“कैसी है अब जानकी? क्या हुआ था उसे? अभी दो दिन पहले तक तो ठीक थी? अचानक ऐसे क्या हो गया? किस वार्ड में भरती है? इतना सब कुछ हो गया और आपने हमें फ़ोन करके बतलाना तक उचित नहीं समझा? क्या हम इतने पराए हो गए हैं? अगर उसे कुछ हो जाता तो हम तुम्हें जिन्दगी भर माफ़ नहीं करते.”
वे क्रुद्ध सिंहनी की तरह दहाड़ रही थीं. दहाड़ सुनकर उनकी घिग्गी-सी बंध गई थी. कुछ प्रश्न तो ऐसे भी थे, जिन्हें सुनकर, वे अन्दर ही अन्दर तिलमिला भी उठे थे. इस दुर्घटना के ठीक बाद उन्होंने टेलीफ़ोन लगाया भी था, लेकिन किसी ने उठाया नहीं. इसके बावजूद भी वे कह रही हैं कि हमें फ़ोन लगाकर सूचना तक नहीं दी? बार-बार फ़ोन लगाने का समय ही कहाँ बचा था उनके पास?. यह वह समय था, जब जानकी को तत्काल अस्पताल ले जाना जरूरी था.
प्रत्युत्तर में वे बहुत कह सकते थे. शब्दों का अक्षय भंडार था उनके पास. फिर शब्दों की अर्थवत्ता को नए-नए आयाम देने वाले सिद्धहस्त प्राचार्य के लिए, यह कोई दुष्कर कार्य नहीं था, वे जानते थे कि सामने खड़ा शख्स कोई और नहीं बल्कि उनकी भाभीजी थी. वे सदा से ही उन्हें सम्मान देते आए हैं. मुंह लगकर कैसे बात कर सकते थे? फिर उन्हें यह अधिकार भी बनता है. वे हर हाल में उनका सम्मान बचाए रखना चाहते थे. मर्यादा की भी अपनी एक सीमा होती है और वे किसी भी सूरत में मर्यादा की सीमा लांघना नहीं चाहते थे. अतः चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा था उन्हें.
बोलते समय उनका चेहरा तमतमाया हुआ था. शब्दों में तलखी थी. वे कुछ ज्यादा ही तेज सुर में बोल भी रही थीं.
सारा गुस्सा एक साथ में उगल देने के बाद वे एकदम शांत हो गई थीं. तेज बोलने के कारण अथवा सीढ़ियाँ चढ़कर आने के कारण वे हाँफ भी रही थीं.
वे सिर झुकाए भाभीजी के क्रोध का सामना करते रहे थे. सब कुछ सुन चुकने के बाद, उन्होंने अपने सूख चुके हलक को थूक से गिला करते हुए कुछ कहना चाहा लेकिन इसके पहले ही जयश्री अपनी मम्मी पर भड़क उठी.
“मम्मीजी ... आप भी कैसे-कैसे ऊल-जुलूल बातों को लेकर बैठ गईं. देखतीं नहीं आप, अंकल जी इस समय कितनी भीषण मानसिक-यंत्रणाओं के दौर से गुजर रहे हैं. क्या अभी और इसी समय इतना सब कुछ पूछना जरूरी है? पत्नी कोमा में पड़ी हैं. बेटा विदेश में है. ऐसे कठिन समय में इन्हें सवालों की नहीं, बल्कि सहानुभूति में पगे शब्दों के मरहम की जरूरत है. ऐसे शब्द जो इनका ढाढस बंधा सके.”
बरामदे में लटके बल्बों से झरती पीली-बीमा रोशनी को चीरते हुए, उनकी नजर बेंचें पर बैठे मरीजों के अभिभावकों पर जा टिकी. सभी के म्लान चेहरे, पीले पके आम की तरह लटकी सूरतें और चेहरों पर चिंता की मकड़ियों के घने जालों को देखकर, वे सिहर उठे थे. फिर पीली मिट्टी से पुती दीवारें भी, उनके भय में वृद्धि करने लगी थी.
