पहले और बाद में
- अजय ओझा
- 7 नव॰ 2017
- 8 मिनट पठन
ट्रेइन चालु हुई कि उसी समय वो मेरे सामने की खिड़कीवाली सीट पर आ बैठी. कुछ पल तो मैं देखता ही रह गया ... शिवानी? आँख मान ना पाए, वो ही होगी क्या ये? हो ही नहीं सकती ... कतई नहीं. वो कैसे हो सकती है? हालाकि लगती तो वोही है! बिलकुल उसके जैसी. जरा भी बदली नहीं होगी वो ... जरा भी! बिल्कुल वैसी की वैसी ही लग रही है, जैसी पहले वो थी.
कुछ लोग कभी बदल नहीं सकते ... पहले भी और बाद में भी!
नहीं नहीं, वो नहीं हो सकती. भले ही दिखे उसकी तरह. लेकिन जरुरी नहीं कि वोही हो. लगता है इसके साथ तो इसका पति और एक बच्ची भी है. कई बार हमारी खुद की आँखें भी धोखा दे सकती है. पहली नजर के पहले प्यार में भी तो ऐसा ही होता है. भले उसके जैसी दिख रही, पर हो सकता है इसकी आवाज़ अलग हो ... लेकिन वो कैसे पता चले? कुछ बोले तो न ...
‘गाडी आज समय पर चल रही है ... है ना?’ मेरे विचारों को मानो वो सुन गई हो ऐसे बोल पड़ी. मैं कपकपा जाता हूँ ... वोही ... बिल्कुल वोही आवाज ... वोही लहेजा ... अरे ... अरे ... ये वही है ... वही ... शि ...वा ,..नी ...!
अचानक आ पड़े उसके सवाल पर कोन्स्ट्रन्टेट करुं कि इसकी आवाज़ पे फोकस करुं, ये मैं तय नहीं कर पा रहा.
‘हैं ...? हाँ ... समय पर ही रहती है ट्रेइन इन दिनों.’ मैं बोला. मुझे पता नहीं था कि उसने ये सवाल मुझसे किया था या अपने पति से.
मन में एक और एहम सवाल उठा, अगर ये शिवानी ही है तो मुझे क्यूं पहचान नहीं पा रही? ओह ... यस्स, कितने साल हो गये! वो नहीं बदली, लेकिन मैं? मैं तो पहले जैसा अब कहाँ रहा हूँ? न आवाज़, न चेहरा, न स्वाभाव ... कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा. मैं ही वैसा नहीं रहा जैसा पहले हुआ करता था!
मेरा तो सबकुछ बदल चुका है. ऐसा लगता है जैसे मेरी तो पूरी दुनिया ही बदल गई हो. उसको दे रखे सिमकार्ड के नंबर के सिवा मैंने कुछ भी पहले का नहीं रखा है. दाढ़ी-मूछ भी नहीं. मैं तो पहले जैसा रह ही नहीं पाया.
उसके पति के क्लीनशेव्ड चेहरे को देखकर मुझे कुछ याद आ गया;
‘ये खुरदरी दाढी बहोत पसंद आ रही है मुझे, ये हमेशा ऐसी ही रखना.’ उसने एक बार मुझे कहा था. और मैंने उसकी इस बात का पालन उसके चले जाने के बाद भी लंबे अरसे तक चालू रखा था.
वो मुझे पहचान नहीं पाई, फिर भी उससे नज़र छुपाने मैं खिडकी से बाहर का नजारा तकने लगा. वो तो बिलकुल स्वाभाविक रुप में बैठी हुई खिडकी से बाहर देख रही थी.
भीतर से रह रह के एक सवाल ऊपर आ रहा है, आखिर वो मुझे पहचान नहीं पाई होगी या मुझे पहचानने का उसका कोई इरादा ही नहीं होगा अब?
शायद बीते वक्त के दौरान उसमें यही फर्क पड़ा है ... पहले वो मुझे पहचानती थी! और मैं? पहले भी और आज भी ... शायद उसे कभी सही रुप में पहचान ही ना पाऊँ!
याद है मुझे; ढल रही एक धुमिल शाम में तालाब के किनारे हाथ में हाथ पकडकर उसने मुझे कहा था, ‘अगर तेरे साथ शादी ना कर पाई तो और किसी की भी मैं नहीं हो पाऊँगी, मै और किसी का हाथ कभी नहीं पकडूँगी.’
