मेरी जिन्दगी की सबसे ज्यादा प्रिय चीजों में, बासी परांठा, दालमोठ-चाय और बालकनी का यह कोना शुमार है। जब भी मैं उदास होती हूँ या फिर बहुत खुश...... किसी से फोन पर बात करनी हो या चुपचाप ग़ालिब की ग़ज़ल आबिदा परवीन की आवाज़ में सुननी हो ....... मैं अपनी बालकनी के इसी कोने में आ दुबकती हूँ, फिर मुझे चाहिए ... बासी परांठा, दालमोठ और चाय.......
कभी मेरी स्मृतियों का पिटारा खुलने लगता है.... कभी किसी की कही हुई बात दिल और दिमाग की घंटी बजाने लगती है, तो कभी मैं अखबार में पढ़ी किसी बेमानी सी खबर पर कहानी गढ़ने लगती हूँ।
शादी से पहले बासी परांठा, दालमोठ और चाय तो वही थी, हाँ बालकनी की जगह खुली हुई छत का एक कोना हुआ करता था। घर अक्सर मेहमानों से भरा रहता...... पकवान छनने की ख़ुशबू चतुर्दिक फैली रहती, सभी अपने-अपने क्रिया-कलापों में मस्त रहते....... मैं कब बासी परांठा, चाय लेकर ऊपर खिसक जाती किसी का ध्यान न जाता। मई महीने की तपती दुपहरी हो या फिर सावन महीने में झीसी पड़ती हो, या फिर जब भी हमारी कामवाली बाई, जिसका नाम दुल्हनिया था, से दादी की झक-झक होती या फिर छलनी-सूप फटकने की बेसुरी सी आवाज़ घर भर में गूंजती, मैं चुपचाप कोई किताब लेकर अपनी छत के कोने में जाकर चैन की सांस लेती। मन ही मन मुस्कराने लगती, ख्यालों की दुनिया में खो जाती।
बचपन की आदतें जल्दी मरती नहीं । इसीलिए शायद आज भी, शादी के इतने बरसों बाद भी, बासी परांठा और चाय मेरे लिए छप्पन-भोग से कम नहीं।
कॉल-बेल बजी तो दरवाज़ा खुलने की आवाज आई। सुन्दरी थी। वह रोज़ इसी समय काम करने आती है। उसने मुझे बालकनी में बैठे देखा तो मुस्कुराई...... बोली, “गुड-मॉर्निंग आंटी...... कुछ लिख रही हैं?” मैंने उसे देखा….गुड-मॉर्निंग कहा..... मुस्कराई ….और ख्यालों में खो गई। काले-लम्बे घने बालों को पोनी-टेल की तरह बाँधा था सुन्दरी ने। केपरी और टी-शर्ट पहने थी। उसके गहरे ताम्बई रंग पर मोती से सफ़ेद दांत बरबस ध्यान खींच लेते थे। सुन्दरी मेरे घर काम करती है। ढाई हज़ार महीना कमाती है। कॉलेज जाने-आने का खर्चा निकाल लेती है, मेरे घर काम करके। फीस तो माफ़ ही है । उसके केपरी-टीशर्ट पहनने या कभी-कदा हल्की लिपस्टिक लगाकर काम पर आने में न मुझे कोई आपत्ति है, न मेरे घरवालों को। लेकिन मेरे बचपन का ज़माना और दादी.........
