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राकेश भ्रमर

आग बुझने तक

बड़ी लम्बी रात थी वह. कटती ही न थी. अलाव की आग भी बुझती जा रही थी. आंखों में नींद भी नहीं आ रही थी और अंधेरा अपने भयावह रूप को और अधिक भयावह और विकराल करता जा रहा था.

वह दो लोग थे, जगन और राम मूरत. जगन जवान था और राम मूरत बूढ़ा, परन्तु उनके सुख-दुख इतने साझे थे कि उम्र का उनके बीच कोई भेद न था. उन के घरों में उन दोनां के अलावा और कोई परिजन नहीं था. जाड़े के दिन थे और दोनों बिना किसी बाधा के प्रत्येक षाम को खाना बना-खाकर बूढ़े के दरवाजे पर अलाव जलाकर बैठ जाते थे. कभी कोई तीसरा-चौथा भी आकर वहां बैठ जाता था और थोड़ी देर आग की गर्मी लेकर चला जाता था, परन्तु नियमित रूप से आग बुझने तक वहीं दोनों वहां बैठकर ठण्ड से बचने का प्रयास करते और बातें करते हुए अपना दिल बहलाने के लिये किस्से कहानी का सहारा लेते थे.

बूढ़ा अनुभवी था और उसे बहुत सारी कहानियां याद थीं. वह जवान व्यक्ति को किस्से-कहानियां सुनाता था. दोनों किस्से-कहानियों की काल्पनिक दुनिया में डूबकर राजा-रानियों, जादूगरों आदि के सुखमय जीवन के रंगों को अपनी आंखों में भरते थे. इस प्रकार वह कुछ समय के लिए ही सही, अपने दुःख और दिल में छिपी पीड़ा को भूल जाते थे.

‘‘नींद आ रही है क्या?’’ बूढ़े ने पूछा.

‘‘नहीं, आज ठण्ड कुछ ज्यादा है.’’ जवान व्यक्ति ने सिहरते हुए कहा.

‘‘तो चारपाई पकड़ लो, रजाई ओढ़कर लेट जाओगे तो नींद अपने आप आ जायेगी.’’

‘‘नहीं आती है काका.’’ जवान आदमी ने निःष्वास भरकर कहा, ‘‘जब से बीवी मुझे छोड़कर चली गयी, तब से नींद भी रूठ गयी है. रजाई की रुई सिमटकर थक्कों में बदल गई है. बीच-बीच में केवल नाममात्र को पतला कपड़ा रह गया है. ठण्ड तीर की तरह बदन में घुस जाती है और फिर सुबह तक नींद नहीं आती.’’

‘‘सच कहते हो, जगन! मेरे साथ भी यही होता है. जब से बुढ़िया स्वर्ग सिधारी, मेरे जीवन का सुख-चैन भी कहीं छिपकर बैठ गया है. जब कोई आसरा न हो तो जीवन में आराम और सुख कहां?’’

‘‘काका, छोड़ो ये दुःखभरी बातें. इनको याद करने से तो और भी नींद नहीं आएगी. कोई कहानी सुनाओ, रात तो कट जाएगी.’’

‘‘कौन सा किस्सा सुनाऊं? जितने किस्से याद थे सारे के सारे तो सुना चुका तुम्हें. तुम बार-बार उन्हीं किस्सों को फिर से सुनना चाहते हो.’’ बूढ़े ने आग को कुरेदते हुए कहा.

जवान जगन ने बूढ़ी आग पर फूंक मारते हुए कहा, ‘‘राजा रानी के किस्से छोड़कर कोई दूसरी कहानी सुनाओ, जिसमें हमारे आपके जैसा कोई हीरो हो.’’

बूढ़ा एक खोखली हंसी हंसकर बोला, ‘‘मैंने तो आज तक ऐसी कोई कहानी नहीं सुनी, जिसका हीरो कोई मजदूर या किसान हो. किस्से तो राजा, महाराजाओं और वीर योद्धाओं के ही होते हैं, उन्हीं के गान गाये जाते हैं. हमारे जैसे लोगों को कौन पूछता है, बताओ? सरकार भी तो नहीं, जबकि लोग कहते हैं कि इस देष में जनता की सरकार है.’’

