूसरी तरफ देखने लगा. पत्नी चुपचाप किचन की तरफ चली गई, तो वह चुपचाप बच्चों के कमरे में जाकर उन्हें इस तरह देखने लगा, जैसे कई जनम के बाद वह स्वर्ग से उतर कर आया हो और आज अपने बच्चों को मासूमियत के साथ सोता हुआ देखकर भावुकता और रोमांच से उसकी आंखें भीग गयी थीं. वह काफी देर तक गीली आंखों से उन्हें निहारता रहा और जब उसकी आंखें धुंधलाने लगीं, तो उसने कमीज से अपनी आंखें पोंछ लीं. तभी पीछे से उसकी पत्नी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और बोली, आपकी तबीयत तो ठीक है?

वह मुड़ा और फफक कर एक मासूम बच्चे की तरह रो पड़ा. उसने अपना सिर पत्नी के कंधे पर रख दिया. पत्नी हकबका गयी. उसे लगा सचमुच उसकी तबीयत ख़राब है, कहीं दुःख से पागल तो नहीं हो गया. उसने जोर से पति का सिर अपने हाथों में थाम कर अपने कंधे से अलग किया और बेचैनी से बेाली, प्लीज, आप रो क्यों रहे हो? क्या हुआ है आपको? कुछ बताओगे या ...

उसने पत्नी के हाथों को पकड़ लिया और अपने को संभालने का प्रयास करता हुआ बोला, प्रीति, मैंने तुम पर ही नहीं, अपने बच्चों पर घोर अन्याय और अत्याचार किया है. मैंने तुम लोगों की कभी परवाह नहीं की. सोचता रहा कि मेरा दुख ही सबसे ज्यादा भारी है, तुम्हारे दुख और कष्ट की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया. बच्चों की परवरिश केवल तुम्हारे सहारे छोड़ दी. मैंने अपनी जिम्मेदारी कभी नहीं समझी. मैं तुम्हारा अपराधी हूं, मुझे माफ कर दो.

क्या कह रहे हैं आप? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. वह लाचारी से बोली.

कोई बात नहीं, धीरे-धीरे तुम समझ जाओगी. बस अगले इतवार को हम सभी लोग बाहर चलेंगे. घूमेंगे-फिरेंगे, शाम को किसी रेस्तरां में खाना खाएंगे और रात को लौटकर आराम की नींद सो जाएंगे.

पत्नी फिर अचरज और अविश्वास से उसका चेहरा निहारने लगी.

तुम ये बातें बच्चों को नहीं बताओगी. कल शाम को मैं जल्दी घर आकर स्वयं ही उन्हें बताऊंगा. आखिर उन्हें पता तो चले कि इस संसार में उनका एक बाप भी हैं, जो भले ही गरीब हो, परन्तु लाचार और बेबस नहीं है. मेरे बच्चे अनाथ नहीं हैं. उसने पत्नी की कमर में हाथ डालकर कहा, चलो, इन्हें सोने दो. हम दोनों मिलकर साथ-साथ खाना खाते हैं. पत्नी को झटके पर झटके लग रहे थे, क्योंकि इसके पूर्व दोनों ने कभी साथ खाना नहीं खाया था. वह पहले खाकर अपने कमरे में जाकर लेट जाता था. उसके बाद वह उसी थाली में खाना खाती थी और बर्तन समेटकर किचन में रखने के बाद तब कमरे में जाती थी.

आज सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा था, परन्तु वह सोच रही थी कि शायद इस उलट-फेर में ही उसकी खुशियां कहीं छिपी थीं, जो आज बाहर निकलने के लिए बेताब हो रही थीं और उसे हैरानी में डाल रही थीं.

प्रकाशन - सरिता, मुक्ता, गृहषोभा, भूभारती, मेरी सहेली, कंचनप्रभा, नवभारत टाइम्स, सारिका, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, हिन्दुस्तान, दै. जागरण, दै. भास्कर, नई दुनिया, सन्मार्ग, पांचजन्य, आजकल, पाखी, कथाक्रम, कथादेश, कादम्बिनी, हंस, साहित्य अमृत, माधुरी, जाह्नवी, राष्ट्रधर्म, नवभारत, अक्षरा, अमर उजाला, कलमकार,नवजीवन, जनसत्ता, अमर उजाला, तथा देष की अन्य जानी-मानी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में चार सौ से अधिक कहानियां, कविताएं, ग़ज़लें, लेख आदि प्रकाषित.

प्रसारण - दूरदर्शन लखनऊ तथा आकाशवाणी रामपुर, जबलपुर, शहडोल, वाराणसी और मुंबई से रचनाओं का प्रसारण एवं पाठ.

प्रकाषित कृतियां : 1. हवाओं के शहर में, जंगल बबूलों के, रेत का दरिया और शबनमी धूप (ग़ज़ल संग्रह),

2. उस गली में, डाल के पंछी, ओस में भीगी लड़की और काले सफेद रास्ते (उपन्यास),

3. अब और नहीं, सांप तथा अन्य कहानियां, प्रष्न अभी षेष है, आग बुझने तक, मरी हुई मछली, वह लड़की और उनका बेटा (कहानी संग्रह),

4. कुछ कांटे, कुछ मोती (निबंध-लेख संग्रह)

5. दीमक, सांप और बिच्छू (व्यंग्य संग्रह)

6. प्राची की ओर (संपादित ग़ज़ल संग्रह)

7. उसके आंसू (लघुकथा संग्रह)

8. अम्मा क्यों रोईं (कविता संग्रह)

साहित्यिक गतिविधियांः ‘प्राची’ नामक एक अव्यावसायिक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मासिक पत्रिका का संपादन.

सम्पर्क -rakeshbhramar@rediffmail.com

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