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अकथ कहानी प्रेम की

  • प्रत्यूष गुलेरी
  • 24 अग॰ 2018
  • 21 मिनट पठन

प्राणेश आज पूरे पैंसठ वर्श का हो गया है. पता नहीं तड़के से एक रट लगाए कह रहा है - ‘फोन लगाओ न भाई साहब कविराज प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद चतुर्वेदी को. इनाम मिलने की मुबारिकवाद दें और उन्हें कहें कि प्राणेश तो उन्हें भूला नहीं होगा. यह भी कहें उन्हें - कश्मीर विश्विद्यालय में रिसर्च करते हुए जिस कविता पोथी की प्रस्तावना मैंने उनसे लिखवाई है उनमें से एक को छोड़कर प्रेमखण्ड की सब कविताएं उनकी सुन्दर एवं दिव्य कन्या को केन्द्र बना कर लिखी गई हैं.’ प्रतीक सब अनसुना कर रहा है. कितनी बार सुने एक ही राग अलापते प्राणेश को. यह पैंतीस वर्ष गुज़र चुके इतिहास के पुराने पन्ने को क्योंकर खोलकर कुरेदना चाहता है प्रतीक समझ नहीं पा रहा था. प्राणेश बेंत का सहारा लेते हुए लंगड़ाती दाईं टाँग से प्रतीक के कंधे के पास आ खड़ा हुआ. विनम्रता और खीझ की मिली जुली भावना से झिंझोड़ता हुआ बोला - ‘भाई सुनते क्यों नहीं? मुझे क्या पागल समझ रखा है. मैं आपसे ही मुखातिब हूँ - भाई! उनकी वह कन्या बड़ी लाजवाब थी. हर कोई लड़का संगीत, हिन्दी व संस्कृत विभाग का उससे प्यार करने को आतुर था. सुनते हो आप?’ उसने बाएँ हाथ से फिर प्रतीक की बाँह को पूरे आवेग से हिलाया.

-‘वह देवलोक से उतरी सुरबाला थी. वह थी ही प्यार करने के काबिल.’

प्रतीक को मालूम है प्राणेश भली चंगी सरकारी नौकरी में था, पता नहीं क्या विराग लेने की धुन चढ़ी कि उसे छोड़ दिया. वह तो भाग जाना चाहता था घर से साधु बन जाने के लिए. पर भाई की नवजात बेटी पर कोई अमंगल की मुहर न लगे, वह सही दिन और शुभ मुहूर्त की इन्तज़ार में था. हफ़्ते के अन्दर ही उसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से चिट्ठी मिली कि उसे रिसर्च फैलोशिप मिल गई है. नतीजतन वह कश्मीर विश्वविद्यालय पहुंच गया.

साल भर में उसने अपने वेदान्त पर शोध विषय से सम्बन्धित सामग्री के संकलन-संयोजन का कार्य किया. संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी और संगीत आदि विभागों में अपनी असाधारण प्रतिभा का लोहा मनवाया. दूसरे वर्ष यहीं उससे प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद चतुर्वेदी की कन्या प्राणा टकराई जिसने संगीत विभाग के प्रथम वर्ष एम0ए0 में दाखिला लिया था. प्राणेश उसे देखते ही पहली नज़र में मर गया था.

पाठकवृन्द! चार दशक से भी अधिक समय गुज़र चुका है अब तो. प्राणा ने तो उसके जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी. रिसर्च तो पूरी नहीं हुई और प्राणा ....? वह भी उसके पिता ने सुना था किसी डिप्टी कलक्टर को ब्याह दी थी. किसी प्राइवेट कॉलेज में प्रोफेसर हो गई थी प्राणा इतना भर पता भी है. प्राणेश एक आकस्मिक दुर्घटना का क्या शिकार हुआ कि उसकी दाईं टांग और दायां हाथ नकारा होकर रह गया है. काल की गति ने उसके लेखन-कर्म को भी छुड़ा लिया. अब साहित्य पढ़ लेता है लिख व सुन नहीं सकता. लिखवा बहुत कुछ सकता है. इसीलिए जिद्द कर रहा है प्रतीक से - ‘लिख दो न कहानी, मैं कह रहा हूँ मुझ पर. फिर खीझ कर कहता है - कोई लिखे तब न. भाई साहब! प्राणा से मेरी वह प्रथम मुलाकात लाइब्रेरी में हुई थी. जानते हो कैसे?’ प्रतीक ने उसे कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया.

प्राणेश ने बताया - ‘एम0ए0 संगीत के प्रथम वर्ष में दाखिला लेने के उपरान्त वह सीधे ही विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आई थी. हो सकता है लाइब्रेरी कार्ड बनाने आई हो. मैं वहाँ बैठकर अपनी रिसर्च की सूचनाएँ जुटा रहा था. मुझे उसे देखते ही लगा कोई साधारण लड़की नहीं. यह तो सीधे देव-लोक से उतारी गई कोई दिव्यांगना है. फिर जानते हो उसे देखते ही मैंने क्या निश्चय कर लिया?’

-‘क्या?’ प्रतीक ने हुँकारा दिया.

-‘यही कि यह भद्रा मेरे लिए ही बनी है. मैं ही इसके प्यार को पाने का हकदार हूँ. इसे किसी और का होने नहीं दूंगा. किसी को पटाने नहीं दूंगा. मैं इसके हृदय में प्यार का बीज बोकर ही रहूँगा.’

-‘फिर आगे?’ प्रतीक को रस मिलता लगा. प्राणेश एक साँस में अतीत के गुज़ारे लम्हों को उगल देने को आकुल-व्याकुल था. बोला - भाई साहब! उसे देखकर पहली नज़र में मर जाना इतने वर्ष बाद भी कहाँ भूला है? जानते हो बात तो नहीं हुई पर मैंने प्रथम दृश्टया भद्रा के उस अनुभव को कविता में कैसे उकेरा था सुनिए -

जब देखा था उसे पहली झलक में

तो महाप्रभु से माँगा था यही वर

सच्चे मन से की थी यही याचना

कि स्वर्ग से उतरी इस दिव्यांगना के मन में

स्फुटित कर दो मेरे प्रति प्यार का कोई बीज.