‘‘काका, आप तो मुझे बहकाने की कोषिष कर रहे हो. सरकार की बात करके असली मुद्दे को मत छुपाइए. देष में किसकी सरकार है या कौन सी सरकार है और कैसी सरकार है, इससे हमें क्या लेना-देना? हम तो जब पैदा हुए थे, तब भी इसी कोठरी में बरसात के दिनों में टपकती छत के नीचे भीगते थे, जाड़े में कांपते थे और गरमी के दिनों में झुलसते थे और आज भी वहीं हालत है. राजगद्दी पर राजा हो या महाराजा, नवाब हो या बादषाह या फिर जनता की सरकार हो, हम लोगों की हालत हमेषा एक जैसी रहती है, बेबस, लाचार और अपनी दुर्दषा पर खून के आंसू बहाते हुए. अगर देष में जनता की सरकार होती तो हम यूं क्यों जार-जार रोते?’’

बूढे़ ने आग की धूमिल रोषनी में जवान व्यक्ति का सांवला चेहरा देखा. उसमें आग सी धधक रही थी. वह मुस्कुराया और बोला, ‘‘तुम्हें भी जमाने की पहचान होने लगी है.’’

‘‘होगी क्यों नहीं? रात-दिन आप जैसे गुरू की बातें जो सुनता रहता हूं.’’ जगन भी मुस्कुराया. फिर जैसे अचानक उसे कुछ याद आ गया हो. बोला, ‘‘अरे, देखो न्! बात कहां से कहां पहुंच गयी? अब तो कोई किस्सा सुना ही दो.’’

‘‘अब किस्सा सुनाना व्यर्थ है, क्योंकि आग पूरी तरह बुझ चुकी है और ऐसे में हम ज्यादा देर तक बैठे नहीं रह सकते. अच्छा होगा कि चारपाई पर लेटकर फटी-पुरानी रजाई के साथ लिपटकर थोड़ी बहुत जो गर्मी प्राप्त हो, उसके सहारे सोते-जागते रात बिता दें. याद रखो, आग चाहे जमीन की हो या दिल की, जब तक जलती रहती है, तभी तक जीवन चलता है, वरना सब राख ही राख है.’’

‘‘हां, काका, समझ गया, अब राख को कुरेदने से कोई फायदा नहीं. लेकिन एक वायदा करो कि कल एक किस्सा जरूर सुनाओगे, ऐसा किस्सा, जो हमारा अपना लगे.’’ जवान व्यक्ति ने हठ पकड़ते हुए कहा.

बूढ़े ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘अच्छा, ठीक है. रात में मैं कोई किस्सा सोचकर रखूंगा.’’

और फिर जगन अपने घर चला गया और बूढ़ा भी अपनी झिलंगी चारपाई पर जाकर लेट गया. नींद कहां आनी थी. वह विचारों में मग्न हो गया. सोच रहा था कि कल जगन को कौन सी कहानी सुनाएगा? सोचते-सोचते जीवन के विभिन्न रंग- काले, नीले, सफेद, पीले, लाल और हरे- सभी प्रकार के रंग उसके दिमाग में उभरने लगे. उन रंगों में वह डूब गया, जैसे कोई हसीन सपना देख रहा हो, परन्तु उन सपनों में भी कहीं-कहीं काले गड्ढे थे.

