top of page
अंचित पांडे

हम प्यार में तो नहीं हैं?

ईशा और मैं के.ऐफ़.सी. में बैठे हुए थे. उस से जब आखिरी बार मिला था तब से अब तक में उसमें कुछ खास बदलाव नहीं आया था. हाँ वो बड़े शहर में रहने लगी थी, उसकी कुछ आदतें महानगरों जैसी हो गयी थीं और मैंने काफी समय वहां गुज़ार लेने के बाद भी छोटे शहर में रहना चुना था. कहानी का नायक मैं नहीं हूँ. नायिका ईशा है. हम जब साथ पढ़ते थे तब भी कोई खास दोस्त नहीं थे, उसको रहस्य मान कर कभी गौर से देखा भी नहीं था. पर इधर उससे मैसेज में बात होने लगी थी और शायद उसके मेरे बीच वही आकर्षण पैदा हो गया था जो एक बेरोजगार लेखक और एक खूबसूरत लड़की के बीच हो जाता है - क्लिशे टेक्स्टबुक रोमांस. पर मैं कोई गंभीर प्रेमी नहीं था और प्रेमी भी नहीं था. कॉलेज के बीते इन तीन चार सालों बाद हम आज मिल रहे थे. तब तक उसकी भेजी कुछ पर्सनल तसवीरें ही देखीं थी.

वो कॉफ़ी पीना चाहती थी. मैं उससे उसके प्रेमियों के बारे में पूछना चाहता था.

ईशा ने एक पीले रंग का टॉप पहना था. मैंने इस टॉप में उसकी तस्वीर पहले भी देखी थी. पर उस तस्वीर में उसने बालों से अपने टॉप के गहरे गले को ढँक लिया था. आज वो उस तरह की कोई कोशिश नहीं कर रही थी. आसपास के लोग कनखियों से और कुछ हिम्मती सीधे सीधे ही हमारी तरफ देख रहे थे. ईशा के लिए ये नया नहीं था. वो बेतकल्लुफ थी, ऐसे ही . कॉलेज के ज़माने से. उसकी सबसे करीबी सहेली से मुझे कॉलेज के शुरुआती दिनों में कस कर प्यार हुआ था. और ईशा से पहली मुलाकात- एक दिन खाली क्लास में बौदेलेयर से सर उठाते मैंने पाया कि वो और मैं क्लास में अकेले हैं और वो मुझे देख रही है. किसी खास प्रयोजन या कौतुहल से नहीं- उत्सुकतावश. मेरे मित्र अक्सर उसके दिमाग को लेकर मजाक करते थे और उसको "क्लास-आइटम" बुलाते थे. मेरी धारणा, जैसा अमूमन होता है इसी पर बनी थी.

मैंने ईशा को देखा. उसने भी मुस्कुराते हुए देखा और कहा- "मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ." मैं थोडा डरा भी और थोड़ा गुस्सा होते हुए क्लास से निकल गया.

बाद में मुझे पता चला कि उसका कोई प्रेमी (हालांकि इसकी सत्यता की जांच भी असंभव है.) उसे अकेला पा कर धमका रहा था और इस डर से वो वहाँ फंसी हुई थी. मैंने अपनेआप को पचड़े से दूर रहने की सलाह दी. जिस लड़के ने मुझे ये प्रेमी वाला किस्सा सुनाया था उसने कहा कि ईशा जैसी लड़कियों के साथ यही होता है. मैंने उसका कोई विरोध नहीं किया.

के ऍफ़ सी में शोर था पर हम कोने में बैठे थे. मैंने अपनी नोटबुक निकाली. मैं रिकॉर्डर भी निकालना चाहता था. आजकल तो सब फ़ोन में हो जाता है. मैं चाहता तो उसको बिना बताये भी ये किया जा सकता था. पर ये गलत होता. फिसड्डी, कॉलेज के ज़माने से फेल्ड जीनियस लोगों को अपना आइडियल मानने वाले लोगों में मॉरल और एथिकल वैल्यू सिस्टम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. हम ग्रीटिंग्स शेयर कर चुके थे, उसने हाथ मिलाया था और उसका हल्का ठंडा हाथ और उसकी देह से आती साबुन-डीयो की गंध दोनों ने मुझे बहुत सेल्फ कॉन्शियस भी कर दिया था. मैंने बैठने की जगह उसे ही चुनने दी थी. वो जहाँ कम्फर्टेबल फील करे - हम उन कुर्सियों पर बैठे जहाँ प्रेमी जोड़े बैठा करते थे. ऐसे भी भीड़ से जितना संभव होता उतना अलग होकर शायद मैं ज्यादा सवाल कर पाता. मुझे स्माल टॉक में दिक्कत होती थी. आप अगर गुणी पाठक हैं तो आपने मेरे जैसे बहुतेरे स्टीरियोटाइप करैक्टर देखे होंगे. मैं भी उन्ही में से एक हूँ. तो मेरे जैसे दो स्टीरियोटाइप स्ट्रगलिंग लेखक जब असल जीवन में मिलते हैं तो ज्ञान झाड़ने के चक्कर में जो पहला सवाल करते हैं वो मैंने ईशा से कर दिया. "क्या पढ़ रही हो आजकल?" "मंटो."

