चौधरी ने कस कर थप्पड़ मारा.
घायल पक्षी से एक ओर लुढ़क गए अम्बा प्रसाद. लगा, पूरा का पूरा चेहरा सुन्न हो गया.
यूं तो उन्होंने जीवन में अनेक थपेड़े सहे हैं. यह बहुत अप्रत्याशित और अकस्मात् हुआ. उम्र के इस पड़ाव में तो कोई कल्पना में भी सोच नहीं सकता. गाल का रंग तो पहले ही स्याह पड़ गया था. तब भी उभरी हड्डियों के बीच उंगलियों के लाल निशान उभर आए. एक बार तो जैसे सारी चेतना जाती रही. आंखों के सामने अंधेरा छा गया. आज जाना, दिन में तारे दिखना महज़ मुहावरा नहीं है.
यह सब वैसे ही अप्रत्याशित घटा जैसे एक बार स्कूल में थप्पड़ बजा था. मास्टर जी इतने शरीफ थे कि कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया. उस दिन पता नहीं कौन सी अनहोनी शरारत हो गई कि मास्टर जी ने इतनी फुर्ती से थप्पड़ रसीद किया कि पता ही न चला. ज्यादा अचंभा इस बात का था कि ये थप्पड़ भी मार सकते हैं. चोट का उतना दर्द नहीं था जितना इस के होने का. ये सब हुआ कैसे!
कुछ वैसे ही घटा था यह. जीवन में यह दूसरा थप्पड़ था.
गिरने पर बहुत ही निरीह से दिख रहे थे अम्बाप्रसाद. पंख टूटे पक्षी की तरह. आंखों में कोई भाव न था. न उत्सुकता, न जिज्ञासा, न परेशानी. चेहरा एकदम निर्विकार. एकदम उदासीन.
‘‘कहां छिपाई है एफडी ... किस फाईल में है ... कहीं फैंक तो नहीं दी ... याद करो.’’ चौधरी ने झिंझोड़ा.
‘‘मार क्यों रहो हो भाई! जीतू ... जीतू ...’’ वे कातर स्वर में फुसफुसाए.
वे रोए नहीं. बस कातर दृष्टि से बेटे की ओर देखते रहे जो अब सामने आ खड़ा हुआ था.
चौधरी एकाएक ढीला पड़ गया. उनके कमजोर शरीर को निहार उसे दया आ गई. उसे अपने ऊपर ग्लानि होने लगी. जीतू को एक ओर ले जा कर बोलाः ‘‘मुझे तो बुरा लग रहा है भाई. थप्पड़ ज्यादा जोर से लग गया. अभी भी मेरी बांह कांप रही है ... देख.’’
उसकी बांह ही नहीं समूचा शरीर थरथर कांप रहा था, जीतू ने महसूस किया.
‘‘अरे! मैं जोर जबरदस्ती करूंगा तो लोग कहेंगे, बेटे ने बाप को मारा ... सब थू थू करेंगे. अब तू तो दोस्त है इसलिए ये ज़हमत दी ...’’ जीतू ने चौधरी के कांपते कंधे पर हाथ रखा.
‘‘इन्हें मार से नहीं प्यार से समझाओ. बच्चों की तरह प्यार चाहिए इन्हें, मार नहीं.’’
चौधरी जैसे बाढ़ की तरह आया था, वैसे ही झंझावत की तरह कांपता हुआ चला गया.
‘‘पापा! आप को पता ही है चौधरी का उधार चुकाना है. मां की बीमारी पर जो खर्चा हुआ था, इसी से उधार लिया था ... आप एफडी ढूंढ देते तो काम हो जाता.’’
कुछ नहीं बोले अम्बाप्रसाद. कबूतर की तरह आंखें मूंद लीं. जीतू ने उन्हें सहारा दे उठाया और दीवान पर लिटा दिया.
सांझ की कमजोर किरणें झरोखे से उनके चेहरे पर आ टिकीं. कालिमा लिए चेहरे के बीचोंबीच उंगलियों के निशान लालिमा लिए उभर आए.
