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मुक्ता सिंह ज़ौक्की

पईसा टैलेंट का ईंधन है!

कुछ बातें दोहरानी पड़ती हैं.

या तो लिखे जाने पर और पाठकों के पढ़ने के अंतराल में कहीं खो जाती हैं, या फिर समय के बीतने पर वापस रीसैट हो जाती हैं. उनको फिर से उठाना ज़रूरी हो जाता है.

इसलिये दुबारा दोहरा रही हूँ -

स्वीकृत कहानियों को मानदेय देने का विचार हमें ई-कल्पना की शुरुआत से ही था. अब सम्भव हो गया है. हमें लगता है कि लेखकों को पारिश्रमिक मिलना ज़रूरी है. लेखकों को उनके काम का पारिश्रमिक देने से उनका मान बढ़ता है, लिखने का उत्साह आसमान छू जाता है. कहानियों का स्तर बढ़ता है.

पाठकों का तो फ़ायदा होता है, साथ में समाज का भी -

लोग चिंतन के लिये समय निकालते हैं. इससे उनके विचार सुलझते हैं. सुलझे विचार समाज में शांति लाते हैं और समाज के लोगों की उदारता बढ़ाते हैं. अच्छी कहानियाँ लिखी जाती हैं जिससे बॉलिवुड फ़िल्मों के स्तर भी बढ़ जाते हैं. हम अच्छा पढ़ने के अलावा उच्च कोटि की फ़िल्में देख पाते हैं ... एक छोटा सा कदम, देखिये, कितनी सारी बढ़िया बातें शुरू कर सकता है.

लेकिन ये बात केवल लेखकों तक ही लागू नहीं होती. चाहे किसान हों, या हमारे जीवन में आराम लाने वाले सेवक वर्ण, उपयुक्त पारिश्रमिक न देने पर उनके काम में खिन्नता आ ही जाती है और हमारे वातावरण में एक तरह की दरिद्रता दिखने लगती है.

शायद यही एक हमारे देशवासियों का महत्वपूर्ण दोष है – हम लोगों के परिश्रम का मोल देने से कतराते रहते हैं. चाहे वो फ़िल्म निर्माताओं या पब्लिशर का अपने लेखक को सही पारिश्रमिक (रौयल्टी) देने की बात हो, या फिर आम आदमी का घर के नौकरों को सही मेहनताना देने की बात. अगर हम वाकई में अपने चारों तरफ़ प्रगतिशील माहौल चाहते हैं, तो ये ज़रूरी है कि हम सब सही मेहनताना देने की धारणा को अपनाएँ.

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