भास्करराय ने तबले पर थाप दी और चारों तरफ तबला गुंज उठा ... धातिर किटितक ... तिरकिट धूम्म् ... ऊम्म्म्म्.
उनको खयाल आता है कि सामने बैठे तबलावादन सीखने आये हुए सारे स्टुडन्ट्स बेरुखी से बैठे हुए है. किसी के चेहरे पे सीखने का लगाव नहीं. कुछ स्टुडन्ट्स का तो ध्यान भी बाल्कनी के उस पार फैले फ्लायओवर से सटकर लगाये एक बड़े होर्डींग्स पर बार-बार टकराता रहता है.
तबला बजाना रोककर भास्करराय गुस्सा उगलते है, वहाँ बाहर क्या देखने का है? मैं यहाँ जपताल और त्रिताल सिखाने जा रहा हूँ और आप सब उस विदेशी नगोरे को क्या टिकुर-टिकुर घुर रहे हो?
कहते हुए वे इतना गुस्सा हो चुके कि खुद को रोक ना सके, आदत के मुताबिक तबले ऊठाकर स्टुडन्ट्स की ओर फेंकते है.
अच्छा हुआ तबले टूटे नहीं, और स्टुडन्ट्स को तो लगने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्युं कि भास्करराय के ‘निःशुल्क तबलावादन क्लासीस’ में से स्टुडन्ट्स लोग को गायब हुए बरसों बीत चुके हैं. वे ऐसे ही कई बार अन्यमनस्क होकर तंद्रा में खो जाते, आखिर गुस्से में तबले को फेंकते, तब जा के कुछ स्वस्थ होते.
कुछ बड़बड़ाते हुए वे बाल्कनी में टहलने लगे. बाल्कनी के एक तरफ बहुत बड़ा मैदान है और दूसरी तरफ फ्लायओवर. मैदान में कभी-कभार संगीत के जलसे होते रहते और भास्करराय यहीं बैठे बैठे उस आधुनिक पाश्चात्य संगीत को निष्ठुर कानों की मदद से सुनते और मन ही मन व्याकुल हो उठते.
ज़रा और होश में आकर उन्होंने अपनी तीखी निगाहें फ्लायओवर पर लगे होर्डींग पर दौड़ाई. इस सन्डे की रात इसी मैदान में होनेवाले किसी संगीत के कार्यक्रम का एलान करते हुए बड़े-बड़े कद के चित्र उस होर्डींग में इश्तहार देते हुए नाच रहे हैं. मोडर्न डी-जे साउन्ड सिस्टम की धमाकेदार पेशकश के आकर्षण उस होर्डींग पर चमक रहे हैं.
भास्करराय का दिल जल उठता है. कहाँ गया वो शास्त्रीयवादन? तबलावादन की कला को तो आज लोगों के मन में कला के रूप में भी स्वीकृति मिलना दुष्कर हुआ? शादी-ब्याह में भी डी-जे के बिना नहीं चलता. आखिर है क्या यह डी-जे? देसी बोल – विदेसी ढोल? ओन्ली डेन्स – विधाउट सेन्स? अरे भई, ड्रम के कंपन का तबले के स्पंदन से क्या मुकाबला? हैं?
... क्या कदरदान जमाना हुआ करता था वो? भास्करराय अपने जीवन का वो सुवर्णयुग कैसे भूल सकते है? संगीत की दुनिया का पूरा आलम उसके बस में रहा करता था. कार्यक्रम चाहे जो भी हो, भास्करराय के बिना असंभव था. जैसे ही उनके हाथ तबले को छूते, मानों स्वयं संगीत ही थिरकता नृत्य करता महसूस होता. वे स्टेज पर प्रवेश करते तब सारे दर्शको में आनंद की लहरें दौड़ जाती, और तबले पर थाप देते ही ओडियन्स एक चित्त हो जाते. बड़े-बड़े सिंगर आर्टीस्ट अपने स्वर के साथ भास्करराय के तबले के साथ ही गाना पसंद करते.
उत्थान, कायदा, लग्गी, पलटा, रेला ... ताल कोई भी हो, भास्करराय त्रिपाठी सब में माहिर एवं उस्ताद माने जाते. समझ लो अगर भास्करराय न हो, तो संगीत का कोई कार्यक्रम ही नहीं हो सकता. मानो तबला और भास्करराय एक दूजे के पर्याय बन चुके थे.