आंखें मूंदे होशोहवास में और सच में सोचने लगे ... एफडी के कागज़ कहीं गुच्छा-मुच्छा कर फैंक तो नहीं दिए ... कहीं गलती से फालतू कागज़ों के साथ कूड़े में तो नहीं गिरा दिए ... एक दिन वे पुराने कागज़ों की सफाई करने बैठे थे. नौकरी के दौरान दफ्तर में विरोधियों ने जो ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी करवाए थे, वे सब एक-एक करके फाड़ डाले. अब इन्हें रखने का क्या फायदा! दफतर में बहुत से साथियों ने उनके साथ अच्छा नहीं किया. अब क्या करना! आधे तो गाड़ी चढ़ गए हैं, आधे बिस्तर बांध तैयार बैठे हैं. कोई लंगड़ा हो गया है, कोई बहरा या अंधा हो गया है. किसी को लकवा मार गया है तो किसी ने बिस्तर पकड़ लिया. कोई न बिस्तर छोड़ रहा है और न मर रहा है. बहुतों ने तो होशोहवास में पछतावा भी जाहिर कर दिया कि उनसे बड़ी भूल हो गई जो उन्हें समझ नहीं पाए और दूसरों के कहने पर ऊलजलूल शिकायतें कर डालीं.
पूरा दिन इसी काम में लगा दिया था. काट-छांट कर क्या अभी भी सहेज कर रखना और जो कूड़ा हो गया है, फैंक देना है ... यह समझना मुश्किल हो रहा था. बड़ी कोशिश के बाद जब फाईलें लगभग ख़ाली हो गई तो सकून मिला.
जैसे सारा वैर विरोध ख़तम हो गया ... उन पर किए तमाम अत्याचार समाप्त हो गए.
मन ही मन वे बोले:
‘‘सालो! जाओ, मैंने तुम्हें मुआफ किया. तुम ने मेरे साथ बिना किसी कारण जो सलूक किया, अच्छा नहीं किया. फिर भी मैं तुम्हें मुआफ करता हूं ... खुश रहो! जिंदा हो तब भी, मर गए हो तब भी.
ऐसे भावावेश में कहीं एफडी के कागज़ भी ... है तो साला कागज़ ही. कहने को तो मुंह भर जाता है ... एफ.डी ... होता तो कागज़ का टुकड़ा ही है.
वैसे तो सभी कागज़ के टुकड़े ही होते हैं ... एपायंटमेंट, प्रोमोशन, डिमोशन, ट्रांस्फर, ज्ञापन और कारण बताओ नोटिस आदि. कागज़ों में जीता है, कागज़ों में ही मरता है सरकारी आदमी. कागज़ों में कागज़ों के लिए ही जीता है, कागज़ों के लिए ही मरता है.
सर्विस के अंतिम दिनों मे अम्बाप्रसाद के दिमाग़ में बहुत से विचार आने लगे थे. विचार पर विचार आते. मेरा यह काम भी रह गया, वो भी रह गया. यह भी मैं न कर सका, वो भी न कर सका. एकदम एक दूसरे के ऊपर ओवरलोड होते जाते. दिमाग में एक झंझावत सा छा उठता. पता नहीं रहता क्या कर लिया है और क्या रह गया है. क्या आया और क्या गया ... जैसे लहर पर लहर ... लहर पर लहर ... तटबन्धों को तोड़ती, दूर दूर तक सपाट मैदानों, तलहटियों में फैलती.
हालांकि जितना वे कर सकते थे, उससे ज्यादा किया. शहर में घर खरीदा, चाहे पुराना ही सही. बेटे को यथाशक्ति पढ़ाया, लिखाया. सौ तरह के टेस्ट दिलाए और अंत में सहकारिता विभाग में पक्की नौकरी लगवाया.
शुरू में उन्हें महसूस भी हुआ कि दिमाग़ी लहरें उनके कंट्रोल से बाहर होती जा रही हैं. वे लाख कोशिश करते कि विचार उनके वश में रहे किंतु उनकी आवाजाही इतनी बढ़ गई कि बेलगाम घोड़े की तरह हिनहिनाने लग जाते.