उनकी नजरों के सामने रह-रहकर उस नवयुवक का धुंधला सा चेहरा डोलने लगता, जिसे वे पहचान नहीं पा रहे थे. हिंसक हो चुकी भीड़ को चीरता हुआ वह उनके पास आया था और विनयपूर्वक कहने लगा था - “अंकलजी ... आपकी एबुलेंस शायद ही आगे बढ़ पाएगी. सायरन बजता रहेगा लेकिन उसे सुनने वाला कौन है? देखते नहीं भीड़ का उन्माद?. संभव है, कहीं वे इसे भी आग के हवाले कर दे. अब तक कई गाड़ियाँ फ़ूँकी जा चुकी है ... अगर इसी तरह आप खड़े रहे तो आंटी को खो बैठेंगे. देख रहे हैं आप, किस कदर मारकाट मची है, पत्थर पर पत्थर बरसाए जा रहे हैं. जगह-जगह टायर जला कर रोड में अवरोध बिछाये जा रहे हैं. आप मुझे नहीं जानते लेकिन मैं आपको भली-भांति जानता हूँ. मैं कभी आपका विद्यार्थी रहा हूँ. आप निश्चिंत रहें, मैं किसी तरह बचते-बचाते इन्हें अपने कंधे पर डालकर अस्पताल ले जाता हूँ. आप भी किसी तरह वहाँ पहुँचने की कोशिश कीजिए. कृपया सोच-विचार में देर मत लगाइए. जरा सी भी देरी की तो इनकी जान जा सकती है. क्या आप मुझ पर भरोसा करेंगे?”
“क्या आप मुझ पर भरोसा करेंगे” शब्द अन्दर गहरे तक उतर कर कोहराम मचाने लगे थे. उन्होंने उस नवयुवक के एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था. वे सोचने लगे थे – ‘एक अजनबी देवदूत बनकर उनके सामने खड़ा प्रार्थना कर रहा है कि वह इस संकट की घड़ी में उनके काम आ सकता है. सच ही कह रहा है वह. अगर जरा सी भी देरी मैंने अपनी ओर से की, तो निश्चित ही मैं जानकी को खो बैठूंगा. अगर ऐसा कुछ हुआ तो वे जिन्दगी भर अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे. उन्होंने उस नवयुवक को तत्काल ही ऐसा करने की अनुमति दे दी थी.
पलक झपकते ही उस नवयुवक ने अचेत पड़ी जानकी को अपने कंधे पर डाला और भीड़ को चीरता हुआ द्रुतगति से अस्पताल की ओर बढ़ चला था. वे भी यंत्रवत उसके पीछे हो लिए थे.
वे कुछ ही कदम साथ चल पाए थे कि भीड़ ने उन्हें पीछे ठेल दिया था. वे गिरते-गिरते भी बचे थे. किसी तरह उन्होंने अपने को गिरने से बचाया और बचते-बचाते अस्पताल की ओर बढ़ने लगे थे.
अस्पताल पहुँचकर उन्होंने रिसेप्शन काउण्टर पर अपना परिचय दिया. मुश्किल हालातों का हवाला देते हुए सारा किस्सा कह सुनाया और जानना चाहा कि उनकी पत्नी को किस वार्ड में भरती किया गया है?. उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि युवक के जानकी को अस्पताल में भरती करवा दिया है और इस समय वह आई.सी.यू. वार्ड में भरती है. एक आशा की किरण उन्हें दिखाई देनी लगी थी कि देर-सबेर ही सही, वह स्वस्थ हो ही जाएगी.
उनकी नजरें अब उस नवयुवक को खोजने लगी थी. वे उसे धन्यवाद के साथ ही कुछ इनाम भी देना चाहते थे. चारों ओर नजरें घुमाकर उन्होंने देखा भी. लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया. उत्सुकतावश उन्होंने काउण्टर बैठे व्यक्ति से जानकारी लेनी चाही, तो उसने इनकार की मुद्रा में अपना सिर हिला दिया था. उन्हें अपने आप पर आत्मग्लानि-सी होने लगी थी कि उसी वक्त वह उसका नाम-पता आदि जान सकते थे, जब वह मदद देने के लिए आगे आया था. लेकिन अब कुछ नहीं किया जा सकता.
