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डॉ मधु संधु

21वीं शती की प्रवासी हिन्दी कहानी में बचपन (महिला कहानिकारों के विशेष संदर्भ में)


जन्म से लेकर किशोरावस्था तक की अवस्था को बचपन कहते हैं। इसे शैशवावस्था(0-3), प्रारम्भिक बचपन(3-7,8), मध्य बचपन, वय: संधि/ किशोरावस्था या फिर शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था आदि विकासात्मक चरणों में भी विभाजित किया गया है। बालिग होने की उम्र में बचपन का समापन होता है। यह उम्र अलग-अलग देशों में 13 से 21 वर्ष तक है। सामान्यत: इसे 18 वर्ष तक माना जाता है। बीसवीं शती के अंत और इक्कीसवीं शती के आरंभ में वैश्विक स्तर पर जीवन में इतने उतार-चढ़ाव आए कि अनेकों अनुसंधान कर्ता बचपन/ बालावस्था के शोध में जुट गए। एल. किंचेलो और शर्ली आर. स्टीनबर्ग ने इसे बचपन का नया युग मानते किंडर कल्चर नाम दिया। “किंडरकल्चर का मुख्य प्रयोजन, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से बचपन की बदलती ऐतिहासिक स्थिति को स्थापित करना तथा विविध मीडिया द्वारा स्थापना में सहायक उन तरीकों को विशेष रूप से जांचना है जिसे किन्चेलो तथा स्टीनबर्ग "नया बचपन" कहते हैं। किंडरकल्चर समझता है कि बचपन एक हमेशा बदलती सामाजिक और ऐतिहासिक शिल्पकृति है- न कि केवल एक जैविक इकाई. क्योंकि कई मनोवैज्ञानिकों ने तर्क दिया है कि बचपन बढ़ने, वयस्क बनने का एक प्राकृतिक चरण है, शैक्षिक संदर्भ से आने वाले किन्चेलो और स्टीनबर्ग ने किंडरकल्चर को बचपन के "मनोवैज्ञानिकीकरण" (साइकॉलोजिज़ेशन) जैसे सुधारात्मक रूप में देखा।“i

हिन्दी कहानी में बचपन का जिक्र भी रहा है और बच्चों को नायकत्व देकर भी अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं। प्रेमचंद की ‘ईदगाह’, जय शंकर प्रसाद की ‘छोटा जादूगर’, जैनेन्द्र कुमार की ‘अपना अपना भाग्य’, टैगोर की ‘काबुली वाला’, मोहन राकेश की ‘एक और ज़िंदगी’ आदि बचपन पर लिखी कहानियाँ हैं। लेकिन आज प्रवासी कहानी में समय और स्थान बदल गए हैं; संस्कृति और मूल्य परिवर्तित हो गए हैं। बचपन की समवेदनाओं और त्रासदियों, मौज मस्तियों और कैरीयर खोज में बहुत कुछ जुड़ और कट गया है। पंचतत्र और हितोपदेश अथवा चन्दा मामा, चंपक, लोटपोट कॉमिक्स तो युगों पुरानी बातें लगती हैं। यह पोगो, डिजनी, मोबाइल गेम, इंटरनेट, डिजिटल पुस्तकों और यू ट्यूब, विडियो आदि की 21वीं सदी और विदेश की धरती पर रह रहे बच्चों की कहानियाँ हैं।

विदेश की धरती पर हिन्दी महिला कहानीकारों ने यहाँ और वहाँ के बच्चों का, उनके जीवन संघर्ष का, सोच और भावनाओं का, त्रासदियों और विवशताओं का, क्षमताओं और दुर्बलताओं का, अन्तर्मन और बाह्य जीवन की रेलमपेल का सर्वपक्षीय और सूक्ष्म चित्रण किया है।