बाद में उन्होंने यह सोचना छोड़ दिया कि वे क्या सोच रहे हैं.
‘‘पापा! आपने कोई सूट दिया था ड्राइक्लिनिंग को ... याद है कुछ!’’ जब बेटे ने पूछा तो हतप्रभ रह गए अम्बाप्रसाद. कुछ याद नहीं आ रहा था. बहुत जोर डालने पर तो दिमाग़ जैसे सपाट ही हो गया.
‘‘पता नहीं कब दे आए ... ज़रूरत क्या थी ड्राइक्लीन करवाने की. कब पहनेंगे अब. ये तो आज मैं अपने कपड़े लेने गया तो दूकानदार ने बताया कि आपके पापा ने सूट दिया है कई महीने पहले दिया था, ले नहीं गए. मैंने सूट फट पहचान लिया ... देखिए ले आया हूं. क्या करते हैं पापा आप भी. पता नहीं घर का क्या क्या सामान ऐसे ही बाहर दे आए हैं.’’
‘‘अच्छा!’’ कहते हुए मुंह खुला का खुला रह गया अम्बाप्रसाद का. देखा, कलेजी रंग का बढ़िया सूट जिससे ताज़ा ड्राइक्लीन की ख़़ुशबू आ रही थी.
सपने की तरह याद आया, लाल इमली का वह सूट उन्होंने बड़ी हिम्मत कर ख़रीद था. ख़रीद तो लिया, सिलने साल भर बाद दिया. सिलाई तो कपड़े की कीमत से भी ज्यादा थी. शादी ब्याह, पार्टी के लिए रख छोड़ा. दो या तीन बार पहना भी होगा शायद. जब पहली बार पहना तो खुद ही शरमा गए अम्बाप्रसाद. पत्नी भी चहक उठी ... बड़े जंच रहे हो. जब पहनने के दिन थे तब तो लगाया पहना नहीं, अब क्या! मेरी बारी तो हमेशा मुट्ठी बंद ही रही ... साथ ही उलाहना भी दे डाला. रिटायरमेंट पार्टी में यही सूट पहना था. फिर अलमारी में सहेज कर रख दिया ... कहां पहनना! एक दिन मन में आया, ड्राइक्लीन करवा देता हूं ... बाद में बेटे जीतेन्द्रप्रसाद के काम आएगा.
बहुत सी बातें उन्हें सपने की तरह याद हैं. जैसे कोई बुरा सपना देखा हो. बहुत बार लगता, यह सपना नहीं, सच है. शहर में नौकरी लगी. घर गांव छूटा. संगी साथी छूटे. नये लोग अपने नहीं बन पाए आदि आदि.
बहुत बार ऐसा हुआ कि एकाएक दिमाग से कनैक्शन टूट गया. दूसरे ही क्षण जुड़ भी गया. यह क्या हुआ! जैसे बिजली एकदम जाती है, उसी क्षण आ भी जाती है. उन्होंने अस्पताल जा कर डॉक्टर से बात भी की कि एक फरेक्शन ऑफ सैकेण्ड के लिए दिमाग़ का कनैक्शन टूट जाता है. जब टूटता है तो मैं जैसे खा़ली हो जाता हूं ... जस्ट ब्लेंक.
‘‘कुछ भूलते तो नहीं. जैसे कुछ रखा और उसी क्षण भूल गए.’’ डॉक्टर ने पूछा.
‘‘ऐसा तो होता है पर जो मुझे याद है, वह तो याद है. बल्कि बेहद याद है.’’
‘‘ओल्ड एज में ऐसा होता है ... ये टॉनिक ले लो कुछ दिन.’’ डॉक्टर ने कहा, ‘‘किसी को साथ लाईए. कभी कभी बहुत सी चीज़ों का खुद को पता नहीं चलता जिसे दूसरे ऑब्जर्ब कर सकते हैं.’’
वे दोबारा किसी को साथ ले कर नहीं गए. पत्नी होती तो शायद ले भी जाते.