बेंच पर बैठे हुए उन्हें कोफ्त होने लगी थी. कभी वे अपनी जगह से उठ खड़े होते. बरामदे का चक्कर लगाते फिर थक-हार कर पुनः बैठ जाते. फिर वे आहिस्ता से उठते और खिड़की के पास जाकर सटकर खड़े हो जाते. खिड़की में जड़े, जगह-जगह खरोचें गए कांच में से, वे भीतर झांकने का प्रयास करते. अन्दर कुछ भी दिखाई नहीं देता. वे वहाँ से हट जाते. फिर बेंच पर आकर बैठ जाते और मन ही मन अपने इष्ट देव का सुमिरन करने लगते
वे खुली आँखों से हिंसक भीड़ का नजारा देख चुके थे देख चुके थे कि किस तरह दुकानों-मकानों और वाहनों को आग के हवाले किया जा रहा था. सड़क पर जगह-जगह टायर जलाए जा रहे थे. लोग गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे थे. ‘ले के रहेंगे आजादी ... हक से लेंगे आजादी ... लड़कर लेंगे आजादी.’ कभी कोई रामधारीसिंह दिनकर की कविता की पंक्तियों को दोहराता हुआ कहता, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ...’ एक चिल्लाता, ‘अभी तो ये अंगड़ाई है...’ फिर भीड़ में से आवाजें आतीं, ‘आगे और लड़ाई है.’ कभी कोई चिल्ला उठता, ‘साले सब चोर हैं .. इस्तीफ़ा दो ...’ अपने नेता के स्वर में स्वर मिलाते हुए पूरी टीम, शब्दों को ऊँचे स्वर में दुहराने लगती. इस तरह वे अपनी कर्कश आवाजें निकालते हुए, पूरे आकाश को विदीर्ण किये जा रहे थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि इन युवाओं को कौन सी आजादी चाहिए? और किस बात की आजादी चाहिए?. आखिर ये कैसा लोकतंत्र है, जहाँ जान-माल की कोई कीमत नहीं? आखिर वे कौन हैं देशद्रोही, जो इस देश में अराजकता फ़ैला कर अपने मंसूबों को सफ़ल होते देखना चाहते हैं? अपने ही शहर को जलाकर आखिर इन्हें मिलता क्या है? क्या कभी इनकी सोच में, ये बात नहीं आती कि इस दंगाई में कितने ही निर्दोष लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते है?
मन के आँगन में धधक रहे इन ज्वलंत प्रश्नों के ज्वालामुखी ने उन्हें अशांत कर दिया था. तभी उन्होंने वार्ड के दरवाजे को खुलता देखा. एक नर्स अपनी सैंडिले खटखटाते हुए बाहर निकली. यंत्रवत वे उठ खड़े हुए और उसे रोकते हुए उन्होंने जानकी के बारे में जानना चाहा. उसने टका सा जवाब देते हुए कहा - “देखिए मिस्टर ... न तो आप लोग चैन से बइठता है और न ही हमको अपना काम करने देता है. हम अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहा है, आगे क्या होगा, यह गाड जानता है. हम नहीं,” कहते हुए वह दूसरे कमरे में समा गई थी.
नर्स का रूखा सा जवाब पाकर वे अन्दर तक हिल-से गए थे. जबान सूखने लगी थी और दिल घबराने लगा था. वे सोचने लगे थे - सच ही तो कह रही थी. किसी को जिलाना और किसी के प्राण हर लेना, इनके हाथ में नहीं है. वे तो अपनी ओर से केवल कोशिश ही कर सकते हैं.
भारी कदमों से चलते हुए वे पुनः बेंच पर आकर बैठ गए थे और मन ही मन जानकी के जल्दी स्वस्थ होने की कामना करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करने लगे थे.
