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सरला रवीन्द्र

अपना आकाश

चिड़िया की चहक वाली कॉल-बेल की आवाज़ मेरे मन में एक रस-सा घोल जाती थी - कोई आया के शब्दों से मेरा अंतर भी चहक उठता था. ऐसा नहीं था की मुझे किसी विशेष का इंतज़ार होता हो. यह बेल तो बस घर की नीरवता को भंग करती थी. इसीलिए मुझे उसके चहकने का इंतज़ार रहता. घर में था ही कौन - मैं, पापा व हमारा पुराना नौकर रघु. मैं बहुत बच्ची ही थी जब माँ नहीं रही थीं. तमाम दबावों के बाद भी पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया था. शायद उनके मन में कोई प्रच्छन्न शंका थी कि दूसरी माँ से मैं एडजस्ट नहीं कर पाऊँगी. कारण कोई भी रहा हो उनके पुनर्विवाह न करने के पीछे, पर मेरा बचपन बीतते-न-बीतते पापा अपने में समाते चले गये थे. अध्ययन-अध्यापन और लेखन ही उनके जीवन का उद्देश्य रह गया था. यों मेरी हर इच्छा की तरफ उनका ध्यान अवश्य रहता होगा, क्योंकि मेरी हर इच्छा बिना कहे ही पूरी हो जाती थी. शोध के विद्यार्थियों को गाइडेंस देते समय ही घर की नीरवता भंग होती थी, अन्यथा अधिकतर समय हम तीनों अपने-अपने में ही बिताते. इसीलिए मुझे शाम के समय की डोरबेल की आवाज़ मधुर लगती थी, राहत देती थी. पापा के विद्यार्थियों के आने से घर की एकरसता, थोड़ी देर के लिए ही सही, टूटती तो थी ही और हम अपने-अपने व्यूहों से कुछ देर के लिए बाहर निकल आते थे. घर में कुछ बाहर की आहटें आतीं थीं, कुछ नई आवाज़ों का प्रवेश होता था, घर की और हमारे भीतर की नीरवता भंग होती थी. वैसे पापा किसी से भी निरर्थक बात नहीं करते थे, फिर भी वे बहुत प्रिय थे अपने विद्यार्थियों में. यों यह बात मैंने पापा के चले जाने के बाद ही महसूस की. कितने ही पुराने विद्यार्थी अपने परिवारों के साथ आये, दूर-दूर से भी, उनकी मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने. यद्यपि काफी कम हो चुका था अब लोगों का आना - दिन भी काफी हो चुके थे, फिर भी कभी-कभार कोई-न-कोई आ ही जाता था.

कॉल-बेल, जो कभी मन को पुलक से भर देती थी, अब घबराहट पैदा करती है. वे ही बार-बार दोहराए जाने वाले किताबी सांत्वना के शब्द सुनते-सुनते मेरे लिए अब अपना अर्थ खो बैठे थे. वैसे भी कुछ अवघट तो घटा नहीं था मेरे साथ, पर कितना अंतर होता है अपने और दूसरे के अनुभव में. न चाहते हुए भी मिलना तो पड़ता ही है सबसे. कॉल-बेल की आवाज़ सुनकर मैं सोच ही रही थी कि कौन आया होगा कि रघु ने आकर बताया, ‘बिटिया, अनिल बाबू आये हैं.’

‘अनिल ?’ कुछ विस्मय से मैंने कहा. लगा बहुत पहले का अनिल की प्रतीक्षा करने वाला भाव चेहरे पर उभर आया है. पर तुरंत ही इस भाव को मैंने नियंत्रित कर लिया. भावनाओं पर नियन्त्रण रखना मुझे पापा से विरासत में मिला है, जिसको पापा के अनुशासन व रुचि-संपन्नता ने कुछ और निखारा ही था. पापा ने भी तो कभी मम्मी की मृत्यु के बाद अपने जीवन में आये खालीपन को कभी उजागर नहीं होने दिया. कितना कुछ बदल गया है तब और अब में - मुझमें और अनिल में भी तो कितना बदलाव आ गया होगा. रघु काका से अनिल को बिठाने को कहकर मैं उठी, पर फिर बैठ गयी. पूछना चाहा अकेले हैं या कोई और भी है साथ में, पर शब्द मुंह में ही अटककर रह गये. वह दिन याद आ गया, जब मैं पहली बार अनिल से मिली थी. वह अपने किसी सेमिनार के बारे में कुछ डिस्कस करने आया था पापा से, पर पापा तो किसी मीटिंग में गए हुए थे.

