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सफ़रनामा : याद-ए-कालापानी - भाग 3

  • मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग
  • 18 अक्तू॰ 2017
  • 20 मिनट पठन

नॉर्थ-बे आइलैंड और रॉस आइलैंड

सवेरे-सवेरे हम लोग तैयार थे । गाड़ी और ड्राईवर के अलावा हमारे टूर ऑप्रेटर्स भी पहुंच गये । आज उनके साथ एक नया लड़का था । यह आज से हर सफ़र मे हमारे साथ रहेगा और हमारी सुविधाओं का खयाल रखेगा । राजेश ने बताया । यह भी बताया कि यह सब जगह का अच्छा जानकार है । तो यह था पप्पू भाई का असर । असल मे यह उनके व्यापारिक सम्बन्धों का ही असर था । लेकिन अपनी जगह से दो तीन हज़ार किलोमीटर पर इतना असर वह भी एक ऐसे आदमी का जो मेरी नज़र मे बिलकुल आम सा पड़ौसी था; कमाल की बात तो थी । खैर - - - ।

नाश्ते के लिये एक बढ़िया से साउथ इन्डियन रेस्टॉरेन्ट का सुझाव था वह हमे पसंद आया । यहां इडली, डोसा और मेरा फ़ेवरेट साम्भर बड़ा मिल गया । भरपेट नाश्ता करके हम लोग एक छोटे से जहाज़ या फ़ेरी पर सवार हुये; नॉर्थ-बे आइलैंड के लिये । वहाँ पहुंचकर हम तट से कुछ दूर ही रुक गये । यहां हमे लेने कुछ डोंगियाँ पहुंची और हम उन पर सवार हो गये । ये डोंगियाँ चप्पू से खेने वाली थीं, जिनके तले पारदर्शी कांच के थे । कांच के तले से समुद्र के अन्दर की दुनियाँ बिलकुल साफ़ नज़र आती थी । सभी सवार दायरा बनाकर बैठे थे और समुद्र के आन्तरिक जीव जगत का नज़ारा कर रहे थे । वह हैरान करने वाली दुनियाँ थी । कितने रंगों की मछलियाँ और कितने रंग बिरंगे मूंगो की बस्ती थी यहाँ और भी कितने रंग बिरंगे जीव थे । सबको इतनी जल्दी इतनी आसानी से समझना मुश्किल ही था । खासकर हम जैसे नये और अंजान लोगों के लिये । सचमुच अद्भुत् ! कितने रंग थे ? और कितने अस्थिर ? कितने चंचल ? ज़रा सोंचें वे सारे रंग घुलमिल कर एक हो जायें तो - - - ? क्या दुनियाँ इतनी ही खूबसूरत होगी ? इतनी ही दिलचस्प ? क्या हमे विविधता का सम्मान नही करना चाहिये । आखिर विविधता ही तो दुनियाँ के सौन्दर्य का मूल तत्व है । हम लोग किनारों के करीब के पत्थरों पर उतरकर पैदल किनारे की ओर चल दिये ।

पत्थरों के बीच की दरारों और गड़हों मे खूबसूरत रंगीन छोटी छोटी मछलियां थी । सबसे किनारे वाले पत्थर की आड़ मे, एक्वेरियम मे पाली जाने वाली ग्रीन टाईगर बार्ब या उसकी समरूप छोटी-छोटी मछलियों का एक झुण्ड देख मेरा बेटा उत्तेजित हो गया और जेब से रूमाल निकालकर उससे मछलियों को पकड़ने की नाकाम कोशिश मे जुट गया । तस्वीरें खीचने खिचाने के बाद मै और बच्चे पानी मे जो उतरे तो बस वहीं के होकर रह गये । यहाँ का पानी एकदम शांत था; मुझे नहीं पता क्यों । यहां कुछ लोग कुछ पैसे लेकर आपको मास्क पहनाकर साथ मे समुद्र मे कुछ दूर तक ले जाकर अन्दर की रंग बिरंगी दुनियाँ का दीदार कराते थे । मै तो एक बार गया लेकिन मेरे बच्चे ज़िद करके कई बार गये । हमे आज शायद नशा हो गया था इस शांत समुद्र-तट का । यहां और भी कुछ जगह घूमने की थी और हमारे साथ जो गाईड था वह बार-बार कहता रहा लेकिन हम पानी से बाहर आये ही नही जब तक कि वापसी का समय नही हो गया । लेकिन इस सारे वक़्त मे, नाहिद मेरी बीवी ने समंदर के पानी को अपने पैर तक छूने का मौका नहीं दिया । हमने लाख कोशिश की लेकिन वह किनारे पर हमारे सामान के पास से टस से मस नही हुई । हो सकता है कि यही वजह रही हो कि सफ़र के आखरी दिनो मे जिस तरह उसने हमारी लीडर्शिप अपने हाथ मे ली और हमे सही सलामत रखा ।

हमारे व्यक्तिगत गाईड ने हमारे खाने का पहले से इन्तेज़ाम करवा रखा था । हमने पानी मे ही इतना वक़्त बिता दिया था कि और कहीं जाने का हमारे पास वक़्त ही नहीं बचा । यहां से निकलकर हमे अभी रॉस आइलैण्ड भी पहुंचना था । सो हम खाना खाकर रॉस आइलैण्ड के लिये रवाना हो लिये ।