मैंने अपना हाथ खोला और हथेली में छुपी उसके हाथ की रेखाओं को ढूँढने का प्रयास करने लगता हूँ, कुछ भी न मिलने पर उसकी हथेली को देखने का सोचा, लेकिन उसका हाथ तो उसके पति के हाथ में कब से जुड गया था.
‘मम्मी, मुझे भूख लगी है.’ उसकी बच्ची बोली, लेकिन दोनों में से किसी ने शायद सुना नहीं. मैं उस बच्ची को देखने लगता हूँ.
‘एक सवाल पूछूँ?’ तालाब के किनारे बिना उसका हाथ छोड़े मैंने उसी समय उससे ये प्रश्न पूछा था, ‘हमारी संतान का नाम क्या रखेंगे?’
पहले से तय कर के बैठी हो उतनी फुर्ती से उसने जवाब दिया था, ‘माही.’
‘स्योर? बेबी गर्ल? हाउ डू यू नॉ?’
‘मुझे यकीन है, माही ही नाम रखेंगे. बीकोज़ आई नॉ ... हम डोटर को ही जन्म देंगे ... देखना.’
‘अच्छा? फिर वो भी तुझे मेरी तरह बहोत सतायेगी तो?’
‘तुम हो न ... बचा लेना मुझे. जैसे आज बचाते हो वैसे ही.’ वो हँस पडी थी.
ट्रेइन में स्पीडब्रेकर्स तो आते नहीं होते, सो खयालों के तीर भी अपनी तेज गति में खुल के दौड़ सकते है. लेकिन उसकी बच्ची को भूख लगी है, वो बेचैन है.
‘मम्मी ... भूख ..’ बच्ची उसे झंझोटने लगी.
मैंने अपने थैले से एक बिस्किट का पैकेट निकाला और उसकी ओर हाथ लंबाते हुए बोल पड़ा, ‘माही.. ये लो, खाओ.’
उसने बिस्किट का पैकेट लिया और बोली, ‘थेन्क यू अंकल, बट मेरा नाम खुशी है, माही नहीं.’
मैं शरमिंदा हुआ. माही नाम सुनकर खिडकी के बाहर खोई हुई शिवानी की नींदभरी आँखें जरा खुली ... खुशी की ओर देखती हुई जरा और फैली ... फिर बिना कोई उत्पात किये, फिर से मुँद जाती है. उन फैली हुई आँखों से कुछ समझ गई हो इस तरह, खुशी ने बिस्किट का पैकेट मुझे वापिस कर दिया और बोली, ‘सॉरी अंकल, बट ट्रेइन में किसी अनजान लोगों से खाने की चीजें नहीं लेनी चाहिए.’
‘सही बात है बेटा तुम्हारी, मैं तो वैसे भी कितना अनजाना हो गया हूँ न!’ पहला वाक्य बोलने के बाद होठ तक आये दूसरे वाक्य पर मैंने काबू कर लिया. लेकिन उसकी बात गलत भी कहाँ थी? अब तो मैं अपने आप के लिए भी कितना अनजान लग रहा था.
फिर से सन्नाटा छा जाता है. एक स्टेशन से सींग-बिस्किट बेचनेवाला चढ़ा था, तो उसकी हलकी-सी आवाजें डिब्बे में टकराती रही.
ऍन्जिन की दिशा में मेरी पीठ थी, तो मेरी खिड़की से दिख रहे दृश्य मेरी पीठ पीछे से आकर दूर दूर तक मेरा साथ नहीं छोडना चाहते हो ऐसा लगता है. वो मेरे सामने की सीट पर बैठी है, सो उसकी खिडकी में आनेवाले दृश्य का पता उसे पहले ही चल जाता, और आ रहे दृश्य उसकी पीठ के पीछे बहोत जल्दी से विस्मृति की झाड़ियों में खो जाते. परिणामतः एक ही दिशा में चल रही एक ही ट्रेइन में साथ-साथ सफ़र करते होने के बावजूद भी ... आमने-सामने बैठे होने के कारण हम दोनों की खिडकी के दृश्य मानो अलग-अलग दिशा से आते हो और अलग-अलग दिशा में जा रहे हो ... ऐसा प्रतीत हो रहा है. समझो कि गुजर रहे दृश्य को मैं उसकी खिडकी से देर तक देख सकता, लेकिन वर्तमान को जल्द से जल्द से भूतकाल बना देने की उसकी खिड़की को भारी मात्रा में उतावल दिख रही है.