एक दिन दुल्हनियां की बिटिया माँगे का, या भीख की तरह दिया गया ढीला-ढाला सलवार-कुर्ता पहन कर हमारे घर आ गई थी। उसके घर में कुछ ऐसा घटित हुआ था, जो उसे अपनी माँ यानी दुल्हनिया को तत्क्षण बताना ज़रूरी था। दादी के डर से वह कभी हमारे घर नहीं आती थी। उस दिन दादी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर ऐसा हंगामा किया जो मुझे आज तक याद है।
दादी ने अपनी रौबीली, कड़क आवाज में दुल्हनिया को आवाज़ दी, बेचारी घबड़ाई हुई “जी माता जी” कहती, साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई आकर खड़ी हो गई थी ...... ऐसा जान पड़ता था जैसे डांट खाने को तैयार होकर आई थी, किसी ऐसी गलती के लिए जो उसने की ही नहीं थी। मुझे अच्छी तरह याद है दुल्हनियां से खिच-खिच करना दादी की दिनचर्या का अहम हिस्सा था। इस तरह दादी रोज़ गाँव की ठसक जमींदारिन का रोल निभातीं, जो न मालूम कब की छीनी जा चुकी थी।
दादी चीखीं थी, “क्यों री कुछ लिहाज़ शरम है कि सब सत्तू में घोल के पी गई ?”
“का हुआ माता जी?" दुल्हनियां ने अपने आप को ऊपर से नीचे देखा था .... मानो कह रही हो सारा कपड़ा तो पहने हैं …. ऊपर से सिर भी ढंके हैं..... फिर कौन सी बेशर्मी होय गई ......
“रधिया के मेमसाहब वाले कपड़े पहनाते शरम नहीं आती....... आज ई पहनी है, कल के स्कर्ट-ब्लाउज और फिर नंगी घूमिहे .....” दादी के चहरे पर घृणा के भाव थे।
“आप ही लोगन के उतरन पहनती है......हमरी का औकात जो कपड़ा सिल्वाइंगी …” दुल्हनियां दोनों हाथ जोड़ के सिर झुकाए खड़ी थी।
“जा मुझौंसी अपना काम कर और रधिया से कह दे हमरे आँख के सामने न पड़े.....”
दुल्हनियाँ को डांट कर मन न भरा तो दादी माँ को सीख देने लगी, “छोटी बहु, कितनी बार कहा है फटी-पुरानी साड़ी हो तो दे दिया करो..... ई फैशनेबल कपड़ा सब न दिया करो...... कैसन बराबरी करे लगती है ई लोग…..”
माँ ने मुँह सिल लिया। न पहले कभी जबाब दिया था न उस दिन दिया।
माँ गांधी भक्त थीं। बड़ा-छोटा, ऊंच-नीच, जात-पांत की भावनाओं से कोसों दूर...... जो उन्होंने हम बच्चों में भी कूट-कूट कर भर दिया था।
इतने सालों बाद रधिया की स्मृति मुझे गुदगुदा गई। बेचारी न अपने मन का पहन सकती थी और न ही खा सकती थी। अपनी माँ की आँख बचाकर चोरी से दो गोलगप्पा खाने के लिए मेरी कितनी मिन्नतें किया करती थी।
सुन्दरी की आवाज ने मुझे चौंका दिया . “आंटी कल आधे दिन की छुट्टी चाहिए ...... सहेलियों के साथ पिक्चर जाऊंगी।” सुन्दरी के स्वर में मुझसे स्वीकृति लेने के भाव से ज्यादा, सूचित करने वाला भाव था।
बदलाव या परिवर्तन शाश्वत सत्य है। आज इसी बदलाव को मैं महसूस कर रही थी। कल की बेचारी, रधिया और आज की बिंदास, सुन्दरी.....
