घर के सामने से गुजरते हुए उसने एक बार इस तरफ देखा और मुझे अपनी ओर देखता पाकर, झेंपकर सिर झुका लिया.
"शर्मा गई." मैं हौले से मुस्कुरा उठा.
एकाएक मैं सिहर उठा. लगा जैसे अब्बू ने मेरी हरकत देख ली है. बरामदे में सामने पड़ी आराम कुर्सी पर बैठे लाल लाल आंखों से मुझे घूरने रहे हैं. अक्सर ऐसा होता है; मुझे लगता है कि वे यहीं है. पता नहीं क्यों मेरा पीछा नहीं छोड़ते? इंतकाल के इतने साल बाद भी. सब इस आराम कुर्सी की वजह से. मुझे हमेशा से इस चीज़ से चिढ़ रही; और उन्हें प्यार. पता नहीं ये बूढ़े लोग ऐसे क्यों होते हैं. ऐसे मतलब? अजीब. हां, ये बूढ़े लोग बड़े अजीब होते हैं.
मुझे जिंदगी भर बूढ़े टाइप के लोगों से बड़ी नफ़रत सी रही है. यह क्या अलसाये से पड़े रहना. ऊंघते हुए दिन बिताना और जागते हुए रातें. फिर ऊपर से शिकायतें कि नींद नहीं आती. रिटायर्मेंट के बाद अब्बू ने भी यही रंग ढंग अख्तियार कर लिए थे. कहीं से एक आराम कुर्सी उठा लाये और उसे सामने बरामदे में डालकर सारा सारा दिन पड़े रहना. कोई आता जाता तो बड़ा बुरा लगता. फिर मेरे यार दोस्त आते जाते तो बड़ा ख़राब लगता. इस वजह से भी मुझे उस आराम कुर्सी से नफ़रत हो गई. कई बार समझाया भी यह क्या बूढों की तरह... बात काटकर कहते- "बूढा हो गया तो बूढों की तरह नहीं रहूंगा तो क्या जवान बनकर बाल काले करके यहां वहां भटकता फिरूं? ...."
मैं उन्हें अपनी बात समझा नहीं पाता. समझाता भी कैसे? क्या कहता? मुझे बुढ़ापा पसंद नहीं. या यह की मुझे बूढ़े लोग पसंद नहीं? दोनों ही हालात में कम तमाशा नहीं होता. ये बूढ़े लोग होते ही ऐसे हैं. एक तो हर बात में अपनी ही चलाते हैं. फिर अपने अनुभवों का पिटारा खोलकर बैठ जाते हैं. हम तो ऐसे, हम तो वैसे. अरे,कोई सामझाये यार इन्हें के इनकी इन नसीहतों की ज़रूरत किसे है? अरे तुम्हारा दौर गुज़र गया, हमारा दौर कुछ और है; लेकिन नहीं, इतने दिन ज़मीं पर बोझ बनाने के बाद तो इन्हें लाइसेंस मिल गया है; नसीहतें झाड़ने का. कभी कहो की आप को कैसे अच्छा लगता है यूं आराम कुर्सी पर पड़े रहना, तो बड़े गर्व से कहते- "अपना रिटायर्मेंट इंजॉय कर रहे हैं. बहुत मेहनत की है ज़िन्दगी में, यहाँ तक पहुंचने के लिए. यह आराम कुर्सी यूं ही नहीं मिल गयी है. क्यों नहीं इंजॉय करेंगे. कोई मुफ्त में थोड़ी मिले हैं ये दिन देखने को."
अब इन बातों का क्या जवाब दिया जा सकता है?
खैर ! झेलना तो पड़ेगा ही घर जो उनका है. और उन्हें इस घर पर घमंड भी था. गौर कीजियेगा, मैंने लफ्ज़ घमंड कहा है; नाज़ नहीं. वैसे घर में मैं सबसे छोटा था. अब क्या कहूं.... सबसे छोटा यानि सबकी सुनना. मुझसे बड़े दो भाई और एक बहन हैं. सबकी शादियाँ हो चुकी, घर बस चुके. सब अलग अलग शहरों में सेटल्ड हैं. एक मैं ही रह गया. ऐसा नहीं कि मैं नकारा हूँ. अच्छी खासी जॉब है. सभी पीछे पड़े रहे शादी करले शादी करले. लेकिन मैं हमेशा टालता रहता. अरे भाई, शादी की भी एक उम्र होती है. यह क्या इन्ही लोगों की तरह बस, नौकरी लगी शादी करो, घर बसाओ, लाइफ फिनिश !