ब्रिटेन से उषा राजे सक्सेना ने बिलखते, क्रंदन करते, अनाथ, असुरक्षित बचपन के बहु पक्षीय चित्र उकेरे हैं। परिवार बचपन का, शिशुत्व का पोषक- संरक्षक है और जब परिवार ही नहीं, जन्मदाता ही नहीं, तो लावारिस अबोध का बचपन त्रासद ही त्रासद है। लेकिन इस बचपन की त्रासदी जीवट, संघर्ष और मानवीय संवेदनाओं को जन्म दे रही है। उनकी ‘सवेरा’ii कहानी उस बच्चे के जीवन के अँधियारे क्षणो को लिए है, अनाथालय या हॉस्टल ही जिसके पनाहगार हैं। नायक पीटर का पालन-पोषण लंदन के फ्रेटरनिटी होम में हुआ है। जन्म देने वाले माता पिता को उसने कभी नहीं देखा। चिलड्रन होम की मदर और अंगरक्षक एल्बर्ट ही उसके आत्मीय रहे हैं और वयस्क होने पर स्माल स्केल इंडस्ट्रीज का बैंक लोन लेकर उसने घड़ीसाजी का काम आरम्भ किया और ऐय्याश जीवन की ओर भी झुकता चला गया। अचानक पता चला कि उसे ब्रेन ट्यूमर है। अस्पताल का मानवीय व्यवहार उसे बचाता भी है और जगाता भी है। वह नर्स जारा की तरह कैंसर रिसर्च अभियान में शामिल होने का संकल्प करता है।

यह उस वेलफ़ेयर स्टेट की कहानियाँ हैं, जहां बे माँ -बाप के यतीम बच्चे सरकारी बच्चे बन कर पूरा संरक्षण पाते हैं। उनकी ‘बीमा बीसमार्ट’iii एक बेहद शर्मीले और संवेदनशील अनाथ बच्चे की कहानी है, जिसे वेल्फेयर स्टेट माँ जैसा संरक्षण देती है और उसका उदात्त व्यक्तित्व मानवता के लिए मिसाल बन जाता है। स्कूल में बच्चे की फाईल से मालूम होता है कि उसका जन्म दिन और जन्म स्थान दोनों काल्पनिक हैं। वह सरकारी बच्चा है। माँ अपने बच्चे के साथ गंभीर हालत में अस्पताल आई थी और जल्दी ही उसकी मृत्यु हो गई। माँ की बाजू पर बने टैटू के आधार पर बच्चे का नाम रखा गया। कठोर, निर्मम, सहृदय – सब तरह के केयर टेकर के बीच जीवन संघर्ष करता हुआ वह पढ़ाई पूरी कर नौकरी प्राप्त करता है। उषा वर्मा की ‘रौनी’iv में सात वर्षीय नीग्रो रोनी की माँ जेल मे थी और पिता का पता नहीं था। उसका जीवन सोशल वर्कर और फॉस्टर पेरेंटस के बीच भटकता रहता है। उसे ‘ब्लडी निगर’ कहा जाता। ‘सारे काले चोर होते हैं’-कहा जाता। विद्यार्थी और अध्यापक दोनों उसे अपमानित करते, पीटते हैं । अध्यापक मिस्टर हयूबर्ट तो उससे अपनी समलैंगिकता की हवस पूरी करना चाहते हैं।

उषा राजे सक्सेना की ‘तीन तिलंगे’v में भी त्रासद, लाचार, दुखद, दुराग्रही, असंतुष्ट बचपन फैला हुआ है। यहाँ भी वेल्फेयर स्टेट के बेघर, बे माँ-बाप के बच्चे हैं। नाइजल, एलेक्स, जेम्स सत्रह- अठारह के बीच के अनाथ बच्चे हैं। ब्रिटेन वेल्फेयर स्टेट है और यहाँ अनाथालय/ वेल्फेयर होम में पलने वाले बच्चों का सैलाब सा उमड़ आया है। नाइजल गंजेड़ी पिता की क्रूरताओं और माँ की मुरदादिली के कारण अनाथालय में है। एलेक्स को ब्राइटन के प्रसिद्ध होम पाइन ट्री में नाजायज संतान होने के कारण रहना पड़ता है। उसे वहाँ के अत्याचार भुलाए नहीं भूलते। वहाँ साधारण सी बात पर बच्चों की केनिंग करते है। उन्हे बास्टर्ड, ज़ेबरा, निगार, पिग जैसे नामों से पुकारा जाता है। जेम्स माँ द्वारा आत्महत्या कर लेने के कारण अनाथालय में है। बचपन के घाव, कुंठाए, हीनता ग्रंथि इन्हें अनाचार, गुंडागर्दी, संस्कारहीनता, मौजमस्ती के अवैध स्थलों की ओर मोड़ देते हैं। इसीलिए वयस्क जीवन की तैयारी के लिए इन बच्चों को होम से हॉस्टल भेज दिया जाता है। स्टाकवेल के प्रयोगात्मक हॉस्टल में ऐसे ही बच्चे रहते हैं। यहाँ इन्हें अपराध की दुनिया से दूर रहने और सही ढंग से रोजी-रोटी कमाने का प्रशिक्षण मिलता है।

