मानवाधिकार वे नैसर्गिक, मूलभूत, सार्वजनिक, मौलिक अधिकार हैं, जो कहते हैं कि किसी भी मनुष्य को देश, नस्ल, जाति, धर्म, भाषा, लिंग, रंग के आधार पर समानता, स्वतन्त्रता, सुरक्षा और सम्मान के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। समूचे विश्व में यह विषय उतना ही पुरातन है, जितना मनुष्य जीवन। धार्मिक दार्शनिक ग्रंथो या दस्तावेजों में इनका किसी न किसी रूप में उल्लेख मिल ही जाता है। अशोक के आलेख पत्रों में, मुहम्मद निर्मित मदीना के संविधान में (meesak –a- madeena) मानवाधिकारों की बात है। जर्मनी में किसानों के विद्रोह और उनकी मांगो को लेकर लिखी गई ‘द ट्वेल्व आर्टिक्लज ऑफ द ब्लैक फॉरेस्ट’ (1525) को आज के संदर्भ में यूरोप में मानवाधिकारों का प्रथम दस्तावेज़ माना गया है। यूनाइटेड किंगडम में ‘पेटीशन ऑफ राइट्स’ (1628) तथा ‘ ब्रिटिश बिल ऑफ राइट्स’ (1791) में सरकारी दमनकारी नीतियों का विरोध है। जॉन लॉक की पुस्तक ‘स्टेट्स ऑफ नेचर’ (1690) में मानवाधिकारों की जोरदार तरीके से बात की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वतन्त्रता के बाद (1776) और फ़्रांस में फ्रेंच रेवोल्यूशन (1799) के बाद मानवाघिकारों को प्रमुख स्थान दिया गया।
10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा को अंगीकृत किया गया और पूरे विश्व में 10 दिसम्बर मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। आज भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार मूलत: मानवाधिकार ही हैं और न्यायालय/ कानून इनकी रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मानवाधिकारों में नागरिक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक – यानी सभी प्रकार के वे अधिकार आते हैं, जो उसके स्वास्थ्य, कल्याण एवं विकास के लिए अनिवार्य हैं।
प्रवासी भारतीय मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार आज भारतीय मूल के कोई दो करोड़ लोग पूरे विश्व के भिन्न भागों में रह रहे हैं। सम्पूर्ण प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सरकारी- गैरसरकारी ( एन. जी. ओ. वगैरह) मानवाधिकार संबंधी संगठनों के बावजूद आम आदमी को नित्य ढेरों विसंगतियों, विद्रूपताओं से दो- चार होना ही पड़ता है। मेरा प्रतिपाद्य आज महिला प्रवासी कहानीकारों द्वारा चित्रित मानवाधिकारों की विसंगतियों, जूझने की चेतना और उपलब्धियों का अंकन करना है। पराये देश में अस्तित्व की स्थापना और सुरक्षा बहुत कठिन काम है, लेकिन अपने कठिन परिश्रम से प्रवासी लगातार चुन्नौतियों से जूझते उस कर्मभूमि में भी अपने को स्थापित कर रहे है।