वह सपना उसे बिलकुल अपना-सा लगा. दूसरे दिन जब जगन और वह दोनों एक साथ उसके घर के छप्पर के नीचे अलाव तापने के लिए बैठे और बातों का सिलसिला चल निकला, तो बूढ़े राम मूरत ने अपने सपने को ज्यों का त्यों कहानी बनाकर जगन के सामने पेष कर दिया-

एक विषाल देष के एक अत्यन्त पिछड़े गांव में एक मजदूर किसान रहता था. गांव इतना पिछड़ा था कि वहां न तो पक्की सड़क थी, न कस्बे और षहर तक जाने के लिए कोई सार्वजनिक साधन...गांव के ज्यादातर लोग गरीब थे, परन्तु कुछ लोग अत्यन्त अमीर भी थे जो गरीब लोगों पर षासन करते थे. गरीब गांव की तरह वह किसान भी अत्यन्त गरीब था और दूसरे के खेतों में काम करके गुजारा करता था. वह गांव के मुखिया के खेतों में काम करता था और बदले में एक बीघा खेत उसे पूरे साल के लिए जोतने-बोने के लिए मिलता था, जिसकी पूरी उपज उसी की होती थी. इसके अतिरिक्त उसे दैनिक मजदूरी का केवल एक चौथाई भाग मिलता था. उन दिनों एक रुपया रोज की मजदूरी होती थी.

किसान के मां-बाप बचपन में ही गुजर गये थे. वह पड़ोसियों के रहमो-करम पर पलकर बड़ा हुआ था. बड़ा हुआ तो उसने अपनी मेहनत से घर को फिर से बनाया, कुछ पैसे जोड़े और अपने बल-बूते पर षादी की. षादी के बाद उसके घर में खुषियों की बहार आ गयी.

वह किसान मेहनती ही नहीं, गुणी भी था. रस्सी बटने से लेकर, चारपाई-पलंग बुन लेना और घर की दीवारों की चिनाई कर लेने का काम बड़ी सफाई और फुर्ती से करता था. इन कामों से उसे अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी, परन्तु स्वाभिमानी इतना कि किसी के दरवाजे पर अपनी मजदूरी मांगने के लिए कभी नहीं गया. इस तरह बहुत सारे लोग उसकी मजदूरी मार जाते थे.

जगन कहानी सुनते हुए बीच-बीच में हां-हूं कहता जा रहा था. किस्से कहानी के बीच में हुंकारी न भरी जाए, तो किस्सा सुनाने वाले का मन उचट जाता है, तारतम्य बिगड़ जाता है और सुनने वालों को भी नींद आने लगती है.

यहां तक कहानी सुनने के बाद जगन ने टोंका- ‘‘काका, ये कहानी कहीं आपकी तो नहीं?’’

‘‘अरे नहीं, मेरी कैसे हो सकती है? हां, मेरे जैसे किसी किसान की अवष्य है और इस तरह के किसान देष के हर गांव में मिल जायेंगे.’’

‘‘अच्छा, उस किसान का नाम क्या था?’’ जगन ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘नाम कोई भी रख लो. नाम से किसान व्यापारी नहीं बन जाएगा. किसान हर हाल में किसान ही रहता है.’’ राममूरत ने लाचारी के भाव से कहा.

‘‘तो फिर आगे क्या हुआ?’’

‘‘आगे ये हुआ कि किसान मेहनती तो था ही, बड़ा भलामानस भी था. उसकी पत्नी भी बड़ी भोली, दयालु और परोपकारी थी. दोनों निःस्वार्थ भाव से गांव वालों के काम आते थे, परन्तु कहावत है कि सीधे आदमी का मुंह कुत्ता चाटता है. वहीं हाल उस बेचारे किसान का था. बेचारा अपनी पत्नी के साथ गांववालों के काम करता और लोग उनके काम की जायज मजदूरी भी मार जाते. कभी आधी, तो कभी पूरी की पूरी डकार जाते. फिर भी वह दोनों खुष रहते थे और किसी से गिला न करते थे. वह अपनी मजदूरी मांगने के लिए किसी के दरवाजे पर नहीं जाता था, परन्तु जिन लोगों को उससे दुबारा काम पड़ता था, वह उसके पहले वाले काम का मेहनताना देकर दूसरा काम करवा लेते थे. और जब तक तीसरा काम नहीं पड़ता था, उसको दूसरे काम की मजदूरी नहीं देते थे.