पुस्तकालय से आगन्तुक रजिस्टर से उसके नाम की जानकारी ली. नाम का संयोग था - मैं प्राणेश और वह थी - प्राणा चतुर्वेदी.’

-‘फिर.’ प्रतीक ने पूछा.

-‘फिर क्या? मैंने उसी दिन उसके हृदय में भी अपने प्रति जगह बना लेने के उद्देश्य से पता नहीं इधर से उधर कितने चक्कर काट दिए जिस टेबल-चेयर पर वह बैठी थी. कभी मैं बाहर चला जाता कभी ठक-ठक-ठक करता फिर पुस्तकालय के अन्दर आ जाता. आपको मालूम ही तो है मैं किस तरह का छैला रहा हूँ जवानी में. पहले गृहस्थी, फिर वैरागी और कहाँ फिर प्रेमानुरागी. हा! हा! हा!’ हँसा वह.

-‘अजीब सी हरकतें करता रहा. वह थी कि उसकी झुकी नज़रें तनिक ऊपर न उठीं. लाजवंती भी नहीं थी. पर कुछ ख़ास थी. मुझ वेदान्त वैरागी के हृदय में उसने हलचल मचा दी थी. थोड़ा रूक कर फिर बोला - जानते हो उस दिन उसने फूलदार पीला सूट पहना था. छोटे भाई को साथ लेकर आई थी. भाई ने मुझे याद है हॉफ़ पैंट पहनी थी. मुझे भी सच लगा था कि मैं जिस लड़की के इन्तज़ार में था उस सुरबाला का प्रवेश हो गया है. मेरा कलेजा उस दिन उसे देखते बेतहाशा धड़क उठा था. ‘धुंड़क-धुड़क’ कलेजे का वह धड़कना आज भी जारी है. कुलीन ब्राह्मण की कन्या मुझे मेरे अनुकूल लगी. अपने माँ-बाप के अनेकों प्रस्ताव मंगनी को मैं ठुकरा चुका था, यह तो आप जानते ही हो. साधु बनना जीवन का उद्देश्य रहा. और अब प्रेमानुरागी होकर रह गया. प्रेम भी ऐसा किया जो उम्र भर तड़पाता रहा. जरा पंखा छोड़ देते. - इस बार की गर्मी भी तौबा है.’ दोनों भाई घर के बरामदे में कुर्सियां डाले बतिया रहे हैं. श्रीमती प्रतीक दो कप चाय देकर अन्दर के कमरे में वृद्ध सासु माँ के पास बैठकर चाय पीने लगती है. प्रतीक ने पंखा छोड़ते हुए कहा - ‘डलहौजी में गर्मी का यह हाल है तो गाँव गोपांचल में होते तो क्या बनता? इस बार धौलाधार में तो मई में भी खूब बर्फ़ गिरी थी. फिर भी जून का यह तीसरा हफ़्ता भट्ठी सा सुलगा है.’

-‘हो! हो! हो!’ करके चिल्लाया प्राणेश. - ‘देखो तोतों की उडार ने छा लिया लीची का पौधा. पकी लीचियां कितने स्वाद से चटक रहे हैं. है न भगवान की करामात. उड़ाओ इन्हें जितनी खा नहीं रहे उतनी कुतर-कुतर फैंक दीं.’ प्रतीक ने एक पत्थर उछाला ही था कि वे सब एक साथ टैं-टैं करके उड़ गए.

-‘इन्हें भगवान ने कितने सुंदर पंख दिए हैं.’ प्राणेश बोला - ‘मनमर्ज़ी से उड़ रहे हैं आकाश में. प्राणा भी उड़ गई किसी हंस या तोते के साथ नहीं किसी कबूतर के साथ. उसने अपने प्रेम के साथ न्याय नहीं किया. प्रेम सौदा तो नहीं. भगवान् ने मुझे पता नहीं किस जन्म की सज़ा दी कि मेरी टाँग और दायाँ बाजू ही मरोड़ कर रख दिया. लंगड़ाता रहूँ उम्र भर. कभी बैठता था इस तरह टाँग तोड़ कर घर में?’

-‘समय-समय का फेर है प्राणेश. समय घड़ी-घड़ी बदल रहा है. बदलना प्रकृति का अटल नियम है. हमें बस समय के साथ आगे बढ़ना है. चलते रहना है.’

-’चला जाए तब न. यह टाँग तो उसने पूरी तरह मरोड़ कर रख दी है. कभी ठीक भी होती है तो चल लेता हूँ. नहीं चलती तो चार डग भी चार कोस.’ थोड़ा उठकर उसने कुर्सी प्रतीक के मुँह की तरफ मोड़ते हुए कहा - ‘खैर जैसी भी आन पड़ी है वह तो गुजारनी ही होगी. मैं उसे हमेशा मिस चतुर्वेदी कह कर बुलाता था.’ ‘वह तुझे कैसे बुलाती थी?’ प्रतीक ने पूछा.

-‘मुझे नहीं मालूम. पर उसकी सहेलियों को कई बार यह कहते सुना था - प्राणा! तुम्हारे ‘बो’. तुम्हारे ‘बो’. वह भी बिदकते पूछती - ’कहाँ हैं?’ ‘कहाँ हैं?’ ‘ऐसे ही जैसे चकित-भ्रमित हिरणी हो. साईकिल पर सामने पड़ जाता तो कई बार लज्जित भी होती. और चेहरा लाल सुर्ख. वह मुझे ‘वेदान्ती’ जी भी कहा करती थी चूंकि उसे पता था कि मेरा टॉपिक-वेदान्त है. सामने से नहीं हमेशा पीठ पीछे से बोलती थी - अपनी सखी-सहेलियों के साथ.’

-‘चल छोड़ यह बता कि रिसेप्शन पार्टी में नीरजा तिवारी का क्यों कर शुक्रगुज़ार है तू? नीरजा तिवारी कौन थी?’