अर्थजन्य उपलब्धियों यानी स्वयं और परिवार को गरीबी से मुक्ति दिलाने या सम्पन्न से अति- सम्पन्न बनने के लिए बहुत से लोग काम की खोज में विदेश आते हैं। गहन जीवन संघर्ष कर अपने परिवार के लिए अर्थ, सम्मान, संपन्नता अर्जित करते हैं। लेकिन इनके मानवाधिकारों पर कुठाराघात कोई और नहीं, इनका भोलापन करता है, इनके वही अपने करते हैं, जिनके नाम इन्होंने भारत में ज़मीनें खरीदी हैं। सुधा ओम ढींगरा की ‘कौन सी ज़मीन अपनी’ का नवांशहर से अमेरिका में आकर बसने वाला मंजीत सिह सोढ़ी कभी उस देश को अपना नहीं मान पाता। उसका वहाँ पेट्रोल पम्प है और पत्नी का बुटीक। वह पंजाब में जमीने खरीदने के लिए लगातार पैसे भेजता रहता है। उसका एक ही सपना है कि अपने गाँव में ही आकर रहेगा। अंतत: वह सारा कारोबार समेट कर नवांशहर पत्नी के साथ पहुँच जाता है, लेकिन जल्दी ही उसे स्पष्ट हो जाता है कि भाई- भतीजे उसी की खरीदी ज़मीनों के कारण उसकी हत्या का षड्यंत्र रच रहे हैं। यहाँ उन अतीतजीवी प्रवासियों का अंकन है, जिनके अपने ही उनके मानवाधिकारों की आहुति ले रहे हैं। उनकी ‘कमरा न0 103’ में बच्चों द्वारा ही माँ बाप के मानवाधिकार छीने जा रहे हैं। प्रवासी अक्सर नौकर, डे -केयर और बेबी-सिटर का खर्च बचाने के लिए माँ-बाप को बुलाते हैं और उनकी जायदाद हथिया लेते हैं। अच्छा कमाने के बावजूद उनका हैल्थ इन्श्युरेंस नहीं करवाते। बीमार होने पर सिटी अस्पताल के बाहर ही छोड़ आते हैं कि दवा-दारू के खर्च से बचे रहें। परदेस मे मिसेज वर्मा एकदम अकेली हैं। बेटा-बहू सब हथियाने के बाद घर मे लगे जाले की तरह उन्हें उतार फेंकते हैं । अस्पताल मे अर्ध- कोमा की स्थिति मे पहुँच चुकी मिसेज वर्मा को बेटा बहू पूछने तक नहीं आते ।
बहुत बार प्रशासन, न्यायतंत्र और पुलिस की यातनाये मानवाधिकारों का अतिक्रमण करती हैं। सुषम बेदी की ‘एक अधूरी कहानी’ अमेरिका के कानून में, अमेरिका के समाज में, अमेरिका के जीवन में, न्यूयार्क जैसे मेट्रो में नसलवाद और पुलिस की यंत्रणाओ का चित्रण करती है। गहरे साँवले रंग के भारतीय राजा ने एक नीग्रो युवती से प्रेम विवाह किया है। उनका किशोर बेटा माईकल छ्ह फुट लंबा था। अमेरिका के काले जानते हैं कि पुलिस उनकी संरक्षक नहीं, मात्र एक दानवी शक्ति है। खेल रहे बच्चों ने पुलिस की गाड़ी देखी और भयभीत हो भागने लगे। पुलिस ने गोलियों की बौछार शुरू कर दी और गोलियों से भाग रहे माईकल की गोलियां लगने से मृत्यु हो गई। घंटों उसकी लाश पुलिस स्टेशन के फर्श पर पडी रही-हत्या और शव का अपमान- न मानवता और न मूल्य ।
कादम्बरी मेहरा की ‘समझौता’ में सत्ते पर आरोप (झूठा आरोप) है कि वह शराब पीकर गाड़ी चलाता है और जानवरों की तरह पत्नी को पीटता है। पुलिस उसे इतना मारती है कि एक रात में ही सत्ते की मृत्यु हो जाती है। माँ छिन्दो क्या करे ? उसके पास बोस्टन से आया मिकी जैसा भाई है। पीटर, हेलेन जैसे पडोसी हैं। गुरुद्वारा साहब है। शवयात्रा पर सफ़ेद पगड़ी पहन कर जाने वाले एक हजार लोग हैं। फिर भी प्रवासिनी अकेली है। समझौते करने के बाद ही उसे पंद्रह दिन बाद शव दिया जाता है। पुलिस रक्षा नहीं करती। दरिंदों की तरह मार-मार कर सत्ते की जान ले लेती है। जबकि सत्ता बेकसूर है। सारी अंतर्राष्ट्रीय समितियों के बावजूद समझौते करना प्रवासियों की नियति है। समान मानवाधिकार वाले देशों में भी नसलीय अमानवता का शिकार होना प्रवासी की दर्दभरी दास्तान का अनिवार्य अंग हैं।