अपने प्रति गांववालों की बेईमानी और षोषण के बावजूद वह किसान खुष रहता था. इसमें उसकी पत्नी का खासा योगदान था. उसकी पत्नी बहुत ही भली और हंसमुख औरत थी. उसके खुषमिजाज स्वभाव से किसान अपने सारे अभाव, अपमान और ज्यादतियां भूल जाता था. वह दोनों रूखी-सूखी खाकर खुष रहते थे. उसकी बीवी की भी कोई मांग नहीं होती थी. जो भी घर में होता था, दोनां मिल-बांटकर खाते थे और गाढ़े के कपड़े पहनते थे.

उन दोनों के सुखमय जीवन में बस एक ही चीज की कमी थी कि षादी के दस साल बीत जाने के बाद भी उनके घर में बच्चे की किलकारियां नहीं गूंजीं थी. इसी बात को लेकर किसान और उसकी पत्नी अक्सर उदास हो जाते थे, परन्तु यह उदासी भी क्षणिक होती थी. काम में डूबकर वह अपने गमों को भुला देते थे.

आखिर भगवान ने उनके दिल की सुन ली और पूरे बारह साल बाद किसान की पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया. उन दोनों के जीवन में खुषियों की बहार आ गई. किसान कोरा अनपढ़ था तो उसकी पत्नी भी पढ़ी-लिखी नहीं थी, परन्तु उन्होंने अपने बेटे को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा. लड़का बहुत जहीन था और अपनी कक्षा में सदा अव्वल आता था. धीरे-धीरे वह पांचवीं कक्षा पास करके छठीं में आ गया और पास के ही एक गांव के जूनियर स्कूल में भर्ती हो गया.’’

‘‘काका, यह तो बहुत साधारण कहानी है, इसमें रहस्य, रोमांच और जिज्ञासा कहां है?’’

‘‘तुम चुपचाप सुनते रहो, बीच में मत टोंको.’’ बूढा राम मूरत अपनी बात में व्यवधान से नाखुष हुआ. वह पूरे मनोयोग से किस्सा बयान कर रहा था. उसने आगे कहा-

‘‘जैसा कि मेंने बताया किसान बहुत स्वाभिमानी था, परन्तु जब उसका बेटा बड़ा होकर जूनियर स्कूल में पढ़ने जाने लगा तो वह उसे दबंगों और खासकर मुखिया के घर पर अपने पैसे की वसूली के लिए भेजने लगा. लड़का जाता, कभी कुछ वसूल पाता, कभी लोग मना कर देते और वह खाली हाथ लौट आता. लौटकर आता तो उसका बेटा गुस्से में फुंफकार कर कहता, ‘बापू, मैं किसी के घर पैसे मांगने नहीं जाऊंगा.’

‘क्यों, ऐसा क्या हो गया?’ वह बड़े प्यार से बेटे के सिर पर हाथ रखकर पूछता.

‘साले बहुत हरामी होते हैं ये लोग, जैसे हम उनके घर भीख मांगने जाते हैं. हम अपना ही पैसा तो मांगने जाते हैं, फिर भी देने में आनाकानी करते हैं. कुत्ते की तरह दुत्कार देते हैं.’

‘हां बेटा, ये बात तो है. बड़े आदमी जल्दी अपनी जेब से पैसा नहीं निकालते, इसीलिए तो अमीर होते हैं.’’

‘बेटा छोटा है, उसको किसी के घर पर इस तरह मत भेजा करो. उसके मन पर गलत असर पड़ता है.’’ पत्नी ने पति को समझाने का प्रयत्न किया.

‘‘क्या करूं, भलीमानस, ये गांववाले इस तरह तो हमें भूखा मार डालेंगे. कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘तो खुद चले जाया करो,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘मैं नहीं जाना चाहता. लोग जिस तरह हिकारत से हमारा ही पैसा हमें टुकड़ों में देते हैं, उससे मेरा खून खौल जाता है. मन करता है कि किसी का सिर तोड़ दूं, इसलिए किसी अनहोनी से बचने के लिए मैं किसी के दरवाजे पर नहीं जाता.’’