रॉस आइलैण्ड तो दूर से ही बड़ा खूबसूरत नज़र आता है । यह बड़ा ही मुख़्तसर सा, संक्षिप्त सा टापू किसी समन्दरी जन्नत के अवशेष से कम नहीं । खूबसूरत, उजाड़ और रहस्यमय । यहां मौजूद हिरण और मोर भी इसका रहस्य दुगुना करते हैं । क्योंकि यहां इनके सिवा और कोई जानवर नहीं और न ही जंगल है, कि जहां ये अपने आप पल जायें । और ये आगन्तुकों के भी आदी हैं ।

अंग्रेज़ों के समय यह छोटा सा टापू, अन्डमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी थी । उस समय के उनके मकान, क्लब की इमारत, हॉस्पिटल की इमारत और स्वीमिंग पुल के अवशेष अब भी अच्छी हालत मे हैं; और उनका कब्रिस्तान भी । बेशक यहां आकर पता चलता है कि, इस टापू पर उन लोगों ने एक छोटी सी जन्नत ही बना रखी थी और वक़्ते आख़िर इसे छोड़ कर दुनियाँ-ए-फ़ानी से कूच कर गये । हाँ उनकी हक़ीकत बयान करने को उनकी कब्रें अब भी सही सलामत रह गयीं । कब्रिस्तान को देखकर मुझे सहसा डेविड बेरी की याद आ गयी जो क़ैदियों से कहा करता था- मै ही यहाँ का ख़ुदा हूँ । जिसे चाहे मार दूँ जिसे चाहे बचा लूं । आज यहाँ उसका नामो निशां भी बाकी नही, लेकिन उसके शरीक यहाँ अपनी कब्रों मे पड़े हैं के जिनका कोई नाम लेवा भी नहीं ।

एक और चीज़ यहां पर ग़ौर करने की थी । इस छोटे टापू का एक किनारे पर समन्दर बिल्कुल शान्त और ठहरा सा, अपनी गुरु-गम्भीर मुद्रा मे था और उसके ठीक पीछे पथरीली चट्टानो वाले किनारे पर लहरें अपना सिर पटक-पटक कर चिंघाड़ रही थी । यानि एक ही समन्दर के दो रूप भी यहां मौजूद थे । तो ऐसी थी अंग्रेजी दौर की वह राजधानी ।

चार बजे से पहले पहले यहां से सारी यात्री नावें वपसी के सफ़र पर रवाना हो जाती है । और सब लोगों को रवाना करके यहां के गार्ड भी रवाना हो जाते है; क्योंकि पानी बढ़ने के कारण फ़िर यहां सफ़र करना खतरनाक हो जाता है । हमे ऐसा ही बताया गया ।

क़यामत की रात

आज हम समय रहते वापस पहुंच गये थे सो जल्दी नहा धो कर तैयार हो गये । गाड़ी फ़िर वापस आ गयी थी तो मुख्य बाज़ार की तरफ़ रवाना हुये । यहां एक अच्छी जगह देखकर हमने खाना खाया । मैने मेथी पनीर आर्डर किया था और यह मेथी पनीर मुझे इसलिये याद है कि इस रात के अनुभव के बाद मुझे कई दिनो तक पनीर खाने की हिम्मत नहीं हुई । हालांकि इस घटना मे न पनीर का कितना दोष था या था भी कि नहीं मुझे नहीं पता ।

खाना खाने के बाद हम रात को टहलने के लिये एक बीच पर चले गये । इस बीच के एक ओर सेल्यूलर जेल थी और दूसरी ओर पंत हॉस्पिटल की लम्बी चौड़ी इमारत । यहां रात मे टहलने का एक अलग ही अहसास था । नीम अंधेरा और समंदरी हवा के झोंकों का आपको छूकर गुज़र जाना - - - पानी की लहरों की आवाज़ - - - सब कुछ एक साथ घुलमिल कर एक जादू सा समा था वह । यहां जिस्म ही नहीं दिलो दिमाग भी तरो ताज़ा हो गये थे । और वह जादू कैसा था कि मैने, पंत हॉस्पिटल की तरफ़ इशारा करके पूछा था यह कौनसी बिल्डिंग है ? सरकारी हॉस्पिटल ? इतना बड़ा ? जानकारी पाकर मेरी प्रतिक्रिया थी । तब मुझे कौनसा रिश्ता उस इमारत की ओर खींच रहा था । वह कौनसा आकर्षण था ? शायद इस सवाल का जवाब समय के गर्भ मे कहीं छिपा था ।

वह 23 और 24 मार्च की दर्मियानी रात थी । सुबह 24 मार्च था एक विशेष दिन यानि मेरे बेटे का बर्थडे जिसे हेवलाक बीच पर मनाने का वादा था । बड़े जहाज़ का सफ़र था । लम्बा रास्ता था । सुबह जल्दी निकलना था । बस एक अच्छी नींद लेना था सो सभी मगन होकर सो रहे थे ।

