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स्वाति तिवारी

पेंडुलम

यह नाटक पिछले दो साल से चल रहा है. क्या प्रॉब्लम है तेरी? क्यूं बार-बार भाग

आती है तू? अच्छा भला लड़का है, बड़ा घर है, सारे ठाठबाट हैं, फिर भी तेरा वहां मन क्यूं

नहीं लगता? मां अटेची हाथ में देखते ही दरवाजे पर ही बिफर पड़ी थीं.'

मन में गुस्से का गुबार उठ रहा था. लग रहा था यदि मां ने दरवाजे से अंदर जाने के

लिए रास्ता नहीं छोड़ा तो मेरे लिए इस गुबार को फूटने से बचाना मुश्किल हो जाएगा, पर

थैंकगॉड, मां दरवाजे से हट गई और बड़बड़ाती हुई किचन में खटर-पटर करने लगीं.

क्या शादी के बाद लड़की का अपने ही घर से इस कदर रिश्ता टूट जाता है कि

तकलीफ में मायके आने पर दरवाजे पर ही मां हिकारत से देखने लगती हैं? फिर लौट आई? वाली प्रश्नावली के साथ. उसका बस चलता तो उल्टे पैर लौट जाती इस दरवाजे से , पर उसका बस ही तो नहीं चलता, न पहले चला जब वह इस घर में रहती थी और न ही अब

चलता है. मां तब भी उसके भाग्य को उसी हिकारत से कोसती थीं, कब तक यहीं पड़ी रहेगी यह भगवान! इसके लिए तुम एक ठौ घर-वर नहीं ढूंढ सकते? ...विचारों में मां द्वारा बोले गए तब और अब के डायलॉग्स के तार तुरंत टूटने-जुड़ने लगे. वह चुपचाप सिर नीचे झुकाए अपने कमरे में जाने लगी तो मां की आवाज ने पीछा किया, वह कमरा बहू ने पूजाघर में बदल दिया है, उसमें मत घुसना, बहू नाराज हो जाएगी. ऊपर वाले बुआजी के कमरे में जाकर पटक दे अटैची.

अच्छा मां, कहने को तो कह दिया उसने, पर इच्छा हुई कि मां से चिल्ला-चिल्लाकर

पूछे कि कल की आई तुम्हारी बहू रानी को मेरा कमरा बदलने का हक किसने दिया? पर कुछ कहने की हिम्मत न जुटा सकी और चुपचाप ऊपर वाले बुआदादी के लिए माँ के बनवाए उस दड़बेनुमा कमरे में अपनी अटैची पटक बुआदादी के पलंग के पास ही खटिया डाल औंधे मुंह पड़ी रही...जाने कब आंख लग गई. आंख खुली तो दरवाजे पर खटर-पटर करती बुआदादी की आवाज से. दादी बिजली का स्विच बोर्ड ढूंढ रही थीं, उठकर खटसे बत्ती जला दी उसने. दादी के चेहरे पर एक पल को उजली-उजली खुशी आ गई उसे देखकर और पलक झपकते ही वह खुशी जैसे आई थी वैसे ही चली गयी. नन्नी तू?

हां मैं, दादी, अब मैं तुम्हारे कमरे में रहूंगी.

हां, पर तू क्या लड़-झगड़ कर आई है नन्नी?

नहीं.

तब फिर?

दादी...मुझे वहां अच्छा नहीं लगता.

अरे, ये कोई बात हुई. घर कोई साग-भाजी का निवाला तो है नहीं कि अच्छा न लगे तो थूक दो.

तुम नहीं समझ सकती दादी मेरी प्रॉब्लम है?

मैंने दादी के कमरे में पटके गए पुराने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के रिमोट के बटन दबा-

दबा कर कुछ देखना चाहा, पर उसमें तारे-सितारे की झिलमिल से ज्यादा कुछ नजर नहीं

आया. गुस्सा तो भरा पड़ा ही था मन में, तो उसे रिमोट पर उतार दिया.

रिमोट फेंकते हुए दादी से पूछा, क्या देखती हो और कैसे देखती हो तुम इस कबाड़े के

डिब्बे में?

दादी ने व्यंग्य भरी पीड़ा के साथ एक लंबी सांस लेते हुए कहा, कबाड़ था तभी तो इस कमरे में पड़ा है, चलता होता तो नीचे वाले कमरे में, बरामदे में, कहीं भी लगा होता?