अपने दोयम दर्जे से प्रवासी इतने हताश हैं कि उन्हें नहीं लगता कि आने वाले दशकों में भी वे अपने मानवाधिकार पा सकेंगे। दिव्या माथुर की ‘2050’ में स्थिति आने वाले 2050 की है और समस्या ‘राइट टु हैव बेबीज’ की है। ब्रिटेन के प्रशासन ने धरती पर स्वर्ग लाने के लिए, जनसंख्या नियंत्रण के निरकुश हिटलरशाही कानून बना रखे हैं। जिनके कारण लाखों दिलों में नरक पल रहे हैं। ऋचा और वेद निस्संतान दंपति ने समाज सुरक्षा परिषद में बच्चा पैदा करने के लिए आवेदन दे रखा है, पर अभी तक अनुमति नहीं मिल पाई। आई क्यू टेस्ट पास किए बिना आप बच्चे को जन्म नहीं दे सकते, जबकि गौरों को झट से बच्चा पैदा करने की इजाजत मिल जाती है।
प्रवासियों का प्रथम अभिप्रेत है, उस धरती पर ससम्मान जीने का अधिकार। अर्चना पेन्यूली की ‘एक सुबह आप्रवासन कार्यालय में’ डेन्मार्क में रहने वाले प्रवासियों को हर साल वीज़ा रिन्यू करवाना पड़ता है। यह प्रक्रिया उन्हें एहसास दिलाती रहती है कि वे आप्रवासी हैं। लम्बी–लम्बी लाइनों में सुबह से शाम तक प्रतीक्षा काफी थका देने वाली भी होती है और ऊपर से त्रासदी यह है कि वृद्धों का वीज़ा रिन्यू नहीं किया जाता।
पराई धरती पर अवैध रूप से रह रहे प्रवासियों की स्थिति सबसे दयनीय है। वे छुप-छुपा कर होटल/ रेस्टोरेन्ट /बार में काम करते हैं और रात को वहीं किचन में छिपकर सो जाते हैं(और जल गया उसका सर्वस्व- उषा राजे सक्सेना)। विदेश में वीज़ा और नागरिकता की समस्या के कारण बहुत से लोग विशेषत: पंजाबी अपनी और वहाँ की सरकार को धोखा दे शादियाँ रचाते और निभाते है और हजारों अवैध अप्रवासी विदेश बसने के स्वप्न के कारण वहाँ जेलों मे बंद हैं। वीज़ा और नागरिकता का अधिकार इतना कठिन है कि व्यक्ति गलत शादी के लिए अभिशप्त है। (काफी नहीं -सुनीता जैन) सुधा ओम ढींगरा की ‘फंदा क्यों’ में भी ग्रीन कार्ड की समस्या है। अवैधता से मुक्त होने के लिए बख्शिन्दर के मेक्सिकन लड़की के साथ फर्जी शादी करके ग्रींन कार्ड हासिल करता है । तस्वीर का एक और पहलू भी है। अति संवेदनशील मौकों पर भी वीज़ा लगने में कई- कई दिन लग जाते हैं। कई तरह की परेशानियाँ अलग घेरती हैं। पूरे अमेरिका में यही हाल है। इला प्रसाद की ‘वीज़ा’ का शुभेन्दु विगत बीस वर्ष से अमेरिका का नागरिक है। कलकत्ता में माँ की मृत्यु हो गई है। उसे भारत पहुँच कर शव को मुखाग्नि देनी है। वह तीन दिन से वीजा दफ़तर के चक्कर लगा रहा है। उन्हें पुराना पासपोर्ट चाहिए। वह शुभेन्दु को मिल नहीं रहा। दीपा को ससुर की मौत पर, अरुंधति को माँ की मौत पर, शकुन को पिता की मृत्यु पर ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ा था। अंतत: इमरजेंसी वीजा मिलता है। तब तक बहन गोपा माँ का संस्कार कर चुकी थी।
प्रवास ने व्यक्ति को सिर्फ संताप ही नहीं दिये, बहुत से ऐसे मानवाधिकार भी उसकी झोली में डाले हैं कि जीवन का नक्शा ही बदल कर रह जाये। उसे वैश्विक दृष्टि और रूढ़िवादिता को नकारने का साहस और अधिकार दिया है। अमेरिका, ब्रिटेन, डेन्मार्क में आकर ही भारतीय समझ रहे हैं कि उन्होने दूसरी तीसरी दुनिया से प्रथम/ न0 वन संसार में छलांग लगाई है। वहाँ के मानवाधिकारों ने उनको अनेक संतापों से मुक्त किया है। घरेलू