"ऐसे थोड़ी होता है," मैं कहता, "कमा रहा हूँ तो कुछ दिन इंजॉय करूँगा, यह क्या अभी से जंजाल पाल लो."
"जंजाल? क्या शादी जंजाल है?" अम्मी बिगड़ के कहती, "शादी तुझे जंजाल लगती है?"
"और क्या?"
"तो हमने क्या जंजाल पाला है?"
"आप की बात और है. जंजाल तो लड़कों के लिए है."
अम्मी शायद मेरी बात का मतलब समझ गईं. रोने लगी. मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. जो सच है कह दिया, अब किसी को बुरा लगता है तो मैं क्या करूं? सच को तो बदल नहीं सकता न? इस पर दोनों भाई मुझे गुस्से से घूरते, और भाभियाँ नफरत से.
"अभी मेरी उम्र ही क्या है." मैं बात सम्हालने की कोशिश करता.
"तो किस उम्र में करेगा?" बड़े भाई साहब कहते.
"कर लूंगा जब दिल करेगा."
"अबे तेरी उम्र में हम दो बच्चों के बाप हो चुके थे." अब्बू ने कहा.
"बड़ा तीर मार लिए..." मैं फुसफुसाया; लेकिन छोटे भाई साहब ने सुन लिया; और उसके बाद मेरी जो गत बनी ..., मैं भूल नहीं सकता.
लेकिन सब गुज़रे वक्त की बातें है. अब कहाँ कोई पूछने वाला? सब अपनी अपनी जिंदगी में मस्त हैं. अब्बू गुजर गये, अम्मी गुजर गईं. भाई बहन कुछ दिन शादी के लिए पीछे पड़े फिर मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया. मकान की किसीको जरूरत नहीं थी, उनके अपने मकान थे सो सबने रजामंदी से यह मकान और इसकी देखरेख की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी, लेकिन कुछ शर्तों के साथ. पहली शर्त थी कि माँ बाप की कोई चीज़ हटाना नहीं; और जब भी वे लोग अपने परिवार के साथ यहाँ आयें तो अम्मी अब्बू की यादें घर में आबाद रहें. एक यह भी वजह थी उस आराम कुर्सी को यहाँ बर्दाश्त करने की. वरना अगर उठाके नहीं फेकता तो कम से कम पुराने सामान के साथ स्टोर में ज़रूर डाल देता.
लोग सोंचते हैं, मैं अकेला रह गया हूँ; लेकिन मुझे अकेलापन कभी महसूस ही नहीं हुआ. उल्टा मैं ही तरसकर रह गया हूँ; अपनी प्राइवेसी के लिए. अम्मी तो खैर... लेकिन अब्बू? वो तो अब भी पीछा ही नहीं छोड़ते. मरकर भी नहीं. जैसे अभी आपने देखा न, मैं ने जरा उस लड़की की तरफ आँख उठाकर क्या देख लिया, कैसे मुझे घूरकर देख रहे थे. उनकी इन्ही बातों से बारहा डर जाता हूँ. लेकिन एक बात तो है, अब कोई कुछ भी कहे शादी तो मुझे करनी ही है , और वह भी इसी लड़की के साथ.
