बहुत छोटी उम्र में उसे बड़ी समझ आ गई।
लैहणू हलवाई का बिगड़ा हुआ छोकरा जिद्द करने लगा, वह अपना मिठाई का पुश्तैनी धंधा छोड़ नामी लेखक बनेगा। यूं तो उसके दादा भी आशूकवि थे। मिठाई तौलती बार तलत महमूद की गाई ग़ज़ल ‘‘जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये’’ गाते हुए अपनी शायरी कर बैठते ‘‘तलते हैं जिसके लिए, मीठे मीठे गुड़ के पूए ; ढूंढ लाया हूं वही, बेसन मैं तेरे लिए’’। शायद दादा की ही देन रही होगी कि पोता भी किसी नवयौवना को जलेबियां तौलते हुए बोल उठता :‘‘पैसे अपने बाप के दिए आज रहने दे, न जाने जिं़दगी की किस गली में शाम हो जाए।’’
बाप लैहणू हलवाई ने लौंडे को बिगड़ते जान सीख दी :‘‘पुत्तर! इस कविता बबिता में क्या रक्खा है। अपना बिजनेस बढ़ा। देख बच्चा! रामपियारे ने मिठाई बेच कर ही सौ एकड़ रकबे में खुद की यूनिवर्सिटी खोल ली है। बड़े बड़े प्राफेसर लोग उसके द्वारे हाथ बान्धे खड़े रहते हैं। तू भी बड़ा बन, अपना काम बढ़ा। जब बड़ा हो जाएगा तो कोई बड़ी अख़बार, रंगीन पत्रिका चला लेना या छापाखाना ही खोल लेना। ये बड़े बड़े लखारी तेरे द्वारे हाथ जोड़े खड़े रहेंगे। इनसे अपने नाम से भी जो मर्जी लिखवा लेना मूरखा।’’
वैसे भैरवप्रसाद था कुशाग्रबुद्धि। बहुत से कुशाग्रबुद्धि और तेज़दिमाग़ पढ़ने में अच्छे नहीं होते। उनका दिमाग़ पढ़ाई में न रम कर कहीं और ही चला रहता है। बहुत से अपढ़ लोग देश के धनाढ्यों की सूची में शामिल हैं, कईयों ने मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय खोल रखे हैं। संयोग से लैणहू ने बेटे का नाम भी बड़ा भारी और लेखक वाला रखा था। मिठाई की दूकान में बैठते हुए और शेरोशायरी करते हुए किसी तरह मैट्रिक कर ली। मोबाइल तो चौथी में ही ले लिया था, कॉलेज में दाखिला लेते ही लेप टॉप भी ले लिया और सिगरेट भांग और बीयर को छोड़, फेसबुक का चस्का पाल लिया। बस लगा धड़ाधड़ फेसबुकिया शेयर और कविताएं लिखने। शुरू में उधारी से काम चलाया। एक लाइन किसी की तो दूसरी किसी की। कभी पूरी की पूरी ही उतार ली। किसी को पता नहीं चलता। ग़ज़लें तो देखने में एक सी ही लगती हें जब तक ध्यान से दो चार बार पढ़ न लो। लाइक पर लाइक आने लगे। वाह! वाह!! होने लगी। ससुरे ने पेन हाथ में लिए फोटो भी ऐसा लगाया कि देखते ही बनता था। साथ में लिखा ‘‘कवि भैरव’’।
फेसबुक पर वाहवाही लूटते लूटते ऐसे ही मन में ख्याल आया क्यों न मैं खुद एक बड़ा कवि और लेखक बन जाऊं! साला है क्या इसमें! बी0ए0 के दूसरे साल में ही उसके साथ लिखने वालों ने अपनी किताबें तक छपवा लीं। ...........तो मेरी क्यूं नहीं!