उत्सुक स्टुडन्ट्स के लिए उन्होंने तबलावादन के क्लासीस खोल रखे थे. राधिका भी उनकी स्टुडन्ट ही थी. तबले से उसे भारी लगाव, ग्रास्पिंग पावर भी तेज. कोई भी नया ताल हो, वह जल्दी ही सीख लेती. सो उसे सिखाने में भास्करराय को अपनी कला का गौरव महसूस होता था. कला के प्रति बना उनका ये लगाव राधिका के तरफ भी रुख ले सकता है ये शायद खुद उनको भी मालूम न होगा. गुरु-शिष्या का ‘ताल’ कब ‘मेल’ से जुड़ गया किसी की समझ में न आया, क्यूं कि राधिका तो अल्हड़ बिन्दास्त तीतली और भास्करराय कला को समर्पित व्यक्तित्व.
परंतु उस लडकी ने भास्करराय को बदल ही दिया. सामान्य लग रहे भास्करराय स्मार्ट दिखने लगे. मोबाइल से चिड़चिड़े रहते भास्करराय स्वयं ही मेसेजबोक्स में बिजी रहते गये. स्टुडन्ट्स के आग्रह पर कभी कभी क्लास में भी आधुनिक संगीत को स्थान देने राजी होने लगे. सब कुछ राधिका की बदौलत ही.
ऐसे दिनों में जो घटना हुई वो भास्करराय कभी भूल न पाये. देर रात के ढलते, कार्यक्रम संगीत की पूर्ण ऊँचाईयाँ छू रहा था. भास्करराय के हाथ तबले पे और दर्शकों के कानों पर जादू करते हुए गूंज रहे थे.
सात मात्रा और तीन विभाग समेत, रूपक ताल में, ठेके की चोगन अपने करिश्में भास्करराय की ऊँगलियों के जरिये दिखा रही थी.
तीतीनाधी.... नाधीनाती ... तीनाधीना ... धीनातीती ... नाधीनाधी ... नातीतीना ... धीनाधीना
अविरत लय और सुर में ओडियन्स मन्त्रमुग्ध होकर झुम रहा था.
यकायक भास्करराय के मोबाइल की घंटी बज उठी. उसके हाथ तो बिजी थे, क्या करें? शुरूआती दौर में ही, आयोजकों द्वारा बार-बार दी जा रही मोबाइल बंद रखने की सूचना, मोबाइल ओपरेटिंग के नये खिलाड़ी भास्करराय से नजर अंदाज हुई थी. जैसे तैसे रिंगटोन बंद हुआ तो फिर से बज उठा. अब श्रोतालोग भी डिस्टर्ब दिखने लगे. अन्य साथी आर्टीस्ट और दूर बैठे ओर्गेनाईज़र्स लोग का गुस्सा बढ़ता गया. तबले बजाते हुए भास्करराय ने फोन काट तो दिया, पर तीसरी बार भी बगावत पे उतर आये उनके मोबाइल से रिंगटोन दुगुने ज़ोर से बजने लगा, तब ओर्गेनाईज़र्स का धैर्य खत्म हो चुका. एक आयोजक लगभग दौडकर आया और स्टेज पर परदा डालकर, भास्करराय को झाड़ते हुए खड़ा कर दिया. भास्करराय बचाव में सफ़ाई पेश करना चाहते थे पर सरफिरे आयोजक ने उसे मौका न दिया. उन्हें धक्के मारकर बाहर कर दिया. परदे से आरपार ताक रहें दर्शको को भी ये साफ़ दिखा कि ओर्गेनाईज़र ने भास्करराय पे थूंकते हुए उन्हें बाहर निकाल दिया और उन पर उन्हीं के तबले फेंक दिए.
... जब तक मैदान के उस पार फ्लायओवर बँध चुका तब तक लोग तो ये वाकया भूल चुके, राधिका भी भूल गई, ... लेकिन भास्करराय न भूल पाते हैं.
