चिकिन शिकिन ते हिंदी सिंदी
- अशोक गौतम
- 14 सित॰ 2019
- 6 मिनट पठन

अपने शहर में हिंदी पखवाड़ा पूरे उफान पर तो हिंदी में भी न लिखने वाला पूरे तूफान पर।
अंग्रेजी की चपेट से जो हिंदी के लेखक जैसे तैसे बचे हुए थे, वे अब मनमाफिक हिंदी पाखवाड़े की चपेट में थे। जिस ओर मन हो रहा था वे उस ओर बह रहे थे। कविता के नाम पर जो उनका मन कर रहा था, पूरे होशोहवास में कह रहे थे।
साल भर अंग्रेजी के गुणगान करने वाले अंग्रेजी की रूफ से हिंदी की दरी पर बैठे कवितायाने लगे थे। वे हिंदी के पखवाड़े में हिंदी मौसी से अपनी उतनी सेवा करवा रहे थे, जितनी हिंदी वाले भी नहीं करवा रहे थे। अंग्रेजी वाले तो अंग्रेजी वाले होते हैं भाई साहब!
जो दिनरात अंग्रेजी को जुबान से समर्पित थे , वे कभी इस मंच पर तो कभी उस मंच पर हिंदी वालों से अधिक मौसी हिंदी की सेवा करते हिंदी में पेड कविताएं सुना हिंदी का मुंह चिढ़ा रहे थे। दे अंग्रेजी लय में हिंदी कविताएं हिंदी वालों को सुना उनके नाकों तले चने चबवा रहे थे।
....कि तभी हिंदी के सरकारी आधिकारिक अधिकारी का फोन आया। बड़े दिनों बाद। सोचा, गलती से लग गया होगा। उनके पास पेड हिंदी की गोष्ठियों के लिए अपने कवि हैं। उनके पास पेड हिंदी की गोष्ठियों के लिए अपने चांद हैं, उनके पास पेड हिंदी की गोष्ठियों के लिए अपने रवि हैं। हिंदी की डिफरेंट डिफरेंट प्रतियोगिताओं के लिए उनके पास अपने जज हैं, जो लिखते नहीं, केवल और केवल जजमेंट ही देते हैं। वे पेशे से जज हैं। वे पैसे के जज हैं। किसी भी टाइप की साहित्यिक प्रतियोगिता में उनको बुलवा लीजिए। देंगे तो देंगे बस, जजमेंट ही देंगे, और कुछ न देंगे। उनमें से एक जज बहुत मिले थे तो चाय पीते पीते उन्होंने बात बात में बताया था कि लेखक से अधिक मस्त काम जज का होता है। इसीलिए उन्होंने हिंदी में जजमेंट का रास्ता चुना। असल में क्या है न कि लेखन में दिमाग हिलाना पड़ता है। अपने भीतर विचार को तपाना पड़ता है। सच कहूं तो लेखन बहुत मशक्कत का काम है। और जजमेंट! बैठे आंखे बंद करते सोए रहे। वक्ता समझता है कि कम से कम जज तो उसके विचारों को ध्यान से सुन रहा होगा। पर दिल से कहूं यार! उस वक्त मैं तो सुस्ता रहा होता हूं। मैं अपने को भी नहीं सुन रहा होता।
....तो उनका फोन था। मेरे फोन उठाते ही बोले,‘ जय मां हिंदी! क्या कर रहे हो?’
‘कुछ नहीं ! कागज लिख लिख कर फाड़ रहा हूं। विचार है कि पकड़ में नहीं आ रहा।’
‘विचार को मारो गोली! शाम को हिंदी को श्रद्धांजलि देने के लिए विभाग की ओर से टाउनहॉल में एक कवि गोष्ठी रखी है।’
‘ मतलब?’
‘यार! फिर वही हिंदी सिंदी पखवाड़ा। सेंटर से बजट आया है फूकने के लिए हिंदी के नाम पर। तुम ही कहो, अब बजट फूके बिना कैसे रहें? बजट फूंकों न तो साहब बहुत बुरा मान जाते हैं। ऊपर से एक्सप्लेनेशन अलग।’
‘तो??’
‘ तो क्या! तुम जैसे कलाकार लोगों की सहायता चाहिए बस! तुम जैसे यार दोस्त साथ हों तो मुझे कितने भी बड़े बजट को फूकने की दिक्कत नहीं होती। उसमें कुछ पेट है तो कुछ पेड भी होगा ही। चाहता हूं , दो चार अच्छे लिखने वाले भी आ जाएं तो.....’ उन्होंने सच कहा कि मसका लगाया , वे ही जाने, पर अच्छा लगा सुनकर कि मैं अच्छा लिखने वालों की श्रेणी का हूं।
‘तो मैं उसमें कवि रहूंगा कि श्रोता या फिर जज?’
