हम ना जाने क्यूँ हरे-भरे, ये वृक्ष न बन सके
मानवता में हम इनके, समकक्ष न बन सके
पत्थर के बदले फल देते, फकीर संत न बन सके
विष पीकर श्वासामृत देते, नीलकंठ न बन सके
किसी जीवन के पतझड़ में, बसंत न बन सके
और प्यार के फूलों का, मकरंद न बन सके
जलती उजाले में ढलती, शमा न बन सके
और किसी मासूम भूल की, क्षमा न बन सके
कुंठा की बंद कोठरी में, झरोखा न बन सके
और घुटन में हवा का, झोंका न बन सके
प्यासी धरती की प्यास बुझाता, बादल न बन सके
मन प्राण आत्मा सींचता, गंगाजल न बन सके
ममता से महका धरती का, आँचल न बन सके
प्रेम और विश्वास का, धरातल न बन सके
किसी नन्हे सा सपने का, एक मुट्ठी आसमान न बन सके
रोबोट बनकर रह गये ना जाने क्यूँ, इन्सान न बन सके
द्वारा: सुधीर कुमार शर्मा
C-4/1, A.P.P.M. COLONY
RAJAHMUNDRY- 533105 [A.P.]