-‘नीरजा तिवारी संस्कृत विभाग के प्रोफेसर पंडित नित्यानंद के किसी दोस्त की लड़की थी. वह एम0ए0 द्वितीय वर्ष में थी. रिसेप्शन पार्टी की वही संयोजिका थी. संगीत, हिन्दी व संस्कृत के प्रथम वर्ष के लिए द्वितीय वर्ष के छात्रों ने इस पार्टी को आयोजित कर रखा था. हाल पूरी तरह खचाखच भरा हुआ था. नीरजा ने सबसे पहले मिस प्राणा चतुर्वेदी को सरस्वती वंदना के लिए बुलाया. सरस्वती वंदना के साथ-साथ उसने गीता के कुछ श्लोकों का सस्वर पाठ किया. राग-रागिनियों पर आधारित गीता के श्लोकों ने सबका मन मोह लिया. पूरी महफ़िल ही लूट ली थी मिस चतुर्वेदी ने. राग के मर्म को जानने के लिए उसने जरूर सुर की साधना की थी. उसने स्वर को इस क़दर साधा था कि वह उसे एक के बाद एक करके गा सकती थी. संगत उसकी बड़ी बहन संगीता दे रही थी. बहन उस हरे सूट को पहने थी जिसे प्राणा पहनती थी. तालियों की गड़गड़ाहट मेरे दिल में आज भी महसूस हो रही है.’ अन्दर से माँ आदतन कड़की - ‘प्रतीक तू क्यों इसे प्रश्रय देता है? इसका तो दिमाग फिर गया है. बार-बार उस लड़की को लेकर मर रहा है. इतना ही चाहता था उसे तो फट क्यों नहीं पड़ा तब. आज तक वह तेरे ही इन्तज़ार में बैठी है? शर्म नहीं आती तुझे. अपनी बड़ी भाभी और मेरे सामने इस नीच प्रसंग को छेड़ देता है. उठने-बैठने नहीं देता चैन से. तुझसे वह ब्याह करती तो सुख से रह पाती. भाग नहीं जाती छोड़कर. क्या खिलाता उसे? रोती बेचारी हाथ सिर देकर. और अब निगोड़ा अपनी यह सूरत और दशा भी नहीं देख रहा.’

-‘देखा भाई साहब! माँ के कान हमेशा हमारी तरफ़ लगे रहते हैं. माँ! तुझे क्या पड़ी रहती है हमारी बातों में दख़्ल देने की. हम रचना कर रहे हैं दोनों भाई एक साथ. तुम तो चाहती थी मुझे भी बाकी भाइयों जैसे ही खूँटे से बाँध देना अपनी पसंद की किसी जोरू के साथ. वह मुझे हरगिज पसंद नहीं था. वह विवाह-विवाह नहीं सिर्फ़ समझौता होता. सौदा होता, तज़ारत होती. बाकी भाइयों को मंजूर था मुझे तो नहीं. अगर मैंने चाहा तो सिर्फ़ एक को. मैं उनमें से नहीं जिसे जो परोस दिया वह खा लूं.’

-‘सिर फिर गया बुढ़ापे में तेरा मुआ.’ माँ उठ कर बैठ गई. बोली - ‘उसके लिए रो रहा है जो वर्षों से किसी और की हो गई है. बाल-बच्चेदार होगी. मैं कहती हूँ - अब भूल जा उसे. वह तेरी थी ही नहीं.’

प्राणेश सुनता तो ऊँचा है पर इस बार मां की तीखी टिप्पणी उसे साफ़-साफ़ सुनाई दे गई. लाठी टेंकता माँ के ठीक सामने डट कर बोलने लगा - ‘ऐसे बहुत उदाहरण हैं माँ जब कइयों ने 80 वर्श की उम्र से ऊपर भी शादी की है मैं तो अभी पैंसठ का हुआ हूँ. मैं तो सच्चे प्यार की बात कर रहा हूँ. शेक्सपीयर भी कह गया है ‘ट्रू लव’ यानि सच्चा प्यार कम नहीं होता उम्र बढ़ने के साथ बढ़ता ही जाता है. इसका बढ़ना पूर्णमाशी के चाँद की तरह बढ़ना है. सच्चा प्यार किया है माँ मैंने प्राणा चतुर्वेदी से. उसने नहीं किया तो वह जाने. मुझे भाई को जो बताना है उसे बताने दे. हमेशा मिर्च-मसाला मत ‘बरूरा’ कर. इतना बोलकर फिर बरामदे में कुर्सी पर आ टिकता है. कहता है खुद से - ओहो! क्या था क्या बना के रख दिया प्रभो! तेरी तू जान. भाई साहब! मैं कह रहा था नीरजा ने उसके बाद एकदम मंच पर कुछ सुनाने के लिए मुझे बुला लिया आवाज़ देकर - अब प्राणेश कुछ सुनाने और कहने वाले हैं. मैं भौंचक्क था. मिस चतुर्वेदी की प्रस्तुति के एकदम बाद मुझे बुला लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था. मैं भी अपने समय का धाकड़ था. मौका संभालना जानता था. यह तो मेरे पहले प्यार का सवाल था. बोला - अभी-अभी आपने मिस प्राणा चतुर्वेदी से मधुर श्लोकोच्चारण सुना. खूब था. हाल में तालियों की गड़गड़ाहट एक बार फिर हुई. अपने बारे में इतना कहना है - एम0ए0 अंग्रेजी में विश्वविद्यालय में प्रथम. एम0ए0 ओरिएंटल स्टडीज़ में भी प्रथम. रिसर्च फैलोशिप, फ्रेंच, जर्मन में डिप्लोमा प्रथम श्रेणी में. कविता की एक पुस्तक प्रकाशित. दूसरी छपने की प्रक्रिया में. एक कविता आपके सम्मुख रख रहा हूँ. इतना कहकर मैंने यह कविता पढ़ी जो मुखज़वानी याद थी. शुरूआती बोल थे -

मैं अन्धा था

सदियों से प्रकाश पुंज से घिरा

ज्ञान के अनन्त स्रोत में घूमता

सत्य की ज्योति से जगमगाते

इस जग में, मैं ठूंठ अन्धा

अन्धत्व में भी

दिव्य-चक्षु के भ्रम में रहा.

-कविता के अंतिम शब्द भी नहीं भूले वे इस तरह से थे :

अब मैं ‘सन ऑफ मैन’ से

‘सन ऑफ़ गॉड’ हूँ

नहीं-नहीं

मैं तो स्वयं में हूँ शुद्ध आत्म-तत्व

मेरे हाथ में स्वर्ग की कुंजी है

पर, मैं स्वर्ग की इच्छा से उदासीन

एक सम, शान्त, शाश्वत लहर में

रहता हूँ आत्मसात!’