बच्चों को अगर सही दिशा निर्देश मिल जाये तो वे उपयुक्त मार्ग का चयन कर सकते हैं। उषा राजे सक्सेना की ही ‘शुक्राना’vi की जिसमफ़रोशी का धंधा करने वाली माँ नहीं चाहती कि बेटी भी माँ का धंधा अपनाए। कहानी लेखिका शुक्राना को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करती है। उसे समझाती है कि वह पढ़-लिख कर सफाई कर्मचारी की नौकरी कर सकती है, गार्डनिंग कर सकती है, बस कंडक्टर बन सकती है और नायिका के शब्द शुक्राना के जीवन में रंग भर देते हैं। सही दिशा उसे सफाई कर्मचारी बना उसके अंदर आत्मविश्वास भरती है।

उनकी ‘मेरा अपराध क्या है’vii ब्रिटेन के उन्मुक्त यौन, बच्चों के असुरक्षित भविष्य और उन सब से बढ़कर रंगभेद की कहानी है, जहां बच्चों को माँ-बाप का अभिभावकत्व कभी नसीब नहीं होता। हैफ़ फादर को झेलना उनकी नियति है। स्टेला रोजर्स के पाँच भाई- बहन हैं। सभी भूरी- नीली आँखों और गोरे रंग के हैं। स्टेला की काली आँखें और गंदुमी रंग ब्रिटेन के नस्लवादी चिंतन में उसका जीवन विषम बना देता है। माँ के लिए बच्चे चिल्ड्रेन अलाउंस और सोशल लाभांशों के मोहरे हैं। गरीबी के कारण उसे और भाई-बहनों को सोशल-कस्टडी में रहने की आदत हो गई है। पिता के न लौटने, नानी के वृद्धाश्रम में जाने और माँ के पुन: गर्भ धारण करने पर बच्चे अपनी नीली आँखों, गोरे रंग और सुनहरे बालों के कारण अलग-अलग दम्पतियों द्वारा गोद लिए जाते हैं। लेकिन गंदुमी रंग की स्टेला को कोई गोद नहीं लेता। अनाथालयों से बार-बार विस्थापन और असुरक्षा ही उसकी नियति है। सोलह साल की होने पर उसे असेसमेंट सेंटर भेज दिया जाता है।

टूटे घरों की बात करते उषा राजे सक्सेना का सारा ध्यान उन बच्चों पर केन्द्रित रहता है, जो उस अपराध की सज़ा भुगतने को विवश हैं, जो उन्होने किया ही नहीं। उनकी ‘वह रात‘viii में गरीबी और दारिद्रय के बीच जिया जाने वाला बच्चों का अभावग्रस्त जीवन है। बिना हीटिंग के बर्फीला घर है। बिना केयरटेकर के बच्चे- नौ वर्षीय एनीटा, आठ वर्षीय मार्क और चार-चार साल की रेबेका और रीटा है। रेबेका और रीता के काले घुँघराले बाल और रंग देखकर सब समझ सकते हैं कि उनका पिता फर्क है। यहाँ जिस्मफरोशी करने वाली औरतों और उनके बच्चों को पड़ोसियों से मिलने वाली नफरत है। माँ का कत्ल होते ही चारों बच्चे सेंट वेलेंटाइन चिलड्रन होम भेजे जाते हैं और वहाँ से अलग-अलग संरक्षकों के यहाँ भेज दिये जाते हैं।

