क्यों न इस महिला दिवस हम सच में हर महिला से रूबरू होने का प्रण लें जिससे आने वाले सालों में हर साल हमें मार्च का एक दिन महिला के नाम न करना पड़े ... चार प्रबल, प्रख्यात लेखिकाओं के संकलन के प्रस्तुतिकरण के बाद, ई-कल्पना की अगली पेशकश ... कामिनी महाजन की तीन कविताएं ...
बदलते समाज की नारी
नारी फिर बेचारी की बेचारी।
बचपन से ही मिला फर्क ये
तुम बेटी हो ...
तुम्हें नही इजाज़त ख्वाहिशों की।
तुम्हें नही जरूरत फरमाइशों की।
जन्म लेते ही क्यों घोंट दिया गला
क्या नही थी मैं अंश किसी का?
क्या नही थी मैं वंश किसी का?
क्यों मुझको ही समझाया?
तुम बेटी ही ...
अपने दायरे समझो
नही तुम्हें आजादी पढ़ने की।
नहीं तुम्हें आज़ादी कहने की।
नहीं हो तुम क़ाबिल समाज के।
नही हो तुम परी ख्वाबों की।
नहीं जरूरी तुम्हें सम्मान ये।
नहीं जरूरी तुम्हें आराम ये।
काम करो और चुल्हा फुंको
बस कैद रहो चार दिवारी में।
यही तेरी तकदीर ऐ नारी
यही तेरी तस्वीर।
सदियोँ से जीती आ रही तू
घुटन बेबसी और लाचारी में।
बीत गई सदी एक ओर
बदल गया दिशा का हर छोर।
पर क्या बदला?
नारी के लिए ये समाज और
इसका ये नजरिया ।
आज भी पायल नहीं बेड़ियां
हैं इसके पाँवों में।
आहिस्ता आहिसता सोच तो बदली।
आगे बढ़ने लगी मैं "नारी '
पढ़ भी गयी ... निकल गई सबसे आगे।
पर ये डर समाज का आज भी
मुझको सता रहा है।
होकर सशक्त फिर भी
मुझको डरा रहा है।
जीत लिए कितने ही पहलू जीवन के।
फिर भी ये समाज मुझको दबा रहा है।
डरती हूँ इन काले सायों से
जो बाहर घर के दबोच रहें हैं।
कितनी जिल्लत सहती हूँ "मैं '
जब होकर किसी की मां ,बहन
राह चलते व्यंग्य कटाकक्ष सहती हूँ मैं (नारी)।
-कामिनी महाजन
-कामिनी महाजन
-कामिनी महाजन
कामिनी महाजन का परिचय
मैं कामिनी महाजन आपसे रूबरू होना चाहती हूँ। अपनी कविताओं द्वरा आपसे जुड़ना चाहती हूँ।
मेरी कविताओं में कुछ मेरे कुछ समाज से लिए अनुभव हैं।जिन्हें मैने शब्दों से सजाया है।
इनमें वो एहसास वो लम्हें हैं जो हर किसी न किसी के जीवन से जुड़े हैं।
उम्मिद करती हूँ।इन कविताओं को पढ़कर कहीं न कहीं आप अपने आप से मिलेंगें और एक पाठक एक उत्प्रेरक और एक आलोचक के रूप में मेरे हो जाएंगे।
यही मेरा परिचय है आप सबसे ........कामिनी महाजन..