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मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग

सफ़रनामा : याद-ए-कालापानी - भाग 1

उस रात का जादू

मौला मेरे, मौला मेरे, मौला मेरे - - -

अनवर फ़िल्म का यह गाना जब भी कानो मे पड़ता है, हम चारों पर एक सा असर होता है । यह एक अजीब सा असर है । हमारे दिलो दिमाग, देश और काल की हदों को तोड़ते हुये 20 और 21 मार्च 2007 की दर्मियानी रात मे पहुंच जाते हैं । हम चारों यानि मै, मेरी शरीक ए हयात नाहिद अफ़्शाँ, बेटी शीरीन और बेटा बाबा यानि कामरान आधी नींद और आधे होश मे चेन्नई की सुनसान सड़कों को निहार रहे हैं । सड़कें, चौक चौराहे और इमारतें सब कुछ तेज़ी से पीछे की तरफ़ भागे जा रही हैं । पता नहीं हम किसी जादू की गिरफ़्त मे थे शायद; या सूनी रातों का जादू ही ऐसा होता हो । हमारी टैक्सी जैसे उड़ती हुई या सड़कों पर फ़िसलती हुई सी कामराज इन्टरनेशनल एअरपोर्ट की ओर चली जा रही है और मेरी बेटी के म्युज़िक डिवाइस पर अनवर फ़िल्म का यह गाना चल रहा है- मौला मेरे, मौला मेरे, मौला मेरे - - -

एक सफ़र सूरज की ओर:

उस जादू भरी रात की इन्तेहा यूँ थी कि जब हमारी फ़्लाईट टेकऑफ़ कर रही थी नींद के आगोश मे खोये हुये चेन्नई की रौशनियाँ झिलमिला रही थीं । लेकिन, फ़िर जल्द ही सूरज की रौशनी नज़र आने लगी । हां हम सूरज की ओर, रौशनी की ओर उड़े चले जा रहे थे; यानि की पूर्व की ओर । यह हमारा सफ़र भारत की मुख्य भूमि से सुदूर पूर्व की ओर थोड़ा दक्षिण मे स्थित अन्डमान निकोबार द्वीप समूह की तरफ़ था ।

यह ट्रेन या बस के सफ़र की तरह नहीं था कि खिड़की के बाहर शहर बस्तियों पहाड़ो और जंगलों के खूबसूरत नज़ारे देखते हुये खो जायें । यहां तो बस नीरस एक्ररसता थी । इस बोरियत से उकता कर मै ऊंघने लगा । तभी मेरा दस साल का बेटा बाबा कह रहा था “पापा, देखो देखो - - -“ तभी बेटी शीरीन भी बोलने लगी “पापा बाहर देखो ।“

बाहर मेरे सामने खिड़की के बाहर नीला आसमान था और बिल्कुल उज्जवल सफ़ेद बादल आवारगी कर रहे थे । मैने नीचे देखा वही नीला आसमान ! वही बादल !! यह क्या ? क्या हम उल्टे होकर उड़ रहे हैं ? फ़िर हम सिर के बल गिर क्यों नही रहे ? कहीं हम गुरुत्वाकर्षण बल की सीमा से बाहर तो नहीं निकल गये । नहीं, नहीं ! ऐसा कैसे हो सकता है । हम कोई अन्तरिक्ष मे थोड़ आ गये हैं । मैने अब खिड़की से बाहर ऊपर की ओर नज़र उठाई । यह क्या इधर भी आसमान, वही बादल ? फ़िर नीचे देखा । ऐसा लगा जैसे उपर वाली तस्वीर का ही अक्स हो । और सामने भी वैसा ही नज़ारा । यह क्या ? या इलाही यह कौन से तिलिस्म मे फ़स गये हैं । हर तरफ़ आसमान और बादल ?? मेरा सिर चकराने लगा । मैने खिड़की से नज़र हटा ली । अपने आप को संयत करने की कोशिश करने लगा । नहीं ऐसा नहीं हो सकता । मुझे अपने दिमाग को काबू करना होगा - - - ।

कुछ देर बाद मैने फ़िर खिड़की से बाहर नीचे की ओर देखा - - - । ध्यान से - - - कफ़ी ध्यान से एक टक देखते हुये मुझे लगा इस नीचे वाले आसमान पर कुछ लकीरें उभर रही हैं; मिट रही हैं और टूट रही हैं । अरे यह तो समन्दर है । तभी किसी ने कहा “हम अभी हिंद महा सागर के ऊपर से उड़ रहे हैं ।“

यूं ही कुछ वक़्त बीत रहा है - - -

अचानक एक एलान होता है- “खिड़कियां बंद कर लें और अपनी सीट बेल्ट बांध लें ।“

सब ने ऐसा ही किया । फ़िर एक सन्नाटा छा गया । कुछ देर बाद प्लेन थरथराने लगा । सब चुपचाप थे और उदासीन । न कोई निश्चिंतता थी न कोई घबराहट । हां सब खामोश थे । सुईं पटक सन्नाटा । फ़िर थरथराहट रुक गई; लेकिन फ़िर प्लेन थरथराने लगा और फ़िर शांत - - - ।