पत्नी के होने का एहसास उन्हें कई दिन तक बना रहा. कभी कभी तो वे आवाज लगाने को हो जाते. एकाएक एहसास होने पर आवाज गले में दब जाती. ऐसा नहीं कि कभी पत्नी से तकरार न हुई हो. कई बार वह गुस्से में जोर से बोल उठती थी ... कभी इसने दो घड़ी चैन से बैठने न दिया, न दिन में न रात में. वह एक घरेलू औरत थी, इसलिए अम्बाप्रसाद ज्यादा माइंड नहीं करते.
अब उन्हें लगता, पत्नी अभी अभी रसोई से निकल कर उनके सामने खड़ी हो जाएगी या अभी अभी बुदबुदाती हुई दूध ले आएगी या कुछ कहती हुई एक ओर से आएगी तो दूसरी ओर निकल जाएगी. उन्हें लगता अभी वह अपने बिस्तर में सोयी है. विश्वास नहीं होता कि एक रात वह सोयी तो सुबह उठी ही नहीं.
कुछ समय बाद उन्होंने मान लिया वह नहीं रही है. फिर भी बार बार उसे ढूंढते हैं. धोखा लगना स्वाभाविक भी है, इतने सालों का साथ रहा.
ऐनक नाक पर लगा रखी है और ऐनक ढूंढ रहे हैं. अख़बार बगल में दबाई है और पूरे घर में उसे ढूंढ रहे हैं. तौलिया कंधे पर है और बाथरूम से चिल्ला रहे हैं. पेन हाथ में है और टेबल के ऊपर ढूंढ रहे हैं. और बूट पहने चलने को तैयार है और बूट ढूंढ रहे हैं. कस्तूरी कुण्डल बसे ... चीज़ मिल जाने पर वे बोल उठते. यह सब पत्नी के रहते तो सम्भव था, अब कठिन हो गया.
अंतिम समय में वह मूहड़े पर बैठ बैठे कुछ न कुछ बुदबुदाने लगी. कोई बात समझ में आती, कोई नहीं आती.
पत्नी के गुजर जाने पर उन्हें लगा, वह अब कुलदेवी हो गई है. उसका फोटो कुलदेवी के साथ लगा दिया गया था. फोटो के गले में हार था जो अब सूख चुका था. वे अकसर कुलदेवी के पास खड़े हो जाते और कुलदेवी व पत्नी दोनों को नमस्कार करते.
एक उम्र बीत जाने पर ज्ञात हुआ अम्बाप्रसाद को कि जीवन कितना निःसार है, थोथा है. कभी एकसाथ जीने की कसमें, वादे किस कदर टूट जाते हैं. जो कभी कसम खाने से भी कतराते हैं, वे मरने मराने की बातें बहुत ही सहज ढंग से कर लेते हैं. कितना निष्ठुर हो जाता है इंसान, कितना निर्मोही. कोई स्नेह सहानुभूति नहीं, मोह ममता नहीं. बस पता है कि मरना है इक दिन. यही दुनियादारी है, यही दुनिया की हकीकत है.
ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है. यह बहुत बाद में पता चलता है. सारी मोहमाया छलावा सिद्ध हो जाती है इक दिन.
बाद में लोग रूंधे गले से बताते ... यहां बैठते थे, यहां खड़े रहते थे, यहां सोते थे. अब कितना सूना सूना है. ‘पहले’ और ‘बाद’ यही दो लमहे हैं जो सुखदायी हैं. काश! इंसान बीच के लम्हों में जीता जो वर्तमान होते हैं.
ऐसे में, जब उन्हें मकरा और मीसणा कहा जाता, आभास होता कि आज तो पच्चहतर और अस्सी की उम्र तक भी कोई मरता नहीं; तो एकाएक घबरा जाते. बहत्तर के तो हो गए हैं. मृत्यु का तो अभी नामोनिशान भी नहीं है बेशक इंद्रियां जवाब देने लगीं हैं. बेसुध हो जीना भी कितना दुष्कर होता है. इसलिए बिना काम भी चले रहते. चलते हण्डते मर जाना चाहिए.