अब ठीक ठीक याद नहीं कि रात का कौनसा वक्त था जब मै बेचैनी महसूस करते उठ बैठा था । थोड़ी ही देर मे मेरे पेट मे ऐंठन उठने लगी; मै टॉयलेट चला गया । वापस आने के थोड़ी ही देर मे फ़िर वही हालत ! अब इसकी आवृत्ती बढ़ने लगी । फ़िर उल्टियां भी होने लगीं । मै इस उम्मिद मे था कि दिन निकलते तक सब कुछ ठीक हो जायेगा । लेकिन अब मुझे ठंड लगने लगी । फ़िर ठंड बढ़ती गयी और मै गर्मी के मौसम मे ठंड से कांपने लगा । पता नही कितनी देर मै अपने आप को सहज रखने की कोशिश करता रहा । आखिर ठंड इतनी अधिक बढ़ गई कि मानो मै बर्फ़ सिल्ली मे फ़्रीज हो गया हूं । ऐसी ठंड का अहसास मेरी कल्पना से भी बाहर की बात थी । अब मुझे लगने लगा कि मेरा अंत आगया है । और कोई वजह नहीं हो सकती इतनी ठंड की । लगता है मेरी रूह जिसे मै इनर्जी तसव्वुर करता हूं; मेरे जिस्म से निकल रही है । इसी लिये जिस्म ठण्डा पड़ता जा रहा हूं । मुझे अब भी इस बात पर पूरा यक़ीन है, क्योंकि न तब से पहले न उसके बाद फ़िर कभी मैने ऐसी ठंड का अनुभव किया । अब यही बेहतर था कि अपनी बीवी को जगा कर अलविदा कह दूं और सारी ज़रूरी बातें समझा दूं । जागने पर उसने बस इतना कहा- “या अल्लाह ! आप सारी रात से यह सब झेल रहे हैं ? मुझे जगाया भी नहीं ।“ इसके बाद उसने फोन करके टूर ऑप्रेटर्स को गाड़ी लेकर बुलवा लिया । पड़ोस मे रहने वाले परिवार को और नीचे रहने वाले मकान मालिक को बुला लिया । मुझे ठीक से होश तो नही था लेकिन पड़ोसी कह रहे थे कि कहीं समंदर का पानी तो नही पी लिया । या बहुत ज़्यादह देर पनी मे तो नही रहे ? मेरे पास इस बात को सही न मानने के लिये कोई वजह नहीं थी । और आगे के हालात ने भी इस दलील को और ताकत दी थी । समय क्या था मुझे इसका कोई अंदाज़ नहीं था । मैं बहुत सारे कपड़ो और चादरों मे लिपटा ठंड से थर-थर कांप रहा था एक शब्द मुझे याद है कि मकान-मालिक कह रहे थे- पन्त हॉस्पिटल !!

पंत हॉस्पिटल

शाल, चादर और न जाने किन किन कपड़ों से लदा फ़ंदा मै व्हीलचेयर पर बैठा, या अधिक सही शब्द होगा पड़ा हुआ हूं । व्हीलचेयर भागी जारही है । मुख्य द्वार, बरामदा, गलियारे, भीड़ जिसके चेहरे नहीं है; पैर हैं घुटने हैं या पेट, क्योंकि मैं नज़र इतनी ही उठा सकता हूं कि लोग कमर तक मुझे नज़र आयें । सब पीछे छूटते जा रहे हैं । यात्रा एक कमरे तक पहुंचकर घड़ी भर का विश्राम पाती है, फ़िर वही भागा-दौड़ी । मै अब एक बहुत विशाल हॉल मे हूं । धुंधले धुंधले लोग, धुंधले धुंधले चेहरों के साथ मेरे आस-पास भटक रहे हैं । धुंधली धुंधली आवाज़ें है । लेकिन बेख़ुदी के इस आलम मे भी एक बात का पूरा होश है कि, मेरी लाईफ़ लाईन, मेरी जीवनरेखा मेरे साथ-साथ है ।

दवाईयाँ, इन्जेक्शन या ड्रिप, पता नही क्या क्या इलाज हुआ था लेकिन ठंड दूर होने लगी । अवाज़ें और मंज़र साफ़ होने लगे । सिर के ऊपर से ड्रिप नज़र आती है । मेरी दांयी जानिब नाहिद बैठी है । “बच्चे कहां है - - - ?” मै पूछता हूँ । “रूम पर है - - - ।“ वह बताती है, “मै अभी जाऊंगी उनके पास - - -“

“बाबा का बर्थडे था आज, - - -“ मै फ़िक्र ज़ाहिर करता हूं ।

“कोई बात नहीं, अगले साल मना लेंगे । इससे भी अच्छा मनायेंगे । आप फ़िक्र मत करो ।“ वह दिलासा देती है । यह दिलासा है, मै समझता हूँ; फ़िर भी इससे बड़ी दिलजोई इस वक़्त और क्या हो सकती है । एक फ़ीकी मुस्कान के साथ मै चुप रह जाता हूँ । बड़े अरमान थे, हम उसके इस बर्थडे को यादगार बनाना चाहते थे । सोंचते थे वह हमेशा इस बर्थडे को याद रखेगा । सचमुच यह उसका यादगार बर्थडे हो गया था । मेरे बेटे ने अपनी डायरी मे लिखा था ‘ये मेरा सबसे खराब बर्थडे था । किसी ने मेरा बर्थडे नहीं मनाया । तित्ती (बहन) से मेरा झगड़ा हुआ । मम्मी ने मुझे मारा - - -‘ वगैरह वगैरह ।