क्यों न मैं भी साल का सब से अच्छा कवि बनूं साला! क्यों न मेरी किताब साल की सर्वश्रेष्ठ किताब बने! क्यों न मेरा नाम साल के नामी लेखकों की लिस्ट में शामिल हो। कॉलेज में सहपाठी से अपने मन से प्रेम भी कर बैठा और प्रेम कविताएं, ग़ज़लें लिखने भी लग गया।
कहते हैं आदमी यदि अपना ध्येय ऊंचा रखे, लक्ष्य बड़ा रखे तो एक न एक दिन बड़ा अवश्य बनता है। बड़ा बनने के लिए बड़ा सोचना जरूरी है।
हलवाई की बैंकग्राउंड थी अतः हार्ड रियलटी को भांपते हुए भैरव ने अपने हिन्दी के प्रोफेसर से परामर्श लेना उचित समझा।
प्रोफेसर बोले :‘‘ये डगर बड़ी कठिन है बन्धु। जलेबी, पकौड़े बेचना तो आसान है। लेखक बनना आसान नहीं। इस प्रोफेशन में अब बड़ा कंपीटीशन है। पहले तो तुम अपने अंदर को पहचानो। तुम कौन लेखक बनना चाहते हो! राष्ट्रवादी, जनवादी, सौंदर्यवादी, प्रगतिवादी, पतनवादी, पलायनवादी, अवसरवादी, रूढ़िवादी, परंपरावादी, रहस्यवादी या फिर प्रगतिशील, पतनशील या फिर लोकधर्मी, विधर्मी......। या मिठाई बनाने की विधि, खाना बनाने की विधि या गर्भवती किस चीज़ का परहेज करे; ऐसी किताबें लिखोगे। लेखन में भी तो कई लेखन हैं। एक लेखन के भीतर दूसरा लेखन है। दूसरे के भीतर तीसरा। एक थोड़े ही है!...........थोडा़ चक्कर खा गया भैरव। बोला, सोच कर कल बताऊंगा।
शाम मीठी जलेबी खाने से शरीर और बुद्धि में एनर्जी का संचार हुआ और सुबह ही मिठाई के डिब्बे संग प्रस्तुत हो बता दियाः ‘‘मैं अवसरवादी लेखक बनूंगा सरजी! कविता और ग़ज़ल मेरा प्रिय विषय रहेगा। कुछ इधर से लूंगा, कुछ उधर से।’’
प्रोफेसर साहब ने गुरूमन्त्री की तरह कान में लेखक बनने के कुछ गुर बताए। कुछ पैरोडी वैरोडी लिख। जैसे लोग अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान की नकल करते हैं, वैसा कुछ कर। पत्रिकाओं में रोज छपने वाली कविताओं के हरफ बदल डाल। अंग्रेजी की कविताओं का जैसा तैसा अनुवाद कर डाल। किसी को पता भी न चलेगा।
बार बार अपने को बेबाक टिप्पणीकार, तार्किक और तीख़े तेवर वाला लिख लिखवा कर एक दिन नामी अख़बार के मुख्य कार्यालय में प्रमुख संपादक के सामने हाजिर हो गया। यूं तो अख़बारों के कई जगहों पर क्षेत्रीय कार्यालय होते हैं। उसके दिमाग़ में यह बात घर कर गई थी कि छुट्टभैयों से क्या मिलना, मिलो तो सबसे बड़े से मिलो। यहीं से साल की सबसे अच्छी रचना, सर्वश्रेष्ठ किताब और सर्वप्रिय लेखकों की घोषणा होती थी। अख़बार के संपादक बड़े अनुभवी और पहुंचे हुए थे। युवा रचनाकार को यूंही गंवाना नहीं चाहते थे। अतः दस कविताएं ले लीं कि छांट कर छापूंगा।
कवि भैरव की किस्मत ने साथ दिया और सप्ताह के अंदर ही फोटो सहित तीन कविताएं छप गईं। किसी को पता भी नहीं चला कि किस तरह जोड़ तोड़ कर ये रची गई हैं। बस ये तो जैसे ब्रेक मिल गया भैरव को। जहां तहां कविता ग़ज़लों की बहार सी आने लगी। जब जब कविता छपती मिठाई के डिब्बे बांटे जाते।
अब दिमाग़ में फीतूर आ गया कि चाहे कुछ भी हो जाए एक बार बेस्ट सैलर लेखक की सूची में जरूर आना है। .......हमने रबर, प्लास्टिक, ब्लाटिंग, पेंट डाल रंगीन मिठाईयां बेच लीं तो यह किताब क्या चीज़ है ससुरी! अभी बच्चा है, ये सोच प्रकाशक आंख नहीं मिला रहे थे। या फिर मोटी रकम एडवांस में चाह रहे थे। बाप अभी थड़े पर जमा था अतः पैसे मारना खालाजी का बाड़ा न था।