‘जज तो हमारे पास पहले से ही हैं। पर कवि को भी ठीक ठीक व्यवस्था है मंदी के दिनों में भी,’ वे मुस्कुराते बोले तो मैंने पूछा,‘ मतलब??’
‘ चिकन शिकन.... इस बहाने मिल मुल जाते हैं यार! इस हिंदी सिंदी के बहाने ऐसे थोड़ी बहुत चिकन शिकन भी हो जाएगी और अपने अपने दुखड़े भी एक दूसरे से कह सुन लेंगे! और क्या रखा होता है ऐसे फंक्शनों में यार ? खाते पीते तो रोज ही हैं इधर उधर..’
‘मतलब, इस उम्र में भी आपने ये सब नहीं छोड़ा ? तो मुख्यातिथि कौन हैं?’
‘अरे वही, हमारे विभाग के विभागाध्यक्ष!’ कहते ही लगा ज्यों उनका गला सूख रहा हो।
‘ अच्छा वही, जिन्हें कविता का क भी नहीं आता?’
‘तो क्या हो गया! विभागाध्यक्ष तो हर हाल में विभागाध्यक्ष होता है। उससे कुछ आए या न। जब सरकार ने सिर पर बिठा ही दिया तो हम कर भी क्या सकते हैं उसे ढोने के सिवाय,’ उनके कहने से एकबार फिर लगा जैसे उनका उनके साथ सैंतीस का आंकड़ा हो।
‘ तो उनका सम्मान करने के लिए.....’ मैंने परंपरा याद करवाने को लेकर यों ही पूछ लिया।
‘ उनके आदेशानुसार उन्होंने जिस दुकान से कहा था, उनको उसी दुकान से उसी कंपनी की विदेशी टोपी शॉल ले ली है। सर , जब भी सांस लेते हैं, अपनी पसंद की शॉल टोपी ही ओढ़वा कर लेते हैं।’
‘लेंगे क्यों नहीं सर! सारे बिल तो वहीं से पास होने हैं कि नहीं? ....तो उनकी बीवी भी आ रही होंगी साथ में?’ मैंने पता नहीं क्यों पूछ लिया?
‘ हां!’ वे लंबी सांस भर बोले,‘ उनके बिना तो वे किसी भी कार्यक्रम में मुख्यातिथि होना स्वीकारते ही नहीं। उनके लिए भी उनकी पसंद की शॉल वाल सब ले ली है।’
‘ तो मेरी एक शर्त है?’
‘कहिए ! शॉल तो नहीं चाहिए न?’
‘ नहीं! पर मैं कविता सबसे पहले पढ़ूंगा।’
‘ मतलब...??’
‘ जब भी आपने मुझे गलती से बुलाया है , तब तब मैंने देखा है कि आपके जो जो कवि अपनी अपनी कविता पढ़ते जाते हैं , वे अपना पारिश्रमिक ले हवा होते जाते हैं। ऐसे मे जो मेरी कविता सबसे अंत में हुई तो.... वहां सुनने वाला बचा कौन होगा?’
‘अबके वैसा नहीं होगा।’
‘ क्यों? सारे कवियों को कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगवा रहे हो क्या?’
‘ नहीं! अबके हमने कवि गोष्ठी के अंत में ही चिकन शिकन रखे हैं। बीच में चाय भी नहीं!’
‘मतलब, चिकन शिकन ही?’
‘मंदी का दौर चला है। शेयर बाजार धड़ाम है, अर्थव्यवस्था और हिंदी के बुरे हाल हैं पर सरकार मान नहीं रही... सो कविता के शेयर भी ऐसे में कैसे बचते। उसके तथा उसके तथाकथित भक्तों के शेयर तो इसके उनके पैदा होने से ही औंधे पड़े हैं... लेकिन फिर भी दारू शारू को निकालने के बाद कोशिश तो हमारी बराबर यही रहेगी कि.... हम दक्षिणा में कुछ न कुछ तो...’
‘ मतलब, चिकिन शिकिन ते हिंदी सिंदी... और....’ लगा, ज्यों अब वे किसी और से अंग्रेजी में बात करने में व्यस्त हो गए हों।

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।
बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।
गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।
जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।
जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।
.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।
आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।
अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089
E mail- ashokgautam001@gmail.com
अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र
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