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सरला रवीन्द्र

खुश रहो बच्चे

बाहर गहरा घना अँधेरा था - कुछ साफ़ दिख नहीं रहा था, पर गाड़ी की गति धीमी पड़ रही थी - लगता था कोई स्टेशन आने वाला है. प्लेटफार्म पर पहुँचते-पहुँचते गाड़ी की गति इतनी धीमी हो गई थी कि उसके रुकने का अहसास तक नहीं हुआ. प्लेटफार्म पर दीये की तरह टिमटिमाते बल्ब की रौशनी में पेड़ों की लम्बी-लम्बी छायाएँ ही दिख रही थीं. कोई बहुत छोटा स्टेशन था - एक-दो चाय वालों की 'गरम चाय-चाय गरम' की आवाजों के सिवा स्टेशन में ऐसा कुछ नहीं था कि उसका नाम जानने की जिज्ञासा हो . मैं यों ही डिब्बे के बाहर नज़रें गड़ाये इक्का-दुक्का यात्रियों का चढ़ना-उतरना देख रहा था. आँखें उस मद्धिम रौशनी की अभ्यस्त हुई ही थीं कि गाड़ी ने एक हलके कंपन ने एक हलके कंपन के साथ रेंगना शुरू कर दिया. तभी मुझे एक बहुत गहरे कुएँ से आती आवाज़ जैसी सुनाई दी - 'खुश रहो बच्चे' और साथ ही एक प्रेत जैसी छाया मेरे पास वाली खिड़की तक आई और मुझे चौंका गई. खिड़की के इतने नजदीक किसी के चेहरे को पाकर मैं घबरा गया था. जब तक मैं इस आकस्मिक नजदीकी के अहसास से सँभलूँ-सँभलूँ, अपनी घबराहट पर काबू पाकर सोच पाऊँ कि वह आकृति किसकी है, गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली. मैंने सोचा कि हो सकता है कोई भिखारी हो जो भीख माँगने के लिए आशीष दे रहा हो. पर उस आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मैं पेड़ों की छायाओं के बीच उसकी छाया को विलीन होते देखने के बाद भी उधर ही नज़र गड़ाये देखता रहा. 'खुश रहो बच्चे' की वह ध्वनि मेरी चेतना में जैसे समा गई थी - वे शब्द मेरे मन से ओझ; क्यों नहीं हो पा रहे हैं, मैं सोचने लगा. लगता था जैसे उन शब्दों का, उस आवाज़ का मुझसे कोई खास रिश्ता है- उस आवाज़ में कोई विशेष प्रयोजन छिपा है, जो सिर्फ मेरे लिए है. हाँ, प्रयोजन तो है - एक भिखारी का भीख माँगने का प्रयोजन और क्योंकि मैं उसे कुछ दे नहीं सका था, इसलिए वह आवाज़ मेरा पीछा कर रही थी - उसकी गूँज से मेरा छुटकारा नहीं हो पा रहा है. पर क्या इतना ही - अचानक मुझे लगा कि ये शब्द इसी आवाज़ में मैंने बहुत-बहुत बार सुने हैं. जितना ही मैं उस छायाकृति से अपना मन हटाना चाहता, उतना ही लगता कि वह गाड़ी की रफ्तार के साथ ही गुजरते गाँव-खेतों-मैदानों के साथ-साथ मेरा पीछा कर रही है. मेरे रोयें-रोयें से वह आवाज़ चिपक गई-सी लगती थी या शायद वह मेरे रोयें-रोयें से निकल रही थी.

और तभी अचानक कहीं भीतर से चीत्कार उठा - अरे, यह आवाज़ तो बाबूजी की थी. ट्रेन के चलने के साथ मेरी नजरों से ओझल होती वह नंगी चौड़ी पीठ, जिसका मेरी दृष्टि पीछा करती रही थी, बाबूजी की ही थी. हाँ, इसी पीठ पर तो मैंने धुर बचपन में घोड़े की सवारी की थी. वह आँखों की चितवन, जिससे क्षण भर के लिए मेरी नज़रें टकराईं थीं, सच बाबूजी की ही तो थीं. पर मस्तिष्क इसको मान नहीं पा रहा था - यह चेहरा बाबूजी का नहीं हो सकता - वे चिपके धँसे गाल, वे भौंहों के नीचे गड्ढों में धँसी आँखें, वह सँवलाया रंग - नहीं-नहीं बाबूजी कैसे हो सकते हैं. आवाज़ तो बहुतों की मिलती-जुलती हो सकती है, 'बच्चा' तो कोई भी कह सकता है. फिर उस एक क्षण में मैं ठीक से देख भी कहाँ पाया था. यह सब मेरा भ्रम है. पन्द्रह वर्षों का अन्तराल - बाबूजी को घर से गये - घर के इतने नजदीक बाबूजी और हमें पता भी नहीं चला, यह कैसे संभव हो सकता है. लखनऊ से कितनी पास है यह ज़गह. बाबू को उनके घर से भाग जाने के बाद से उन्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा गया था - बाबू को मिलना होता तो तभी न मिल जाते. कहीं मर-खप गये होंगे, वरना अब तक वापस न आ जाते.