अर्चना पेन्यूली की ‘बेघर’ix उस बेघर बेटे राहुल की कहानी है, जिसके माँ और बाप तलाक ले पुन: शादी करते हैं। अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के आगोश में और पिता को दूसरी औरत के साथ देखने के लिए बच्चा अभिशप्त है। चार भाई- बहन तो हैं, पर सब हैफ़- कोई अपना नहीं। राहुल के लिए न माँ के डेन्मार्क वाले घर में जगह है, न पिता के सौतेली माँ वाले घर में, न नानी या माँमे- मामियों के घर में । वह सर्वत्र अवांछित है। अनिल प्रभा कुमार की ‘घर’x के नायक का असुरक्षित बचपन उसे मन: रोगी बना सा देता है। कालांतर में चिड़ियाघर के पशु- पक्षियों की आत्मीयता पाकर वह सामान्य हो पाता है।

इला प्रसाद की ‘बुली’xi में अमेरिकन स्कूलों बिगड़े हुए बच्चे हैं। नेहा पटेल अतिरिक्त शिक्षिका के रूप में ग्यारहवीं के 23-24 बच्चों की क्लास लेती है। ये टीचर को चराने वाले बच्चे हैं। शरारती, झूठे, गैंग बनाकर रहने वाले, क्लास मे म्यूजिक बजाने वाले, लड्कियों के लिए झगड़ने वाले, टीचर को कभी अपना ठीक नाम न बताने वाले, एक दूसरे का लैपटाप तोड़ने वाले । उनकी ‘यहाँ मत आना ‘xii में भी सुधार स्कूल के बिगड़े हुए बच्चे हैं। इंटरनाशिप कर रही नेहा देखती है कि यहाँ के बच्चे अपराधी हैं, ड्रग्स के धंधे में है। नशेड़ी हैं, शराबी और कातिल है। इनके गैंग्स हैं। बार बार फेल होते है। मेटल डिटेक्टर से गुजर कर इन्हें स्कूल में दाखिल होने दिया जाता है।

सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘अवैध नगरी’xiii कहती है कि टेस्ट ट्यूब से जन्में बच्चों से दुनिया अवैध नगरी हो जाएगी और सब मूल्य, नाते-रिश्ते धूल हो जाएँगे । तीस साल पहले जन्मा एक टेस्ट ट्यूब बेबी आज वैज्ञानिक पुरू बन अपने बायलोजिकल पिता के विषय में सोच रहा है। वह टेस्ट ट्यूब बेबी है, यह जानते ही मानो वह अवैध, लावारिस और यतीम हो जाता है, उस पर जैसे हिरोशिमा- नागासाकी की तरह बॉम्ब गिर जाता है, उसके लिए परम्परा, वंश, रक्त संबंध, धर्म- अधर्म, नैतिक- अनैतिक, वैध-अवैध- सब की परिभाषा बदल जाती है। जिसे वह जीवन भर पिता समझता रहा, वह उसका पिता नहीं, यह सच्चाई उसे झकझोर जाती है और यह जानकर कि पति को बिजनेस में घाटे के कारण कमतर आँकते हुये, विद्वान बेटे को जन्म देने के लिए माँ ने यह चाल चली, किसी डॉ के स्पर्म लिए – उसके पाँव तले से ज़मीन निकल जाती है।

प्रवास की धरती पर परिश्रमी, केरियर सजग, जीवट धर्मा बच्चे भी मिलते हैं। कादंबरी मेहरा की ‘जीटा जीत गया’xiv में गाँव का गंवार मानिंदर जीता लंदन के स्कूल में नसलवाद का शिकार होता है। अध्यापिका लूसी उस पर झूठा चोरी और अश्लीलता का आरोप लगा पुलिस केस बनवा देती है और मानिंदर स्कूल की पढाई छोड़ सड़क पर चीजें बेचने लगता है और कालांतर अपनी मेहनत के बल पर वह बहुत अमीर व्यक्ति बन जाता है।