जब वह वापस आयी तो पता चला बच्चे भी साथ आये थे ।

“कहाँ हैं ?” मै ने पूछा ।

“चिल्ड्रन वार्ड में ।“

“क्यों - - - क्या हुआ !?!?” मै घबराया ।

“वही - - -, सेम प्रॉब्लम ।“

उफ़्फ़ ! यही कसर रह गयी थी । अब ?? अब क्या होगा ???

“तुम कैसी हो ? तुम्हे तो कुछ नहीं हुआ ?”

“घबराइये मत मै ठीक हूं । मैं थोड़ी समंदर के पानी मे उतरी थी । सब लोग कह रहे हैं, कि ज़्यादह देर समन्दर के पानी मे रहने से तबियत बिगड़ी है ।“ मैने भी यह तर्क मान लिया (और नौ बरस तक इसे सही मानता रहा । जब तक कि पिछले साल विशाखापट्टनम के रिशिकोंडा बीच की मचलती लहरो के बीच घंटो बिताने के बाद भी हमे कुछ नहीं हुआ ) ।

“तुम मेरी फ़िक्र छोड़ो और बच्चों के पास रहो,” मैने कहा “मैं यहाँ अपने को सम्हाल लूंगा ।“

“आप फ़िक्र मत कीजिये मै सम्हाल लूंगी ।“ उसने कहा ।

यह क्या कर लेगी ? कैसे सम्हाल पायेगी । घर से इतनी दूर, अनजान जगह ? वह एकदम घरेलू महिला थी । छात्र जीवन मे ज़िला स्तर की हॉकी की खिलाड़ी होने के अलावा मुझे उसका और कोई कारनामा याद नहीं आता । लेकिन यह तो ज़िंदगी है, कोई खेल का मैदान नहीं । मुझे बस यही फ़िकर खाये जारही थी । वह कैसे सम्हालेगी ? क्या करेगी ?

लेकिन उसने किया, और कमाल किया । यह कोई प्राईवेट हॉस्पिटल नहीं, सरकारी अस्पताल था । भारत के सरकारी महकमे लकीर के फ़कीर हुआ करते हैं । लेकिन उसने डॉक्टरों और स्टॉफ़ को कन्विन्स किया और दोनो बच्चों को इसी वार्ड मे मेरे साथ वाले पलंग पर शिफ़्ट करवा लिया । यह तो कमाल हो गया न ?

तो यह है ज़िंदगी का एक नया रंग । कहां तो परिवार के साथ खूब मौज-मस्ती करने निकला था । अच्छे खासे पैसों के साथ । और कहां तो परदेस मे एक सरकारी अस्पताल के दो अदद पलंग पर मेरा सारा परिवार सिमटा पड़ा था ।

यूँ न था कि अकेलापन खलने लगा हो । यह एक वक़्ती अहसास था । हमारे मोबाईल फ़ोन लगातार मसरूफ़ चल रहे थे । भाई-बहनों-बहनोइयों के, और तमाम रिश्तेदारों, दोस्त यारों और सहकर्मियों और शुभचिन्तकों के फ़ोन लगातार आने लगे थे । हिम्मत बंधी । लगा हम अकेले नहीं है । फ़िर यह पोर्ट्ब्लेयर था । हम यहां के मेहमान थे । यहां टूरिस्टों को यही कहा जाता था । हमारे टूर ऑप्रेटर लड़के ही थे लेकिन बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ हमारा ख़्याल रखे हुये थे । राजेश ने तो अपने घर से खिचड़ी बनवाकर लाकर खिलाया ।

यह आम सरकारी अस्पतालो की तरह नहीं था जैसा हमने अब तक देखा था । यह जरनल वार्ड था, लेकिन इतना बड़ा और साफ़ सुथरा, हवादार । सामने खिड़की से सेलुलर जेल नज़र आती थी । पता नही कितने बेड होंगे लेकिन हर एक बेड काफ़ी फ़ासले पर । और यहां का स्टाफ़ दोस्ताना था । वार्ड मे भर्ती दूसरे लोगों के साथ वाले भी मिलने आये और हाल चाल दर्याफ़्त किया । यहां कुछ लोगों ने पूछा “बाहर से आये हैं ?” और “मुहम्मडन हैं ?” मुझे इन सवालो से काफ़ी हैरानी थी । इनमे दो लोग मुझसे काफ़ी लगाव रखने लगे थे । सचमुच वे विशेष किस्म के किरदार थे । मुझे अजीब ज़रूर लगा - - -