मेरी नजरों ने दादी के कमरे का मुआयना किया, वहां न केवल टीवी कबाड़े का सामना था,

बल्कि वहां रखा हर सामान एक तरह से कबाड़ा ही था, टूटा लोहे का पलंग, पुरानी निवाड़

वाली खटिया, टेबल फैन, अखबार की रद्दी, पुरानी लकड़ी का टेबल, जो बाबूजी की बड़ी-कड़ी काली जिल्द वाली पुरानी कानून की किताबों से भरा पड़ा था, देखकर हंसी आ गई.

दादी, तुम कबाड़ी की दुकान क्यों नहीं खोल लेती?

दादी ने मंदिर का प्रसाद पल्ले में बंधी गांठ से खोला और चना-चिरौंजी के चार दाने

उसकी हथेली पर रख दिए.

ओह दादी, तुम मंदिर का चना-चिरौंजी अभी भी मेरे लिए लाती

हो?

हां लाती हूं देख, वो छोटा पीतल का डिब्बा उठा.

मैंने डिब्बा खोला, उसमें बुआ चना-चिरौंजी रखे हुए थे. मैं लाड़ से बुआदादी के गले में झूल गयी. बुआदादी कुछ देर तक बालों में हाथ फेरती रहीं, फिर धीरे से बोली, तेरी मां के लिए मैं ही एक जिंदा कबाड़ थी, पर तू क्यों मेरे कबाड़े की दुकान संभालने लौट आई?

तो मां ने मुझे यहां रहने का आदेश देकर शायद यही जतलाया है कि यहां रहेगी तो

बुआदादी की तरह कबाड़ बनकर रहना होगा. नजरें उन कानून की काली-काली किताबों को घूरने लगीं. 28 के आंकड़े पर उसकी उम्र की सुई जब अटकी तो मां ने इन काली जिल्दबाजी किताबों को कोसा था. बाप को काले कारनामे दबाने वाली इन मनहूस काली-काली किताबों का ऐसा चस्का लगा था कि अच्छी भली सरकारी नौकरी छोड़ वकालत करने के लिए काला कोट पहन लिया. इसी काले कोट और काली किताबों की छांव पड़ने से अव्वल तो उनके घर में बेटी हुई और वह भी काली-सांवली.

इन दिनों मां की बहू प्रेग्नेंट है, उसके बच्चे पर छांव न पड़े शायद यही सोच कर मां ने

बाबूजी का कोट और किताबें ऊपर पटक दी हैं. फिर बाबूजी तो रहे नहीं, तो ये किताबें यूं भी अब कबाड़ा ही तो हैं इस घर में. मां का लाड़ला तो बाबूजी के कमाए धन से अपना बिजनेस करने लगा है. बीती यादों ने उसे इस कदर उलझा दिया कि उसका सर भन्ना रहा था. 2 एक कप चाय का मन कर रहा था, पर वह न तो नीचे गई न ही किसी से कुछ कहा. थोड़ी देर बाद मां ही बड़बड़ाती हुई दो प्याली चाय लेकर ऊपर आ गई, ले, चाय पी, बगैर कुछ बोले बुआदादी और उसने चाय की प्याली उठा ली, मां वहीं दरवाजे की चौखट पर बैठ गई, वह भी चुप ही रही. जानती थी, वह कुछ भी बोलेगी तो मां पलटवार के लिए तैयार बैठी हैं. इस वक्त उसका मन परेशान था और सिर दर्द से फटा जा रहा था. वह चाय पीकर फिर खाट पर लुढ़क गई. मां शायद इसी मौके की तलाश में थी, तुरंत दादी से मुखातिब होकर कहने लगीं, आपको कुछ बताया इसने?

ना?

बुआदादी बात नहीं बढ़ाना चाहती थीं.

आपने पूछा नहीं इससे कि आपकी परंपरा बनाए रखने से क्यूं बार-बार भाग आती है यहां?

बुआदादी ने रूद्राक्ष के मनकों की काला उठा लीं, तो मां भी समझ गई कि बुआदादी इस विषय पर बात नहीं करना चाहती. पैर पटकती मां फिर नीचे चली गई. मां के जाते ही बुआ ने मालापटकी और मेरी तरफ देखते हुए कहने लगीं, उठ नन्नी, गई तेरी थानेदारनी.

अभी वापस आ जाएगी, वो जब तक मेरे आने के कारण नहीं जान लेगी तब तक

नीचे-ऊपर करती रहेगी.