आपने देखा तो है न उसे. अभी अभी जो यहाँ से गुज़री. इलाके में नई आई है. आला खानदान की इकलौती लड़की है. वह अक्सर अपनी एक आंटी के साथ नज़र आती है. जब भी मैं नजर आता हूँ, वह अपनी आंटी को मेरी तरफ इशारा करके कुछ बताती है और दोनों कुछ खुसुर फुसुर करते हैं. क्या बातें होती हैं मैं नहीं जानता लेकिन वे बातें मेरे ही बारे में होती हैं यह समझना कोई मुश्किल बात तो नहीं. मेरा सामना अक्सर पार्क में या रास्ते में हुआ है. पर कभी बातचीत नहीं हो सकी. मुझे झिझक भी काफी होती है. लड़की अभी कॉलेज में है. किसी मेडिकल कॉलेज में. कौनसे इयर में पता नहीं; लेकिन ठीक है, शादी की उम्र तो है ही उसकी. लेकिन उससे अकेले में मिलने की भी हिम्मत नहीं होती मुझे. इस इलाके में कौन है जो मुझे या मेरे खानदान को नहीं जानता. अब्बू का नाम तो अब भी इस जगह बड़े एहतेराम से लिया जाता है. यहाँ के सबसे पुराने बाशिंदे जो ठहरे. भाइयों को भी बड़ी इज्जत से देखा जाता है. बस एक मैं ही रह गया, जिसे लोग थोडा पागल या सनकी समझते रहे हैं, लोग. मैंने शादी जो नहीं की अब तक. खैर, अब लोग मुझे भी इज्ज़त से देखेंगे. बस एक बार बात हो जाये उससे. वैसे तो अभी उसका नाम भी मालूम नहीं मुझे. लेकिन अलीम साहब की बेटी है इतना ही काफी है.
लेकिन उससे मिलूं कैसे? बात कैसे करूँ? हालांकि इस बात में शक की कोई गुंजाइश तो नहीं है कि वह मुझे पसंद करती है, फिर भी सारी बातें क्लियर हो जाएँ तो बेहतर है. कोई बात नहीं, इसका भी रास्ता है. वह हमेशा अपनी आंटी के साथ चिपकी रहती है. मैंने भी एक दिन मौका देख उसकी आंटी को ही अकेले में रोक लिया. लेकिन वह घबरा गई- "अल्लाह के वास्ते...," उसने घबराते हुए कहा, "आप ऐसे रस्ते में बात न करें. भाईजान को पता चला तो बहुत नाराज़ होंगे. आप सारी बातें घर आकर भाईजान से करें. इस मामले में जो कुछ करना है, वे ही करेंगे. मैं कुछ नहीं कर सकती."
"अलीम साहब नाराज़ तो नहीं होंगे?" मैंने डरते हुए पूछा.
"नहीं, उन्हें हमने सब बता दिया है."
"और वे राज़ी हो गये?"
"जी." आंटी ने इतना ही कहा और जल्दी जल्दी तेज़ कदम बढ़ाते हुए चल दी.
"ठीक है, मैं कल ही जुमा से क़ब्ल आऊंगा." मैंने पीछे से चीखते हुए कहा. यह भी मुझे ख्याल नहीं रहा कि लोग सुनेंगे.
यह तो मुझे बिन मांगी मुराद मिल गयी. मेरी तो लाटरी निकल गई. "वे राज़ी हो गए?", "जी." ऐ दो अल्फाज़ बार-बार मेरे कानो में गूँजते रहे. मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था. यह कैसे हो सकता है? मुझे यह क्या होता जा रहा है. मुझे यकीन क्यों नहीं आता? मुझे कोई यकीन का दरस दे. यकीन का पाठ पढाये. मुझे यह क्या हो रहा है.
मुझे उस रात नींद नहीं आनी थी; नहीं आई. यक़ीनन नहीं आई.
दूसरे दिन जुमा था. मुबारक दिन. सुबह जुमे का गुस्ल लिया. नए कपडे पहने. इत्र लगाया. बड़े एतमाद के साथ अपने होने वाले ससुराल जा पहुंचा. वे 79 में रहते थे, जो मेरे मकान प्लॉट नम्बर 63 से दूर नहीं था. इसलिए गाड़ी वगैरह की कोई जरूरत नहीं थी; सो पैदल ही चल पड़ा. मैंने गेट पर पहुंचकर घंटी बजाई. उम्मीद के खिलाफ, उसी लड़की ने आकर गेट खोला. उसने हंसते हुए मेरा इस्तकबाल किया- "आइये न, सब आपका ही इंतज़ार कर रहे हैं." कमाल है भाई, बड़े खुले ज़हन वाले लोग हैं.