इनमे एक थे मुस्तफ़ा खां ।

जब मुझे ठीक लगा था और मेरी नज़र अपनी बांई ओर गयी तो मेरे बाज़ू वाला पलंग खाली था और उसके बाज़ू वाले पलंग पर एक मरीज़ था । उस पलंग के बाज़ू मे खाली जगह थी जहां एक मध्यम कद का पैंतीस-चालीस साल का मुस्लिम युवक नमाज़ पढ़ रहा है । कयाम, रुकूअ, सजदा, कायदा, सलाम और फ़िर दुआ । इसके बाद वह उठकर मेरे पास आया और मुझ पर दम किया । यह थे मुस्तफ़ा खाँ । वे अक्सर मेरे पास आते और अपने घर परिवार की बातें करते और अपनी आप बीती सुनाते । बकौल-ए-ख़ुद वे यहां की ओपन जेल के कैदी थे और जो बिस्तरे मर्ग पर था वह उनका साथी कैदी था । वहां वे दो ही नहीं थे बल्कि और भी साथियों सहित कैद थे । उनके साथियों ने उन्हे अपना ईमाम बना रक्खा था । यानि वे ही सबको नमाज़ पढ़ाते थे और इसी विश्वास के कारण उनके साथी के बीमार होने पर उन्हे ही साथ मे भेजा गया था । वे और उनके सभी साथी बर्मा से थे और वहां से पलायन करके एक छोटी सी नाव के सहारे बांगलादेश जा रहे थे । तूफ़ान की चपेट मे आकर यहां के किसी तट पर पहुंचे और गिरफ़्तार हो गये । मुकदमा चला सज़ा हुई और रिहाई के बाद उनका देश उन लोगों को वापस लेने को तैयार नहीं । अब वे किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं यानि एक इनसान की हैसियत से किसी भी देश मे उनके कोई भी मानवी अधिकार नहीं । सोंचिये ईश्वर की धरती पर ईशवर कितना लाचार है कि, अपनी ही दुनियां मे अपनी ही मखलूक के लिये कोई जगह नही है उसके पास ?

वे बताते हैं कि जेल तो फ़िर भी इस ओपन जेल से ठीक थी और उनकी तकलीफ़ों का अंदाज़ा इस बात से लागाया जा सकता है कि, वे लोग बारहा रिक्वेस्ट करते हैं कि हमे वापस जेल मे डाल दें लेकिन प्रशासन कहता है कि तुम्हारी सज़ा पूरी हो चुकी इस लिये जेल मे नही रख सकते ।

वे अपने परिवार के बारे मे बताते वह सब या तो मैने ध्यान नहीं दिया या अब कुछ याद नहीं सिवाय एक बात के कि तीन भाईयों मे मझला भाई जो उनसे बड़ा था । अरब मे कहीं नौकरी करता था और पूरे परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाता था और उनसे बहुत मुहब्बत रखता था; वह बकौल उनके, बिलकुल मेरी तरह दिखता था । इसलिये वह आकर मेरे पास बैठ जाते और बड़ी हसरत से मेरे चेहरे को देखते रहते । कभी मेरे हाथों को छूकर देखते । वे अपने खानदान से बिछड़े हुये थे; जिनसे मिलने की अब कोई उम्मिद भी नहीं थी । इस हालात मे वे मुझमे अपने चहेते भाई को ढूंढ रहे थे । वह भाई जो उनकी उम्मीदों का मरकज़ था, आशाओं का स्रोत था; और मै समझ नहीं पाता, मै क्या प्रतिक्रिया दूं । सो मै चुप चाप ही रहता । लाचार सा । मै उसके लिये कुछ कर भी तो नहीं सकता था । वह मेरे देश का नागरिक भी नहीं । और इसके लिये मैने कभी अल्लाह से माफ़ी भी नहीं मांगी । उल्टे शिकायत करता रहा- या अल्लाह तेरी इस दुनियां मे इनसान का इनसान होना ही काफ़ी नहीं - - - मै क्या करूँ ?

दूसरे दिन इन्ही मुस्तफ़ा खाँ की वजह से मुझे पुलिस की पूछताछ का सामना भी करना पड़ा ।

अगले दिन यानि इतवार 25 मार्च को एक खिलाड़ी जैसे शारीरिक गठन वाला कोई सी आई डी या क्राईम ब्रांच या और कोई खुफ़िया पुलिस का ऑफ़ीसर जो सादी वर्दी मे था, मुस्तफ़ा खाँ के पीछे-पीछे आया और मेरे सामने आकर बैठ गया और मुझसे सवाल करने लगा ।

मुझसे नाम पूछा । मैने बताया । फ़िर वही सवाल- “मुहम्मडन है ।“

“हां ।“ मैने कहा ।

“कहां से आये हैं ?”

“भिलाई से ।“

“भिलाई ? ये कहां है ?” सच पूछो तो मुझे आश्चर्य भी हुआ- इसने भिलाई का नाम नहीं सुना क्या ?

“रायपुर के पास ।“ मैने जवाब दिया ।

“रायपुर कहां है ?” अरे यार ! इसे तो रायपुर भी नहीं मालूम । मेरा सब्र जवाब देने लगा ।

“रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी है ।“

“छत्तीसगढ़ ? ये कहां है ?” यार यह सवाल तो पांचवी के बच्चे से पूछ लो ।

“छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है ।“ मैने झुंझलाकर जवाब दिया ।

“अच्छा ! बॉम्बे से आये हैं ?”