-‘इसके बाद मिस चतुर्वेदी ने तुम्हें घास डाला था ...?’ प्रतीक ने छेड़ा तो प्राणेश ने कहा - ‘आपने प्यार किया होता तब न भाई साहब! प्राइवेट तौर पर पढ़ना और कहीं रैगुलर कॉलेज या विश्विद्यालय में वह तो कुछ और बात है.’ यह कह कर वह एक बारगी ज़ोर से हँस दिया. प्रतीक को लगा उसने छोटे भाई की प्रेम पीड़ा को गौर से सुनकर कुछ तो हल्का किया है.

-‘फिर वही हुआ होगा - तुमने उसे किसी न किसी बहाने अपने पास बैठाने, गप्प मारने, चाय पीने-पिलाने के रास्ते तलाशे होंगे. यही नहीं गुलमर्ग, डल झील, रोज़ गार्डन, पंचमुखी हनुमान मंदिर घूमा-घुमाया होगा अकेले भी और विभाग के छात्र-छात्राओं के साथ सामूहिक भी. हाऊस बोट/शिकारों में घूमने का लुत्फ़ उठाया होगा.’ प्रतीक ने एक किस्म़ से कथा को आगे के क्रम तक ले जाने के लिए ‘हूणी‘-हुँकारा भरा.

प्राणेश बोला - ‘सुनाने को तो बहुत कुछ है. यह किस्सा भी रामायण या महाभारत के किसी प्रसंग से कम रोचक तो नहीं. मैं उसका इतना दीवाना हो गया था कि उसे किसी और से बात करते, गप्प मारते या कंटीन जाते देखते ही जलभुन उठता था.’

‘क्या वह भी तुम्हें देखते पहली नज़र में दिल दे बैठी होगी?’ प्रतीक ने रुख बदलते पूछा. प्राणेश कहता है - ‘शुरू-शुरू में लगा वह गोपीनाथ के प्रति आकर्षित थी. पहली दफ़ा मैंने उसे गोपीनाथ के बेंच पर बैठे देखा. किताब में से भी कुछ उससे पूछ रही थी. वह भी तो प्यार की तलाश में थी. मैं तो कहूँगा हर कोई प्यार की खोज में तो होता है. मिलता तो किसी नसीब वाले को है मैं ऐसा मानता हूँ. गोपीनाथ की दो महीने के बीच ही शादी हो गई. मुझे तो लगता था प्राणा मेरी है और सिर्फ़ मेरी है. गोपीनाथ ने तो एक बार कहा था मेरे साथ -‘अगर यह जम्मू या पंजाब विश्वविद्यालय में होती प्राणा तो मैं इसे उठा के ले जाता. यहाँ कश्मीर में ‘कन्सर्वेटिव एण्ड ट्रेडीशनल’ माहौल है.’ - ‘तेरा कोई गहरा दोस्त भी रहा क्या?’ प्रतीक ने पूछा. -‘नहीं, कोई पक्का दोस्त नहीं था. रिसर्च स्कॉलर तो बहुत थे. जानते हो एक बार छोटेलाल और रघुनंदन की तो पिटाई भी कर डाली थी. रघुनंदन को छेड़ने पर हॉस्टल के बॉथरूम में नहाते देखकर तेज़ नाखूनों से चेहरा बिगाड़ कर रख दिया. छोटेलाल भी प्राणा पर अपने तरीके से डोरे डालने में मशगूल था वह भी मुझे ‘वेदान्ती-वेदान्ती’ बुला कर छेड़ता. दोनों प्राणा को लेकर मुझ पर फब्तियाँ कसते तंज मारते-भाभी कहाँ है? कहते, वह अपने आपको छटा हुआ बदमाश समझता. रघुनंदन की पिटाई के दूसरे दिन पुस्तकालय आने पर मैंने छोटेलाल को धुन दिया. वह चपड़ासी के साथ बुकशैल्फ खुलवा कर पुस्तकें निकालने वाला था कि मैंने उसे पकड़ कर उसका मुंह चाटना-चूमना शुरू कर दिया यह बोलकर - ‘सौह्णेयों कितने चंगे ओ तुसीं.’ वह पंजाबी था. मुझे धकेलता हुआ बोला - ‘होए, की कर रेह्या ऐं? होश च तां है जां नेंही?’ वह कुछ समझ पाता कि मैंने उस पर ताबड़तोड़ घूँसे-मुक्के बरसाने शुरू कर दिए. यह बोलकर - ‘रब्ब नेढ़े कि घसुन्न.’ मतलब पुलिस की थर्ड डिग्री पनिशमेंट. लहुलुहान हुए नाक-मुँह से उसे चपड़ासी ने बचाया.’

‘पुलिस केस लगा होगा फिर?’ प्रतीक ने पूछा.

प्राणेश अपनी किस्म से हँसा और बोला, ‘पुलिस केस तो नहीं बना पर डायरेक्टर और पुस्तकालाध्यक्ष के पास पेशी पड़ी. पेशी पर जा रहा था तो सामने मिस चतुर्वेदी सहेलियों के साथ बैठी कनखियों से मुस्करा रही थी.’

-‘ऐक्षन भी हुआ तुझ पर क्या?’

-‘नहीं ब्रदर ले देकर बात डायरेक्टर और पुस्तकालयाध्यक्ष ने खत्म कर दी. तब जब मैंने दलील दी -‘सर! मैं तीन-चार बार आप से कह चुका था कि ये दोनों छोकरे मुझे बार-बार छेड़ते हैं. आपने इन्हें रोका नहीं. अब मैंने खुद पाठ सिखा दिया तो मुझसे सफ़ाई कैसी?’

-‘अच्छा!’ प्रतीक के मुख से निकला. ‘पाँच-सात महीनों में तुमने मिस चतुर्वेदी को पूरी तरह अपने प्रेमपाशी चंगुल में जकड़ लिया होगा प्राणेश?’ वह नकारे दाएँ हाथ को लहराते हुए बोला - ‘मैंने इन्डीकेशन पर इन्डीकेशन देने शुरू कर दिए. प्रेम में बहुत कुछ सीखा-सिखाया भी नहीं होता. यह तो दिल में फ़ोन की घंटी बजने सदृश है.’ बीच में मां नाराज़ होने लगी तो प्राणेश पलटा - ‘मां तू क्या समझे प्यार-व्यार. सच्चा प्यार परवान नहीं चढ़ता, वह सुलगता रहता है.’ मां कुर्सी से उठकर बाथरूम चली गई. प्राणेश ने आगे बताया -‘एक बार लाइब्रेरी में इकट्ठा बैठे थे. वह जैनेन्द्र की कहानियों की पुस्तक पढ़ रही थी. मैं पूछ बैठा - मिस चतुर्वेदी! किन लेखकों को अधिक पढ़ा है? यह उससे कोई दूसरी-तीसरी मुलाकात रही होगी.’