लेकिन..., ये सब, यानि कौन कौन ...?
लेकिन मैंने पूछा कुछ और- "आपका नाम क्या है?"
"जी, आलिया. डॉक्टर आलिया अलीम. MBBS का फाइनल इयर है न. और आंटी का नाम शाजिया है. हम दोनों काफी क्लोज़ हैं न."
अब यार, ये अपनी आंटी को क्यों बीच में ला रही है. क्लोज़ है, ठीक है, लेकिन हर जगह आंटी? ये नहीं चलेगा.
"आप आंटी के बिना कोई काम नहीं करती?" मैंने ताना मारने की गरज से पूछा. लेकिन वह तो कुछ समझी ही नहीं बल्कि और जोश से बताने लगी- "कोई काम नहीं .... शाजिया आंटी इस माई बेस्ट फ्रेंड. और हम दोनों एक दूसरे के पक्के राजदार हैं. आपको सम्भल कर रहना पड़ेगा."
हाँ, सम्भल कर तो रहना ही पड़ेगा. लेकिन ये बोलती कितना है? इसका मुंह नहीं दुखता? मेरे तो सर में दर्द कर देगी. ऐसा नहीं चलेगा.
अंदर बैठक में तो अच्छी खासी रौनक कर रखी थी, अलीम साहब ने. उनके जस्ट पड़ोसी, 80 नम्बर वाले अल्वी साहब और मेरे घर के ठीक सामने वाले राशिद साहब, पहले से मौजूद थे. मैं इस सूरते हाल का सामना करने कतई तैयार न था. मैं ज़रा सकपका गया था.
"जुनैद मियाँ, क्या ही बेहतर होता अगर आप अपने बड़े भाईयों को बुला लेते. इन सब बातों में घर के बड़ों का शामिल होना अच्छा रहता है. फिर आप तो माशा अल्लाह, खानदानी हैं. हम खुद इसके गवाह हैं...." अल्वी साहब ने बात शुरू की.
"नहीं, मुझे तो अपने खानदान वालों को बुलाना ही है...," मैं हड़बड़ा कर जो समझ में आये बोलने लगा. दर असल मैं इस सवाल के लिए तैयार ही न था. लेकिन जो बोला खूब बोला, "मैं तो बस इस बात की इजाज़त मांगने आया था."
मेरे जवाब से अलीम साहब बड़े खुश नजर आये. "अरे! इसमे इजाज़त की क्या बात है?" वे एकदम चहक कर बोले, "जब मियाँ बीवी राजी तो क्या करेगा क़ाज़ी. और वैसे भी जबसे हम यहाँ आये हैं, हर किसी ने इस रिश्ते की निस्बत से आप के नाम की तजवीज़ की है. बल्कि अल्वी साहब और राशिद साहब तो खुद आपसे बात करना चाह रहे थे. इस बीच जब आप दोनों ने ही एक दूसरे को पसंद कर लिया तो कोई मसला ही नहीं रहा."
मुझे पता नहीं था, मेरे अड़ोस पड़ोस के लोग मेरे इतने खैरख्वाह हैं. या मेरी तक़दीर मुझपर इतनी मेहरबान है.
"फिर ठीक है, मैं अगले हफ्ते ही अपने खानदान वालों को बुला लेता हूँ..." कहते हुए मैं उठाने लगा. सच तो ये है के मैं अल्वी साहब और रशीद साहब से पीछा छुड़ाना चाहता था.
"अरे आप बैठिये तो सही," अलीम साहब ने हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती बैठाते हुए कहा- "अब इसे अपना ही घर समझिये...."
"अरे, बैठिये भी जुनैद मियाँ. अब शर्माइये मत, ये आपका ही घर है भई, हम तो बस मेहमान है." ये राशिद साहब थे. मैं कुछ कहता इससे पहले ही आलिया आगई.
"बैठिये न अंकल, शाजिया आंटी आ रही हैं." वह बड़े शरारती अंदाज़ में बोली.
"बैठिये न अंकल..." अल्फाज़ मेरे कानो में गूंजने लगे.