हां, यह तो उसकी पुरानी आदत है, पर करे भी क्या? पहले से ही इस घर की बेटियों

के लिए मैं एक उदाहरण-सी बन गई हूं? ऊपर से तू भी बार-बार आकर डराती है.

अब दादी के चहरे पर उदासी छाने लगी थी. मेरी बात मान नन्नी, तू हर हाल में अपने अपने ही घर में रह, इसी में तेरी और घर की इज्जत बनी रहेगी, जानती है ना, कितनी मुश्किल से 28 साल पूरे होते-होते तेरा रिश्ता तय हुआ था, 10 साल तक पूरा परिवार तेरे लिए लड़का खोजता रहा.

हां दादी, यही तो समस्या है. इन 10 सालों की मशक्कत और मां भैया के उलाहने ही

तो बार-बार मेरे कानों में टकराते हैं और मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं, अगर ये उलाहने न होते ना, तो मैं कब से छोड़ देती उस आदमी को. दो साल झेला है मैंने उसे...........

वर्तमान की कड़वाहट उसे फिर अतीत में ले गई और वह फिर पुरानी बातों को उधेड़ने लगी.

कैसे भूल सकती हूं उन तमाम प्रदर्शनी प्रोग्रामों को? अपने जीवन के उस परीक्षण-

मूल्यांकन के दौर अपनी असफलताओं को,जहां हर बार मां, चाची का आग्रह, अनुरोध और

अंत में आदेश होता कि थोड़ा ढंग से तैयार होना. इस बार हल्के रंग के कपड़े पहन, पिछली

बार डार्क कलर में रंग ज्यादा ही पक्का लग रहा था. बालों को जरा ढीला बांध, ताकि चेहरा

बड़ा न लगे. अपनी प्रौढ़ होती उम्र को छिपाने के लिए चुपचाप मां और चाची के अनचाहे

नुस्खे अपनाती रहती. जैसा वो कहतीं, उसी तरह सजती-संवरती, चाय की ट्रे लेकर लड़के

वालों के सामने क्रय-विक्रय की वस्तु बन अपना प्रदर्शन करती. कितने प्रवंचनापूर्ण बर्तावों को झेलती, तिल-तिल अपने आत्मसम्मान को गलते हुए देखती, पर आत्महंता बनी हर बार किसी की दी हुई साड़ी पहन लेती. इस बार ये पहन ले नन्नी, बड़ी लकी साड़ी है, वंदना ने पहनी थीं, ​उसे देखते ही रिश्ता ओके हो गया था. वह साड़ी सचमुच लकी निकली और इस बार एक दुबले लड़के ने रिश्ता ओके कर दिया, पर साड़ीह केवल ओके तक ही लकी रही, वंदना की तरह मनपसंद वर तो नहीं दिला पाई ना.

बोलते-बोलते जीभ सूखने लगी, उसने दादी की छोटी सुराही से पानी उड़ेला और गला गीला किया.

दादी मैं... बोलते-बोलते रूंधे गले का प्रवाह बह निकला.

दादी चुपचाप बालों पर हाथ फेरती रही. फिर चेहरा उठाकर पहले आंखों में देखती रही, फिर बोली, नन्नी, क्या लड़का...?

शब्द दादी के गले में ही फंस गए, तू हर बार कुछ बताना चाहती है ना, पर बोल नहीं

पाती. मैं तो पहली बार ही समझ गई थी तेरा चेहरा देखकर.

लंबे अंतराल तक हमारे बीच एक खामोशी पसरी रही, जलते हुए बल्ब की रोशएनी

केवल बाहर थी, अंदर के आत्म गलियारे में घुप्प अंधेरा था, ऐसा अंधेरा कि हम कुछ भी नहीं

देख पा रहे थे.

दादी ने ही मौन तोड़ा, नन्नी, तू अभी भी अनछुई-सी कुंवारी है ना?

...

सुन! क्या वो तुझे मारता-पीटता है?

ना... सिसकते शब्द बाहर निकले.

पहनने-ओढ़ने को नहीं देता?

नहीं, ऐसा कुछ नहीं है.

पैसा-टका, गहना-कपड़ा लाता है ना.

...

तेरे साथ प्यार से बोलता-बतियाता है?