ईशा के गले में एक चांदी की चेन होती थी कॉलेज के दिनों में. पतली सी चेन. उसने जो भी टॉप पहना होता उसके गले नीचे की ओर जाते हुए गहरे और तिकोने होते जाते, वो अमूमन स्लीवलेस होते, सर्दियों के अलावा जब वो एक टाइट स्वेटर के ऊपर एक मोटी काली जैकेट पहना करती जो शायद कोट की तरह लगती थी. मेरी क्लास के लड़कों के दिल उस चाँदी की चेन में फंसी लौकेट की तरह ईशा के आसपास झूलते रहते थे.उस स्लीवलेस टॉप से अमूमन उसकी ब्रा-स्ट्रैप्स दिखाई दे जाते और पूरी क्लास मूक शब्दों में इसका गन्दा और कभी कभी फूहड़ मजाक बनातीं थी. ईशा पहली बेंच पर बैठती थी और मैं जानता था कि क्लास में जो बातें होती हैं उनका मोटा मोटी जिस्ट ईशा जानती है. वो एम्.ए. की क्लास एक विचित्र क्लास थी, जहाँ लडके नौकरी और उसके फ्रस्ट्रेशन के बीच औरतों के बारे में तमाम बातें किया करते थे- क्लास की कौन सी शादीशुदा लड़की उनसे बात करती है, कौन बाथरूम से बात करती है. क्लास की लड़कियों के भी कई गुट थे और जो शादी-शुदा होतीं वो क्लास की दूसरी लड़कियों को सेक्स टिप्स दिया करतीं और नयी दुल्हनों से उनकी सुहागरात के स्टेप बाई स्टेप किस्से पूछा करती. ईशा इन चीज़ों से अलग ही थी शायद. उसके प्रेमी रहे थे पर मैंने उसे इन बातों में शामिल होते नहीं देखा कभी.

कभी कभी दो लेक्चर्स के बीच में उसके बाल खुल जाते तो वो क्लिप दांतों में दबाये दोनों हाथ ऊपर कर अपने बाल बाँधा करती, उसकी गर्दन जो वैसे तो बालों से ढकी रहती थी, तब बेपर्दा हो जाती, वो पतली चांदी की चेन उसकी गर्दन से चिपकी होती. उसके कंधे हलके दिख रहे होते, उसके दोनों हाथ उसके बालों में उलझे हुए. पीछे से उसे देखते हुए लगता कि किसी विराट मंच पर वो नायिका सी बैठी है . अगर आप ध्यान दें तो आप पाएंगे कि नाटक जो होते हैं वो हमारे आम जीवन वाले समयबोध और इतिहासबोध से बंधे नहीं होते. वो हमारे सब इतिहास-बोधों और समय-बोधों को चुनौती ही नहीं देते उन्हें तोड़ देते हैं. ईशा से मुझे कोई प्रेम नहीं था. लेकिन जितनी देर वो बाल बांधती मुझे वो एक दूसरी रियलिटी लगती थी.

और फिर एक दिन मैंने पाया कि ईशा और अक्षय का अफेयर शुरू हुआ है और वो अपने सभी प्रेमियों से अलग हो चुकी है.

(२)

"मंटो?" मुझे ये बहुत बड़ा डाउट था कि ईशा कभी कुछ पढ़ती होगी. उसके बारे में जो आम धारणा बंधी थी उससे मैं पूरा पूरा सहमत था- यही कि उसका करैक्टर ठीक नहीं है, उसके कई प्रेमी हैं, वो लड़कों को फंसाती है, उसको देह प्रदर्शन का शौक है. क्लास का एक लड़का जो उससे बात करते हुए हकलाने लगता था, वो हम लड़कों के सामने उसे "बासी माल" और "डिफेक्टेड पीस" घोषित कर चुका था. मैं इस धारणा से सहमंत था क्योंकि चीज़ों को हमलोग मानकर चलते हैं. दूसरों के बारे में इससे ज्यादा सोचना मुश्किल काम है. फिर इस बात में एक यौन रोमांच था जिसका आकर्षण कभी कम नहीं होता . ये जुगुप्साएं स्कूल में किसी टीचर के बारे में या किसी सहपाठी के बारे में अक्सर बन जाती हैं.