प्राणा ने बताया - ‘जी मुझे गुलेरी, प्रेमचंद, जैनेन्द्र, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, उपेन्द्रनाथ अष्क और मोहन राकेश पसंद हैं.’

-‘प्रेम चंद का उपन्यास ‘निर्मला’ भी पढ़ा है क्या?’

तब बोली थी एकदम - ‘हाँ जी, उसकी तो क्या बात है? प्रेमचंद ने नारी जीवन का पूरा मनोविज्ञान ही खोलकर रख दिया है.’

मैंने बात फिर आगे बढ़ाते जोड़ा - ‘मुझे तो जैनेन्द्र से इलाचंद जोशी पाठक की ज्यादा नब्ज़ पहचानने वाले कथाकार प्रतीत होते हैं. तुम्हारा क्या ख्याल है मिस चतुर्वेदी?’ तो बोली -‘हां जी, मैंने जोशी जी का ‘जहाज का पंछी’ पढ़ा है. लाजवाब उपन्यास है.’ ‘क्या उनका ‘सन्यासी’ भी पढ़ा?’

वह बोली थी -‘क्या खूब का उपन्यास’ है. उसने तो मेरे कलेजे में घंटियां बजा दी थीं, ‘एसथाटिकल सैंस’ का उपन्यास है.’

एक अन्य विवरण पेश करते प्राणेश ने प्रतीक से यह भी बताया - ‘ब्रदर! सुनो, एक दिन मेरून कलर जम्पर पहने आई थी. मेरी तरफ़ पीठ करके बैठ गई. मैंने गौर से देखा तो जम्पर की पीठ पर सामान्य से लम्बी जिप लगी थी. काले घुंघराले बाल लम्बे तो नहीं पर मुलायम बहुत थे. बेंच की अगली सीट पर होती तो बालों की खुशबू लेने के बहाने अपने नथुनों को बराबर की सीध से गढ़ा देता.’

सुबह की सैर से लौटा था प्रतीक एक दिन. प्राणेश से पूछता है -‘आज कितने चक्कर आँगन के लगा चुका यह बता?’ उसने यह कहा नहीं सुना और बोलने लगा - ‘एक और बात याद आई है प्राणा की. ब्रदर सुनो!’ प्रतीक ने बिगड़ते हुए कहा - ‘प्राणेश, तुझे कहे देता हूँ किसी भी डॉक्टर और हकीम के पास तेरे लकवा मारी दाएँ पक्ष की टाँग और बाँह का इलाज़ नहीं. इसे तूं खुद ऐक्सरसाईज़ से ठीक कर सकता है. चले तू तब न.’ प्राणेश बोला थोड़ा हकलाते हुए - ‘भाई साहब! कौन है कमबख्त जो चलना नहीं चाहता. अजीब किस्म का रोग है यह अधरंग, पैर उठता ही नहीं. धरती पैर को चुम्बक की तरह खींचती है. कोई नहीं, ज़रूर चलूंगा दोपहर में नहीं तो शाम को. प्राणा खेलकूद में भी अव्वल थी. हाई जम्प में तो बिजली सी फुर्ती थी.’ माँ ने सुना तो फिर टोका प्राणेश को -‘फिर वही पुराना राग. प्रतीक कम से कम तूं तो इसे ‘शै’ मत दे. जब भी उस ‘मूई’ की यह बात छेड़ता है तो तूं वहाँ से उठ जाया कर.’ प्राणेश को इस बार पता नहीं कैसे सुनाई दे गया बोला, - ‘माँ! तू क्या समझे यह साहित्य की बात है. मैं इमॉरटल स्टोरी दे रहा हूँ भाई को. ये क्षण इमॉरटल हैं.’ माँ के चुप हो जाने पर कहना जारी रखता है - ‘एक बार विश्वविद्यालय के म्यूज़ियम में गई तो उसकी बातें सुनकर पता है इन्चार्ज़ ने क्या कहा - यह लड़की तो कमाल की है और लड़कियों से अलग चाल-ढाल की. इसका सब डिफरैंट है. पुरानी मूर्तियां देखकर टिप्पणी करती है ‘गीत गाया पत्थरों ने’. मतलब यह कि पुरानी मूर्ति कला को वर्तमान की फिल्म संदर्भ से जोड़ दिया.’ प्रतीक किचन से चाय ले आया. थमाता हुआ बोला - ‘वेदान्ती जी! पहले चाय पियो.’ सुनते हँसा. बोला - ‘सुनो एक दिन मोटी-मोटी दर्जन किताबें उठाई पुस्तकालय से निकलते मिल गई. बोली - आप मुझे क्या वेद पर गाइड कर देंगे. मैं यह कह कर मुकर गया यह मेरा विशय नहीं. उसने तो इकट्ठे बैठने का मौका दिया और मैं लूज़ कर गया. पर दूसरे दिन गलती सुधार ली. एम0ए0 प्रथम वर्श में विश्वविद्यालय में प्रथम आने पर चाय पीने की डिमांड कर दी और वह झट मान गई. कंटीन को जाते हुए ‘ऐसे लग रहा था ज्यों राजहँस और राजहँसिनी का जोड़ा हो. कंटीन तक ले जाते हुए मैंने अपने और उसके पूरे परिवार की जानकारी सांझा कर ली. उसने बताया-उसके पिता सरकारी कॉलेज के प्रोफेसर हैं जिन्हें साहित्य, संगीत और संस्कृति से बेहद प्यार है.’