हिंसा वहाँ के न्यायतंत्र में अपराध है। दूसरी दुनीया की पत्नियों को जो मानवाधिकार विदेश की धरती और सोच ने दिये हैं, उसका मुक़ाबला नहीं। भारतीय पुरुष पत्नी को शारीरिक, मानसिक यातनाएं देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। अमिता तिवारी की ‘उसका नाम लीना है’ का पति मात्र इतना जानता है कि पतित्व पत्नी की पिटाई मे ही निहित है और अमेरिका मे पीटने पर पुलिस आ जाती है। इसलिए वह भारत लौट आता है। वेल्फेयर स्टेट के अपने ही फायदे हैं। उषा राजे सक्सेना की ‘रुखसाना’ लंदन में रहने वाले मीरपुर के उस परिवार की कहानी है, जहां लड़कियां सिर्फ जनानियाँ होती हैं। वे दुनिया में सिर्फ औलाद पैदा करने और अपने मर्दों की खिदमत के लिए ही आती हैं। बालिग होने से पहले ही उन्हें देश ले जाकर किसी जाहिल, अनपढ, गंवार रिश्तेदार से ब्याह दिया जाता है। लेकिन नायिका रुखसाना शादी के रोज मीरपुर से फ्लाइट ले लंदन अपनी पुरानी टीचर के यहाँ पहुँच दो घंटे अपने बालिग होने का इंतजार करती है। क्योंकि वह जानती है कि बालिग लड़की की लंदन में जबर्दस्ती शादी नहीं की जा सकती। अब वह सी. ए. की पढ़ाई करेगी। किसी पति या पिता के आगे घुटने टेकने की उसे जरूरत नहीं। पीट मार्विक जैसी बड़ी फार्म उसे स्पांसर कर रही है।
इला प्रसाद की ‘दर्द’ में वेल्फेयर स्टेट द्वारा मिलने वाले मानवाधिकारों से ही पात्र जीने का जुगाड़ कर रहे है। बच्चे के जन्म पर माँ को और थॉमस जैसे अपाहिजों को रहने के लिए घर, खाने के कूपन आदि ऐसी ही अनेक सुविधाएं मिलती हैं। उषा राजे सक्सेना की ‘युवा का जीवन लक्ष्य/ चुन्नौती’ में युवा हाई स्कूल की चौदह वर्षीय छात्रा है। मम्मी-पापा उसे खूब पढ़ाना चाहते हैं, प्रोफेशनल बनाना चाहते हैं। पर उसके जीवन का लक्ष्य माँ बनना है। गर्भवती होने पर उसे ब्रिटेन में काउंसिल फ्लैट की सुविधा और सोशल सिक्यूरिटी का धन मिलता है। वेलफ़ेयर स्टेट के यही सकारात्मक मूल्य उन देशों का आभिजात्य बनाए हैं।
अमेरिका है। यहाँ काले, गोरे, भूरे, पीले सब तरह के लोग हैं। यहाँ नौकरी है, कानून है, व्यवस्था है, अधिकार है। इला प्रसाद की ‘चुनाव’ कहानी चुनाव प्रक्रिया की बात करती है। एक तरफ भारत है, जहां अकसर मतदान स्थल पर जाकर पता चलता है कि वोट तो डल चुका और एक ओर अमेरिका है, जहां वोटिंग के कई चरण होते हैं। काले, गोरे, भूरे, पीले सब को मतदान का अधिकार मिलता है। कहानी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया लिए है ।
एक समय था कि मारिशस में रह रहे भारतीय प्रवासियों के बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित थे और आज आंकड़े कहते हैं कि आठ हजार से भी अधिक प्रवासी विश्व के अनेक देशों में प्राध्यापन क्षेत्र से जुड़े हैं। उषा प्रियम्वदा के अनेक पात्र अमेरिका में उच्च शिक्षा से जुड़े हैं। उषा राजे सक्सेना की कहानियों में उन स्कूलों का भी अंकन है, जहां हर धर्म/ देश को सम्मान दिया जाता है। उनकी ‘मजहब’ में ब्रिटेन का स्कूल कहता है कि पाकिस्तान से आए बच्चों से उनकी भाषा में ही संपर्क किया जाय। उन्हें रोज़ों में नमाज़ अदा करने के लिए संगीत कक्ष दिया जाता है।