"हाँ क्यों?" मंटो अच्छा लेखक है." ईशा मुस्कुराते हुए बोली. उसने हलकी लिपस्टिक लगाईं थी. थोड़ा काजल भी. पर वो इंटेलेक्चुअल टाइप दिखती नहीं थी. मंटो कैसे पढ़ती होगी. नाम सुना होगा कहीं. दिल्ली रह कर आई है. वहां तो लोग कई लेखकों का नाम लेते रहते हैं. कुछ फेसबुक पर दिखा होगा. मैंने सोचा. मैंने उसको कहा था कि मैं एक कहानी पर काम कर रहा हूँ और ऐज़ अ प्रोतागोनिस्ट वो मुझे बहुत अपील करती है. "तुम क्या पूछना चाहते हो आकाश? तुम्हारे मेसेज्स से लग रहा था कि तुम मेरा करैक्टर जज करने की फ़िराक में हो."

"तुम फिर भी आ गयी मिलने?"

"लोग भूत बन कर कहानी सुनाते हैं. मैं जिंदा ही सुना लूं, वैसे भी बड़े शहर में रहो तो फिर जाने पहचाने लोग भी बहुत करीब हो जाते हैं."

अक्षय मेरे बचपन का दोस्त था. हम बहुत करीब नहीं थे पर बचपन से एक ही क्लास में पढ़े थे तो हमारा "रेपो" ठीकठाक था. अक्षय करैक्टर के हिसाब से मुझसे बेहतर था. उसको प्यार बस एक बार हुआ था वो भी एकतरफ़ा और उस प्यार के चक्कर में भी उसकी कुटाई हो चुकी थी एक बार. फिर एक दिन मैंने सुना उसने ईशा को प्रपोज़ कर दिया. ईशा मान भी गयी. ये मेरे लिए अप्रत्याशित था. मेरे भी अफेयर रहे थे, एक दो वन नाईट स्टैंड भी, एक लड़की से पहली मुलाकात में ही जो बहस जी स्पॉट पर शुरू हुई, उसके बिस्तर तक जाकर ख़त्म हुई थी. मेरी एक प्रेमिका मुझसे बहुत दिनों बाद मिली तो उसने मुझे अपनी जूठी सिगरेट पिलाई थी. मेरे लिए ये लाज़मी था क्योंकि ये लेखक चरित्र के ऐसे ही होते हैं, ये भी एक धारणा थी जिसका फायदा और मज़ा दोनों मैं कई बार उठा चूका था. ये एक अभूतपूर्व सुविधा भी थी. अक्षय गलत लड़की के चक्कर में फंस गया इसका प्रचार भी क्लास में हो रहा था, ब्लो जॉब को मजबूरी बताने वाली एक लड़की ने अक्षय को चेताया कि वो गलत चक्करों में फंसा है और एंड-रेसल्ट सही नहीं होगा. फिर ईशा का पहनावा, उसके प्रेमी, उसके लक्षण - सब गलत. लड़के भी बोलते रहे कि अक्षय पिटेगा और अक्षय को मार भी पड़ी.

"मंटो तीन औरतों के साथ शादी के पहले सोया था. मैं उसके एसेज पढ़ रही हूँ, अपनी शादी के बारे में लिखते हुए वो ये लिखता है." ईशा ने कहा, " मैं तुम्हारी बातों से समझती हूँ कि तुम मुझसे क्यों बात करना चाहते हो, हम कम अच्छे दोस्त होते हुए भी मिल रहे हैं, बातें कर रहे हैं और शायद अकेले पहली बार. तुम क्या तय करना चाहते हो आकाश?" उसका दोहराव मुझे भीतर तक जज कर गया.

"हम प्यार में तो नहीं हैं."

"ना. ये असल ज़िन्दगी है."

(३.)

"अक्षय मुझे बहुत अच्छे से चूमता था. मुझे अपने निचले होठों पर चुमवाना बहुत पसंद है...और अगर कोई उन्हें धीमे धीमे काटे." ईशा ने मुझे गहरी आँखों से देखा और चुप नहीं हुई." तुम अगर सच में रहस्यवाद में विश्वास करते आकाश तो किसी के भी पीछे जा सकते थे, मेरे पास आने के कोई और कारण हैं. अब मैं तुम्हें फेमिनिस्ट नैरेटिव पर लेक्चर दूं, सूट नहीं करता. इतनी थ्योरी तुम समझते हो.