बड़ा धैर्यवान था भैरव अतः रोज थोड़े थोड़े रूपए मारे। संयोग से बीच में दीवाली आ गई, ख़ूब कमाई हुई। बाप के नोट गिनते गिनते थक गया। बस छः महीने में ही बीस हजार जमा कर लिए।
‘लब के लिए साला कुछ भी करेगा’’...... ठान कर दिल्ली का एक प्रकाशक ढूंढा जिसने अभी अभी बड़ा प्रकाशन घराना छोड़ खुद का धंधा शुरू किया था। वह बीस हजार ले कर छयानवें पृष्ठ का पेपर बैक संस्करण छापने को सहर्ष तैयार हो गया। ‘‘सहयोगी प्रकाशन’’ से महीने भर में आकर्षक कवर वाली तीन सौ रूपए मूल्य की कविता पुस्तक हाथ में आ गई।
अढ़ाई सौ प्रतियों छापी थीं.......आजकल बड़े से बड़े प्रकाशक भी इतनी ही प्रतियां छापते हैं, नवेले प्रकाशक ने कहा था। सौ प्रतियां भैरव को बीस हजार के बदले में मिल गईं जो उसने जी भर कर बांटी और समाप्त कर दीं। कॉलेज में वह हीरो बन गया।
चाहे मुझे किताब के पेजों में पकौड़े क्यों न बेचने पड़ें, खपत जरूर दिखानी है। सो, सौ और ले लीं। पचास प्रकाशक ने बेच डालीं और छः महीने में संस्करण ख़तम। प्रकाशक ने उस किताब को बेस्ट सैलर का ख़िताब एक प्रमाण पत्र की तरह दिया जिसे भैरव ने अख़बार के प्रमुख संपादक को दे दिया। संपादक बाग़बाग़ हो गया। हमारे प्रोत्साहन से इतनी तरक्की कर गए......तुम्हारा युवा पुरस्कार भी पक्का। बच्चे बहुत दूर जाओगे।
अगले दिन ‘यंग इण्डिया’ अख़बार की बेस्ट सैलर किताबों की सूची में भैरव का संकलन ‘‘जब नींद उड़ जाती है’’ पूरे देश में पांचवें नम्बर पर था।
परिचय
24 सितम्बर 1949 को पालमुपर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।
मूलतः कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित। अब तक दस कथा संकलन प्रकाशित। चुनींदा कहानियों के पांच संकलन । पांच कथा संकलनों का संपादन।
चार काव्य संकलन, दो उपन्यास, एक व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त संस्कृति पर विशेष काम। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा’’ नाम से छः खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें।
पांच ई-बुक्स प्रकाशित : कथा कहती कहानियां (कहानी संग्रह), औरतें (काव्य संकलन), डायरी के पन्ने (नाटक), साहित्य में आतंकवाद (व्यंग्य), हिमाचल की लोक कथाएं।
संस्कृति विभाग तथा अकादमी में रहते हुए सत्तर से अधिक पुस्तकों का संपादन/प्रकाशन।
जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, साहित्य कला परिषद् (दिल्ली प्रशासन) तथा व्यंग्य यात्रा सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत। हाल ही में हिमाचल अकादमी से ‘‘जो देख रहा हूं’’ काव्य संकलन पुरस्कृत। अमर उजाला गौरव सम्मानः 2017। हिन्दी साहित्य के लिए हिमाचल अकादमी के सर्वोच्च सम्मान ‘‘शिखर सम्मान’’ से 2017 में सम्मानित।
कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्यालयों से दस एम0फिल0 व दो पीएच0डी0।
पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग। पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।
वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल।
पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्।
सीनियर फैलो : संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार।
सम्प्रति : ‘‘अभिनंदन’’ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009. (094180-85595, 0177- 2620858)bZ&esy % vashishthasudarshan@yahoo,com