यहां पर जगन ने बूढे को टोंक दिया, ‘‘काका, वह किसान तो बड़ा भलामानस, षांत और सरल स्वभाव का था, फिर उसे गुस्सा कैसे आता था?’’

बूढ़े राममूरत ने बताया, ‘‘यहीं तो उसके स्वभाव में विरोधाभास था.. वह भला था, दयालु था, परन्तु आखिर था तो एक साधारण आदमी. तुमने सुना ही होगा कि हमारे देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों को भी गुस्सा आता था, फिर हम लोगों को क्यों नहीं आएगा? वह एक साधारण किसान था और मन लगाकर सबके काम करता था, दूसरों के दुख को अपना दुख समझता था, परोपकार करने में भी कभी पीछे नहीं रहता था, परन्तु दूसरों की बेईमानी, षोषण और दुर्व्यवहार से उसके मन में क्रोध का लावा उबल पड़ता था. इसीलिए वह अपनी ही मजदूरी की वसूली से बचता था और किसी से अपना पैसा नहीं मांगता था. मांगने पर जब कोई उसे पैसा देने से मना करता था तो वह आगबबूला हो जाता था, इसलिए जब उसका बेटा कुछ बड़ा और समझदार हो गया तो उसे दूसरों के पास पैसा लेने के लिए भेजने लगा.’’

‘‘फिर आगे क्या हुआ?’’ जगन ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘आगे यहीं हुआ कि जब वह अपनी पत्नी से बात कर रहा था, तो उसका बेटा बोला, ‘बापू, जो बात आप कह रहे हो, वहीं बात मेरे भी मन में आती है. एक तो दरवाजे पर घण्टा भर खड़ा रखते हैं, फिर कहते हैं, आज नहीं कल ले जाना. बहानों की तो उनके पास कमी नहीं है. कोई न कोई बहाना बनाकर पैसा देने से मना कर देते हैं. उनके घर में तो किसी चीज की कमी नहीं है, परन्तु क्या उनको इतनी छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि मजदूर को अगर समय पर मजदूरी नहीं मिलेगी तो वह खाना कहां से खाएगा. उसके घर में कौन सी जमींदारी होती है या पुरखों का धन गड़ा हुआ रखा है.’

‘‘किसान और उसकी पत्नी ने आष्चर्य से अपने बारह साल के बेटे को देखा. उसकी अकल में इतनी सारी दुनियादारी की समझ कहां से आ गयी थी. यह सब अनुभवों का कमाल था. गरीबी, बेबसी और लाचारी आदमी को बहुत समझदार बना देती है, बस उसमें साहस का अभाव होता है और वह जीवन की कठिनाइयों से बहुत जल्दी हार मान लेता है. किसान ने अपने बेटे को समझाते हुए कहा, ‘बेटा तुम अभी बहुत छोटे हो, पढ़ रहे हो, ऐसे खयाल अपने मन में मत लाया करो. हमें इन्हीं लोगों के बीच में काम करना और अपना जीवन गुजारना है.’

‘लेकिन मैं अपनी बेइज्जती बरदाष्त नहीं कर सकता. मैं तो कहता हूं, देने का मन न हो तो सीधे मना कर दें, परन्तु नहीं, घण्टा भर बिना बात किये लटकाए रखते हैं और बाद में टका सा जवाब दे देते हैं. मेरा समय बरबाद करने के बाद कहते हैं कि बाद में ले जाना. यही बात वह पहले भी कह सकते थे.’

‘बेटा, बड़े आदमियों के यही तरीके होते हैं गरीबों को परेषान करने के... तुरन्त मना कर दें तो बड़े आदमी किस बात के?’

‘हुंह होंगे बड़े अपने घर के...मैं कोई भीख नहीं मांगता उनसे.’’ बेटे ने अकड़कर कहा और मुंह बनाता हुआ बाहर चला गया. किसान और उसकी पत्नी को अपने बेटे के रवैये से बड़ा दुख हुआ. बड़ा होकर क्या बहुत क्रोधी और अहंकारी बनेगा? वह दोनों कुछ समझ नहीं पाए.