देर तक प्रार्थना में लीन रहने के बाद वे अपने अतीत की भूल-भुलैया में प्रवेश करने लगे थे. बात चार-साढ़े चार बजे की थी, तभी फ़ोन की घंटी घनघना उठी. फ़ोन अजय का था. उसने बतलाया कि वह घर आ रहा है. उसने यह भी बतलाया कि अब की बार वह पूरे पन्द्रह दिन हम लोगों के साथ ही रहेगा. खबर ही कुछ ऐसी थी जिसे सुनकर जानकी बेहद खुश हुई थी. ममता की कुम्हलाई लतिका हरियल होने लगी थीं. पोर-पोर में आनन्द की लहरियाँ हिलोरे लेने लगी थीं. मन-मयूर थिरकने लगा था. पैर तो उसके जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. वह फिरकी की तरह घूम-घूमकर नाचती भी जा रही थी. बेटे के आगमन की खबर पाकर कौन माँ भला खुश नहीं होगी?.
अपने बेटे की आगमन की खुशी को यादगार बनाने के लिए उन्होंने भी कुछ योजनाएँ बना डाली थीं. वे चाहते थे कि अति विशिष्ट स्वजनों, अतिथियो और रिश्तेदारों की उपस्थिति में अजय और जयश्री की मंगनी की भी घोषणा कर देंगे. गोविन्द उनका दोस्त ही नहीं बल्कि एक सच्चा हमदम भी है. उन्हें पक्का यकीन है कि वह इस रिश्ते से इनकार नहीं करेगा. उनकी दिली इच्छा थी कि दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल दी जानी चाहिए. अतिगोपनीयता बरतते हुए उन्होंने पूजा ज्वेलर्स के यहाँ वेडिंग-रिंग भी बनवा कर रख ली थी.
कल्पनाओं के रंग-बिरंगे बादल झमझमाकर बरस रहे थे और वे उसमें भीग भी रहे थे. प्रसन्नता से लकदक होता जानकी का चेहरा और फ़ुलझड़ी से झरते हास्य को देखकर उनकी प्रसन्नता द्विगुणित हो उठी थी. तभी टेलीफ़ोन की घंटी घनघना उठी. जानकी ने अति उत्साहित होते हुए रिसीवर उठाया. दूसरी तरफ़ अजय था.
पता नहीं, अचानक क्या हुआ?. उसका दिपदिपाता चेहरा बुझने लगा था. वह कांति-हीन होने लगी थी. मुक्त-हास्य की जगह तनाव घिरने लगा था. उसकी मुठ्ठियाँ कसने लगी थीं. वे कुछ समझ पाएं, इसके पूर्व ही वह गीली मिट्टी की दीवार की तरह भरभरा कर गिर पड़ी थी.
“हे भगवान! ये क्या हो गया,” कहते हुए उठ खड़े हुए. पास आकर देखा. नब्ज टटोली. कुछ भी समझ में नहीं आया. वे बुरी तरह से घबरा गए थे. सोचने-समझने की बुद्धि को जैसे काठ मार गया था. धड़कने बढ़ गई थी.
ठीक उसी समय एक एम्बुलेंस उधर से गुजर रही थी. ड्रायवर शायद किसी मरीज को अस्पताल पहुँचा कर खाली वापिस लौट रहा था. उन्होंने एम्बुलेंस को रुकने का इशारा किया. ड्रायवर से विनती की कि वह मरीज को अस्पताल तक पहुँचाने में हमारी मदद करे. वह मान गया. उन्होंने शीघ्रता से जानकी को उसमें लिटाया और अस्पताल की ओर बढ़ चले थे. वे जब घर से निकले थे, तब शहर में नीरव शांति पसरी हुई थी. जैसे ही एम्बुलेंस अस्पताल के करीब पहुँची ही थी कि उनका सामना क्रुद्ध भीड़ से हुआ, जो सरकार के खिलाफ़ नारे लगाती, दुकानों में तोड़-फोड़ करती, बसों, कारों और गाड़ियों के काँच तोड़ती-फोड़ती, जगह-जगह टायरों को जलाकर विरोध प्रदर्शन कर नारे लगाती हुई आगे बढ़ रही थी
उस क्रुद्ध भीड़ का कुरूप चेहरा आँखों के सामने नृत्य करने लगा था. विचारों के अश्व थम से गए थे. वे हड़बड़ा कर अपनी सीट से उठ खड़े हो गए थे. काफ़ी देर बाद, वे सामान्य हो पाए थे.