‘इसका मतलब तो यह हुआ कि तू सरकारी बजीफ़ा लेकर घर से दूर बैठा असली रिसर्च भूल कर प्रेम की रिसर्च में पड़ गया था. आज वर्षों बाद इस सच को उगल रहा है. तभी तेरी रिसर्च पूरी नहीं हुई क्यों? इस बार फिर प्राणेश की हँसी निकल गई. प्रतीक ने मोबाइल से फेसबुक खोलते हुए प्राणेश को खबर दी - ‘कोई बीस कमेंट्स आए हैं तेरी कविता पर.’

-‘मुझे भी भाई तूने चस्का लगा दिया. खूब है यह फेसबुक. देस में ही क्या सात समुद्र पार बैठा भी कोई लुत्फ़ उठा ले. मेरे पास भी पहले चार-चार सैट थे. पर ईश्वर ने अब ऐसा कर दिया ‘हीण’ मैं क्या करूं?’ वह यह कहकर भावुक हो उठा. कहीं रोना शुरू न कर दे इस आशय से प्रतीक ने अकथ कहानी प्रेम की एक छूटती तार याद दिलाते कहा, ‘वेदान्ती जी! प्राणा की सहेली कृष्णा ने क्या कहा था - ‘तुम इसे अपने साथ चाय पिलाने ले कैसे गए थे? हम हैरान हैं यह आपके साथ चली कैसे आई? कृष्णा ने बताया, वह कृष्णा को सिस्टर कहकर पुकारता था बोला - ‘सिस्टर यह मुझे प्यार करती है इसलिए उठ आई.’ प्रतीक सुनकर मुस्कराया - ‘हैं!’ प्राणेश ने आगे बताया - ‘हाँ ब्रदर! यह कोई चौथी पाँचवीं बार की मीटिंग की बात थी. मैं चाहता था प्राणा का नाम नंगा हो जाए. सब कहें कि इसने क्या चूजा लड़की पटा ली है. हुआ भी वही. छोटेलाल और गोपीनाथ ही क्या और भी बहुत छोकरे जल कर कोयले थे. प्राणा की सहेलियां उसे यह कह कर छेड़ रही थीं - वेदान्ती जी ने प्राणा को क्या नकेल दिया, नकेल नहीं पर कील दिया कि अब कोई चाह कर भी उसकी तरफ़ आँख उठाकर देखने की हिम्मत न करे.’ थोड़ा गला खँखारता है और फिर बोला प्राणेश, ‘मेरे शुद्ध, सनातनी और वैश्णव विचारों की प्राणा भी खूब प्रशंसक थी. एक दफ़ा उसे चाय पिलाने का प्रस्ताव यों कर बैठा - प्राणा! आज एक बात कहने जा रहा हूँ. प्लीज़ इन्कार मत करना. वह इस पर बिदकी - मुझे क्या पता आप क्या कहने वाले हैं? मैंने उसका शंका हटाते हुए कहा - एक कप चाय मैं तुम्हें पिलाना चाहता हूँ. वह तत्काल मान गई.’ उधर से श्रीमती प्रतीक दोनों भाइयों को चाय ले आई. -‘प्राणा चतुर्वेदी का प्रसंग जारी हैं वह बोली -‘भाई जी, भावी देवरानी इतनी ही दिल में बस गई थी तो ले आते न उसे. कुछ हाथ तो बँटाती और इस हालत में बुढ़ापे का सहारा भी बनती. अब टेर छेड़ने का क्या फ़ायदा?’ इतना कह कर वह चली गई. प्रतीक ने पूछा -‘प्राणा के पिता से मुलाकात या मुलाकतें कब कैसे हुईं?’

-‘प्राणा चतुर्वेदी के पिता प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद चतुर्वेदी को पहली बार सनातन धर्म कॉलेज़ श्रीनगर में संस्कृत और हिन्दी के छात्रों को संयुक्त रूप से व्याख्यान देते देखा था. भानु प्रताप और गोपीनाथ ले गऐ थे मुझको. यह जानकर कि प्राणा के पिता हैं कलेज़ा तीव्र गति से धक्-धक् धड़क उठा था. बाहर निकल कर सिगरेट पर सिगरेट फूँक गया.’ प्रतीक थोड़ा उठ कर घर का कार्य समेटना चाहता था पर उसने कसम देकर रोक लिया. पता नहीं प्राणेश सब उगलने पर क्यों उतारू था. सच की पर्तें खुलती जा रही थीं एक-एक करके. -‘दूसरी बार विश्वविद्यालय में उसे एक कविता और श्लोकोच्चारण प्रतियोगिता का निर्णायक बनाया गया था तब. प्राणा की फाइनल फेयर पार्टी में उसके पिता चतुर्वेदी के साथ उसकी तीन बहनें और दो भाई भी थे. इस बार आमने-सामने बात भी हुई. हाथ जोड़कर मेरे प्रणाम करते बोल दिया - ‘बस-बस जी! मैं आपकी भेजी पुस्तक पर बहुत जल्दी अपनी राय लिख कर देने वाला हूँ.’ ‘कहानी में कई मोड़ हैं भाई साहब. पहले कविता की पोथी उनकी बिना सम्मति लिखे मंगवा ली, उनकी कन्या के हाथ से. मेरे पूछने पर कि मिस चतुर्वेदी आपने इसमें से कविताएँ पढ़ीं? बोली थी वह - ‘बीच-बीच में पढ़ी थीं. मन को छूती हैं. त्यों मैं कविताएँ कम पढ़ती हूँ. कहानियाँ और उपन्यास मेरे फेवरेट्स हैं. कविता पढ़ते ही कितने लोग हैं?’