उस दिन के बाद फिर कभी कोई कार्यक्रम उन्होंने नहीं दिया. इन फेक्ट, उस दिन के बाद किसी ओर्गेनाईज़र ने उन्हें आमंत्रित भी नहीं किया. राधिका समेत सारे स्टुडन्ट्स उनके क्लासिस में आने बंद हो चुके थे. एक ‘कला’ दूसरी ‘कला’ को कैसे ऊपर उभार सके या कैसे नीचे उतार सके, - ये भास्करराय के अलावा कौन समझ सकता है भला?
‘मधुवन में राधिका नाचे रे’ – के ताल साथ थिरकने के आदि भास्करराय की उँगलिया ‘लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे’ – के विलंबित स्वरों के साथ जुगलबंदी करने को व्याकुल हो उठते. निरंतर हो रही उपेक्षा उनके लिए घातक स्वरूप धारण करने लगी. उनका मानसिक संतुलन बिगड़ रहा था.
फिर भी, अपनी निजी कला को छोडना उसे कतई मंजूर कैसे हो सकता था? जैसे आज हुआ, इसी तरह तबले लेकर ऐसे ही हमेशा बाल्कनी में बैठ जाते हैं, और सामने के मैदान में हो रहे संगीत के कार्यक्रमों को चुनौती देते हुए ज़ोर ज़ोर से बजाने लगते है. बाल्कनी और फ्लायऑवर के बीच फैले हुए इस मैदान में अकसर आधुनिक संगीत के जलसे होते रहते . वहाँ बजता संगीत, खास कर के तबले की कला का हो रहा ह्रास उनको भीतर से तार तार कर देता है.
... आज भी कुछ ऐसा ही तो हुआ. मैदान में संगीत का कार्यक्रम शुरू हुआ कि तबले लेकर भास्करराय बाल्कनी में बैठ गये. आ जाओ बच्चू, देखते है कौन बाजी मारता है ? देसी ढोल जीतता है कि विदेसी पोल? चैलेन्ज है आज ये मेरा.
बाल्कनी के बिलकुल सामने लगे साउन्ड स्टीरियो से कुछ जरूरी एनाउन्समेन्ट उनको सुनाई देता है. उद्घोषिका के मृदुल स्वर में उनके कान में कुछ ऐसी सूचना सुनाई दीः ‘मुंबई से आये संगीतकारों की टीम से तबलावादक की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है. दर्शकों में से कोई तबला का जानकार कलाकार हैं तो कृपया मंच पर पधारें.’
भास्करराय की उँगलिया थिरक उठी, बरसो पहले जिस मंच से धक्के मारकर वे फेंके जा चुके थे, उसी मंच पे मानसहित फिर से कब्ज़ा पाने का ये बेहतरीन मौका है. हाँ, जरा आधुनिक स्टाईल में बजाना होगा, पर तो क्या हुआ? ऐसा कोई पानी नहीं जिसमें हम तैर ही ना सके. आखिर तो सारे परफोर्मन्स में चाहिए क्या? आर्ट और स्किल, कला और कौशल की कमी नहीं मुझ में. उनके हाथ, उनके पैर जीवंत हो उठे.
यूं समझिए कि बाल्कनी से कूदकर ही वहाँ दौड़ गये स्टेज की ओर. मैं बजाऊँगा मैं, भास्करराय त्रिपाठी, इन दिनों हाथ की सफाई नहीं हुई, आज धार निकलेगी इन पौरों की, मेरी उँगलियाँ ही कमाल दिखा सकती है, मुझे चान्स दीजिए, फिर देखिए मेरे हाथों का कसब.
और कोई चारा न देखते हुए, बेबस ओर्गेनाईज़र ने उन्हें तबले पे स्थान दे दिया. साथ में उनके कानों में कुछ बताता गया. मुख्य गायक और म्युजिक डिरेक्टर का संकेत मिलते ही भास्करराय ने तबले पे थाप मारी...
थिरकीट धडान् ... ताध्धडान्ता धडान् .... धारिकिट ... धारिकिट ... धडान् ...
.... साथ ही चहु दिशाओं में लगाये गये हाइराइज माउन्टेड साउन्ड स्टेज समेत पूरा फ्लायओवर लयबद्ध मृदु कंपन महसूस करने लगा.