तभी उन्होंने देखा. आई.सी.यू का दरवाजा खुला. एक नर्स बाहर निकली. उन्होंने लपक कर जानकी के बारे में जानना चाहा. वे कुछ बोल पाते कि नर्स ने अपनी ओर से उन्हें खुशखबरी देते हुए कहा - “जानकी जी को होश आ गया है. वे अब एकदम ठीक हैं. दो-तीन घंटे बाद हम उन्हें जनरल वार्ड में शिफ़्ट करेंगे, तब आप उनसे मिल सकते है”.
खबर सुनते ही वे खुशी में झूम उठे थे. उन्होंने हाथ जोड़कर ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया.
तीन दिन अस्पताल में रहकर जानकी स्वस्थ होकर घर लौट आयी थी. अजय भी उसी दिन शाम को घर आ गया था.
वे चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके अजय और जयश्री की मंगनी कर देनी चाहिए. शुभ मुहूर्त निकलवाते हुए उन्होंने सभी मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण पत्र भिजवाये और शहर के सभी अखबारों में, उस गुमनाम युवक के बारे में जानकारी देते हुए प्रार्थना की थी कि वह भी इस कार्यक्रम में जरूर आए.
शामियाने को किसी दुलहन की तरह सजाया गया था. जगह-जगह लगे फ़ानूस रंग-बिरंगी रोशनी में जगमगा रहे थे. स्वचालित फ़ौवारों से लाल-पीली-नीली-नारंगी रोशनी फेंकते हुए माहौल में शीतलता बिखेर रहे थे. स्टेज पर अजय और जयश्री, किसी बेशकीमती हीरों की तरह जगमगा रहे थे. जानकी के तो जैसे पर ही उग आए थे. वह फिरकी बनी, सब का दिल खोलकर स्वागत करने में जुटी हुई थी.
मेहमानों, रिश्तेदारों और स्वजनों से ठसाठस भरी भीड़ के बीच वे नमूदार हुए. उन्होंने माईक संभाला. अजय और जयश्री की सगाई की विधिवत घोषणा की. पूरा पण्डाल तालियों गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. लोग आगे बढ़कर उन्हें बधाइयां और शुभकामनाएं देने लगे थे.
वे हंस-हंस कर अपने स्वजनों की बधाइयां स्वीकार करते हुए सभी से मिल-जुल रहे थे. लेकिन उनकी नजरें बार-बार गेट पर जाकर ठहर जाती. उनका दिल कह रहा था कि वह युवक आएगा...जरूर आएगा. उसे न आता हुआ देख, मन निराशा के गहरे भंवर में डूबने लगा था. वे अपने धड़कते हुए दिल को बार-बार समझाते...देर से ही सही, लेकिन वह आएगा...जरूर आएगा...आशा का बुझता दीप, फिर टिमटिमाने लगता.
सारे मेहमान एक-एक करके जाने लगे थे. थोड़ी देर में पण्डाल लगभग पूरा खाली हो चुका था. वे अब भी पूरी तरह आशान्वित थे कि वह युवक आएगा...जरूर आएगा. इसी विश्वास की लाठी का सहारा लिए, वे गेट तक चल कर आए थे. उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाकर देखा...बाहर सन्नाटा पसरा पड़ा था. वे खिन्न मन से, निराशा का लबादा ओढ़े लौटने लगे थे. मन के किसी कोने में एक प्रश्न उनुत्तरित रह गया था कि वह नवयुवक कौन था?
नाम--गोवर्धन यादव
शिक्षा - स्नातक
पांच दशक पूर्व कविताऒं के माध्यम से साहित्य-जगत में प्रवेश
देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन
आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन
करीब पैतीस कृतियों पर समीक्षाएं *
कृतियाँ
महुआ के वृक्ष ( कहानी संग्रह ) सतलुज प्रकाशन पंचकुला(हरियाणा)
(२) तीस बरस साह*तीस बरस घाटी (कहानी संग्रह,) वैभव प्रकाशन रायपुर (छ,ग.)