एक दफ़ा प्रोफेसर चतुर्वेदी से फिर पुस्तकालय के बाहर मिला तो वह किसी सहयोगी प्रोफेसर के साथ था. सीबीएसई की परीक्षा में उसका बेटा सर्वप्रथम आया था. अख़बार में उसका फ़ोटो छपा था इन्ट्रव्यू भी. वह बड़ा होकर आई0ए0एस0 करना चाहता था. बातों के सिलसिले में मैंने बालक को कह दिया तू फिर जीवन में कोई बड़ा धमाका नहीं कर सकता. राजनेताओं के नीचे काम करना पड़ेगा. तब प्रो0 चतुर्वेदी को मेरी बात अच्छी न लगी और बिगड़ कर बोला - कई बार धमाका करने वाले को धमाका ले फूटता है. मुझे उसकी बात बहुत बुरी तो लगी पर उसकी कन्या से मैं प्यार करता था तो सुन गया. प्राणा ने बताया था - उसके इसी भाई की समाधि भी लगती है और तुरीयावस्था में चला जाता है. चलो छोड़ो भाई साहब प्रोफेसर चतुर्वेदी की बात. यह तो अपनी लड़की के लिए कोई खाता-कमाता अफ़सर युवक ढूंढ रहा था. मैं समझा कवि हृदय है, सुहृदय है, प्रेम का पुजारी होगा. पर वह ऐसा नहीं था. वह तो पिलपिला कवि बाप था. एम0ए0 करने के बाद प्राणा पी-एच.डी करने लगी तो मैं जम्मू में डिप्लोमा योग-वेदान्त करने चला गया. विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आया. जानबूझ कर या अपने प्रेम की थाह पाने के उद्देश्य से मैंने अपनी वेषभूशा बदल ली और अपने बाल रूंडमुँड कर मुंडा लिए. एक बार पुस्तकालय के लॉन में मैंने उससे कहा था - मिस चतुर्वेदी मुझे महात्मा बुद्ध (सिद्धार्थ) का यषोधरा को बिना बताए संन्यास लेना और घर से भाग जाना बड़ा गलत निर्णय लगता है. मैंने यह भी कहा - अगर साधु-सन्यासी ही बनने का इरादा था तो शादी नहीं करनी चाहिए थी. शादी कर ही ली तो पुत्र क्यों जना? पुत्र को जन्म दिया तो पिता के कर्त्तव्य से क्यों विमुख हुए? जवाब तो उसने नहीं दिया पर अर्थपूर्ण दृष्टि से अपनी सहेली को निहारती रही और मन्द-मन्द मुस्कराती भी. मैं अप्रत्यक्ष से उसे यह बता गया कि अगर मैं उससे शादी करूंगा तो धोखा नहीं दूँगा. उसका होकर ही रहूँगा. अपने प्यार का और क्या सबूत उसे देता? मूल संस्कार मेरे वैरागी के रहे पर पूरा सन्यासी भी न जिया.’

प्रतीक ने पूछा - ‘क्या वस्त्र गेरूए पहन लिए थे?’

’नहीं ब्रदर ऐसा नहीं था. धुली सफ़ेद धोती और तन पर सफ़ेद बनियान थी. मैं जम्मू से सीधे श्रीनगर विश्वविद्यालय में पहुँच गया. मुझे वही रघुनंदन कंटीन में मिल गया जिसे मैं पीट चुका था. मुझे देखकर मुस्कराता बोला -‘वेदान्ती जी, पुस्तकालय से आ रहा हूँ. आपकी ‘बो’ वहीं हैं. कई दिनों से उसे रोज़ अकेला बैठा देखता रहा हूँ. कृशकाय हो गई है. इतने दिन बाद लौटे हो. एक बार उसके पास हो तो आओ.’

‘उसे इन्तज़ार होगा और तुम्हें बेसब्री. क्यों?’ प्रतीक ने पूछा तो प्राणेश बोला - ‘मैं भी बिना देर किए पलक झपकते लाइब्रेरी पहुंच गया. वह पहले की तरह किताबों में खोई हुई थी. साथ में उसकी नई फ्रेंड थी जिसे पहले नहीं देखा था. पदचाप सुनकर किताबों से उसने सिर ऊपर उठाया ही था कि मैंने तपाक से पूछ लिया - मिस चतुर्वेदी मुझे पहचाना क्या? वह तुनक कर बोली - पहचानना क्यों नहीं. आक्रोश और प्रेम के मिले जुले भाव उसके चेहरे पर आते-जाते रहे. वह बैठी हुई थी मैं खड़ा. मैं चाहता था मिस चतुर्वेदी मुझे बैठने का आग्रह करे. पूछे, मैंने यह रूंडमुंड आखिर क्यों करा लिया?’ प्रतीक ने देखा प्राणेश ने आँखें बन्द करके आँखों में आए आँसुओं को रोक लिया. फिर रूककर बोला-‘उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा. मैंने ही पूछा - ‘मिस चतुर्वेदी जो कहानियों की पुस्तकें डिप्लोमा कोर्स पर जाने से पहले आपके पिता को पढ़ने को भेजी थीं उन्हें दे दिया था क्या?’

वह बोली - ‘हाँ जी. उन्होंने पढ़ी थीं और मैंने भी.’

-‘तो मैं उन पर आज नारी मनोविज्ञान पर आपकी राय लेना चाहता हूँ. कुछ ज्वलंत प्रश्नों पर आपकी बेबाक सम्मति भी.’

वह बोली -‘आज तो जी मेरे पास टाईम नहीं. हाँ, कल आपके साथ बैठकर इस विषय पर अथवा इसके अलावा विषयों पर बात कर सकती हूँ.’ उसका इतना सा और रूखा सा जवाब पाकर मैं पुस्तकालय के बाहर आ गया. फिर मैं तब से अब तक कभी लौटकर न श्रीनगर गया न विश्वविद्यालय और न ही पुस्तकालय में. मेरे साथ और मिस चतुर्वेदी के साथ पढ़ने वाले सहयोगी बताते रहे बहुत दिन तक वह कंटीन में और पुस्तकालय में बिना नागा दो महीने आती रही. मैं था अपनी मर्ज़ी का मालिक कि फिर पलट कर पता तक नहीं किया.’

‘मेरे वेदान्ती भाई यह बता - ज्वलंत प्रश्न या प्रस्ताव क्या थे जिन पर उसकी सम्मति चाहता था.’ प्रतीक ने जानने की इच्छा ज़ाहिर की. प्राणेश ने बताया -‘यही कि वह मुझे एक तपस्वी और वेदान्ती के रूप में पसंद करेगी?’ प्रतीक ने छूटते कहा -‘वह एक रूंडमुंड और बिना नौकरी के तुझ जैसे मनमर्ज़ी के मालिक को आखिर क्यों पसंद करती?’

-‘भाई साहब! यह बात नहीं थी. प्यार कोई करता हो तो उसे अपना प्रिय हर हालत में पसंद ही रहता है. अगर वह कहती तो कम से कम प्रोफेसर तो उसी विश्वविद्यालय में लग सकता था. कोई गया गुज़रा स्कॉलर नहीं था. लेखक और कवि भी था. मुझसे नालायक लोग वहाँ प्रोफेसर हो गए तो मैं उसके लिए कुछ भी बन सकता था.’