अपने नियमित कलाकार से भी बेहतर परफोर्मन्स देखकर म्युजिक डिरेक्टर खुश हुआ. हालात को देखते उसने भी ऐसे ऐसे गीत लिए जिससे कि भास्करराय को अपनी कला के प्रदर्शन के अनेक अवसर प्राप्त हो. छा गये भास्करराय. उनके पौरों से मंजुल स्वरों की बानी फूटने लगी. तबले पे थिरकते कंपते हाथों के पौर छिल गये. जपताल, त्रिताल, तिरकिट धूम्म्म् ... माहौल संगीत की ऊँचाईयों को छूने लगा.
संगीत अपनी श्रेष्ठतम कलाबाजी दिखा रहा था कि तभी यकायक भास्करराय का मोबाइल गुंज उठा. औह ... आज भी याद न रहा. भास्करराय भौंचक्के रह गये. तबले के बोल और रींगटोन के ढोल, उनका दिमाग चकराने लगा. फिर से अपमान, स्टेज पर से धक्के लगाकर बाहर निकालना, तबले को उनके सर पे फेंकते हुए किसी का उन पर यूं थूंकना, ... सब उनकी आँखो के सामने आता रहा.
उससे पहले कि कोई ऐसा कुछ करे, हताश हुए भास्करराय ने खुद ही तबले को ऊठाकर फेंका ... बाल्कनी की दीवार से टकराकर बेसुरे हुए तबले की आवाज़ से वे ‘जागृत’ हुए. उनकी समझ में न आया कि स्टेज पर से फेंके गये वे खुद उछलकर अपनी ही बाल्कनी में कैसे आ धमके? देखा कि मैदान में हो रहा कार्यक्रम बिना किसी विक्षेप से अपनी रफ्तार में यथावत चल रहा है. मुंबई से आया बिलकुल तंदुरस्त तबलावादक अपना काम इतमीनान से और पूरी स्वस्थता से कर रहा है. लेकिन अन्य वाजिंत्रों के सामने उसके तबले की आवाज दब जाती है.
दूर दूर से साथ साथ आ रही मोटरकारों की हेडलाइट से निकलती हुई प्रकाशित रेखाएँ फ्लायओवर के पास आकर पता नहीं क्यूं अलग अलग दिशाओं में विभाजित हो रही है ? छिलकर लहुलूहान हुए हाथों से तबले को फेंक देने के बाद भास्करराय अपनी बाल्कनी से उस मैदान की ओर थूंके, जिसमें कि पूरा फ्लायओवर ढँक जाता है.
मेरी बात.....
..कोई बडी बात नहीं हैं मेरी । गुजरात में मेरा वतन है, मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा से भी लगाव रहा है । इसलिए दोनो भाषाओं में कहानियां लिखता हूँ ।
जीवन के किसी भी कोने में मिले अनुभव को कभी न कभी ऐसे किसी न किसी स्वरुप में बाहर आना ही होता है । मन में बोये गये बीज अपने आप ही अपने समय पर पनपते रहते है कहानी का प्रसव भी पीडादायक होने के साथ आनंददायक भी होता है ।
व्यवसाय से शिक्षक हूँ । प्रारंभ में हिन्दी में ही डायरी (रोजनीशी) लिखने की आदत पडी थी । बाद में गुजराती और हिन्दी दोनो में कहानियां लिखना पसंद आया । भावनगर गद्यसभा का भारी सहयोग मिला, जिससे कि मेरी लिखावट में जान आई ।
पहली पुस्तक सन २००२ में प्रगट हुई । बाद में दोनो भाषाओ में कुल मिलाकर पाँच कहानी संग्रह प्रगट होने तक का सफर कट गया । तीन लघुनवलकथायें (लघु उपन्यास) भी लिखी हैं । लेकिन कहानी से मुझे भारी लगाव रहा है । कहानी मेरा सनातन प्रेम है ।
पाठको और कहानी के बीच से स्वयं को निकालते हुए मैं अपनी कहानियों के ऊन सभी किरदारों का ऋणस्वीकर करना चाहूँगा, जिन्होंने मुझे कहानियों की ओर मोडा है, जिनकी यादें अनजाने में – या – जान-बूझकर, मैं यहाँ लिख नहि पा रहा हूँ ।
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अजय ओझा. (०९८२५२५२८११) ई-मैल oza_103@hotmail.com
प्लोट-५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल, घोघारोड, भावनगर-३६४००१(गुजरात)
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