इसी तरह दिन बीत रहे थे. किसान और उसकी पत्नी और बेटे जीवन की गाड़ी को लड्ढम-पड्ढम खींच रहे थे. अब उनका बेटा आठवीं कक्षा में पहुंच गया था और उसका षरीर और कद-काठी निकल आई थी. चौदह साल की उमर में वह सतरह-अठारह साल का युवक लगने लगा था. मसें भींजने लगी थीं. उसकी जवानी का उभार देखकर पति-पत्नी खुष होते, उसकी बलैयां लेते और उसके सुखमय जीवन के लिए भगवान से रात-दिन प्रार्थना करते.

मुखिया के घर वसूली के लिए किसान अपने बेटे को ही भेजता रहा. वह भी पिता की आज्ञा मानकर, लेकिन बुझे मन से वसूली के लिए जाता था. एक दिन षाम होने के पहले ही वह मुखिया के दरवाजे पर जाकर डट गया था. दीवाली आने वाली थी और वह अपने लिए नए कपड़े बनवाना चाहता था. उसके बापू ने बताया था कि लगभग पचास रुपये मुखिया से मिलने थे. इतने में उसका कुर्ता-पायजाता बन जाता, इसलिए वह भी उत्साह से पैसे वसूलने के लिए गया था.

मुखिया अपनी चौपाल में पलंग पर बैठा था. पास ही उसके दो बेटे भी खेल रहे थे. एक बेटा किसान के बेटे की उमर का था, दूसरा उससे दो साल छोटा. वह दोनों बहुत षरारती थे. बार-बार उससे पूछ रहे थे, ‘‘क्या लेना है, क्यों खड़े हो?’’ किसान का बेटा चुपचाप खड़ा था, उनकी षरारत भरी बातों का कोई जवाब न देता था. उसने मुखिया से आते ही कह दिया था कि बापू ने पैसे लेने के लिए भेजा है. मुखिया ने एक बार उसे घूरकर देखा था और चुपचाप अपने बेटों के खिलवाड़ को देखता रहा.

काफी देर हो गयी. किसान का बेटा खड़े-खड़े ऊबने लगा. बीच-बीच में मुखिया के बेटे उसको चिढ़ाने से बाज न आते. न मुखिया पैसे दे रहा था, न मना कर रहा था. ऊपर से उसके बेटे किसान के बेटे को उकसा रहे थे. वह चिढ़ने के साथ-साथ आक्रोष से भी भरता जा रहा था. मन कर रहा था कि एकाध का ईंट मारकर सर तोड़ दे. उसने इधर-उधर देखा, परन्तु पास में उसे कोई ईंट का टुकड़ा नजर नहीं आया.

अपने भावों को जब्त करते हुए उसने एक बार फिर मुखिया की ओर आषाभरी नजरों से देखा और मंद स्वर में कहा, ‘‘दीवाली आ रही है, मुझे पैसे चाहिए.’’

हालांकि उसका स्वर नम्र था, फिर भी मुखिया चिढ़कर बोला, ‘‘अरे तो ऐंठ क्यों रहा है. दे देंगे न, चुपचाप खड़ा रह.’’

‘‘कब तक खड़ा रहूं. एक घण्टे से ज्यादा हो गया है.’’ इस बार उसके स्वर में विनम्रता नहीं थी.

मुखिया का बड़ा वाला बेटा अचानक बीच में कूद पड़ा, ‘‘एक घण्टे से खड़ा है तो क्या हम तेरे नौकर हैं. भिखारी कहीं का, अपनी औकात में रह, साले पता नहीं कहां से चले आते हैं सरे-षाम पैसा मांगने के लिए...यहां कोई पेड़ लगा है, जो पैसे तोड़ने के लिए चले आए हो. भागो नहीं तो दूंगा दो हाथ, अभी सही हो जाओगे.’’

‘‘भैया, चलो इसको दौड़ाते हैं?’’ मुखिया का छोटा बेटा बोला और किसान के बेटे की तरफ लपका, जैसे कुत्ते को हकेड़ रहा हो.