किसी ने कहा है, मृत्यु आदमी के जन्म के साथ जन्म लेती है. यह बात सही नहीं है. जन्म के साथ ही मृत्यु का जन्म नहीं होता है. जन्म तो साक्षात् है, एक सच्चाई है. मृत्यु अप्रत्यक्ष है, न जाने कब आएगी. जल्दी आ जाए, न आए. अपने समय पर ही आए. सामान्यतः पूरे जीवन के बाद ही मृत्यु आती है. पूरा जीवन तो जिया जाता है, मृत्यु जी नहीं जाती. वह छिपी रहती है कहीं दूर. जीवन है तो अपने वश में है. जैसे चाहो, जीयो. मृत्यु वश में नहीं. जब तक जीवन है मृत्यु का वरण नहीं किया जा सकता.
हां, मृत्यु के अंदेशे से कुछ अधूरे काम पूरे करने की तमन्ना रहती है. संतानों को उस क्षण से पहले उत्तराधिकार पा लेने की लालसा बनी रहती है. कुछ ऐसा रह न जाए कि बाद में किसी विवाद या लिटिगेशन से गुजरना पड़े. संयोग से एक ही लड़का हुआ जिसे पढ़ालिखा कर अच्छी नौकरी भी लगवा दिया. गांव में ऐसी कोई लम्बी चौड़ी ज़मीन जायदाद नहीं थी. वे धीरूभाई अम्बानी तो थे नहीं कि करोड़ों का एम्पायर खड़ा कर दिया और कम्पनियां बंटेंगी. अधीक्षक तक बनते हुए जितना हो सकता था, किया. फिर भी उत्तराधिकार कम हो या ज्यादा, ऐसी कामना तो रहती ही है कि जीतेजी ही मामले निपट जाएं. एफडी, बैंक खातों में पत्नी की मृत्यु के बाद बेटे को नॉमिनी बना दिया.
ऐसी बातें अम्बाप्रसाद न सोचते हुए भी सोचते थे.
रात तक जबड़ा अकड़ गया था. कुछ खाया नहीं गया तो जीतू ने बड़े प्यार से दलिया चम्मच से मुंह में डाला. उन्हें पता नहीं चल रहा था कि क्या मुंह में उंड़ेला जा रहा है. बंद आंखों के आगे अंधेरा छाया था. लग रहा था, रात हो गई है.
सुबह देर तक जागे नहीं तो बहु चाय ले आई. आवाज देने पर कोई हिलडुल नहीं हुई. जब जीतू ने झिंझोड़ा तो पूरे के पूरे हिल गए अम्बाप्रसाद. टांगें घुटनों से लगी लगी अकड़ गईं थीं. शायद एक दो चम्मच दलिया अंदर जाने के बाद ही पूरे हो गए थे. सीधा करने के लिए टांगों की हड्डियां तोड़नी पड़ीं. नहीं तो लोग कहते, रात ही मर गया होगा, किसी ने देखा ही नहीं.
वे इतनी आसानी से सोते हुए ही गुजर जाएंगे, ऐसा अंदेशा किसी को न था. जीतू तो अभी बेपरवाह था इस बारे. कई बार वे बिना कुछ बताए सुबह ही घर से चले जाते मगर शाम होते होते घर लौट आते. कहां गए थे, कोई पूछता तो बस हंस देते.
तीसरे दिन जीतू हरिद्वार चला गया. सब क्रियाकर्म वहीं निपटा आया. मृत्यु के बाद वे किसी को सपने में नहीं दिखे. चार पांच दिन तो सभी नजदीकी रिश्तेदार भी टिके रहे. रात को कभी कोई खटका नहीं हुआ. कहते हैं दस दिन तो आत्मा आसपास ही मंडराती रहती है. बहुत बार ‘सुणीद्रा’ होता है, बुजुर्ग सिरहाने खड़े हो बताते हैं फलां चीज़ वहां रखी है, देख लेना, मैं जाती बार बताना भूल गया. कई हैं सपने में नहीं आते तो नहीं आते, जितना मर्जी याद करो.