अमेरिका में जन्मे भारतीय मूल के बच्चों की बात सुषम बेदी बार-बार दोहराती हैं। “झाड’xv में अमेरिका में जन्में सात वर्षीय समीर/सैम को भारतीयता से अवगत कराने, अमेरिका में रह कर भी भारतीय जीवन पद्धति से थोड़ा बहुत परिचित कराने, घरेलू जीवन में स्नेह-ममत्व से सराबोर करने के लिए उसकी मम्मी अन्विता भारत से उसकी नानी को बुलाती है। जबकि बच्चे को नानी से बेबी सिटर कहीं अच्छी और कोंविनिएंट लगती है। उसके पास दिल लगाने के लिए टी. वी. है, वी. डी. ओ. गेम्स, बेस बॉल, फुट बॉल, बास्केट बॉल है, खाने के लिए फास्ट फूड है, कम्पनी के लिए बेबी सिटर है। उसके लिए नानी दूसरी दुनिया की चीज है। उसे न उसके बनाए खाने में रूचि है, न उसकी ड्रेस सैन्स जँचती है, न रोक-टोक, न स्नेह के आवेग- क्योंकि वह कहीं से भी नानी की तरह कमजोर और भावुक नहीं है। सात समुंदर पार से नानी का आना नानी को भावुक कर सकता है। नाती तो मात्र नानी को झेल रहा है। उनकी ‘अवसान’ में ऐसे ही मस्त मौला बच्चे हैं। पत्नियों से संबंध विच्छेद के बावजूद दिवाकर बच्चों के स्कूल- कॉलेज की फीस देता है। उनके जन्मदिनों पर उपहार भेजता है। उन्हें खाने पर रेस्तरां ले जाता है और बच्चे भी उसके जन्मदिन और क्रिसमस पर उसे कार्ड भेजते हैं। ‘चिड़िया और चील’xvi की चिड़िया को विरासत चाहिए और विरासत में माँ-बाप नहीं धन-दौलत आती है। चिड़िया की मम्मी रेडियोलोजिस्ट और पापा कार्डियोलोजिस्ट हैं। परिवार अमेरिका में सैटेल्ड है। पापा उसे वकील बनाना चाहते हैं और मम्मी डॉक्टर। पर चिड़िया में इतना धैर्य नहीं। वह कुछ ऐसा करना चाहती है, जिससे फटाफट मशहूर हो जाए, शोहरत पा जाए। चिड़िया की स्कूलिंग उस देश की है, जहां बच्चों को माँ- बाप के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करने को कहा जाता है। बताया जाता है कि माँ-बाप बच्चों से नहीं अपने-आप से सब से ज्यादा प्यार करते हैं। वे जल्दी ही बच्चों के जीवन में बेकार और फालतू चीज होते जाते हैं। एक छोटी सी नौकरी करके वह अपने एक सहपाठी के साथ रहने लगती है। माँ का ऑपरेशन होने पर उसकी देख-भाल के लिए समय नहीं निकालती। चिड़िया घर में रहे या अलग अपार्टमेंट में-एक ही बात है। उम्र तीस हो जाती है, न उसे भारत में कोई लड़का पसंद आता है, न अमेरिका में। चिड़िया लॉन्ग जंप सीख चुकी है। माँ उसके लिए प्रजातन्त्र की बातों से फुसलाने वाली तानाशाह है। अमेरिकी आकाश में उड़ानें भर-भर कर चिड़िया लौट आती है। उसे स्पष्ट है कि मम्मी- डैडी का पैसा आखिर उसका ही है। फिल्म बनाने के लिए पैसे न मिलने पर कहती है-“ ठीक है, रख लो संभाल कर.....जीते जी मुझे डिपराइव करके सुख मिलता है तो लो मैं भी आप लोगों के मरने का इंतजार कर लूँगी। “ इतनी बोल्ड और निर्लज्ज बेटियाँ कहाँ मिलती हैं इस समाज में। जबकि उनकी ‘सड़क की लय’xvii में माता-पिता का मित्रवत व्यवहार बच्चों को भटकने नहीं देता।

