बचपन
दशकों पहले एक बचपन था
बचपन उल्लसित, किलकता हुआ
सूरज, चाँद और सितारों के नीचे
एक मासूम उपस्थिति
बचपन चिड़िया का पंख था
बचपन आकाश में शान से उड़ती
रंगीन पतंगें थीं
बचपन माँ का दुलार था
बचपन पिता की गोद का प्यार था
समय के साथ
चिड़ियों के पंख कहीं खो गए
सभी पतंगें कट-फट गईं
माँ सितारों में जा छिपी
पिता सूर्य में समा गए
बचपन अब एक लुप्तप्राय जीव है
जो केवल स्मृति के अजायबघर में
पाया जाता है
वह एक खो गई उम्र है
जब क्षितिज संभावनाओं
से भरा था
एक दिन
एक दिन
मैंने कैलेंडर से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और अपने मन की करने लगा
एक दिन मैंने
कलाई-घड़ी से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और खुद में खो गया
एक दिन मैंने
बटुए से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और बाज़ार को अपने सपनों से
निष्कासित कर दिया
एक दिन मैंने
आईने से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और पूरे दिन उसकी शक्ल नहीं देखी
एक दिन
मैंने अपनी बनाईं
सारी हथकड़ियाँ तोड़ डालीं
अपनी बनाई सभी बेड़ियों से
आज़ाद हो कर जिया मैं
एक दिन
स्पर्श
धूल भरी पुरानी किताब के
उस पन्ने में
बरसों की गहरी नींद सोया
एक नायक जाग जाता है
जब एक बच्चे की मासूम उँगलियाँ
लाइब्रेरी में खोलती हैं वह पन्ना
जहाँ एक पीला पड़ चुका
बुक-मार्क पड़ा था
उस नाज़ुक स्पर्श के मद्धिम उजाले में
बरसों से रुकी हुई एक अधूरी कहानी
फिर चल निकलती है
पूरी होने के लिए
पृष्ठों की दुनिया के सभी पात्र
फिर से जीवंत हो जाते हैं
अपनी देह पर उग आए
खर-पतवार हटा कर
जैसे किसी भोले-भाले स्पर्श से
मुक्त हो कर उड़ने के लिए
फिर से जाग जाते हैं
पत्थर बन गए सभी शापित देव-दूत
जैसे जाग जाती है
हर कथा की अहिल्या
अपने राम का स्पर्श पा कर
लौटना
बरसों बाद लौटा हूँ
अपने बचपन के स्कूल में
जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से
झाँक रहा है
स्कूल-बैग उठाए
एक जाना-पहचाना बच्चा
ब्लैक-बोर्ड पर लिखे धुँधले अक्षर
धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं
मैदान में क्रिकेट खेलते
बच्चों के फ़्रीज़ हो चुके चेहरे
फिर से जीवंत होने लगे हैं
सुनहरे फ़्रेम वाले चश्मे के पीछे से
ताक रही हैं दो अनुभवी आँखें
हाथों में चॉक पकड़े
अपने ज़हन के जाले झाड़ कर
मैं उठ खड़ा होता हूँ
लॉन में वह शर्मीला पेड़
अब भी वहीं है
जिस की छाल पर
एक वासंती दिन
दो मासूमों ने कुरेद दिए थे
दिल की तस्वीर के इर्द-गिर्द
अपने-अपने उत्सुक नाम
समय की भिंची मुट्ठियाँ
धीरे-धीरे खुल रही हैं
स्मृतियों के आईने में एक बच्चा
अपना जीवन सँवार रहा है ...
इसी तरह कई जगहों पर
कई बार लौटते हैं हम
उस अंतिम लौटने से पहले
क्या तुम जानती हो , प्रिये
ओ प्रिये
मैं तुम्हारी आँखों में बसे
दूर कहीं के गुमसुम-खोएपन से
प्यार करता हूँ
मैं घाव पर पड़ी पपड़ी जैसी
तुम्हारी उदास मुस्कान से
प्यार करता हूँ
मैं उन अनसिलवटी पलों
से भी प्यार करता हूँ
जब हम दोनों इकट्ठे-अकेले
मेरे कमरे की खुली खिड़की से
अपने हिस्से का आकाश
नापते रहते हैं
मैं परिचय के उस वार
से भी प्यार करता हूँ
जो तुम मुझे देती हो
जब चाशनी-सी रातों में
तुम मुझे तबाह कर रही होती हो
हाँ, प्रिये
मैं उन पलों से भी
प्यार करता हूँ
जब ख़ालीपन से त्रस्त मैं
अपना चेहरा तुम्हारे
उरोजों में छिपा लेता हूँ
और खुद को
किसी खो गई प्राचीन लिपि
के टूटते अक्षर-सा चिटकता
महसूस करता हूँ
जबकि तुम
नहींपन के किनारों में उलझी हुई
यहीं कहीं की होते हुए भी
कहीं नहीं की लगती हो
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प्रेषक :
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सुशांत सुप्रिय
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी,
वैभव खंड,
इंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ.प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com