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तबस्सुम फ़ातिमा

महिला दिवस के अवसर पर .... भारतीय महिला के नाम

भारतीय महिला-कथा वाया सिमोन

हम आज़ाद होते हुए भी

कहां आजाद थे/

सदियों से हमारे बनाये जाने की

परम्परा का अन्त ही नहीं होता

शताब्दियों में एक परम्परा के अन्त से

दूसरी परम्पराओं का महा-जल बुना जाने लगता/

और हर परम्परा

पुरूष-सत्तात्मक समाज में

हमारी ही आहुति देने को मौजूद होती/

दासी-प्रथा और सती-प्रथा के

किस्से पुराने कहां हुए/

बस शक्लों बदली जाती रहीं

हम तब भी मर रहे थे/

हम अब भी मर रहे हैं

मिट्टी के तेल, तेजाब से गैस-सेलेन्डर तक

जलाये जाने का ढोंग अब भी जारी है

अब भी रौदा जा रहा है हमें/

सड़कों पर/ दफ्तरों में/ बसों में/

अब भी हर मोड़ पर रुसवा हो रही हैं/

हजारों दामिनी/

क़ानून की किताबों में होने वाले

संशोधन के बावजूद

राधा, मरयम और सीता वहीं खड़ी हैं/

समाप्त नहीं होती अग्नि-परिक्षाएं/

हर बार जाग जाता है देह का तांडव

हर बार पैदा हो जाते हैं नये कंस और रावण/

हर बार सजने के लिए होती है

हमारी ही चिता/

वे कहानियों केवल संवाद भर हैं

जहां सुनायी जाती है

बड़ी-बड़ी मज्लिसों में

हमारी विजय-गाथायें/

बखान किया जाता है

एवरेस्ट पर चढ़ने वाली हमारी उड़ान को/

बहाया जाता है कि/

सत्ता के गलियारों से हवाई जहाज़

फिल्म, मीडिया से प्रशासन के सबसे ऊंचे ओहदों पर

अब भी जा रही है हमारी ताजपोशी/

लेकिन उसके पीछे/

आराम से सुनी जा सकती है/

हैवानियत में निहाये भेड़ियों की

कर्कश, दिल दहला देने वाली आवाजें/

चमक महसूस की जा सकती है

गिद्ध आंखों की/

किसी राजनीतिक के बेडरूम से

कैमरे की नंगी आंखें देख रही होती हैं हमारी ओर/

किसी स्टिंग ऑप्रेशन में

नंगे हो रहे होते हैं हम/

लजीज कीमे और कबाब की तरह/

शराब की महफिलों में

लिया जा रहा होता है हमारा जायका/

मां, बहन और बेटी के रिश्ते भी

नीलाम हो रहे होते हैं

सदियों-शताब्दियों में

कुछ भी नहीं बदला/

बदलती हुई हर संस्कृति के बाद भी

हमारे लिए

वहीं हड़प्पा और मोहन जुदाड़ो की

संस्कृति ही शेष रह जाती है/

रोटी-चक्की से बिस्तर तक

हम वहीं रह जाते हैं

आदि काल से चले आ रहे

पुरूष-संग्राम से हताहत

ज़लील कीड़े/

जिन पर कीट-नाशक दवाइयों का भी

असर नहीं होता/

सिमोन द ब्वार के शब्दों में/

सदैव से हमारी चाभी पुरूषों के

पास रही है/

सदियों से उन्हीं का रहा है- रिमोट कन्ट्रोल

कठपुतलियों की तरह नाचते हुए

अब पांव भी घिस चुके हैं हमारे/

पर अभी बाकी है नाचना....

तक.... धिना....धिन.... तक

तक.... धिना.... धिन

तक.... धिना....

सामने गुरूब होते सूरज के बावजूद

थिरकते पांव का नृत्य जारी है/

तक.... धिना.... धिन.... तक

तक.... धिना.... धिन

तक.... धिना....

​- तबस्सुम फ़ातिमा

डी-304 ताज एन्कलेव गीता कालोनी दिल्ली-110031

मो० 9958583881

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