भाषा, संस्कृति, परंपरायेँ तो हर प्रवासी की धरोहर होती है और अपने मूल से जुड़े रहने की स्वतन्त्रता का उल्लेख इन कहानियों में यहाँ-वहाँ मिलता है। पराई धरती पर अपने अपने उत्सव त्योहार मनाने यानी सांस्कृतिक गतिविधियों का मानवाधिकार तो प्रवासियों के पास है ही। अर्चना पेन्यूली की ‘अनुजा‘ में भारतीय समुदाय ने डेनमार्क में मंदिर बनाए हुए हैं। हर रविवार और त्योहारों के दिन वहाँ भजन- कीर्तन और भोजन का आयोजन होता है। जन्माष्टमी को भारत से कीर्तन मंडलियाँ बुलाई जाती हैं। इला प्रसाद की ‘कुंठा‘ में कभी दुर्गा पूजा पर, कभी गरबा नृत्य पर लोग मिलते हैं। अर्चना पेन्यूली की ‘एक छोटी सी चाह’ में डेन्मार्क के दूतावास में 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाता है।
पूर्णिमा वर्मन की ‘उसकी दीवाली’ में नंदिता त्रिवेदी का ‘संस्कृति’ नाम से खूब चलने वाला बुटीक है। दीवाली के दिन हैं। दूकान की दीवाली, घर की दीवाली, ग्राहकों की दीवाली, कारीगरों की दीवाली, मायके की दीवाली, दूकान पर आए किन्नरों की दीवाली –वह कहीं कोई कमी नहीं छोडती और दीवाली की रात दिन भर की सारी थकान आतिशबाज़ी के धुएँ की तरह घनी होकर धीरे-धीरे गायब होने लगती है। “आसमान में सितारे टिमटिमा रहे थे और ज़मीन पर दीये। नंदिता के चेहरे पर भी संतोष की आभा फैलने लगी। वह देर तक बूंदी के लड्डुओं की मिठास, दीयों के प्रकाश और रंगोली के रंगों में डूब कर दीपावली के साथ एकसार होती रही।” अनिल प्रभा कुमार की ‘जिनकी गोद भराई नहीं होती’ में गोद भराई यानी बेबी शावर की रस्म का वर्णन है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों को लेकर अनेक तरह की संधियों का उल्लेख भी यहाँ मिलता है। थोड़े- थोड़े समय के लिए शरणार्थियों को दूसरे देशों में शरण मिलना भी ऐसा ही मानवाधिकार है। अर्चना पेन्यूली की ‘एन. आर. आई.’ में आठ लाख रूपये देकर दर्शनलाल इल्लीगल इम्मिग्रेंट के रूप में पानी के जहाज से अपनी विदेश यात्रा शुरू करता है और डेढ़ महीने बाद पता चलता है कि वह अमेरिका नहीं डेन्मार्क रिफ़्यूजी के रूप में रेडक्रास की तरफ से जम्मू के आतंकवाद और असुरक्षित जीवन के हवाले से जा रहा है। वहाँ वह सफाई कर्मचारी के रूप में जीवन शुरू करता है और फिर ढाबा खोलता है। तीन साल बाद तीन हफ्ते के लिए भारत आता है और डेनमार्क पहुँचकर पता चलता है कि वह शरणार्थी की हैसियत से वहाँ और नहीं रह सकता। भारत से पैसे के बल पर आतंकवादी होने के दस्तावेज़ बनवा फ़्रांस में आ ऐफ़िल टावर के पास खिलौने बेचने लगता है और फिर बैरे का काम मिल जाता है। कहानी एक एन. आर. आई. का जीवन संघर्ष, यूरोप में रहने की जिद्द और अन्तर्राष्ट्रीय अधिकारों के स्वैच्छिक/मनमाने/ दुर्पयोग की है।
प्रवासियों की नई पीढ़ी अपने स्थानीय/ नेटिव मानवाधिकारों को लेकर पूर्णत: सजग है। उषा राजे सक्सेना की ‘एलोरा’ की पंद्रह वर्षीय इंडो-ब्रिटिश किशोरी में नई पीढ़ी का आत्मविश्वास है कि ब्रिटेन के नागरिक को वहाँ से ही न्याय/अधिकार मांगने होंगे। वह आई-विटनेस बनकर बलात्कार की चेष्टा के अपराधी को सज़ा दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध है। पुलिस, सोशल वर्कर, कोर्ट कचहरी, वकील, समाज किसी का उसे भय नहीं। वह जन्मना ब्रिटेन की नागरिक है। टैक्स पेईंग नागरिक है। अतिथि नहीं।
