एक रात का भीगा गगन,
और दूसरी अँधेरे में बैठी मैं।
जितनी प्रतीक्षा की हम दोनों ने दिन के आने की,
उतना ही रुका-रुका सा रहा समय।
अधीर होते मन ने कहा,
अंधेरे को अब गले लगा लो।
बादलों में से सूरज घंटों बाद
ज़रा सा झांक भी ले तो क्या,
उसे रंग बिखेरता हुआ देखने की ललक छोड़,
अब खुद को समझा लो।
एक चाँद-सितारों के बिना भीगा गगन;
और दूसरी,
नींद के बिना जागी-जागी सी मैं।
हाँ, गा तो रही थी हवाएँ आज भी गीत कोई,
पर न उनकी आवाज़ में वह सुहावना माधुर्य था;
न वह पुरानी लय।
फिर भी उम्मीद की कोई किरण,
मेरे मन के किसी कोने को रोशन करती रही।
"कल नहीं भी तो क्या हुआ,
किसी-न-किसी सुबह तो लालिमा बिखेरते हुए सूरज सपनों के क्षितिज पर निकलेगा।"
यह सोचा तो देखा मैंने कि मेरे मन के उसी कोने की छत पर;
उस एक उम्मीद की किरण से निकलकर;
अनगिनत रंगीन रश्मियाँ,
मुस्कुराकर उतरती रहीं।
एक रात का भीगा गगन
और दूसरी अँधेरे में बैठी मैं।
रहा दोनों की ही प्रतीक्षा में,
उजाले के प्रति प्रणय।
अर्चना मिश्रा।
mishraarchana793@gmail.com