18….ई बुक्स प्रकाशित- सूची संलग्न
*सम्मान *म.प्र.हिन्दी साहित्य सम्मेलन छिंन्दवाडा द्वारा”सारस्वत सम्मान”
राष्ट्रीय राजभाषापीठ इलाहाबाद द्वारा “भारती रत्न “ साहित्य समिति मुलताई द्वारा” सारस्वत सम्मान” सृजन सम्मान रायपुर(छ.ग.)द्वारा” लघुकथा गौरव सम्मान”
सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी खण्डवा द्वारा कमल सरोवर दुष्यंतकुमार सम्मान
अखिल भारतीय बालसाहित्य संगोष्टी भीलवाडा(राज.) द्वारा”सृजन सम्मान”
बालप्रहरी अलमोडा(उत्तरांचल)द्वारा सृजन श्री सम्मान
साहित्यिक-सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावां(प्रतापगघ्ह)द्वारा “विद्धावचस्पति स.भूषण सम्मान \साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा(राज.)द्वारा “हिन्दी भाषा
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा(महाराष्ट्र)द्वारा”विशिष्ठ हिन्दी सेवी सम्मान
शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम होशंगाबाद द्वारा”कथा किरीट”सम्मान
तृतीय अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन बैंकाक(थाईलैण्ड) में “सृजन सम्मान.
पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी शिलांग(मेघालय) द्वारा”डा.महाराज जैन कृष्ण स्मृति सम्मान.
मारीशस यात्रा(23-29 मई 2014) कला एवं संस्कृति मंत्री श्री मुखेश्वर मुखी द्वारा सम्मानीत
साहित्यकार सम्मान समारोह बैतूल में सृजन-साक्षी सम्मान
विवेकानन्द शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं क्रीडा संस्थान देवघर(झारखण्ड) द्वारा राष्ट्रीय शिखर सम्मान. म.प्र.तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा सम्मानीत-
अब्युदय बहुउद्देशीय संस्था वर्धा द्वारा मारीशस में सम्मान
पंचरत्न साहित्यिकी सम्मान, छिन्दवाडा
मुक्तिबोध स्मृति रचना शिविर, राजनांदगांव द्वारा सम्मानित.
राष्ट्रीय शिखर सम्मान समारोह देवग्घर(झारखण्ड) द्वारा शिखर सम्मान
सृजन-सम्मान बहुआयामी सांस्कृति संस्था रायपुर में दसवे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मीलन में सम्मान
प्रदेश के महामहिम राज्यपाल के हस्ते म.प्र.रा.भा.प्र.सामिति, हिन्दी भवन भोपाल द्वारा हिन्दी सेवा के लिए
समर्पित “श्रीमती रश्मि जोशी विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान”
*विशेष उपलब्धियाँ:-औद्धोगिक नीति और संवर्धन विभाग के सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रगामी प्रयोग
से संबंधित विषयों तथा गृह मंत्रालय,राजभाषा विभाग द्वारा निर्धारित नीति में सलाह देने के
लिए वाणिज्य और उद्धोग मंत्रालय,उद्धोग भवन नयी दिल्ली में “सदस्य” नामांकित
(2)केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय( मानव संसाधन विकास मंत्रालय) नयी दिल्ली द्वारा_कहानी संग्रह”महुआ के वृक्ष” तथा “तीस बरस घाटी” की खरीद की गई.
(३) कई कहानियाँ का उर्दू, मराठी, राजस्थानी, उडिया, सिंधी,भाषाऒं में रुपान्तरित की गईं.
यात्राएं
थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, मलेशिया, बाली, भुटान, नेपाल तथा मारीशस.
संप्रति १
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२ अध्यक्ष / संयोजक राष्ट्र भाषा प्रचार समिति जिला इकाई छिंन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001
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