अपने पर चलाये गये मुकदमे के खारिज हो जाने की खबर तो अख़बार में पढ़ी ही होगी - सब आरोप झूठे निकले थे -असली आरोपी पकड़ भी लिया गया था और बाबूजी को वापस नौकरी पर बहाल भी कर दिया गया था. अख़बारों में बड़े-बड़े इश्तहार भी उनकी फोटो के साथ छपवाए गये थे कि वे वापस घर लौट आयें - उनकी खबर देने वाले को ईनाम देने की बात भी छपवाई गई थी. इतने नजदीक होते तो क्या बाबू को कोई पहचान न पाता या वे स्वयं ही वापस न आ जाते. इस अचानक हुई घटना पर यकीन न करते हुए भी मैंने पूछताछ कर उस छोटे से स्टेशन का नाम पता कर लिया था. जब लखनऊ स्टेशन पर उतरा तो मन में एक संकल्प था कि जल्दी ही उस गाँव 'अटरिया' जाऊँगा, पर क्या मैं ऐसा कर पाया था. घर पहुँचकर घर-द्वार, नौकरी-चाकरी के चक्कर में डूब गया. वैसे उनके खोने के बाद एक ज्योतिषी द्वारा यह बताया गया था कि वे जीवित हैं और कभी-न-कभी मिलेंगे जरूर. किन्तु उस बात को वर्षों बीत चुके थे और हमारे लिए ज्योतिषी द्वारा दिया वह विश्वास महज़ एक झूठा दिलासा बनकर रह गया था. किन्तु माँ के मन में ज्योतिषी की बात बैठी रही थी - वे अपने सुहाग को जिलाए हुए थीं. हर करवा-चौथ पर निर्जला व्रत रखतीं, माँग में सिंदूर भरतीं, पाँवों में आलता और माथे पर सुहाग-टिकुली लगाकर चाँद को अरघातीं और अपने साथ ही मुझसे भी प्रार्थना करवातीं पिता की दीर्घ आयु के लिए, उनकी वापसी के लिए. बाबूजी तब बैंक में कशिय्र थे - अपने ही एक साथी की धोखाधड़ी के कारण कैश में कुछ हजार रूपये के घोटाले के केस में फँस गये थे. सब कुछ इतना तुरत-फुरत हुआ था कि पुलिस केस न बने, इसका भी वक्त नहीं मिला. पुलिस ने उन्हें अरेस्ट कर लिया था, हालाँकि कुछ दिनों में ही उनकी 'बेल' हो गई थी. पर बाबूजी उस सदमे से उबर नहीं पाए - लगता था उनका सारी दुनिया से भरोसा उठ गया था. उनका वह साथी उनका बचपन का दोस्त भी था. माँ की आँखों में देखते - लगता जैसे पूछ रहे हों कि तुम्हें मेरे निर्दोष होने पर विश्वास है कि नहीं. सारे मोहल्ले-समाज की बातें सुनते कि कुछ किया जरूर होगा, तभी फँसे - ऐसे ही कोई थोड़े ही फँसता है आदि-आदि. कोर्ट में पेशी पर जाते हुए बाबू अंधों की तरह बिना किसी की ओर देखे चुपचाप गली पार करते जैसे कि वास्तव में अपराधी हों. लाख घरवालों के विश्वास दिलाने, समझाने पर भी बाबू ग्लानि से उबर नहीं पाए. और फिर एक दिन अचानक बाबूजी गायब हो गये थे. हमने ज़गह-ज़गह पता किया - हर हास्पिटल में खोजबीन की -कुएँ-ताल-नदी तक में गोताखोरों से खुजवाया, अख़बारों में कितने ही विज्ञापन व फोटो छपवाए, पर किसी भी कोशिश का कोई नतीज़ा नहीं निकला. बाबूजी पर लगे कलंक को धोने के लिए हमने घर की ईंट-ईंट गिरवी रख दी- उनके निर्दोष साबित हो जाने के बाद उनके लौट आने की अपील हमने स्वयं और ऑफिस वालों ने भी छपवाई, नौकरी पर बहाली की सूचना भी सभी अख़बारों में दी गई, पर सब व्यर्थ गया - बाबूजी नहीं लौटे. जिंदा होते तो क्या लौट न आते. बेटे की बहू देखने का कितना चाव था उन्हें- माँ का कितना ख़याल रखते थे- जीवित होते तो क्या कभी कोई खोज-खबर न लेते - इन्हीं तर्क-वितर्कों के बीच बाबू को नये सिरे से ढूंढ़ने की इच्छा दबकर रह गई थी. स्टेशन पर बाबू का भ्रम देने वाले व्यक्ति को देखने की बात अम्मा को भी नहीं बताई थी. जीवन-चर्या फिर अपनी रोज़मर्रा की चाल से चलने लगी थी.