अचानक डिब्बे में आ गये एक सेल्समॅन ने विचारमाला को तोड़ा, ‘फ्री सेम्पल, फ्री सेम्पल, पाईये एकदम फ्री सेम्पल. त्वचा के हर तरह के दाग को दूर करें केवल दस रुपए में. आजमा के दखिए और यकीन करें. केवल सात दिन प्रयोग कीजिए और सुंदर परिणाम खुद ही देखिए. ये रहे हमारी दवा के सबूत. इस पत्रिका के फोटो में हमारे इलाज से स्वस्थ हुए मरीज़ो के, इलाज के पहले और इलाज के बाद वाले फोटो है. ध्यान से देखिए. और पाइये फ्री सेम्पल ... बिलकुल फ्री सेम्पल.’
उड़ती हुई वो पत्रिकाएँ फ्री सेम्पल के साथ हम तक भी आई. ‘पहले’ शीर्षक में मरीज़ के दागवाली त्वचा के फोटोग्राफ्स थे और उसके सामने ‘बाद में’ शीर्षक में नोर्मल मुलायम त्वचा के रंगीन फोटोग्राफ्स थे.
शिवानी भी एक पत्रिका देख रही है, बोली, ‘पहले और बाद में इतना फर्क? हो सकता है क्या?’ उसने मेरी तरफ देख के पूछा. मुझे पता नहीं था कि उसने ये सवाल मुझसे किया था या अपने पति से.
हालाकि उत्तर के लिए मैं तो तैयार भी नहीं था फिर भी बोल पडा, ‘अब वो तो उस बात पर डिपेन्ड करता है कि रोग कितना गहरा है! बाकी तो ... ज्यादा कुछ ज्ञान नहीं मेरा इस विषय में.’
‘लेकिन ये तो साधारण चर्मरोग की बात है ... त्वचा के ऊपर ही रहता है, भीतर तो कुछ भी नहीं होता होगा!’ उसके पति ने अपनी कीमती ‘राय’ बिना मांगे ही पेश कर दी. शिवानी ने भी सर हिलाकर ‘हाँ’ कह दी.
सहमत होना ही मुझे ठीक लगा. इस लिए मैं चुप रहा. चुप रहना मतलब सहमत होना. पहले भी मैं हमेशा चुप ही रहा हूँ न! उसने सामने से प्रपोज़ किया था तब, दूसरे किसी का हाथ पकड़कर शादी नहीं करने का प्रोमिस उसने दिया था तब, ‘खुशी’ का नाम ‘माही’ रख दिया तब, और किसी भी मजबूरी के बिना वो मुझे छोड़कर चली गई तब ... तब भी मैं तो बस चुप ही रहा हूँ न! पहले भी और बाद में भी! चुप रहना मतलब सहमत होना!
कुछ देर फिर से ट्रेइन में सन्नाट छा गया. सींग-बिस्कीट बेचनेवाला ठेला एक तरफ रख के दरवाजे पर पैर लटका के बैठ गया. शिवानी का पति शायद सो गया था. शिवानी जाग रही थी, लेकिन अपने भीतर की दुनिया में, बाहर की दुनिया के साथ मानो उसे कोई लेना-देना ना हो उतनी बेफिकर!
‘अंकल, आपको माही नाम की डोटर है क्या?’ खुशी का एक तेज-तर्रार सवाल आया. ट्रेइन का सन्नाटा भी घायल हुआ. उत्तर के लिए मैं तैयार ना हूँ तब सवाल पूछकर मुझे चौंका देने की ये आदत उसने अपनी मम्मी से ही पाई होंगी.
‘क..क्या? न्..न्...ह.. हा..हा.’ मैं झिझक रहा. शिवानी की दोनों आँखे फिर से फैली और ये देखकर माही... ओह, सॉरी.., खुशी फिर से चुप हो गई, मेरी तरह!
मुझे लगा कि शायद ‘माही’ नाम अपने कानों में सुनते ही शिवानी के दिल में कुछ दहक गया होगा. लेकिन उसके चेहरे से तो केवल लापरवाही ही टपक रही है! संयोग भी कैसे अजीबोगरीब बन जाते है! जिस लपरवाही पर हम हमेशा आफरीन रहते थे, वही लापरवाही कभी कभी हमें सर से पैर तक झकझोर के रख देती है! एक जमाने में जो प्यारी लग रही थी, आज वोही बेफिक्री बड़ी ही बेरहमी से मुझे भीतर से चकनाचूर कर रही है!