हां? एक अच्छे दोस्त की तरह सम्मान करता है मेरा. पर दादी, एक छत के नीचे हम

दो व्यक्ति हैं, हमारे बीच स्त्री-पुरुष जैसा कुछ भी नहीं है, रोज मैं इस क्रोध में तिल-तिल जलती रहती हूं कि इस पुरुष ने मुझे छला है. क्या मेरे सांवले रंग की सजा मिली है मुझे? रोज जब यह प्रश्न मेरे जेहन में उठता है तो लगता बस, अब नहीं, अब अपने आत्मसम्मान को यूं हलाल नहीं होने दूंगी. अपने छले जाने की यही बात मेरे अंदर लावा उबालती रहती है दादी.

उस पर सास-ससुर अलग उलाहने देते रहते हैं, कल ही सास का फोन आया था, कह

रही थी बच्चा-बच्चा नहीं चाहिए क्या?

मन तो हुआ कि कह दूं, तुम्हें कुंती ने वह मंत्र दिया हो तो बता दो, मैं भी सूर्य को

आव्हान कर बुला लेती हूं. वंशपुत्र न सही, सूतपुत्र तो हो ही सकता है...पर बोल नहीं पाई.

दादी, हर बार उसे अपने छल के बदले के लिए छोड़ आती हूं, पर कुछ दिनों बाद मां की

प्रश्नभरी निगाहों का सामनान कर पाने की वजह से फिर उसी आग में जलने चली जाती हूं.

घड़ी के पेंडुलम की तरह. दादी, उम्र के तीस बसंत तो यूं भी सूखे ही गुजर गए थे, कुछ और

यहीं रहकर काटे जा सकते हैं, वहां उसके सामने होने पर मैं हर पल जलती रहती हूं. बताओ दादी, मेरी गलती क्या और कहां है? मां काली होने का उलाहना देती हैं, अगर पलट कर एक बार भी पूछूं कि मेरे पिता तो गोरे चिट्ठे थे, तुम भी उजली-निखरी हो, फिर मेरे लिए मां ये काला रंग कहां से लाई? तो..? जानती हूं फिर कभी मां मेरे रंग की उलाहना नहीं दे सकेंगी, पर ऐसा प्रश्न पूछ कर मैं जन्मदात्री मां को बेइज्जत नहीं करना चाहती, इसीलिए चुपचाप मां की पीड़ा कम करने के लिए चली जाती हूं ओर जब खुद की पीड़ा मेरे मन को तार-तार कर देती है तो यहां भाग आती हूं....

आंसुओं से तर चेहरा दादी ने ऊपर उठाया था. अपनी फटी-पुरानी साड़ी के पल्लू से

पोंछा, फिर बोलीं, मुझे देख, ध्यान से देख, तेरी तरह मैंने भी पति की प्रताड़नाओं से तंग

आकर मायके में पड़े रहना उचित समझा, हम दोनों की व्यथा शरीर से जुड़ी है, फर्क सिर्फ

इतना है कि तुम पति के स्पर्श के लिए तरस रही हो और मैंने पति के घिनौने स्पर्श से तंग

आकर घर छोड़ा. मैं हिंसक, बलात्कारी की पत्नी बनकर नहीं रहना चाहती थी ओर तुम

नपुंसक को पति के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रही हो. लेकिन हम दोनों के दौर में बहुत फर्क है मेरी बच्ची, मैंने दहलीज के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी, लेकिन तुम्हारे लिए तो पूरी दुनिया पड़ी है पंख फैलाने के लिए, मां-भाई, नाते-रिश्तेदारों के उलाहनों से परे हटकर अपनी जिंदगी के बारे में सोचकर देखो. क्या तुम अपना शेष जीवन मेरी तरह मायके का कबाड़ा बनकर बिताना चाहती हो?

उसने तुरंत ना में सिर हिलाया, फिर दादी ने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा, यदि शान

से जीना चाहती हो तो अपने मायके और ससुराल वालों को सच बता दो और अपनी ये इच्छा

भी कि तुम अपनी पूरी जिंदगी एक नपुंसक के साथ नहीं गुजार सकती.

बुआ दादी के हौसले ने मानो उसे एक नई जिंदगी दे दी. मन का पेंडुलम अब स्थिर हो

चुका था और उसने फैसला कर लिया था कि अब वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीएगी.