"मन वूमन रिलेशनशिप भी एक आउटडेटिड बहस है. सच जानना और अपने बीलिफ की स्वीकृति होना, दोनों अलग अलग परसेप्शन हो सकते हैं."

" क्या बोलूँ? इतिहास और समय की बात मैं क्या करूँ, तुम प्रेमियों की संख्या कहानी में लिख भी दोगे तो क्या हो जाएगा? अगर हम एक साथ सो लें तो भी ? उसके आगे भी कुछ है सोचने को - एक कहानी में क्या धरा है!

" फिर भी तो हम सब जानना चाहते हैं ईशा - तुम ठन्डे हाथों के साथ मिली मुझसे आज, हो सकता है मैंने तुम्हे चूमना चाहा हो, क्षणिक प्यार की वजह से, तुम औरत हो इसीलिए नहीं."

"इब्सन का एक नाटक है, ब्रांड. उसके एक सीन में, एक औरत दरवाज़े पर दस्तक सुन कर दरवाज़ा खोलती है और वहाँ उसे एक बच्चा मिलता है. वो हतप्रभ खड़ी है, ये सोच नहीं पा रही कि वो क्या करे और फिर वो सोच लेती है कि वो उस बच्चे को पाल लेगी. जैसे ही वो उस बच्चे को गोद में लेती है, वो बच्चा मर जाता है. हमारी सब विशेस भी तो ऐसी ही हैं ना? हम भी तो ऐसे ही हैं?

"इस से कुछ क्लियर नहीं हो रहा. तुम दो डिस्टेंट स्टीरियोटाइप लग रही हो - या तो एक कामचलाऊ औरत या एक ट्रू फेमिनिस्ट?"

"हम लेबल क्यों करना चाहते हैं? तुम मुझे सेंत्रिस्ट , मार्क्सिस्ट, फेमिनिस्ट- इन टर्म्स में क्यों देखना चाहते हो? इनसे असल ज़िन्दगी में क्या बदलेगा?

डिपार्टमेंट में किसी फंक्शन में ईशा ने भी किसी की लिखी एक कविता पढ़ी थी. उसने लम्बा काला कोट पहना था, उसने जेब में हाथ डाले थे, वो टेबल तक पहुँची, उसने लम्बी सांस ली, सब उसको देख रहे थे, मैं मंच सञ्चालन कर रहा था, घडी का ईजाद नहीं हुआ था, हमने कोई बोझ अपने काँधे नहीं लादे हुए थे, उसने मुझे देखा, उसने अपने बालों को कान के पीछे किया, उसने फिर मुझे देखा और वो मुस्कुराई.

 

अगर बहुत कम उम्र से ही आपके हाथों में किताबें पकड़ा दी जाएँ, आपको आपबीती लिखने के लिए कहा जाए और आपकी तालीम में संवेदना को प्रमुखता दी जाए तो ज़िन्दगी की रेस में हो सकता है आपको अंधे घोड़े ही दौड़ते दिखाई दें, आप अलूफ होते जाएँ, और अनिश्चितता और भागदौड़ आपका जीना हराम कर दे. इस हताशा से जूझने की हिम्मत और हौसला, सिर्फ भाषा दे सकती है. तो लाज़मी था कि भाषा मुझे भी अपनी ओर आकर्षित करती. मैंने अंग्रेजी साहित्य में औपचारिक पढाई की पर हिंदी, भोजपुरी और दूसरा विश्व साहित्य भी पढता रहा, जो रास्ते खुद पार नहीं कर पाए, वहां मेरी नाव इन्होने ही खेई.जीवन ऐसे ही तो चलता है. आप हारते जाते हैं और तब भी साहित्य आपको जिलाए रखता है. लिखना इसी पढ़े हुए के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना भर है, जिन्होंने मुझे संबल दिया उनको स्मरण करना और उस लम्बी परंपरा से खुद को जोड़ना भी. मैंने जब से शिम्बोर्स्का का नोबल पुरस्कार वाला भाषण पढ़ा तब से अपने को जोर से कवि कहता हूँ और कभी कभी कहानियाँ भी लिख लेता हूँ. मुझे सार्त्र और कामू प्रभावित करते हैं, मुझे शेक्सपियर और अज्ञेय से प्रेम है और किस्सागोई मैं काल्विनो और मार्केज़ से सीखना चाहता हूँ. जिन पत्र-पत्रिकाओं में छपा, वहां छपते हुए बस ये इच्छा रही कि जैसे मुझे उबारते हुए साहित्य ने मुझे इतने दोस्त दिए, मैं भी कुछ हाथ थाम सकूँ, अपने अकेलेपन को जीते हुए हम इतनी ही उम्मीद कर सकते हैं.

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page