टोर्नेड़ोंxviii में सुधा ओम ढींगरा स्पष्ट करती हैं कि बच्चो के संस्कार घर- परिवार, मित्र – अभिभावक द्वारा मिली मूल्यवत्ता ही निर्मित करती है। बच्चे यहाँ के हों या वहाँ के- वे तो कच्ची मिट्टी हैं। वातावरण ही उनके जीवन पथ चयन में मुख्य भूमिका निभाता है। क्रिस्टी और सोनम किंडर गार्डन से सहेलियाँ हैं। बचपन में ही दोनों के पिता की मृत्यु हो चुकी है। सोनम की माँ वंदना उच्च शिक्षित और समृद्ध है। उसके पास मेडिटेशन और मूल्यवत्ता है, जबकि जेनिफर के पास आर्थिक असुरक्षा और रोज बदलते पुरुष मित्र हैं। वंदना और उसका परिवार क्रिस्टी को भी सोनम सा प्यार देता है। क्रिस्टी का स्कूल के बाद का समय सोनम के यहाँ ही व्यतीत होता है। दोनों का सोहलवा जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। तभी पता चलता है कि माँ के प्रेमी केलब की नजर बेटी क्रिस्टी पर है। जैसे ही जेनेफर केलब से शादी कर उसे घर लाती है, वंदना के नाम एक ई-मेल छोड़ क्रिस्टी सदा लिए चली जाती है। यानी उसके बचपन/किशोरावस्था को मित्र परिवार से मिला वातावरण दिशा- निर्देश देता है।

एक ओर लक्ष्यहीन, दिशाहीन बचपन है तो दूसरी ओर उच्चाद्देश्यों की ओर बढ़ता बचपन। विशेष यह है कि इन कहानीकारों ने उन कारणो की खोज की है, जो बचपन को दिग्भ्रमित करते हैं या समतल पथ की ओर अग्रसर करते हैं। मुख्य बात जो उभर कर सामने आई, वह यह है कि बदलते समय ने बचपन से माँ-बाप का संरक्षण छीन लिया है। वेल्फेयर स्टेट उस दायित्व को पूरा करने में तो जुटी है, लेकिन इस उत्तरदायित्व की भरपाई कर पाना उसके लिए संभव नहीं है।

संदर्भ-

i https://hi.wikipedia.org/wiki/बचपन

ii उषाराजे सक्सेना, सवेरा, वह रात और आन्य कहानियाँ, सामयिक, नई दिल्ली, 2007

iii वही, बीमा बीस्मार्ट, अभिव्यक्ति, 1 नवंबर 2002

iv उषा वर्मा, रौनी, कारावास, विद्या विहार, दिल्ली, 2009

v उषाराजे सक्सेना, तीन तिलंगे, वह रात और आन्य कहानियाँ, सामयिक, नई दिल्ली, 2007

vi वही, शुक्राना, वाकिंग पार्टनर, राधाकृष्ण, दिल्ली, 2004

vii वही, मेरा अपराध क्या है, अभिव्यक्ति, 24 मार्च 2008

viii वही, वह रात

ix अर्चना पेन्यूली, बेघर, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद, 36-ए, शेक्सपियर सरणी कलकत्ता-17

x अनिल प्रभा कुमार, घर, अभिव्यक्ति, 14 फरवरी 2011

xi बुली, इला प्रसाद, तुम इतना क्यों रोई रूपाली,, भावना, दिल्ली- 91

xii वही, यहाँ मत आना

xiii अवैध नगरी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अभिव्यक्ति, 15 सितंबर 2015

xiv जीता जीत गया, कादंरी मेहरा, अभिव्यक्ति, 9 जून 2015

xv सुषम बेदी, झाड, चिड़िया और चील, पराग, दिल्ली, 2007

xvi वही, चिड़िया और छील

xvii वही, सड़क की लय, नेशनल, दिल्ली, 2007

xviii सुधा ओम ढींगरा, टोरनेडो, कमरा न. 103, अंतिका, गाजियाबाद-5

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