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"माँ आई है" : कविता

  • सुधा गोयल 'नवीन'
  • 15 अग॰ 2017
  • 1 मिनट पठन

गाँव से मेरी माँ आई है,

बड़ी मिन्नतों के बाद आई है,

बगल में गठरी आषीशों की,

गोंद के लड्डू में, प्यार लाई है,

मुद्दतों बाद माँ आई है,

गाँव से मेरी माँ आई है।

सरसों जम कर फूल रही है,

गेंहू की बाली.......

मोटी होकर झूल गई है....

सुरसी गैया के छौना हो गया....

पूरे गाँव में दूध बंट गया.......

छन्नू की अम्मा, पप्पू के पापा,

और चाची, मौसी के,

उपहार लाई है.......

गाँव से मेरी माँ आई है।

कमली के जुड़वा बेटे की,

उर्मिला के भाग जाने की,

शन्नो बुआ ने खटिया पकड़ी....

रामू काका के गोरू बिक गए,

समाचार मज़ेदार लाई है.......

गाँव से मेरी माँ आई है।

बेटा खुश है, बेटी खुश है,

बेटा-बेटी की माँ भी खुश है,

छप्पन पकवानों की खुशबू से,

दो कमरे का दबड़ा खुश है,

रोज़ खिलाती अडोस-पड़ोस को,

मेरी माँ से हर कोई खुश है।

पढ़ता हूँ जब मैं, माँ का चेहरा,

लगता पूछूं, क्या माँ भी खुश है,

सौंधी रोटी, चूल्हे की छोड़,

गैस भरी रोटी क्या पचती,

नीम की ठंडी छाँव याद कर,

रात- रातभर मेरी माँ जगती,

आधी बाल्टी पानी है,

माँ का हिस्सा .....

कैसे धोये,कैसे नहाए माँ नाखुश है.......

माँ चुप है.......

पर मैं और नहीं सह सकता,

कल ही माँ को गाँव में उसके,

खुश रहने को छोड़ आउंगा .......

मैं जाऊँगा, मिल आऊँगा........

बेटा-बेटी को मिलवा लाऊँगा.......

मैं मेरी सुविधाऔ,

खुश होने की खातिर,

माँ से उसका स्वर्ग छीन कर,

खुश रहने की भूल,

भूल कर भी नहीं कर सकता,

अब मैं और नहीं सह सकता

माँ को अपनी खुश रहने को छोड़ आउंगा,

गाँव में उसके छोड़ आऊँगा।।

 

सुधा गोयल 'नवीन'

जमशेदपुर

9334040697

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