वर्षों बाद दौरे से लौटते हुए फिर उसी स्टेशन पर गाड़ी की धीमी होती हुई रफ्तार के साथ बिना किसी निश्चय के, बिना किसी पूर्व योजना के मेरे पाँव डिब्बे के दरवाज़े तक पहुँच गये थे और गाड़ी के रुकते ही मैं अटैची लिए प्लेटफार्म पर खड़ा था बिना किसी उद्देश्य के. गाड़ी के सिटी देते ही मैंने उस पर चढने के लिए पाँव उठाने चाहे, पर पाँवों को तो जैसे किसी प्रेतात्मा ने जकड़ लिया था. मैं असहाय-सा आखिरी डिब्बे को प्लेटफार्म छोड़ते हुए देखता रहा और जैसे अवचेतन से संचालित मैं अनचाहे- अनजाने स्टेशन से बाहर आ गया था. पर प्रश्न यह था कि अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या पूछूँ वहाँ के लोगों से, क्या बात करूँगा. सोच-सोचकर मन घबराने लगा था, फिर भी पाँव वापस नहीं मुड़ रहे थे. गाँव की पतली पगडंडी पर बढ़ते हुए आसपास खेलते बच्चों ने मुझे उबार लिया था -वे किसी भिखारी बाबा की बात कर रहे थे. मैंने उनसे बाबा के बारे में पूछा तो वे बड़े उत्साह से मुझ सूट-बूट धारी को उनकी झोपडी तक पहुँचाने चल पड़े थे. तभी एक कुछ जवान होते लडके ने सूचना दी - 'आज बाबा चल बसे हैं बाबूजी'. मन काँप गया, पर सिर ने झटककर कहा - अरे ये कौन से बाबूजी हैं - होगा कोई भिखारी या साधू. किन्तु पता नहीं क्यों दिल में धुकुर-पुकुर हो रही थी और मन में उथल-पुथल मची हुई थी. मैं सोचता था कि बाबू को ढूँढ़ने की मेरी इच्छा कब की समाप्त हो चुकी है, किन्तु अब लग रहा था जैसे कि वह इच्छा कहीं बहुत गहरे अवचेतन में दबी पड़ी थी और अब अचानक उभर आई थी. मैंने उसी लडके से पूछा था - 'कबसे रह रहे हैं ये बाबा यहाँ?' निश्चित रूप से तो वह कुछ नहीं बता पाया था, पर उसकी बातों से लगा कि अपनी याद में उसने उन्हें यहीं रहते देखा था - अभी कुछ दिन हुए वे तीरथ करके लौटे थे - अपनी जरूरत से ज्यादा वे किसी से कुछ नहीं लेते थे - पढ़े-लिखे भी थे बाबा - लोगों की चिट्ठी-पत्री लिख देते थे - किसी का हिसाब-किताब भी देख देते थे. यह सब सुनकर मेरे मन में जो उथल-पुथल मचने लगी थी, उससे अभी मैं जूझ ही रहा था कि बाबा की कुटिया आ गयी. अभी बहुत अधिक लोग वहाँ नहीं पहुँचे थे, पर जो भी वहाँ थे, सभी ने मुझे शंकालु दृष्टि से देखा. मैंने उनकी शंका मिटने के उद्देश्य से झटपट एक बहाना गढ़ लिया - 'बहुत बार इस स्टेशन से गुजरता हूँ -हर बार बाबा मुझे दर्शन देते थे और आशीष भी देते थे. उनका आशीष हमेशा ही फला है. आज बाबा नहीं रहे हैं और सौभाग्य से मैं यहाँ पहुँच गया हूँ. शायद बाबा ने ही मुझे यहाँ उनके अंतिम दर्शन करने के लिए बुला लिया है.' गाँव के मुहाने पर ही लडकों के मिल जाने तथा उनसे बाबा के बारे में काफी कुछ जान लेने के कारण मुझे प्रकृतिस्थ होने का समय मिल गया था, नहीं तो बड़ों की शंका का उत्तर देना मेरे लिए मुश्किल