‘आते ही होंगे थोड़ी देर में,’ मैंने उससे कहा.

उसको विस्मय हुआ था - पापा बहुत अनुशासनप्रिय थे; कभी भी किसी को ऐसे नहीं बुलाते थे. ज़रा सी भी शंका हो तो कतई नहीं. ख़ैर कोई विशेष मजबूरी हो गई होगी, अचानक ही कोई काम आ गया होगा.

‘क्या मैं कुछ देर बैठकर 'सर' का इंतजार कर सकता हूँ,’ उसने पूछा था.

‘हाँ-हाँ, बैठिये. मैं चाय भिजवाती हूँ,’ कहकर मैं अंदर चली गई थी.

यही कुछ एक-आध मुलाकातें और आँखों ही आँखों में एक-दूसरे को देख भर लेने से ही कब हृदय के तार झनझना उठे थे, मुझे तो पता ही नहीं चला, पर पापा की अनुभवी आँखों ने शायद बहुत कुछ अनकहा भी भाँप लिया था. और उन्होंने झट अपने एक पुराने मित्र देवेन्द्र अंकल के बेटे अजय से मेरी शादी पक्की कर दी थी. बहुत सोच-समझकर ही किया था यह उन्होंने. माँ के जाने के बाद बड़े जतन से पाल-पोसकर बड़ा किया था मुझे. नहीं चाहते थे कि मैं ऐसी जगह फँस जाऊँ जहाँ मेरे और उनके अरमान घुटकर ही रह जाएं. और बस चट ब्याह हो गया था और मैं सपनों के पंखों पर उड़ती अमेरिका चली गयी थी अपनी गृहस्थी बसाने. अजय इंजीनियर थे और उन्हें खूब अच्छा वेतन मिलता था. कुछ समय घूमने-फिरने, रोमांस करने में बीत गया. कई महीनों बाद पता चला कि विवाह का इसके आलावा जो अर्थ होता है, उस दृष्टि से तो मैं अभी भी विवाहित नहीं हूँ. क्यों किया अजय ने यह मेरे साथ. उसे तो पता था सब कुछ. शायद डॉक्टर की राय रही होगी कि विवाह के बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा. मैंने भी दो वर्ष इंतज़ार में घुट-घुटकर समय काटा था. पर अंत में जब सहना मुश्किल हो गया, तब मैंने भारत वापस लौटने का निर्णय लिया. मेरी वापसी से पापा बेहद खुश थे. आखिर बेटी पूरे दो साल बाद आई थी. एयरपोर्ट पर पापा के अलावा देवेन्द्र अंकल और आंटी भी आये थे. उन्हें देखकर लगा कि वे भी पापा की तरह ही उस सब से अनभिज्ञ थे, जो मेरे और अजय के बीच घट चुका था. मैं उन्हें कुछ बता भी तो नहीं सकती थी. पापा के बरसों से सँजोए सपनों को मैं एकबारगी ही ढहा देने का साहस मुझमें नहीं था. विवाह के बाद पहली बार तो कुछ इत्मीनान से रहने का अवसर मिला था. शादी के चार दिन बाद ही तो अमेरिका चली गयी थी - पापा से कुछ बात करने का समय ही कहाँ था मुझे और अब वापस आने पर सब के घर आने-जाने, पार्टियों-बुलावे में कुछ दिन तो अनबोले ही बीत गये थे. परन्तु मुझे बराबर लगता कि पापा मेरे इस तरह अकेले चले आने में कुछ अर्थ खोज रहे थे. जिस अर्थ की खोज उन्हें थी, वह था ही नहीं तो मिलता कहाँ से. मैंने इन दो-ढाई वर्षों में अजय के साथ रहकर जो भोगा-जाना था, वह पापा को बता नहीं सकती थी