संवेदनाएँ इतनी कमजोर हो सकती है? हृदय पर निरंतर तराशाता रहा कोई नाम आप एक पल में ऐसे कैसे भूल सकते है? तितर-बितर सन्नाटे में टकराता रहा एक नुकीला नाम उसे याद भी नहीं होगा क्या? हमेशा इम्पोर्टन्ट रहा हो ऐसा कोई एक नॉटीफिकेशन आपके मोबाइल स्क्रीन पर हमेशा ‘अनरीड’ किस तरह रह पाए?
गतिमान ट्रेइन में सहसा शिवानी जाग गई और चारों तरफ देखने लगी, ‘वो सेल्समॅन कहाँ गया?’
यकायक आ पड़े उसके इस सवाल से मैं आदत के अनुसार चौंक पडा.
‘क्युं? कौन-सा सेल्समॅन? क्या काम था?’ हड़बड़ाहट में उसका पति भी जाग गया.
‘अरे वोही, त्वचा के दाग की दवाईवाला, जल्दी ढूँढ निकालो उसे प्लीज.’ शिवानी खड़ी हो गई और इधर-उधर ढूँढने लगी. उसका पति दूसरे डिब्बे में तपास करने जाता है.
‘लेकिन उसका क्या काम पड़ गया?’ मैंने पूछा.
‘दवाईयाँ लेनी है मुझे, मेरे एक अंकल के लिए. प्लीज, जरा उसे बुला दीजिए ना.’ शिवानी बोली.
उतने में उसका पति आया, ‘कहीं नहीं मिला. लगता है किसी स्टेशन पर उतर गया हो. मैं हर जगह देख आया.’
शिवानी और परेशान होकर गुस्से में बोलने लगी, ‘इतनी जल्दी आप क्या देख आये? सभी कम्पार्टमेन्ट में ठीक से जाँच-पड़ताल कीजिए. हो सकता है कोई बर्थ पे सो गया हो तो भी चेक करना, टोईलेट में भी देखो. एन्जिन से लेकर गार्ड की कोठी तक बराबर देखकर आओ. अंकल के लिए वो दवा बहुत जरुरी है.’
‘लेकिन ... अब उसे कैसे ...?’ उसका पति कुछ बोलना चाहता था.
‘फालतू की बातों में समय बाद में बिगाड़ना, पहले पूरी ट्रेइन में देखो. सारे टोयलेट और कॅबिन में भी झाँक लेना, सभी बर्थ ठीक से चेक करना. जरुरत पडने पर चैन भी खींचों! जो करना है करो लेकिन उस सेल्समॅन को मेरे सामने लाओ. इन्सान चाहे तो किसी भी व्यक्ति को दुनिया के किसी भी कोने से ढूँढ के ला सकता है!’ शिवानी एकसाथ बहोत कुछ बोलती रही.
उसकी आखरी बात मेरे अंदर तक उतर गई, इस लिए मेरे होठ पर उसी की ये बात फिर से आ जाती है, ‘एक्ज़ेटली, आपने बिलकुल सही कहा ... इन्सान चाहे तो दुनिया के किसी भी कोने से अपने आदमी को ढूँढ ही सकता है... यदि चाहे तो!’
-फिर, जरा रुक के शिवानी की आँखो से नजरें मिलाते हुए मैंने कह दिया, ‘बाय ध वे, मेरे उतरने का स्टेशन आ रहा है, मैं तो जाता हूँ. लेकिन हड़बड़ाहट से फुरसत मिले तब उस पत्रिका को खोलकर ध्यान से देख लेना, उसमें उस सेल्समॅन का मोबाइल नम्बर भी लिखा हुआ ही है, और मुझे विश्वास है कि उसने भी मेरी तरह किसी खास व्यक्ति का कॉल आने के इंतजार में अपना नम्बर तो यकीनन नहीं बदला होगा!’

अजय ओझा. (०९८२५२५२८११) ई-मैल oza_103@hotmail.com
प्लोट-५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल, घोघारोड, भावनगर-३६४००१(गुजरात)