उषा प्रियम्वदा, सुषम बेदी, इलाप्रसाद- यानी सभी की कहानियों में कहीं न कहीं बच्चों की उस अधिकार सजग पीढ़ी का वर्णन है, ज़हाँ वे अखाद्य खाते हैं, निरंकुश व्यवहार करते हैं और माँ बाप घबराये रहते हैं कि कहीं 911 डायल करके पुलिस को न बुला लें। बच्चों के मानवाधिकार वेल्फेयर स्टेट के उच्चतम मानवीय मूल्य हैं। वेल्फेयर स्टेट के बेघर, बे माँ-बाप के बच्चे उषा राजे सक्सेना की कहानियों के प्रमुख प्रतिपाद्य हैं। यहाँ त्रासद, लाचार, दुखद, दुराग्रही, असंतुष्ट बचपन फैला हुआ है। ब्रिटेन वेल्फेयर स्टेट है और यहाँ अनाथालय/ वेल्फेयर होम में पलने वाले बच्चों का सैलाब सा उमड़ आया है। बचपन के घाव, कुंठाए, हीनता ग्रंथि इन्हें अनाचार, गुंडागर्दी, संस्कारहीनता, मौजमस्ती के अवैध स्थलों की ओर मोड़ देते हैं। इसीलिए वयस्क जीवन की तैयारी के लिए इन बच्चों को होम से हॉस्टल भेज दिया जाता है। स्टाकवेल के प्रयोगात्मक हॉस्टल में ऐसे ही बच्चे रहते हैं। यहाँ इन्हें अपराध की दुनिया से दूर रहने और सही ढंग से रोजी-रोटी कमाने का प्रशिक्षण मिलता है। (तीन तिलंगे- उषा राजे सक्सेना)
मानवाधिकार व्यक्ति को सुरक्षा देते हैं, अस्तित्व को बनाए रखते हैं, अस्मिता को गरिमा देते हैं। भारतीय जहां- जहां गए, उसी धरती को अपनी कर्मभूमि बना लिया। यह कहानियाँ क्या खोया क्या पाया के विवरण प्रस्तुत करती हैं। समाज और प्रशासन दोनों का सम्मिलित प्रयास ही प्रवासी की अस्मिता के लिए अनिवार्य है। प्रवासी जीवन की धड़कनों का जैसा स्टैथोस्कोपीय अंकन प्रवासी महिला कहानीकारों ने किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ दिलों की धड़कन में उतरकर उनके सुख- दुख सुनाने का आयोजन हैं।
संदर्भ:
सुधा ओम ढींगरा, कौन सी ज़मीन अपनी, कौन सी ज़मीन अपनी, भावना, दिल्ली, 2011
वही, कमरा न0 103; कमरा न0 103, अंतिका, गाजियाबाद, 2013
सुषम बेदी, एक अधूरी कहानी, हंस, सितम्बर 2015
कादंबरी मेहरा, सम्झौता, हंस, अक्तूबर, 2006
दिव्या माथुर, 2050, 2050 और अन्य कहानियाँ, डायमंड पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2011
अर्चना पेन्यूली, एक सुबह आप्रवासन कार्यालय में, निकट, नवम्बर 2010, वर्ष 4, अंक 4
उषा राजे सक्सेना, मजहब, वॉकिंग पार्टनर, राधाकृष्ण, दिल्ली, 2004
सुनीता जैन, काफी नहीं, हरीगंधा, अंक: 241, सितम्बर 2014
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इला प्रसाद, दर्द, तुम इतना क्यों रोई रूपाली, भावना, दिल्ली, 110091
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अर्चना पेन्यूली, एन0 आर0 आई0,, सरिता, सम्पर्क: झंडेवाला एस्टेट, रानी झांसी मार्ग, नई दिल्ली -110055
उषा राजे सक्सेना, एलोरा, वह रात और अन्य कहानियाँ, सामयिक, दिल्ली, 2007
वही, तीन तिलंगे, वह रात और अन्य कहानियाँ, सामयिक, दिल्ली, 2007