और उसको छिपाए रखने के लिए उस घुटन में रह पाना और भी मुश्किल होता जा रहा था. अब घर में पहले से भी ज्यादा चुप्पी थी. जो मुझमें घुट रहा था. उसे पापा को समझा पाना मेरे लिए और उसे समझ पाना पापा के लिए संभव नहीं था. पापा ने डॉक्टर गोखले को बुलवाया होगा. अब तो पापा की सवाली निगाहों का जवाब मुझे देना ही होगा. मैंने अपनी और अजय की अमेरिका की डॉक्टरी रिपोर्ट डॉक्टर गोखले को पकड़ा दी और पापा को सब कुछ स्पष्ट बता देने को कह दिया. मैं अपने मुंह से तो कह नहीं सकती थी कि पापा ने अपने जिस नए घर का नक्शा मुझे नहीं अपने नाती को नज़र में रखकर बनाया था, वह कभी बस नहीं पायेगा. कैसे कहती कि अब मुझको ही अपना सब कुछ मानकर संतोष करिये, पापा! मन चीत्कार कर रहा था, किन्तु मैं पापा से कुछ कह न सकी. पर पापा ने उसे सुन लिया था और वे मेरे साथ हुए नियति के क्रूर मज़ाक को बहुत दिनों सह नहीं पाये. मेरे हाथों में तलाक़ के कागज़ात थमाकर वे अनजान रास्ते से अदृश्य हो गये. मैं इन्हीं सब स्मृतियों में उलझी हुई थी, तभी रघु फिर आ पहुँचा. उसके बिटिया कहते ही मैं अपने से बाहर आ गयी और हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई. भूल ही गई थी कि कोई मेरी प्रतीक्षा कर रहा है. वैसे भी रोज़-रोज़ वही-वही एक जैसे शब्द सुनते-सुनते जैसे मेरी संवेदनाएँ समाप्त हो गईं थीं. पर न चाहते हुए भी मिलना तो है ही. मैं बाहर कमरे में पहुँची तो पाया अनिल उसी कुर्सी पर बैठा है जिस पर पापा के स्टडी में बुलाने के इंतज़ार में बैठा करता था. एक क्षण के लिए लगा जैसे कि पापा अभी उसको अंदर भेज देने के लिए पापा अभी भी अपनी स्टडी में हैं और कुछ भी नहीं बदला है. अपनी व्यस्तता खत्म होते ही वे अनिल को स्टडी में बुलाएंगे और मैं यहीं बैठी-बैठी उनके तर्क-वितर्क सुनती रहूँगी, परन्तु दूसरे ही क्षण वह कल्पना भंग हो गई. मेरी हल्की-सी आहट से ही वह खड़ा हो गया था- नमस्कार कर और मुझसे बैठने को कहकर, जैसे घर का मालिक वह हो और मैं मेहमान होऊँ, वह आराम से अपने स्थान पर बैठ गया था. हम दोनों ही चुप थे. मैं इस प्रतीक्षा में थी कि कब पापा की मृत्यु पर औपचारिक सांत्वना के दो शब्द कहकर अनिल वापस जाने का उपक्रम करता है या मेरे विगत को जानने की जिज्ञासा से कुछ देर और बैठता है. वह संभवतः समझ नहीं पा रहा था कि कैसे बात की जाये. चुप्पी बोझिल होने लगी थी कि तभी लीक से हटकर बहुत आत्मीयता से भरी अनिल की आवाज़ गूँजी थी. नहीं, कुछ भी तो नहीं बदला है.

‘नीरजा जी, सब कुछ 'सर' की तरह ही कैसा सँभालकर रखा है आपने. अपने 'सर' के इंतजार में बैठा हूँ. एक कप चाय नहीं पिलाएंगी क्या?’

