इस लिये समाज के लोग अगर अलग आवाज़ों में बात करें तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है.आए दिन लोग अपने पक्ष की बात सामने रखते हैं, बड़ी सरगर्मी से, दिल की गहराईयों से अपनी बात निकाल कर पेश करते हैं, ज़ोरों-शोरों से, हथेलियाँ ठोंक-ठोंककर ...
फिर भी बस अपना दृष्टिकोण बताते हैं. सही हैं या ग़लत, ये सवाल उठाना ज़रूरी नहीं है.
इस अंक में अशोक गुप्ता जी की कहानी ‘गद्दार’ में गद्दार कौन है सवाल उठा है. वही पुरानी स्थिति उठी है, कि ये एक पक्ष का विद्रोही है या दूसरे पक्ष का स्वतंत्रता सेनानी?
एक बार फिर - हमें कौन सा सही या ग़लत निर्धारित करना है? हमें तो पक्ष लेना है. दो माँओं की लड़ाई में अक्सर बेटे अपनी माँओं का ही पक्ष लेते हैं. ये कहाँ देखते हैं कि सही पक्ष किसका है?
ई-कल्पना में हमारी कोशिश उन कहानियों को प्रकाशित करने की है जिनकी आवाज़ में बुलंदी और गूंज हो. धारणाएँ लेखक की होती हैं, पत्रिका की नहीं.