प्रतीक बोला -‘कहीं ऐसा तो नहीं था जैसे उर्वषी ने पुरुर्रवा से वचन लिया था कि वह उसके सामने नंगे बदन कभी नहीं आएगा. वह भूल गया और उर्वषी उसे छोड़कर दिव्यलोक चली गई.’

प्राणेश बोला - ‘हो भी सकता है.. उसे मेरे रूंडमुंड स्वरूप पर यकायक गुस्सा आया हो. मैं उसे यही समझाने वाला था - मैं सारी उम्र इस रूप में रहने वाला नहीं. चोले बदलता-उतारता रहा हूँ. वह मुझसे बात करती, सफाई लेती तो यही बताने वाला था - भद्रे! षोक भूल जा. तेरी सोच में ही बाल उड़ रहे थे. घने बाल उगाने के मोह में, तुझे पाने, पसंद करने के लिए ही भद्र यानि रूंडमुंड हुआ हूँ. वास्तव में मैं तुझे ही प्यार करता हूँ. प्यार त्याग माँगता है समर्पण भी. जीवन में कुछ पाने के लिए हर्मन हीस के ‘सिद्धार्थ’ ने कहा था - ‘आई कैन ’वेट’, आई कैन फॉस्ट, आई कैन थिंक.’

आप जानते ही हैं हमारे एक राजनेता की पत्नी ने ‘वेट’ किया और अपनी कोख तक सुखा ली यह सुनने में कि वह उसकी पत्नी है. और आज वह खुश है कि उसके पति ने देश का प्रथम नागरिक होकर उसे पत्नी का अधिकार तो दिया. छोड़िए यह बात उसने इन्तज़ार नहीं किया. मैं हूँ जो पैंसठ का होकर भी उसके सच्चे प्यार में इन्तज़ार ही तो कर रहा हूँ.’ आँखें पोंछते फिर बोला - ‘उसका बाप भी कम कसूरवार नहीं. उसे मैं संकेत पर संकेत पहुँचाता रहा कि वेदान्ती उसकी कन्या से प्यार करता है. वह सब कुछ जानता हुआ भी मौन हो गया. डिप्टी क्लैक्टर तो ढूँढ दिया पर सच्चा प्यार तो नहीं पाने दिया उसे. हाँ, एक बात कहे देता हूँ अगर मेरा प्यार सच्चा प्यार है तो वह आज भी सुख से नहीं होगी. सुख में होकर भी एक टीस अन्दर ही अन्दर हृदय को काट रही होगी. लोकगीत ने भी इसी सच को वाणी दी है -

खसम मरे तां झूठी-मूठी रोन्नी ऐं

यार मरे तां किह्यां रोणा ओ रेसो गद्दियाँ दीए.

चढ़ी बो चम्बे जो जाणा ओ रेसो गद्दियाँ दीए..

प्रतीक के दोस्त इस बीच में आ गए. वह उठा यह कहते -‘प्राणेश इनसे बात करके मैं फिर आया.’ उन दोस्तों के जाने पर. प्राणेश फिर उसे बरामदे में बुला कर बोला - ‘अब मैं यह टॉपिक भी बन्द करने वाला हूँ. यह बता कर - जब मैं रिसर्च बीच में छोड़कर एक धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा संचालित एक देव स्थान का कुछ समय के लिए मोतमिन बन गया था. ठीक एक दिन प्राणा चतुर्वेदी के पिता प्रो0 अयोध्या प्रसाद चतुर्वेदी ने उसकी शादी का कार्ड भेजकर मुझे आश्चर्यचकित कर दिया. कार्ड देखते ही मैं अपना आपा खो बैठा. सिगरेट की कोई चार डिब्बियाँ फूँक गया. पानी के कई गिलास गटक गया. कर्मचारियों को कमबख्त, धूर्त, लम्पट और न जाने क्या-क्या गंदी गालियां बक गया. यही नहीं तत्काल उस मंदिर के मोतमिम के पद से भी त्यागपत्र दे दिया. मेरे जीवन का रस ही चला गया तो वह मान-प्रतिष्ठा और पद के क्या मायने थे? ट्रस्ट के पैड पेपर पर से उसके पिता को कुछ इस तरह से लिखकर भेजा - प्रोफेसर साहब! आपका भेजा निमंत्रण पत्र मिला. ईश्वर आपकी पुत्री को अतुल मान-प्रतिष्ठा व सांसारिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करे. इसी मंगल कामना के साथ - प्राणेश.’

‘फिर.’ प्रतीक ने आखिरी बार पूछा.

प्राणेश बोला - ‘फिर क्या, वही हुआ वह बार-बार सम्मुख प्रकट हो जाती है. न दिन में चैन न रात में सुख. पिता-पुत्री दोनों द्रोही हैं. सच्चा प्यार भी कभी पूरा हुआ भाई साहब? नहीं. प्रेमी युगयुगों से तड़पते आए हैं. मुझे यकीन है प्राणा भी सुखी नहीं होगी. मेरा ‘ट्रू लव’ तो मुझे लगता है मेरे दम निकलने के साथ ही खत्म होगा. उसका वह जाने.’ प्राणेश अन्दर गया और उस पत्रिका को उठाकर ले आया जिसमें प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद चतुर्वेदी को संगीत और साहित्य के क्षेत्र में मिले 5 लाख रुपये की ख़बर फोटो सहित छपी थी. प्रोफेसर चतुर्वेदी की उसके साथ एक कहानी भी प्रकाशित थी जिसमें उसका नया पता और फोन नम्बर दिया था. इससे पता चला कि उसका पूरा परिवार अब बंगलौर में रह रहा है. बोला - ‘लगाओ न फोन भाई साहब! आप बधाई दो. आप तो उससे मिल चुके हैं. वह आपको अच्छी तरह से जानता है. मेरे लिए तो वह पिलपिला कवि ही रहेगा भले उसे नोबेल पुरस्कार ही क्यों न मिले और वह ..... आगे उसका गला रूंध गया था.

 

प्रत्यूष गुलेरी

-कीर्ति कुसम, सरस्वती नगर, पो0 दाड़ी-176057 धर्मषाला (हि0प्र0) मो0 : 09418121253

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