“बॉम्बे महारष्ट्र की राजधानी है ।“

“मतलब वहीं से है न ?”

“नहीं वहां से दूर है ।“

“वहाँ से कितना दूर है ?”

“बहुत दूर ।“

“कितना, कितना दूर ?”

“मुझे पता नहीं । होगा, हज़ार डेढ़ हज़ार किलोमीटर ।“

“फ़िर भी, बॉम्बे के पास से ही आये है न ?”

इसे क्या जवाब देता । उसने परिचय-पत्र पूछा । मैने अपना भिलाई स्टील प्लांट का गेट-पास दिखा दिया जिस पर सबसे ऊपर लिखा था “स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड” शायद इसे देखकर वह मुस्तफ़ा खाँ को डांटने लगा – “ये तो बॉम्बे से आये हैं । बाहर से थोड़ी आये हैं ।“ ओह ! क्या उन सवालो का राज़ भी यही था ? मुहम्मडन हैं ? बाहर से आये हैं ? क्या पता । यह तो पूछने वाले ही जाने ।

लेकिन बेचारे मुस्तफ़ा खाँ को काटो तो खून नही । असल मे हुआ यूं था कि हमने उनसे बाहर से कुछ खाने पीने का सामान मंगवाया और कुछ पैसे ज़्यादह दे दिये कि वे भी कुछ खा पी लें । बस निगरानी मे बैठे पुलिस वालों को शक़ हो गया । पूछ ताछ की तो जितना वह समझता था बता दिया, जितना पुलिस वाले समझ सकते थे समझ लिये । बस !

एक बहन थी ।

वह एक पढ़ी लिखी, साऊथ इंडियन मुस्लिम लेडी थी । दुबली पतली लम्बी सी । पोर्ट ब्लेयर मे किसी सर्विस मे थी शायद सरकारी नौकरी मे ही । पता नहीं उसने कभी अपना नाम बताया या नहीं, मुझे कुछ याद नहीं । हाँ वह अपनी कहानी यूं बताती कि उसके मां-बाप बचपन मे गुज़र गये । इकलौते भाई ने बेटी की तरह पला पोसा और खूब पढ़ाया लिखाया । नौकरी लगाया और खुद्दारी से जीना सिखाया । आज जो कुछ हूं, उसी की बदौलत हूं । वह कहां है यह शायद उसने बताया नहीं या मैने उसकी बातों पर उतना ध्यान नही दिया; लेकिन वह कहती कि मैं बिलकुल उसके बड़े भाई जैसा दिखता हूं । मै क्या प्रतिक्रिया दूं, मेरे समझ से परे था । मै दुविधा मे ही रहा । कुछ नही कहा । मै इतना व्यवहारिक नहीं और इन सब बातों मे बिलकुल कच्चा हूं । फ़िर यह सब बड़ा अकस्मिक था । यह सब बातें मेरे समझ से परे हैं । लेकिन उसकी निगाहें मैने देखी है । उनमे सच्चाई नज़र आती थी । जैसे वह डबडबाई आंखें जैसे मुझसे कह रही हो कि एक बार कह दो मै वही हूं । वह अपने किसी रिश्तेदार या परिवार से किसी मरीज़ के पास आई थी । लेकिन वह कई बार मेरे पास आती रही । उसने बहनो की तरह मेरी बलायें भी लीं और मेरे गालों को हाथ लगाकर अपने हाथों को चूम लिया ।

आज दूसरा दिन था । रात मै और मेरे बच्चे खूब अच्छी तरह सोये और आज अच्छा महसूस करने लगे थे । लेकिन सारी रात नाहिद ने पलक भी नहीं झपकाई जबकि हॉस्पिटल का रात की शिफ़्ट के स्टाफ़ ने काफ़ी आजीज़ी की हमारे साथ का एक पलंग भी ठीक करके दिया लेकिन वह नही मानी और मेरे और बच्चों के पलंग के बीच एक स्टूल पर बैठी रही थी । सो आज उसका थकान महसूस करना लाज़मी था । लेकिन अचानक मुझे याद आया आज तो इतवार है । छुट्टी का दिन । और कल सुबह हमारी फ़्लाईट है । दोपहर बीत चली थी कोई डॉक्टर नही आये तो हमने वार्ड मे मौजूद स्टाफ़ से बात की । वे लोग बड़े हेल्पफ़ुल थे । उन्होने डॉक्टर्स से बात की फ़िर हमे बताया कि हम डिस्चार्ज पेपर्स तैयार कर देंगे आप उस पर कारण बताते हुये लिख दीजिये कि आप अपनी मर्ज़ी से डिस्चार्ज ले रहे हैं बस ।

इस तरह हमारी शाम को वहां से रिहाई हुई । बाहर निकले तो नज़र सीधे सामने सेल्युलर जेल पर पड़ी । हमने दोनो जगहों को अलविदा कहा ।