थोड़ी ही देर बाद एलान होने लगा कि “खिड़कियां खोल लें और नीचे का खूबसूरत नज़ारा देखें । यह अन्डमान द्वीप है; और हम थोड़ी ही देर मे पोर्ट्ब्लेयर मे लैन्ड करने वाले हैं ।

सागर के बीच एक खूबसूरत द्वीप ! इतना खूबसूरत नज़ारा !! इतना विहंगम दृश्य !!! और यह कोई टीवी या सिनेमा नहीं था जीता जागता नज़ारा । अद्भुत ! अविश्वसनीय !! अवर्णनीय !!! मेरे बच्चे खुशी से चीख रहे थे ।

पोर्ट्ब्लेयर:

तो, यह है पोर्ट्ब्लेयर ? भारत के केन्द्र शासित प्रदेश अन्डमान – निकोबार द्वीप समूह की राजधानी ।

पोर्टब्लेयर के मुख़्तसर से, छोटे से एयरपोर्ट से बाहर आते ही यही पहले विचार थे जो मेरे मन मे आये । दिन काफ़ी चढ़ आया था । सूरज आसमान का तकरीबन आधा या उससे भी ज़्यादह सफ़र तय कर चुका था । धूप बड़ी तेज़ लग रही थी । ऊपर देखते नहीं बन रहा था और सिर बड़ा भारी भारी सा लग रहा था । पता नही काफ़ी थकान सी महसूस हो रही थी । खाना खाकर सो जाने का मन था । दो तो बज ही रहे होंगे - - -

बाहर एक तरफ़ काफ़ी भीड़ भाड़ थी । यहां लोग यात्रियों को रिसीव करने पहुंचे हुये थे । वहां मेरे नाम की कोई तख्ती नज़र नहीं आई और सच पूछो तो मुझे इस बात की कुछ फ़िक्र भी नहीं थी । मैने कोई पकेज बुक नही कराया था । पप्पू भाई ने, जिनसे अपनी टिकटें बुक कराई थीं, पूछा था पर मैने कहा था जाकर अच्छी तरह बात चीत करके ही पैकेज लूंगा, क्यों कि ज़्यादा से ज़्यादा जगहें घूम सकें । पप्पू भाई ने कहा बेफ़िकर होकर जाइये कोई बात हो तो तुरंत फ़ोन कर देना । इसके बावजूद मेरे पास कई सम्पर्क भी थे; सो मै बेफ़िक्र था । मुझे तो ज़रूरत थी सिर्फ़ एक टैक्सी की ।

यहां से ज़रा आगे बढ़ते ही एक भीड़ ने हमे घेर लिया । सभी एक साथ और बड़ी तेज़ी से बोले जारहे थे । किसी की भी बात पल्ले नही पढ़ रही थी । आखिर मैने ज़ोर से चिल्लाकर डांटा तो सब चुप हो गये । उनमे से एक लड़का सबको चुप कराने लगा कि चुप हो जाओ सर को बात करने दो । मैने उस लड़के से पूछा “तुम्हारी गाड़ी कौनसी है ?” मेरे सामने ही उसकी मारूती वैन खड़ी थी और उसके साथ पूरी टीम थी । उसने होटल या लॉज की जगह आबादी मे बढ़िया लोकेशन मे ठहरने का प्रस्ताव रखा जो मुझे पसंद आ गया और उसकी दिखाई पहली ही जगह मुझे और मेरे परिवार को पसन्द आ गई । यह जंगली घाट नाम की जगह पर मुख्य मार्ग से लगा हुआ आफ़ताब नाम के एक व्यापारी के मकान के तीसरे माले पर स्थित सिंगल बेडरूम वाला एक फ़्लैट था जिसमे सामने करीब बीस पचीस फ़ीट लम्बा टैरेस था । यहा से ठीक सामने जंगलीघाट जेट्टी बिल्कुल साफ़ नज़र आता था जो सूनामी मे तहस नहस हो गया था और अब उसका पुनर्निर्माण चल रहा था । जेट्टी से आगे समुद्र का नज़ारा इतना खूबसूरत था कि दिल ऊबता ही नहीं था । मालिक मकान दूसरे तल पर था । हमारे तल पर ही दो और फ़्लैट थे जिसमे से एक मे शायद कोई सरकारी कर्मचारी किराये मे रह रहे थे । इतनी खूबसूरत और सुविधाजनक जगह भले कौन छोड़ना चाहेगा ?