रचना प्रक्रिया का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं होता

जब भी कहानी शुरू होती है तो कहानीकार चाहता है कि परिकथाओं की तरह उसका सुखद अन्त हो कहानी के पात्र राजा-रानी की कहानी की तरह खुशी-खुशी मिल जाए, उड़नखटोले वाला राजकुमार आए और राजकुमारी को ले जाए वे साथ रहने लगे.....वगैरह....वगैरह....पर किसी भी कहानी की रचना प्रक्रिया इतनी सरल नहीं होती. राजा-रानी की कहानियाँ तो परिकल्पनाओं से रची परिकथाएँ होती हैं. जीवन परिकल्पना नहीं होता, वहाँ यथार्थ का खुरदरा धरातल होता है और मेरी और मेरे समकालीन कथाकारों की आज की कहानियाँ उसी खुरदरे धरातल से उठती हैं. मैं लाख चाहूँ कहानी के अंत को सुखान्त करने की पर ऐसा होता नहीं है क्योंकि हर कहानी जीवन के भिन्न-भिन्न संघर्षों में उलझी हुई होती है....और यह सच व स्वाभाविक भी हैं क्योंकि रचना प्रक्रिया का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं होता कि हम ऐसा करेंगे तो ऐसी रचना तैयार होगी. जब जैसे समय मिलता है, कोई विषय कोई बात कचोटती है लिख लेती हूँ. दरअसल सोचकर कोई कहानी नहीं लिखी जाती क्योंकि सोचना एक बात है और लिखना एक रचनात्मक सृजन प्रक्रिया है उनके लिए जब कोई चीज परेशान कर रही होती है पीड़ा दे रही होती है...या कोई विचार किसी घटनाक्रम से उद्वेलित कर रहा होता है तो स्वत: वह लेखन में उतर जाता है. रचना उसी बिन्दु से शुरू होती. कहने का तात्पर्य यही है कि हर कहानी का एक प्रस्थान बिन्दु होता है वह जब भी उभरकर आता है तब लिखने की छटपटाहट होती है. कह सकते है एक बैचेनी एक अनम....बना रहता है. तब वहीं से कुछ आकार बनने लगते है कुछ खाके खिचने लगते है...रचना प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष ही वह बैचेनी है जो मन को विचलित करती है..लिखने के लिए बाध्य करती है शायद उस पीड़ा से निजात पाने के लिए लिखती हूँ लिखते हुए साहित्य के मायने मन की वही बेचैनी और छटपटाहट या कहूँ आत्मिक विचलन भी हैं और लिखने के बाद वह मन और मेरा आत्मिक स्थापन भी है. मैंने कल्पना के आधार पर नहीं लिखा जीवन में जिसे जैसा देखा उसको वैसा ही चित्रित करती हूँ लेकिन ये जरूर है कि जब उसमें भीतर जाने यानी परकाया प्रवेश की कोशिश करते हैं तो फिर वह पात्र जिधर ले जाता है स्वत: चली जाती हूँ.

गृहस्थ जीवन है, कामकाजी हूँ एक जिम्मेदार पद पर होना और साथ में सामाजिक व संस्थागत कार्यों की व्यस्थताएं होती है मेरे लिए हमारी परिवार जैसी विशेष और पवित्र संस्था प्रमुखता रखती है. इन सबके बीच जो और जितना समय बचता है वह मेरा अपना होता है, उसी में लिखती हूँ. हर व्यक्ति के जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में समय की अपनी माँग होती है..... उनको पूरा करते हुए जितना लिख सकते हैं उतना ही उचित है क्योंकि एक तरफा नहीं हुआ जा सकता. जाने अनजाने मेरे लिखने का प्रभाव परिवार को प्रभावित भी करता है जैसे करना कुछ और होता है आप लिखने लग गए, पर सब चलता है कुछ समझौते खुशी-खुशी लेखक का परिवार स्वत: कर लेता है.