=====

रात हो गयी । सुबह हमे यहां से जाना है । लेकिन अब भी कुछ कहना सुनना बाकी है । यहाँ अया तो मेरी सबसे ज़्यादह रूचि यहाँ के समाज और उसके गठन को समझने मे थी । पहले मेरा अंदाज़ था कि यहां के काला पानी के कैदियों की सन्तानो से ही यह जगह आबाद होगी लेकिन यहां ढूंढे एक न मिला । दर्याफ़्त करने पर पता चला कि यहां सबसे ज़्यादह तादाद बांगला देश के शरणार्थियों की है । लेकिन अब वे सब हिंदी ही बोलते हैं इसलिये पहचानना मुश्किल है । बंगलादेश युद्ध के समय तात्कालिक प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी ने उन्हे यहां बसाया । लेकिन यह तो सन् 1971 की बात हुई । इससे पहले कौन लोग थे ? पता चला इससे पहले झारखण्ड के कुछ लोग यहां आ बसे थे । इनके अलावा मुझे दक्षिण भारतीय लो भी यहां मिले । लेकिन यहां अच्छी खासी तादाद बर्मीज़ की भी थी; बर्मा के लोग । यहां वे लोग अपनी अलग पहचान बनाये रखने मे भी सफ़ल रहे । यहां उनके मकान भी अपनी वास्तुशिल्प की वजह से अलग पहचान मे आते हैं ।

एक बात मै यह कहना चाहता हूं कि यहां के लोग मुझे भारत के सबसे अधिक सभ्य लोग लगे । कारण ? इनकी नागरिक चेतना । वतनपरस्ती इनकी ज़बान पर नही रहती, वह इनकी रगों मे दौड़ती है । देश के संविधान का सम्मान करना कोई इनसे सीखे । वे बिना किसी दबाव या हुज्जत के कानून का पालन करते हैं । यहां मैने न किसी को बिना हेलमेट के बाईक चलाते देखा न सिगनल तोड़ते । और न नो हॉर्न ज़ोन मे कोई हॉर्न बजाता ।

दूसरी बात, न यहां कोई चोर मिलेगा और न एक भी भिखारी ।

फ़सल यहां सिर्फ़ नारियल की होती है और मसालों की । बाकी सारी चीज़ें मुख्य भूमी से आती है इसलिये यहां पर महंगी मिलती हैं । शायद गाड़ियों वगैरह पर यहां कुछ छूट है । मौसम अनिश्चित रहता है कभी भी बारिश कभी भी धूप । आमतौर पर यहां आप कहीं भी जायें एक तरफ़ समंदर पायेंगे और एक तरफ़ हरे पहाड़ ।

इसे कालापानी क्यों कहा जाता रहा है इसके बारे मे अलग अलग बाते है । एक तो यह कि यहां का समुद्र इतना गहरा है कि यहां का पानी काला नज़र आता है । दूसरी बात कि पहाड़ों की परछई के कारण पानी काला नज़र आता है । मुझे तो नीला नज़र आया । कुछ कुछ जगहों पर हरा भी । तीसरी बात यह है कि जिन दिनो काला पानी की सज़ा हुआ करती थी यहां की जलराशि मे एक समुद्री वनस्पति का साम्राज्य था । उस वनस्पति के रंग के कारण ही पानी काला नज़र आता था । और यह वनस्पति इतनी अधिक फ़ैली हुई थी कि, इस जलराशि मे कोई भी व्यक्ति तैरना चाहे तो वह वनस्पति के जाल मे फ़ंस कर रह जाये । मुझे यह तीसरी बात ज़्यादह जंचती है । बाकी वल्लाह आलम बिस्सवाब; अल्लाह बेहतर जानता है ।

26 मार्च – सुबह सवेरे हम एयरपोर्ट पहुंच गये । हमारे टूर ऑप्रेटर्स की पूरी टीम ही हमे विदा करने आई थी । वे सभी बहुत अच्छे लड़के थे । वे अपना काम को इमानदारी और खूबसूरती से पूरा करते रहे । और मुसीबत के समय भी उन लोगों ने रात दिन हमारा खयाल रखा । हम उनकी हर मदद के लिये उनके आभारी हैं ।