एक और बात जो हुई थी वह यह कि, एयरपोर्ट पे बात करते समय ही उन लोगो ने पूछा था कि पहले नास्ता वगैरह करना हो तो मैने बताया कि हम प्लेन मे नाश्ता कर चुके हैं । फ़िर राजेश नाम के उस टूर ऑपरेटर ने कहा कि आप लोग ग्यारह बजे तक रेडी हो जाना तो आज लोकल स्पॉट्स देख लेंगे । इसपर मैने आकाश की तरफ़ इशारा करके कहा, “अभी कौन से ग्यारह बजेंगे ? अभी तो दो बज रहे होंगे ।“

इसपर उसने कहा, “सर घड़ी देखिये अभी तो नौ बज रहे हैं ।“

मैने घड़ी देखी तो सचमुच नौ बज रहे थे । एक बारगी तो मै चकरा गया । लेकिन फ़िर यहां की भौगोलिक स्थिति का ध्यान आया तो मुझे मामला समझ मे आ गया । दरअसल यह भ्रम का मामला नहीं बल्कि भौगोलिक स्थितियों का मामला था । हमारा शहर भिलाई की स्थिति 21.17 अंश उत्तर और 81.26 अंश पूर्व है; जबकि पोर्ट्ब्लेयर की भौगोलिक स्थिति 11.67 अंश उत्तर और 92.76 अंश पूर्व है । अक्सर लोगों को इस बात का ख़्याल नही कि भारत का जितना विस्तार है उसके हिसाब से पूरे देश मे एक टाईम ज़ोन मेन्टेन करना ज़रा अटपटा सा है । क्योंकि जब गुजरात या राजस्थान जैसे रज्यों मे पौ फ़टने वाली होती है, सुदूर उत्तर के राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश या मिजोरम मे सूरज आसमान पर चमक रहा होता है ।

तो हमने पहले दिन पोर्ट्ब्लेयर घूमने का इरादा किया जो इस केन्द्रशासित प्रदेश की राजधानी है और सिर्फ़ 5 किलोमीटर के दायरे मे बसा है । यहां कहीं भी जाये सड़क के एक तरफ़ सागर एक तरफ़ हरे भरे पहाड़ नज़र आते हैं । आज हम लोग पहले कार्बाईन्स कोव बीच, समुद्रिका और गांधी पार्क घूमे फ़िर लेकिन कहीं भी ज़्यादह देर ठहरे नही । हमे सेल्यूलर जेल देखने की बेचैनी थी । यहां से हम जल्दी ही सेल्यूलर जेल पहुंच गये । यहां घूमना सच मे इतिहास के एक कालखण्ड को देखने के समान था । यहां कैदियों की कोठरियों और गलियारों के अलावा, यातनागृह और फ़ांसी के तख़्त जहां एक साथ तीन कैदियों को फ़ांसी देने का इन्तेज़ाम था । जिसके नीचे गहरा गड्ढा था । जिन्हे फ़ांसी दी जाती उन्हे यहीं से नीचे फ़ेंक दिया जाता जहां का कालापानी उन्हे अपने अंदर समा लेता । यह सब देखकर दिल मायूस सा हो जाता है । इनसान अपने ही जैसे इनसानो पर इतना ज़ुल्मो सितम किस तरह ढा सकता है । मै सोंचता रहा, अंग्रेज़ों के दिल मे भारतियों के प्रति इतनी अमानवीय सम्वेदनाओं का आधार भला क्या हो सकता है । आत्मसम्मान सहित जीने का अधिकार तो हर मनुष्य को होना चाहिये । और हर इनसान का यह कर्तव्य भी होना चाहिये कि दूसरों के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचाये । न दूसरों के मौलिक अधिकारों का हनन करे । भारतीयों को भी अपने तरीके से अपने कानून कायदों से जीने का अधिकार है । आज़ादी मांगना, इतनी घृणा का करण कैसे हो सकता है ? इसका जावाब भी जल्दी मिला ।

शाम पांच बजे से लाईट ऐन्ड साउन्ड शो था । इस कार्यक्रम मे न सिर्फ़ कैदियों पर होने वाले अत्याचारों की कहानियाँ बयां की गई बल्कि उस समय के वहां के जल्लाद शासकों की मानसिकता भी बयां की गयी थी । समुद्र के बीच दुनियाँ से कटी हुई जगह थी यह अन्डमान द्वीप और यहां का शासक था डेविड बेरी जो अपने आप को यहां का खुदा कहता था । उसका कहना था कि मै जिसे चाहूं ज़िन्दगी दूं जिसे चाहूं मौत दूं । हां यह है वह कारण ! इन्सान को हैवान बनाने वाला सबसे बड़ा नशा । सत्ता का नशा - - - । जिसके चलते इनसान अपने आपको इनसान से ऊपर समझता और दूसरों को इनसान समझने का तो सवाल ही नहीं उठता ।

- भाग 2 पढ़ें - 12 अक्टूबर को

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