कहते हुए उसकी आँखें छलक आईं थीं. पापा के लिए मेरी आँखों में भी पहली बार किसी के सामने आँसू आये थे. तब तक रघु काका दो प्याले चाय ले आये थे. चाय तो एक बहाना थी हम दोनों के बीच की चुप्पी को सहज करने के लिए. कुछ पलों के बाद उसने कहा था, ‘आप भी बिलकुल नहीं बदली हैं इन ढाई-तीन वर्षों में, नीरजा जी.’

मैंने भी जवाब में कह दिया था, ‘आप भी कहाँ बदले हैं.’

परन्तु मन के भीतर कोई कह रहा था कि हम दोनों ही बदल चुके थे. अब मैं उसके लिए नीरजा जी थी और वह मेरे लिए आप. अब वह एक कॉलेज में सम्मानित प्रोफेसर था और मैं समाज की निगाहों में एक परित्यक्ता. कितना कुछ घट चुका होगा उसके भी जीवन में. इन वर्षों में. कभी हम दोनों ने ही प्रकट में न सही परोक्ष रूप से तो एक दूसरे को एक विशेष नज़र से देखा ही था. अपने लिए तो मैं विश्वास से जानती ही हूँ. पर इस समय तो कमरे में फैली चुप्पी वातावरण को बोझिल ही बना रही है. क्यों नहीं अनिल औपचारिकता निभाकर चलने का उपक्रम कर रहा है? उसकी मौन संवेदना सहना तो बार-बार सुने पापा की मृत्यु से संबंधित रस्मी प्रश्नों और मेरे वैसे ही रस्मी उत्तरों से भी ज्यादा कष्टकर हो रहा है. इच्छा होती है उसके परिवार के बारे में पूछ कर स्वयं ही संवाद को औपचारिक समाप्ति की ओर मोड़ दूँ, पर साहस नहीं हुआ. तभी एक गौरैया के जोड़े ने चोंच में तिनके दबाये प्रवेश कर अपनी चह-चह से कमरे की नीरवता को भंग कर दिया. मेरी और अनिल दोनों की नज़र एक-साथ उनके बनाये नन्हे-से घोंसले की ओर गई और फिर आकाश में दूर वापस उड़ते उस जोड़े के पीछे, जो नए तिनकों की खोज में फिर चल पड़ा था. कमरे में गंदगी न हो, यह सोच कर मैंने खिड़की बंद करनी चाही, तभी अनिल ने मेरे हाथों पर अपने हाथों का दबाव डालकर ऐसा करने से मुझे रोक दिया. पता नहीं कैसे अनजाने में उस एक क्षण में मुझमें एक नए नीड़ के निर्माण का स्वप्न जाग गया. लगा कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है. पापा का सुरुचि से बनाया यह नीड़ मैं किसी के साथ मिलकर फिर से बसा सकती हूँ. अनिल के स्पर्श ने बिना पूछे ही उसके जीवन का इतिहास मुझे बता दिया था. मन में उठ रहे हर प्रश्न का उत्तर जैसे मुझे उसके बिना कहे मिल गया था. और अचानक जैसे पंख उग आये थे और मैं उन पंखों के सहारे उड़ चली थी गौरैया के जोड़े के पीछे-पीछे एक नए आकाश की ओर - अपने ही एक छोटे से आकाश को अपने मन में सँजोये.

 

सरला रवीन्द्र

सरला रवीन्द्र की कहानियाँ जो पढ़ेगा, गुम जाएगा, रम जाएगा इनकी सपनों की दुनिया में. ऐसा नहीं है कि इनकी कहानियों में वे सब द्वंद्व नहीं जो मानव जीवन के अपृथक अंग बन कर कहीं से भी, कभी भी पनप उठते हैं ... नहीं, वो सब विलक्षण इनकी कहानियों में मौजूद हैं, पर सरला जी तो किसी अद्भुत जगह, अपने किसी सुगम उपवन में भटक कर अपने सब गीत रचती हैं, वही गीत जब तक हमारे सामने आते हैं, कहानियों का रूप धारण कर आते हैं. ऐसी कहानियों का संकलन है "दिवास्वप्न."

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सरला रवीन्द्र से सम्पर्क के लिये kumarravindra310@gmail.com

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