जब हम यहां आये थे तब एअरपोर्ट पर बिल्कुल भी नहीं रुके थे लेकिन आज रिपोर्टिंग के बाद भी हमे घंटे दो घंटे गुज़ारना था । सो आज इस एअरपोर्ट और यहां की गतिविधियो की तरफ़ ध्यान जाना लाज़मी था । यह बड़ा छोटा सा एअरपोर्ट था और बहुत आधुनिक भी नहीं लग रहा था । गतिविधियां भी बहुत सीमित थीं । लेकिन कुछ गतिविधियां ऐसी थीं जो लगातार ध्यान खींच रही थीं । यहां हमे कई विदेशी लोग भी नज़र आये जबकि घूमने फ़िरने के दौरान हमने शायद ही इन्हे देखा हो । यहां कुछेक विदेशी महिलाओं ने, भारतीय महिलाओं के कपड़ों को कुछ इस तरह पहिना हुआ था कि भारतीय महिलाये उन्हे देखकर झेंप रहीं या मुंह छिपा कर हस रही थी । एक विदेशी नौजवान एक बड़ा सा सर्फ़िंग बोर्ड हाथ मे लिये घूम रहा था । एक बड़ा सा परिवार, जो पंजाबी लगता था, जिसमे कई औरते और मर्द शामिल थे लेकिन एक नवयुवती थी जो शायद इस परिवार की नवब्याहता बहू होगी, वह सबसे अलग और एलिगेंट लग रही थी । उसने सिर को दुपट्टे से बड़े खूबसूरत अंदाज़ से ढक रखा था । उसका सारा ध्यान अपने दुपट्टे पर ही था जिसे वह बार बार ठीक करती थी, और देखने मे वह पाकिस्तानी लगती थी । लेकिन इस सब बातों के बावजूद उसमे गज़ब का आत्मविश्वास था, जो उसके व्यक्तित्व मे साफ़ नज़र आता था । सुरक्षा जांच के समय, बाकी सबसे विपरीत उसे अलग कमरे मे ले जाया गया । काफ़ी देर के बाद जब वह वापस आई, तो उसका दुपट्टा सर पर नही कंधों पर था । लेकिन अब भी उसके आत्मविश्वास मे कोई कमी नहीं थी ।

हमारी फ़्लाईट का समय हुआ । ग्राउंड पर ही एक छोटी सी बस खड़ी थी, जो सुरक्षा जांच के बाद यात्रियों को अपनी फ़्लाईट तक पहुंचा रही थी । सामने ही खुले मे सुरक्षा डेस्क लगी थी, जहां एक सुरक्षा कर्मचारी यात्रियों की तलाशी लेता फ़िर यात्री बस की लाईन मे लग जाते । स्त्रियों की तलाशी के लिये अलग से लाईन और पर्दे का अस्थाई घेरा था ।

मै और मेरा बेटा सुरक्षा जांच के बाद बस की लाईन मे लगे थे । मेरा बेटा मेरे आगे खड़ा था । जब हमारा नम्बर आया बस मे दो ही सीट बची थी । जैसे ही मेरा बेटा बस मे चढ़ा पीछे से एक सफ़ेद बालों वाला बंगाली व्यक्ति, जिसे कुछ देर पहले एक अधिकारी से बहस करते हुये देखा था, अचानक आया और मुझे धक्का देकर बस मे चढ़ गया । बस चल दी । मुझे चिंता होने लगी बस मे मेरा बेटा पूरे परिवार से अलग रह गया था । वह परिवार का सबसे छोटा सदस्य था, और बच्चा ही तो था । थोड़ी ही देर मे देखा कि वह बदहवास सा, घबराया हुआ, इधर उधर देखता, भागता हुआ चला आ रहा है । तुरंत एक सुरक्षा अधिकारी दौड़कर गया और उसके हाथ से बोर्डिंग पास ले लिया । मै भागकर जल्दी से वहां गया और उसे बताया कि क्या हुआ । वह मुझसे फ़ुसफ़ुसा कर बोला- “भाईजान, आप लोगों को सफ़र मे बहुत सावधानी बरतनी चाहिये । आजकल हालात आप लोगों के लिये ठीक नहीं है । ज़रासे शक मे भी अगर फ़स गये तो भले बेगुनाह हो, बरसों लग जायेंगे बेगुनाही साबित करने मे । ज़िंदगी बरबाद हो जायेगी ।“ उसकी बातों मे इमानदारी और अपनापन था । मै उसका मतलब समझ गया था । फ़िर उसने उसी तरह फ़ुसफ़ुसाकर कहा- “आप चुपचाप जाकर बस मे चढ़ जाईये, मै पीछे से चिल्लाऊंगा आप बुरा मत मानना ।“

वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता रहा- “अपने बच्चों को सम्हाल कर नहीं रखते - - -“ वगैरह वगैरह । हम बस मे बैठ्कर अपनी फ़्लाईट मे आ बैठे ।

आखिर हवाई जहाज़ ने अंडमान की धरती को छोड़ दिया । खिड़की से हम इस खूबसूरत, महमान नवाज़ टापू के आखरी दीदार कर रहे थे । पता नहीं क्यों दिल भारी सा हो रहा था । जबकि बच्चे कह रहे थे फ़िर से आयेंगे न । बच्चे खिड़की से लगातार हाथ हिला रहे थे, जैसे नीचे खड़ा सारा अंडमान उन्हे हाथ हिलाकर बिदाई दे रहा हो । मैने आंखें मूंद ली ।

बुज़ुर्गों से सुना था, ज़िंदगी चार दिन की होती है । हमने यहां चार ही दिन बिताये थे । शायद एक ज़िंदगी ही बिताई हो । चार दिन, - - - जोश भरे, थकान भरे । कभी सुख तो कभी दुख । एक पल हैरानी, एक पल परेशानी । संयोग और घटनायें । आशा, निराशा, डर और बेफ़िक्री सब कुछ - - - , सब कुछ तो जी लिया था इन चार दिनो मे । ज़िंदगी और क्या है - - - ?

ऊपर चित्रित अंडमान द्वीपमाला के दृश्य को बीस रुपए के नोट में अंकित किया गया है

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