सब से पहला काम डेथ सर्टिफिकेट और लीगल उत्तराधिकारी सर्टिफिकेट बनाने का किया.
मेहमानों के जाते ही जीतू ने उनका एक एक कागज़ छान मारा. पेंशन के खाते वाले बैंक में पता किया. कहीं कुछ न मिला.
पापा का लाल ईमली का सूट पहन आसपास के बैंकों में पता कर लिया. किसी ने कहीं भी कुछ नहीं बताया. पुश्तैनी घर कभी कभी जाते थे, क्या पता वहीं कहीं एफडी करवा रखीं हों.
निराशा के घटाटोप में गांव से आए चाचा ने बताया, एक आदमी है जो आत्मा को बुलाता है. उसके पास जाओ. यदि वह अम्बाप्रसाद की आत्मा को बुला दे तो यह बात जानी जा सकती है. यह काम जल्दी ही कर लो. अभी तो आत्मा ब्रह्माण्ड में भटक रही होगी, दूसरे शरीर में प्रवेश से पहले यह काम आसानी से हो जाएगा. एक आशा की किरण दिखाई दी.
गांव से थोड़ा हट कर अलग सा घर था उस आदमी का जो आत्माओं से बात करता था. उसके लम्बे बाल थे जो गुत की तरह पीछे बांध रखे थे. आधी काली, आधी सफेद दाढ़ी बढ़ी हुई थी. गांव के देवता का पुजारी भी था वह. बड़े नियम से रहता. सिगरेट तम्बाकू, कोई नशा नहीं करता. देवता की मनाही थी. आंगन के बीचोंबीच देवता का थान बना था जिसके ऊपर बहुत सी रंगीन झण्डियां गड़ी थीं. मन्नतें मांगने वाले लोग लगा जाते हैं, चाचा ने बताया.
बाहर ग़जब की शांति थी. आंगन के किनारे एक कुत्ता सोया था जिसने एक आंख खोल लापरवाही से उन्हें देखा और फिर सो गया.
साथ के लिए चौधरी को भी ले गया था जीतू. तीनों जूते उतार अंदर घुसे तो पहले कमरे में कोई न था हालांकि दीवार के साथ बैठने के लिए दरी के ऊपर बैठक रखे हुए थे. वे बैठने को ही थे कि भीतर से गम्भीर आवाज आई: ‘‘अन्दर आई जा.’’
चाचा ने अन्दर जाने का इशारा किया. भीतर अंधेरा-अंधेरा सा था. केवल एक झरोखे से रोशनी आ रही थी जिससे पता लग रहा था कि कोई बैठा है. पुजारी एक आसन पर विराजमान था. उसने ऊनी गाऊन सा पहन रखा था. इशारा होने पर तीनों सामने बिछे बकरे की खाल के आसन पर बैठ गए.
पुजारी ने दीपक जलाया तो भीतर की चीज़ों ने आकार ले लिया. पुजारी के सामने एक ऊंचा थड़ा था जिस पर दीपक, धूप, कटोरी में चावल, कुंगू, रंग बिरंगी कतरनें, पानी का लोटा रखा हुआ था. थाली में थोड़ा सा आटा था.
पुजारी ने लोटे से हथेली में पानी ले कर चारों ओर छिड़का. चाचा को इशारा किया तो चाचा ने जीतू को पुजारी के ठीक सामने बिठा दिया. पुजारी ने धूप जलाया और आटे में पानी मिला कर मानवाकार का एक पुतला बना कर बीच में स्थापित कर दिया.
‘‘कितने दिन हुए हैं!’’ उसकी गम्भीर वाणी गूंजी. चाचा ने दसों उंगलियां उठा दीं.
‘‘पिता का ध्यान करो.’’ पुजारी ने पुतले को टीका लगाया और खुद भी आंखें बंद कर बैठ गया. जीतू ने एक बार आटे के पुतले को देख आंखें बंद कर लीं.