होता. अब मैं झटपट बाबा को देखकर वापस जाना चाहता था - यहाँ तक मेरा आना बेकार हो चुका था. परन्तु जैसे ही मैंने झोंपड़ी में प्रवेश किया और दक्षिण की ओर सिर किये चटाई पर लेती काया को देखा, मैं सिहर उठा - ये तो बाबूजी ही थे. जी चाहा मैं तुरंत उनके सीने पर सिर रखकर दहाड़ें मार-मारकर जी-भर रो लूँ . पर ऐसा मैं कहते हुए भी न कर सका. कितना शांत चेहरा था वह! अपनी मौत का पूर्वाभास उन्हें हो गया होगा, तभी तो चटाई खुद ही बिछाकर निर्वाण के लिए तैयार हो गये थे. मैं बस उनके चेहरे को देखता ही रह गया - आँखों में उमड़ते आँसू, मन में उमगता चीत्कार सब कुछ दब गया था. तब तक कितने ही लोग एकत्रित हो चुके थे - उनके लिए तो मैं नितांत अजनबी एक बाहरी व्यक्ति था, जो शायद बाबा को भी पूरी तरह नहीं जानता था. मैंने अपने रुदन को गले में ही घोंट लिया था, आँखों में भर आई रेत में आँखों के पानी को सुखा लिया था और बाबा के एक भक्त के रूप में ही उनकी क्रियाकर्म करने की अपनी इच्छा गाँव वालों पर ज़ाहिर की थी. मेरी गढ़ी कहानी को गाँव वालों ने बाबा के प्रति एक भक्त के रूप में लगाव मानकर स्वीकार कर लिया था. वैसे अब तक लोग बाबा के बारे में न जाने कितनी झूठ-सच बातें याद करने लगे थे. सभी बाबा को एक बहुत पहुँचा हुआ साधू बता रहे थे. वे बाबा का क्रियाकर्म स्वयं ही करना चाह रहे थे. मैं उन्हें बाबा का बेटा होने की बात तो बता नहीं सकता था और यदि बताता भी तो वे विश्वास न करते. झोंपड़ी में रखी दो छोटी टीन की बक्सियों में पता नहीं क्या हो. मेरे अपने को बाबा का बेटा बताने पर गाँव वाले कहीं मुझे कोई ठग ही न समझ बैठें. शांति-हवन का अधिकार उनका है और मैं तो उनका दाह-संस्कार कर तुरंत चला जाऊँगा, यह कहकर मैंने उन्हें आश्वस्त किया और इस प्रकार बाबू को मुखाग्नि देने के अपने कर्तव्य का पालन कर पाया. दूसरे दिन सुबह चिताग्नि के शांत होते ही जल्दी-जल्दी उनकी अस्थियाँ एकत्र कर एक रूमाल में बाँधकर मैंने अपनी अटैची में रख लीं और बिना किसी से मिले स्टेशन की ओर चल पड़ा. मन में एक संतोष का भाव था कि मैं एक पुत्र के रूप में बाबूजी के अंतिम दर्शन कर सका और उनकी अंत्येष्टि भी कर पाया. साथ ही एक चिंता भी थी कि माँ को कैसे बताऊँगा यह सब. कैसा अद्भुत संयोग था यह कि जिनको ढूँढने के लिए हजारों रूपये खर्चकर हम इधर-उधर भटके, वही जब मुझे मिले तो पहले तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया और अब उनके समाप्त हो जाने पर उनकी अंतिम क्रिया करने के लिए अकस्मात पहुँच गया. पता नहीं किस अदृश्य शक्ति ने मुझे यहाँ इस मौके पर खींचकर पहुँचा दिया. ट्रेन में बैठकर मैंने आँखें मूँद लीं और इस अजीब संयोग पर विचार करने लगा. अचानक मेरी बंद आँखों में माँ का बिना सिंदूर-टिकली का सूना चेहरा घूम गया