अंकल... अंकल... अंकल........
ये अल्फाज़ मेरे कानो में बार-बार हथौड़े की तरह पड़ने लगे. मामला समझते मुझे देर नहीं लगी. यह तो धोखा है. लेकिन धोखा क्या..... मेरे ज़हन ने काम करना बंद कर दिया. मैं बस नौ दो ग्यारह होना चाहता था.
अलीम साहब बोले जा रहे थे-
"अरे, ऐसा भी क्या तकल्लुफ जुनैद मियाँ! आप और हम तो हम उम्र हैं, बल्कि आप मुझसे एक दो साल बड़े ही होंगे. वक्त पे शादी हो जाती तो आलिया जितने बड़े आपके भी बेटा बेटी होते. वैसे मेरी बहन तो मुझ से काफी छोटी है. आपसे उम्र में बहुत फर्क है, लेकिन जब आप दोनों को यह रिश्ता मंजूर है....,"
आगे मेरे कान सुन्न होने लगे वे और कुछ कहे जा रहे थे लेकिन मुझे कुछ सुनाई देता कुछ नहीं, "बेवा है लेकिन कोई बच्चे नहीं...."
अब मेरे कानों के साथ मेरी आँखे भी जवाब देने लगीं. मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा. चाँद सितारे मेरे सर के गिर्द चक्कर काटने लगे और ऎऎऎ धड़ाम.... मैं ज़मीन पर गिर पड़ा, इतना तो मुझे याद है...
आँख खुली तो अस्पताल के बिस्तर पर था.
"आप लेटे रहिये, उठिए मत. डॉक्टर आलिया ने आपका खास ख्याल रखने कहा है. आप उनके अंकल है न. मैं अभी बुला देती हूँ." नर्स ने कहा.
"मुझे क्या हुआ है?" मैंने पूछा.
"कुछ नहीं हुआ, बस ज़रा सा स्ट्रेस और नर्वसनेस की वजह से ... लगता है रात भर सोये नहीं थे. होता है ऐसा, इस उम्र में ज्यादा स्ट्रेस लेने से. अब आपको ज्यादा स्ट्रेस नहीं लेना चाहिए और आराम भी करना चाहिए." आलिया आते ही अपनी फितरत के अनुसार धाराप्रवाह बोले जा रही थी.
क्या सचमुच मेरी इतनी उम्र हो गई है? मैं हिसाब लगाने लगा; उन सारे वक्त का जो मेरी ज़िन्दगी से गुज़र चुके. अब्बू अम्मी के गुज़ारे ही एक अर्सा हो गया. पता ही नहीं चला. . . .
वक्त कब गुज़र जाता है, किस तरह गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता.
उसके जाने के बाद मैंने बाथरूम के शीशे में अपना जायजा लिया. क्या सचमुच मेरी उम्र नजर आने लगी है?
सच में! खिजाब से रंगे बालों के नीचे, आँखों की थकान चुगली कर रही है. चहरे की सिलवटें पुकार-पुकार कर कह रही हैं. जुनैद मियाँ!! तुम जवान नहीं रहे. क्या कहा था अलीम साहब ने? वक्त पे शादी होजाती तो आलिया जितनी तो बेटी होती. तुम किसे धोखा दे रहे हो जुनैद? जमाने को? नहीं, अपने आप को. खिजाब से रंगे हुए बालों के नीचे वाला चेहरा, पहली बार मुझे एक लम्पट का चेहरा लगा.
याद है, जब अब्बू को मैंने कहा था- "बाल डाई क्यों नहीं करवाते? अच्छा लगता है क्या, बाल सफेद होने लगे हैं." तब जवाब में उन्होंने मुझसे ही सवाल किया था,"बताओ, दुनियाँ में सबसे पहले किसके बाल सफेद हुए थे?"
"अरे, मैं क्या बात कर रहा हूँ और आप क्या बात कर रहे हैं?" मैंने तब चिढ़ कर कहा था.
"मैं तुम्हारी ही बात का जवाब दे रहा हूँ. तुम पहले इस बात का जवाब तो दो." वे बोले.
"मुझे क्या मालूम?"