किसान के बेटे का सिर घूम गया. इतनी देर से वह अपमान की आग में जल रहा था. भले ही छोटा था, परन्तु मान-अपमान की भाषा समझता था. आठवीं में पढ़ता था, स्वाभिमानी भी था. मुखिया के व्यवहार और उसके दोनों बेटों की अपमान भरी भाषा से उसका खून खौल उठा. जिस बात से वह अब तक बचता रहा था, वह आज होनी ही थी. क्रोधाग्नि में इस कदर जल उठा कि उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था. उसे आसपास कुछ नहीं मिला तो उसने देखा कि पलंग के सहारे एक लाठी रखी है, जिसके सहारे मुखिया चलता था. उसने आव देखा न ताव. लपककर वह लाठी उठाई और आंख मूंदकर चला दी.

लाठी तड़ाक से किसी को लगी और चीख मारकर कोई ढेर हो गया. फिर वह वहां नहीं रुका. भागकर पता नहीं कहां चला गया.’’ इतना कहकर बूढ़ा रुक गया. उसकी आवाज में नमी आ गई थी. अंधेरे में वह अपनी आंखों की कोरों से जैसे मैल साफ कर रहा था, परन्तु जगन जानता था यह उसके आंसू थे.

जगन के जैसे होष हवाष गुम हो गए थे. बूढे़ के भी होष ठिकाने नहीं थे. कुछ देर बाद जगन ने बात का सिरा पकड़ते हुए पूछा-

‘‘फिर क्या हुआ काका?’’

‘‘फिर क्या होना था, बच्चा. मुखिया के बेटे का सिर फट गया था, उसे षहर के अस्पताल में भरती करना पड़ा. किसान का बेटा तो पता नहीं कहां चला गया था. कोई उसे ढूंढ़ नहीं पाया, पुलिस भी नहीं. लेकिन उसके बाप की षामत आ गयी. गांव के दबंगों ने रात में ही उसका घर जला दिया. उसकी सारी जमा-पूंजी नष्ट नष्ट कर दी. उसको बुरी तरह मारा पीटा गया. वह बेचारा अधमरा हो गया. उसकी बीवी बेबस और लाचार थी. गांव के दबंगों के सामने बस रोती, गिड़गिड़ाती रही, परन्तु कोई उसकी मदद को न आया. उसकी अपनी जाति-बिरादरी के लोग भी डर के मारे उनकी मदद न कर सके.

दूसरे दिन दबंगों ने उस किसान को उसकी पत्नी के साथ गांव छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया और वह वहां से दूर किसी और गांव में जाकर बस गए. गांव नहीं छोड़ते तो दबंग उन्हें ही मार डालते.

‘‘फिर क्या किसान का बेटा मिला?’’ जगन ने आगे पूछा.

‘‘नहीं, किसान के पास न तो पैसा था, न अब इतनी षक्ति कि वह अपने बेटे को ढूंढ़ने के लिए कहीं जाता. उसकी पत्नी को बेटे के गम ने बुढ़ापे के दरिया में धकेल दिया. वह रात दिन रोती और बस रोती रहती...उसके गम का कोई अंत नहीं था. उसके बाद उनको दूसरा बच्चा भी नहीं हुआ. वह बेचारी अपने बेटे को दुबारा देखने की आस में तरसती हुई आधी उमर में ही मर गयी.’’

‘‘और वह किसान?’’

‘‘वह बड़ा जीवट का आदमी था. लाख तकलीफों और मुसीबतों में भी वह जीवन की टूटी-फूटी नैया खेता रहा. उसे आषा तो नहीं थी कि उसका बेटा उसे कभी मिलेगा, परन्तु जीवन की डगर ऐसी है कि उस पर चलते हुए आषाएं कभी नहीं मरतीं, वह किसान भी अपने बेटे को जीवन में एक बार देखने की लालसा लिए जीता रहा और जीता रहेगा.’’ राम मूरत ने एक आह् भरी.