और मैं सोच नहीं पाया कि इतने वर्षों बाद बाबूजी के मिलने और उनके देहावसान की खबर माँ को मैं कैसे दूँगा. रास्ते में गंगा में बाबूजी की अस्थियाँ प्रवाहित कर जब घर पहुँचा तो यही विचार मेरे मन को परेशान कर रहा था. सोचते-सोचते मेरा सिर चकराने लगा था. मैं चुपचाप जाकर बिस्तर पर लेट गया. पत्नी ने मुझे इस तरह निढाल पड़े देखा तो वह घबरा गई. उसकी आँखों में प्रश्न था कि क्या हुआ - जिस दिन आने के लिए कह गये थे, उससे एक दिन ज्यादा कैसे लग गया और अब इस तरह आकर पड़ जाना. उसने कुछ पूछना चाहा, पर मेरी मनस्थिति देखकर वह समझ गई कि मैं किसी तरह की बातें करने के मूड में नहीं हूँ. वह चाय बनाने चली गई. बच्चे आसपास घिर आये - मैं हर बार टूअर से उनके लिए कुछ-न-कुछ लेकर आता हूँ. तभी माँ ने कमरे में प्रवेश किया - सुहाग के सभी चिह्न धारण किये हुए उनके चेहरे को मैं आँखें फाड़े देख रहा था. तभी बड़ी बिटिया ने कहा - 'पापा, देखिये, आज दादी ने बहुत फैशन किया है - कितनी अच्छी लग रहीं हैं, है न? माँ दोनों हाथों में आज एक की ज़गह चार-चार लाल चूड़ियाँ पहने थीं, पांवों के नाखूनों पर आलता लगाया था, सफेद धोती को गुलाबी रंग में रँगकर पहना था, उनके सफेद बालों के बीच में लाल सिंदूर की लंबी रेखा दमक रही थी. मैं भूल ही गया था की आज करवा चौथ है. तभी बिटिया फिर बोल पड़ी थी - 'दादी रोज़ ऐसे ही श्रृंगार करें तो कितनी सुंदर लगें.' माँ के चेहरे पर हल्का हास्य बिखरा और फिर सदैव की भाँति मुरझा गया. मैं कितनी बार पहले माँ को व्रत न करने के लिए कह चुका था -- 'अब इतनी उमर हो आई- सधता नहीं - छोड़ दो - बाबू कोई यह आकर थोड़े ही पूछेंगे कि मेरे लिए कितने व्रत-उपवास किये' , परन्तु आज मैं कुछ न कह सका. मन में उसी समय एक निश्चय जागा कि माँ को बाबू की मृत्यु की खबर नहीं दूँगा. उनके मिलने की आशा, ज्योतिषी का दिलाया विश्वास ही उन्हें जिलाए हुए है. विश्वास टूटे ही कहीं माँ के जीवन का धागा भी टूट गया... नहीं, माँ का विश्वास मैं नहीं तोडूँगा. यह निर्णय लेते ही सारी दुविधा, सारी उथल-पुथल समाप्त हो गयी थी और मैं एकदम शांतमन हो गया था - खूब नहाया था , बच्चों से जी-भर के बातें की थीं, चाय के साथ डटकर पराठे खाए थे, निश्चिन्त शाम तक चादर तानकर सोया था, रात करवा चौथ की पूजा के बाद चाँद को अर्घ्य देने के उपरांत हर वर्ष की तरह माँ देवी गौरी से अम्मा के साथ बाबू के दीर्घायु होने की कामना की थी, उनके वापस आने के लिए प्रार्थना की थी और मन में बाबूजी की आत्मा की शांति एवं सद्गति के लिए ईस्वर से मौन याचना भी की थी. बाबू तो वापस आ गये थे - मेरे मन में बसकर वे इस घर में दोबारा बस गये थे आकर और माँ सदा-सुहागिन हो गईं थीं - हाँ, माँ ऐसे ही सदा-सुहागिन रहेंगी, यही सोचता हुआ उस रात मैं सो गया था.