"तो सुनो! इस दुनियाँ में सबसे पहले बाल सफेद हुए थे, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के. उनसे पहले किसीके बाल किसी भी उम्र में सफ़ेद नहीं हुए थे. और इसीलिए जब अपने बालों में सफेदी देखकर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से पूछा- अल्लाह ये क्या है. तो अल्लाह ने जवाब दिया- ये हमने तुम्हे बुज़ुर्गी अता की है. यानी वरीयता प्रदान की या सीनियारिटी दी है. और बेटा सुनो! अल्लाह तआला फरमाता है कि जिसकी दाढ़ी सफ़ेद हो, उसकी दुआ रद्द करने से मुझे शर्म आती है. तो बेटा! बालों में यह चाँदी मुझे यूँ ही हासिल नहीं हुई. कितने साल इस दुनियां में खर्च किये हैं जीना सीखने में मैंने. ये बालों की चांदी मेरी बुज़ुर्गी और तजुर्बात की अलामत है. मेरे लिए इज्ज़त और फख्र की बात है ये सफेदी. मैं इसे क्यों छुपाऊं?"
उस दिन तो मुझे समझ नहीं आई थी उनकी बात, लेकिन आज इतने बरसों बाद आईने में अपना अक्स देखकर यह बात समझ सका हूँ.
अलीम साहब जुमा पढ़कर आ गए थे.
"आप ज़रा भी फ़िक्र न करें जुनैद साहब! हम लोग हैं न आपकी देखभाल के लिए. फिर आलिया भी आपकी ही बेटी है ...."
अलीम साहब लगातार बोले जा रहे हैं; बिलकुल अपनी बेटी की तरह नॉन स्टॉप .... मैं थकन महसूस कर रहा हूँ. मैं यहाँ से भाग जाना चाहता हूँ. यहाँ से; और अपने आप से भी. मैं किसी से बात नहीं करना चाहता. कहीं छुप जाना चाहता हूँ. कहीं; जहाँ से खुद मैं भी अपने आप को न ढूँढ़ पाऊँ.
अस्पताल से रिहा होते ही मैं सीधा उस पार्लर में गया जहाँ से मैं बाल डाई करवाता रहा हूँ. "मेरे बालों की डाई रिमूव कर दो. मुझे इससे एलर्जी है." मैंने कहा. बहुत नानुकुर के बाद कुछ लोशन वगैरह की मदद से उन्होंने कुछ हद तक इसे रिमूव कर दिया. अब मैंने देखा इन खिचड़ी बालों के नीचे एक मेच्योर, समझदार और संजीदा शख्स का चेहरा उभर आया है. मुझे दुनियां कुछ नई-नई सी लगाने लगी.
घर पहुंचा तो देखा, बरामदे में, अब्बू अपनी आराम कुर्सी पर बैठे डबडबाई आँखों मुझे देख रहे हैं. ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा हुआ के अब्बू को देखकर मेरा दिल भर आया. उनके सामने मैं अपने घुटनों पर गिर गया और अपना सर उनके घुटनों पर रखकर रोने लगा. लेकिन मेरा सर जाकर आराम कुर्सी की बिट से टकराया. वहां अब्बू नहीं थे. वे अपनी आरामकुर्सी मेरे लिए खाली करके जा चुके थे. ज़िन्दगी में पहली बार मुझे अब्बू की कमी शिद्दत के साथ खलने लगी. मैं पहली बार उस आरामकुर्सी पर बैठा. बैठा क्या, धंस गया. मुझे बड़ा सुकून मिला. मैंने आँखे मूंद ली. यूं लगा, मैं एक छोटा बच्चा हूँ; अपने अब्बू की गोद में बैठा हूँ. उनका हाथ मेरे माथे पर है. अब्बू थपकियाँ देकर मूझे सुला रहे हैं; मेरे बचपन की तरह. मुझे नींद आरही है. मेरी आँखे बंद हैं और अश्कबार हैं. मेरे गाल आंसुओं से तर हैं और आंसू है कि थमने का नाम ही नहीं लेते.
मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग का परिचय यहाँ पढ़िये
सम्पर्क - zifahazrim@gmail.com