कुछ क्षण फुसफुसाने के बाद पुजारी ने कहा :‘‘पिता को आवाज लगाओ.’’
जीतू ने धीमे से पुकारा : ‘‘पापा!’’
‘‘ऐसे नहीं, जोर से आवाज़ लगाओ. जैसे चिता को अग्नि देते समय सिर पर हाथ रखे जोर से हांक लगाई जाती है.
शहरी वातावरण में ज़ोर से बोलने या पुकारने की आदत ही नहीं रही थी. फिर भी सिर पर हाथ रखे पूरे ज़ोर से पुकारा : ‘‘पापा ...’’
इस दर्दनाक आवाज़ के बाद एक बार तो श्मशान सी शांति छा गई.
कुछ देर बाद पुजारी थर-थर कांपा. उसके मुंह से झाग निकलने लगी और अजीब सी आवाजें निकालने लगा. जीतू कांप उठा. चौधरी भी घबरा गया. थोड़ी देर बाद वह धीरे-धीरे ठंडा हो गया. एकाएक वह उठा और बाहर निकल गया. वे तीनों भी बाहर के कमरे में आ गए.
‘‘बहुत सख्त आत्मा है ... आ नहीं रही थी. आई भी तो बोली कुछ नहीं. मैंने पूरी कोशिश कर ली. या तो बहुत नाराज है या तुम लोगों में कोई है जिसने उसके साथ कुछ बुरा किया है.’’ पुजारी ने कहा.
बाहर निकले तो जीतू और चौधरी पसीने से लथपथ थे. अब की बार बाहर सोया कुत्ता उन्हें भौंकने लगा.
‘‘एक और आदमी है जो आत्माएं बुलाता है. बुलाता क्या है मृत आदमी के साक्षात् दर्शन करवा देता है. आए तो हो ही, वहां भी आजमा लो.’’ चाचा ने कहा.
अछूत होने के कारण इस नजूमी का घर तो गांव से बिल्कुल बाहर लगभग जंगल में ही था. उसे ‘डागी’ कहते थे. इन लोगों के पास बड़ी शक्तियां होती हैं. इनके देवता बड़े प्रत्यक्ष और सच्चे होते हैं. चाचा ने बताया.
धुंधली सी याद है जीतू को जब किसी पशु के मर जाने पर इन्हें बुलावा देने आना पड़ता था. तब घर से दूर टीले पर खड़े को आवाज़ लगाई जाती - ‘‘मझली गाय चली गई है. जल्दी आ जाना. घर में अभी चाय तक नहीं बनी.’’
फिर उसे नाले के किनारे घनी झाड़ियों में घुसते देखता. घर वाले वहां देखने को मना करते. थोड़ी देर बाद न जाने कहां दूर आकाश से गिद्ध नीचे उतर कर उसके ऊपर गोलाकार मंडराने लगते.
घर के साथ फूस से छायी एक टपरी बना रखी थी जहां सवर्ण लोग भीतर आ जाते थे. टपरी में चारों ओर बांस और घास की दीवार थी जिससे भीतर कुछ द्रेखा नहीं जा सकता था.
इस बार चौधरी भीतर नहीं गया. चाचा जीतू को बांस का किवाड़ खोल भीतर ले गया.
चाचा डागी से दूर बैठ गया. डागी की बड़ी बड़ी मूंछें थीं जो नीचे को झुकी हुई थीं. चेहरे का रंग ताम्बई था. सिर पर पुराना परना लपेट रखा था. उसका का कुरता कई जगह से तार-तार हो चुका था. जो चादर उसने बदन पर लपेट रखी थी कई जगह से फटी हुई थी.
भीतर कुछ नहीं था. न कोई देवता, न धूप न टिक्का. न फूल, न अक्षत. हां, एक कलम दवात जरूर पड़े थे. गोबर से लिपे कमरे में एक चटाई बिछाई हुई थी. डागी ने उसे सामने बैठने का इशारा किया. चाचा को उसने इशारे से कलम दवात लाने को कहा. चाचा ने कलम निकाल जीतू के अंगूठे के नाख़ून के ऊपर नीली स्याही लगा दी.