परिवार का वातावरण हमेशा साहित्यिक रहा है. पिताजी हिन्दी के व्याख्याता थे शुद्ध उच्चारण वाली हिन्दी स्वत: संस्कारों में शामिल होती चली गई. पिताजी से कथा-कथन शैली में उच्च साहित्यिक कहानियाँ बचपन में ही सुनी शायद पिताजी से सुनी कहानियों से ही मेरे मन में कहानी की मिट्टी तैयार हुई होगी और वह मिट्टी कभी सम्वेदना का लावा बन कर तो कभी गीली होकर दिलो-दिमाग के चाक पर चढ़कर कहानी का आकार ले लेती हैं. परिवार से मिले संस्कार अमिट धरोहर होते हैं जो जीवन मूल्यों को समझने की दृष्टि देते हैं जो हमें संवेदनशील बनाते हैं.. एक रचनाकार की यही लेखकीय संवेदना उसकी रचना प्रक्रिया का धरातल होती है. यहीं रचनाओं में प्रकट होती है, भाषा में उतरती है, रचना में जो बिम्ब आते हैं वे संवेदना के आधार पर ही संभव होते है जो पात्र या परिवेश जीवन से हम उठो है संवेदना उसमें प्रकट होती है पता चलता है कि उसमें कितना ताप है या कितनी गहरायी है. जहाँ तक मेरी रचना प्रक्रिया का ताल्लुक है तो मैं कोशिश करती हूँ कि जो जीवन उठाती हूँ वह पात्र जितना ज्यादा उस जीवन के निकट हो उतना ही अच्छा. मेरी लेखनी के आधार वही साधारण लोग है जिन्हें आम आदमी कहा जाता है. मेरी कोशिश ये भी होती है कि मैने जैसे उन लोगों को देखा वो वैसे ही मेरी रचना में आएँ. चूंकि कहानी हमारे आसपास से या सामाजिक सरोकारों से आती है तो मेरे पात्र जैसे हैं वैसे हैं. नकली आवरण या छद्म रूप ना मेरे स्वभाव में है ना मेरी किसी कहानी के किसी पात्र में. मेरे किसी पात्र ने ना तो अनावश्यक मर्यादा तोड़ी है ना ही मर्यादा का आर्दश दिखावे के लिए औढ़ा हैं. चूंकि मैं सामाजिक हूँ अत: उससे बाहर कोई असामाजिक तत्व नहीं खोजती. मेरी कहानी के पात्र इसी समाज से निकले होती हैं. अत: मेरी कहानियों में अपने पात्रों की गरिमा का हमेशा ख्याल बना रहता है. बावजूद इसके मैने ना तो आदर्श कथाएँ, ना ही प्रेरक कथाएँ रची बल्कि जीवन मेरा मानना है कि कहानी मर्म है जीवन का. अत: साहित्य में जीवन का सत्य होना चाहिए क्योंकि वर्णित सुख-दु:ख पाठक आत्म सात कर लेता है इसलिए लेखन सहज-सरल और प्रवाहमान हो. कोशिश करती हूँ ज्यादा क्लिष्ट अलंकारी भाषा नहीं बल्कि सुन्दर भावों की प्रस्तुती करूँ, जो लोगों को तमाम समस्याओं से जूझने का हौसला दे सकें. एक और महत्वपूर्ण बात जिसका ध्यान रखने की कोशिश भी रहती है. मेरा मानना है कि व्यक्ति आज जीवन के सघर्षों में उलझा हुआ है वह तमाम तरह की उलझनों से परेशान हैं, इसलिए साहित्य को यथार्थ होते हुए भी सकारात्मक और आशावादी हो. सकारात्मकता एक ऊर्जा का पयार्य है.

अक्सर रात में लिखती हूँ. सारा दिन दफ्तर व घर की व्यवस्थाओं के साथ संतुलन बनाने में खर्च होता है. अत: रात का समय लेखन के लिए उपयुक्त होता है लेखन एकाग्रता की माँग करता है. रोजमर्रा की उपापोह, खटरपटर, टेलीफोन या कुकर की सीटी भी ध्यान भंग करती है. फिर समय भी नहीं होता है, दिन में. पहले जब बच्चे छोटे थे तब अपनी पढ़ाई कर रहे होते थे तब उनके साथ जागने की आदत पढ़ गई थी. तब से लेखन रात में करती हूँ. अब बच्चे बाहर है अक्सर फोन का इंतजार करती हूँ. इन्टरनेट पर बच्चों से चैट होती है तो लेखन के पहले मुझे अपने परिवार, अपने बच्चों की कुशल मंगल राहत देती है. मेरा मानना है कि अच्छा साहित्य मन की गहराईयों से निकलता है और दिलों को स्पर्श करता है वह मात्र क्षणिक उत्तेजना नहीं बल्कि अन्तरमन की आन्तरिकता लिए होता है. सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और परिवेश गत बदलाव हर साहित्य में स्वत:समाहित होते है. अत: लेखक में अपने समय की समस्याओं तथा संकटों की पहचान की क्षमता होनी चाहिए क्योंकि उनकी सकारात्मक एवं रचनात्मक अवधारणाएं ही समाज को नई दिशा, नए आयाम देती है अत:साहित्य का संकल्प समाज के हित में होना चाहिए.