 

सरला रवीन्द्र - परिचय

मैं क्यों लिखती हूँ?

मुझसे एक बार किसी पत्रिका के सम्पादक ने पूछा था - आप क्यों लिखती हैं, आपकी रचनाओं का प्रेरणास्रोत क्या है। उनका यह प्रश्न मेरे लिए यक्ष प्रश्न बन गया, क्योंकि मुझे कभी नहीं लगा कि मैं लेखिका हूँ। सायास तो कभी लिखना हुआ नहीं। पितृगृह में संयुक्त परिवार होने के कारण एक विविधरंगी वातावरण स्वाभाविक रूप से सहज उपलब्ध रहा। साहित्यिक अभिरुचि स्वतः ही जाग्रत हो गई। मेरी एक ताई गाँधीयुग के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं पत्रकार श्री गणेश शंंकर विद्यार्थी की सुपुत्री थीं और उनके विवाह में उस कालखण्ड के आदर्शों के अनुरूप सभी जाने माने कवि-लेखकों ने अपनी रचनाएँ उपहार स्वरूप दी थीं। कविगुरु रवीन्द्र नाथ ठाकुर, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भगवती प्रसाद वाजपेयी आदि महान साहित्यकारों की रचनाएँ मुझे सहज उपलब्ध थीं। मैंने इन सभी लेखकों का काफ़ी कुछ साहित्य इंटरमीडियट तक पढ़ डाला था। इसके अतिरिक्त धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कहानी आदि पत्रिकाओं को नियमित रूप से देखने-पढ़ने का भी सूयोग मिलता रहा।

विवाहोपरांत श्वसुर गृह में भी पठन-पाठन का वातावरण मिला। पतिदेव श्री कुमार रवीन्द्र की अभिरुचियाँ कलात्मक-साहित्यिक थीं। वे एक अच्छे चित्रकार और कवि थे। विवाह के तुरन्त बाद उनके साथ लखनऊ छोड़कर मुझे सुदूर पंजाब के जालंधर नगर जाना पड़ा। एकदम नये परिवेश, बिल्कुल नई परिस्थितियों में अपने को ढालने की समस्या भी थी और उत्साह भी था। साथ ही नये-नये सम्पर्कों से अनुभव अधिक विविध एवं समृद्ध हुए। पतिदेव कालेज से उपन्यास आदि लाते रहते थे। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सारिका आदि पत्रिकाएँ हम स्वयं लेते थे। इस प्रकार बच्चों का लालन-पालन करते हुए भी मेरी साहित्यिक अभिरुचियाँ निरन्तर जाग्रत बनी रहीं। ईस्वी सन् १९७० में हम थोड़े समय पूर्व ही पंजाब से अलग हुए हरियाणा के ऐतिहासिक नगर हिसार आ गये। यहाँ कुछ ही दिनों में नगर के कवियों-साहित्यकारों की संगत से हमारा घनिष्ठ परिचय हो गया।

तो यह है वह पृष्ठभूमि, जिससे मेरे भीतर छिपे कहानीकार का स्फुरण हुआ। पतिदेव और दोनों बच्चे कॉलेज-स्कूल चले जाते थे। कुछ पुराने-नये अनुभव-बिम्ब मन में कुनमुनाने लगे और एक दोपहर मेरी पहली कहानी का जन्म हुआ। और फिर लेखन का सिलसिला चल पड़ा और एक के बाद एक कहानियाँ अवतरित होती गईं। स्थानीय गोष्ठियों में एक-आध कहानी का पाठ किया। लोगों ने सराहा और विश्वास जगा कि मैं बिल्कुल बेकार नहीं लिख रही। फिर आकाशवाणी रोहतक एवं हिसार केन्द्रों से मेरी कहानियों का प्रसारण हुआ एवं हरियाणा साहित्य अकादमी के सम्पादित कहानी संग्रहों में भी मेरी रचनाओं को स्थान मिला। वैसे आज भी मुझे स्वयं को लेखिका कहने या मानने में संकोच होता है।

०क्षितिज 310 अर्बन एस्टेट-2

हिसार-125005 ----- सरला रवीन्द्र

मोबाइल : ०९४१६९-९३२६४

ई-मेल : kumarravindra310@gmail.com

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