‘‘ये पक्की स्याही है म्हाराज! जल्दी मिटेगी नहीं.’’ डागी ने उसे देखते हुए कहा.
‘‘कोई बात नहीं.’’ जीतू ने लापरवाही से उत्तर दिया.
‘‘पहले बता देणा ठीक रैहता है म्हाराज! आप बाबू लोग हैं.’’ डागी मुसकाया.
‘‘इस अंगूठे की ओर देखो म्हाराज ... और अपने बापू का ध्यान करो.’’ डागी ने कहा और खुद भी आंखें बंद कर बैठ गया.
‘‘बस इधर उधर नी देक्खणा म्हाराज. बाहर सोर होता रहे, नी सुणणा.’’ डागी ने हिदायत दी.
जीतू ने पापा का ध्यान किया और नीले अंगूठे की ओर एकटक देखने लगा.
उसे दिखा नीला नीला अम्बर ... टिमटिमाते सितारे ... टिम-टिम. उन में से एक ... जैसे पापा. मंद सा जलता बुझता. सितारा धीरे-धीरे नीचे उतर आया. लगा, पापा नीचे उतर आए ... साक्षात्. वह जैसे बच्चा हो गया. पापा ने उसे गोद में उठा लिया. घर का आंगन है. पापा ने उसे कंधे पर बिठाया. कंधे पर बिठा उसे दूर-दूर तक ये संसार दिखाया. गांव का मेला दिखाया. मेले के बीच होती कुश्ती दिखाई. गरम-गरम जलेबियां खिलाईं. रास्ते में जैसे बाजार दिखा जहां से उसके लिए कृपसोल के नये जूते खरीदे. अब शहर दिखता है. पापा ने उसे बढ़िया अंग्रेजी स्कूल में भर्ती करवाया. स्कूल के नये बूट, नए कोट पैंट ख़रीदे. बहुत अच्छा, मजबूत बैग लिया ... पापा तनख्वाह के करारे नोट एक-एक कर गिनते हुए उसके नन्हे हाथों में रख रहे हैं ... दस बीस तीस. वह नोटों का महत्व नहीं जानता पर नये नोटों से भीनी-भीनी सुगन्ध आ रही है. अब पापा दिखे हाथ में ढाल तलवार लिए, दरवाजे पर पहरा दे रहें हैं ... सारी रात. वह भीतर निश्चिंत सोया है.
उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे.
उसने देखा असंख्य बूढ़े नंगे बदन ठिठुर रहे हैं. बहुत सी माताएं भीख मांग रही हैं. पापा भी असहाय से, बीमार, दयनीय, अंधेरे में रास्ता टटोलते हुए. उन सब के बीच पापा उसे बॉर्नवीटा वाला दूध पीला रहे हैं. वह झूले में बैठा है. पापा झूला झुला रहे हैं ... पापा की स्मृति खो चुकी है फिर भी वे गिरते पड़ते अंधेरा होने से पहले घर लौट रहे हैं.
फफक् कर रो उठा जीतू. चाचा ने उसे सम्भाला. अपना सिर चाचा के कंधे पर रख दिया जीतू ने. चाचा से उसे पापा की गंध आने लगी. चाचा पकड़ कर बाहर ले आए.
डागी कह रहा था :‘‘कुछ आत्माएं आ तो जाती हैं, बोलती नहीं. बच्चा! बापू की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करो. आदमी जिंदगानी में तो भटकता ही है. आत्मा न भटके, इसके के लिए अरदास करो.’’
बाहर गुनगुनी धूप चमक रही थी. अकस्मात उसे चिड़िया, कौए और कई पक्षियों की मधुर आवाजें सुनाई देने लगीं. लगा, पैर जमीन पर टिके हैं.
मन हुआ डागी के पैरों में पड़ जाए और कहे ... मुझे क्षमा करो बाबा! मुझसे बड़ी भूल हुई.
संस्कारों ने ऐसा करने से रोक दिया.
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