मेरी लेखनी के आधार भी यही समाज के साधारण लोग हैं. लेखनी का दायरा अपने आसपास के लोगों से शुरू होकर बाहर की दुनिया तक गया इसलिए मेरी कहानी के पात्र काल्पनिक कभी भी नहीं रहे वे इसी सामाजिक परिवेश से उपजे कथा बीजों से बने हैं. मेरा मानना है कि साधारण लोगों के जीवन के सरोकारों से ही असाधारण कहानी बनती है. मेरा विचार है कि मेरी लेखनी की सार्थकता तभी है जब साधारण लगने वालों में को विलक्षणता कोई असाधारण बात ढूंढ लाए. लेखन के मेरे पात्र स्वयं मुझे लिखने के लिए बाध्य करते है. इनमें ज्यादातर पात्र स्त्रियाँ हैं, विडम्बना ही है समाज और परिवार की धूरी (केन्द्र) होते हुए भी वही सबसे ज्यादा उपेक्षा, तिरस्कार और शोषण की शिकार होती. भोपाल गैस त्रासदी में विधवा हुई स्त्रियों के लिए बनी विधवा कालोनी की वे विधवाएं हो जो मेरी पुस्तक "सवाल आज भी जिन्दा है' की मुन्नी बी हो, साजिश हो, रशिदा बेगम हो चाहे चम्पादेवी। वृद्धावस्था पर केन्द्रित अकेले होते लोग की बुढ़ी काकी, भाग्यवती, अंतराल की लाजो, हो चाहे उत्तराधिकार की कौशल्या इन सभी ने लिखने के लिए बाध्य किया. ऐसे शोषित पात्रों की स्थिति मुझे मेरे संवेदनातंत्र को विचलित कर देती है तब स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता, अनदेखियों और शोषण की लम्बी कहानियों का एक शर्मनाक पड़ाव मेरे सामने होता है जो मानवीय पक्ष और शोषण के विरुद्ध सवालों को उठाने के लिए लिखवाता है. अक्सर मैं अपने पात्रों से कहीं ना कहीं मिली होती हूँ. मैंने अपने साहित्य में अश्लीलता को डालकर प्रचार-प्रसार का हथकण्डा कभी नहीं अपनाया. अश्लीलता साहित्य को चर्चित कर सकती है पर सार्थक नहीं. लिखते हुए हमेशा ध्यान रखती हूँ कि साहित्य-शील-अश्लील का ध्यान रखकर मर्यादित सत्य के स्वरूप में ही लिखा जाना चाहिए. विज्ञान की विद्यार्थी हूँ इसका फायदा मुझे मिलता है कोई भी बात गप्पबाजी नहीं होती. वैज्ञानिक दृष्टिकोण घटनाओं का विश्लेषण करने में मदद करता है.

मैं लेखक होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़ी हुई हूँ. इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया दोनों में काम किया है. मैं कहानी के साथ-समाज, मानवाधिकार, कानून जैसे विषयों पर भी लेखन करती हूँ. विषयानुरूप विधा का चयन करती हूँ - क्योंकि वह मेरे लिए अपनी बात कहने का रास्ता आसान करता है. मुझे लगता है मेरी कहानी या साहित्य की मूल चिन्ता में हमेशा अपने समय का मनुष्य हो - उसे उसी की भाषा में, समस्याओं के साथ चित्रित करूँ - कहानी को कैसे कहा जाए कितना कहा जाए यह कहानी के पात्र पर छोड़ देती हूँ वह कहाँ तक ले जाता है. जरूरी नहीं कि हमारी कहानी समस्या का समाधान भी दे या समाज को कोई संदेश दे। कहानी जहाँ खत्म होती है समाधान व संदेश के वैचारिक बिन्दु वहीं से प्रवाहित होना शुरू होते हैं.

इसलिए लिखते वक्त प्रयास समाधन में नहीं कहानी के दृश्य के शब्दांकन में होता है ताकि कहानी उपदेश या भाषण नहीं लगे उसका कहानीपन बचा रहे.

डा.स्वाति तिवारी

ईएन 1/9, चार इमली

भोपाल

stswatitiwari@gmail.com

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