जगन का दिल भी भर आया था. राम मूरत के चुप होते ही वह बोला, ‘‘कहानी के अंत में क्या किसान को उसका बेटा मिलेगा? और वह दोनों क्या हर कहानी की तरह खुषी-खुषी अपना जीवन व्यतीत करेंगे, जैसा कि राजा-महाराजाओं वाली कहानियों में होता है.’’

बूढ़ा राम मूरत एक खोखली हंसी हंसा. रात के अंधेरे सन्नाटे में उसकी हंसी बड़ी डरावनी लगी. वह बोला, ‘‘कहानी तो खत्म भी हो गयी और एक बात सदा याद रखना, राजा-महाराजा की कहानी और गरीब आदमी की कहानी में बहुत बड़ा अंतर होता है. वह यह कि दोनों कहानियों का अंत एक जैसा कभी नहीं होता.’’ बूढ़े ने बुझती हुई आग को कुरेदा. अब आग की आंच खत्म होने लगी थी.

जगन ने आगे पूछा, ‘‘काका, एक बात बताओ, लेकिन सच-सच बताना, क्या यह कहानी आपकी अपनी कहानी नहीं है? आप भी तो दूसरे गांव से आकर यहां बसे हो.’’

‘‘हमारे जैसे मजदूर किसानों की सदा यही कहानी होती है. तुम बताओ क्या इसमें तुम्हारे जीवन का कोई रंग नहीं है.’’ राम मूरत ने बात को टालने के भाव से कहा.

‘‘सच कहते हो काका, यह हमारी ही कहानी है.’’

और वह दोनों चुप हो गये. रात और ज्यादा घनी हो गयी थी. इसके साथ ही उनका दुःख भी घना होकर उनके दिल में गहरा हो गया.

आग बुझने के बाद वह दोनों अपने-अपने दुखों के साथ अलग-अलग चारपाई पर लेटकर सुनहरे जीवन के सपनों में खो जाएंगे, ऐसे सुनहरे सपने जो कभी पूरे नहीं होते.

 

प्रकाशन - सरिता, मुक्ता, गृहषोभा, भूभारती, मेरी सहेली, कंचनप्रभा, नवभारत टाइम्स, सारिका, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, हिन्दुस्तान, दै. जागरण, दै. भास्कर, नई दुनिया, सन्मार्ग, पांचजन्य, आजकल, पाखी, कथाक्रम, कथादेश, कादम्बिनी, हंस, साहित्य अमृत, माधुरी, जाह्नवी, राष्ट्रधर्म, नवभारत, अक्षरा, अमर उजाला, कलमकार,नवजीवन, जनसत्ता, अमर उजाला, तथा देष की अन्य जानी-मानी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में चार सौ से अधिक कहानियां, कविताएं, ग़ज़लें, लेख आदि प्रकाषित.

प्रसारण - दूरदर्शन लखनऊ तथा आकाशवाणी रामपुर, जबलपुर, शहडोल, वाराणसी और मुंबई से रचनाओं का प्रसारण एवं पाठ.

प्रकाषित कृतियां : 1. हवाओं के शहर में, जंगल बबूलों के, रेत का दरिया और शबनमी धूप (ग़ज़ल संग्रह),

2. उस गली में, डाल के पंछी, ओस में भीगी लड़की और काले सफेद रास्ते (उपन्यास),

3. अब और नहीं, सांप तथा अन्य कहानियां, प्रष्न अभी षेष है, आग बुझने तक, मरी हुई मछली, वह लड़की और उनका बेटा (कहानी संग्रह),

4. कुछ कांटे, कुछ मोती (निबंध-लेख संग्रह)

5. दीमक, सांप और बिच्छू (व्यंग्य संग्रह)

6. प्राची की ओर (संपादित ग़ज़ल संग्रह)

7. उसके आंसू (लघुकथा संग्रह)

8. अम्मा क्यों रोईं (कविता संग्रह)

साहित्यिक गतिविधियांः ‘प्राची’ नामक एक अव्यावसायिक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मासिक पत्रिका का संपादन.

सम्पर्क -rakeshbhramar@rediffmail.com

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