सुन्दरी चली गई। अकसर आधे दिन की छुट्टी कहकर पूरा दिन नहीं आती और मैं उसी का पक्ष लेकर सोचती कि हर हफ्ते तो छुट्टी नहीं लेती… पंद्रह-बीस दिन में एक छुट्टी लेने का हक़ तो उसे भी मिलना ही चाहिए, और मैं खुशी-खुशी काम में जुट जाती। पर उन दिनों जब दुल्हनिया बुखार में तपती होती तब भी दादी की अश्लील डांट से बचने के लिए काम पर आती। फिर माँ उसे चुपचाप दादी की नज़र बचाकर दवाई की गोली थमा देती और दादी चौके से दूर होतीं तो चाय का प्याला भी पकड़ा कर कहती, “दो घूँट में ख़त्म कर और काम पर लग जा।”
टीवी चलाकर काम निबटाने का मेरा अपना अंदाज है। ये अकसर बिगड़ते हैं, “टीवी बैठकर देखा जाता है, यदि काम करते हुए ही सुनना भर है तो रेडियो लगा लो।”
बात भी सही है पर आदतें जल्दी कहाँ बदलती हैं। टीवी का अपना अलग आनंद है..... घर भरा पूरा लगता है, ऐसा नहीं लगता कि अकेले काम किए जा रहे हैं। बीच-बीच में चैनल बदलते रहो। कभी समाचार, तो कभी गाने या फिर स्वामी जी का प्रवचन। भला एक ही जायके से कहीं पेट भरता है, पेट भर भी जाए तो मन तो बिल्कुल भी नहीं भरता। इसी तरह काम करते और टीवी चैनल सर्फिंग करते-करते अनायास टीवी के आध्यात्मिक चैनल, जिसका नाम आस्था या विश्वास था, ठीक से याद नहीं आ रहा, पर साधना को देखकर चौंक गई। मेरी उंगलियाँ जड़वत हो रुक गई। हाँ वह साधना ही थी। सफ़ेद साड़ी में लिपटी, एक साधारण सी कुर्सी पर बैठी हाथ में माइक पकड़े, प्रभावी ढंग से प्रवचन दे रही थी,
"खुशी आपके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है...... जब आप सर्व-समावेशी हो जाते हैं तो आपके अस्तित्व का अनुभव सुन्दर हो जाता है और इसीलिए आप खुशी से भर जाते हैं." मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
क्या यह वही साधना है, जो बाबाओं, गुरुओं और पंडितों का मज़ाक उड़ाया करती थी, उनसे कोसों दूर भागती थी, उन्हें ढकोसले-बाज, धूर्त-पाखंडी कहा करती थी।
हाँ यह वही थी। साधना को पहचानने में मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकती। फिर चाहे वह सफेद साड़ी में श्रीहीन ही क्यों न लग रही हो। साधना मेरी बेस्ट फ्रेंड..... केवल फ्रेंड नहीं समय पड़ने पर वह मेरी गार्जियन बन जाती थी।
“वास्तव में खुशी या दुःख किसी वस्तु या सांसारिक वैभव से अल्पकाल के लिए तो मिल सकता है पर वह स्थाई नहीं होता।”
साधना की वाणी में तेज था। आत्मविश्वास से लबरेज़। ऐसा लग रहा था जैसे आध्यात्म की क्लास ले रही हो। क्लास तो वह मेरी भी रोज़ लिया करती थी। हम हम-उम्र, हम-कक्षा और हम-बिरादरी थे पर ज़रा सा भी मौक़ा मिलता और वह गार्जियन बन जाती। पूरे अधिकार और रौब से मेरी क्लास लेने से न चूकती।
“इतना हँसा मत करो..... इतनी सुरीली आवाज में रिक्शेवाले को बुलाने की ज़रूरत नहीं है….आज तुम अकेले क्यों आई रिक्शे से…. रामलाल तुम्हें छोड़ने आता है न… ?” ऐसी न मालूम कितनी हिदायतें रोज़ मुझे दिया करती। यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन करते हुए साधना मुझे ऐसे संभाल कर रखती जैसे मैं कोई दुर्लभ वस्तु हूँ और सभी मुझे ही प्राप्त करना चाहते हैं। भला साधना को पहचानने में, मैं कभी भी भूल कर सकती हूँ। नहीं..... कभी नहीं...... वह साध्वी साधना ही थी।
साधना अपने घर की छोटी से छोटी बात मुझे बताया करती..... जैसे उसकी माँ सौतेली हैं..... पापा को माँ की हर बात में तत्व नज़र आता है, चाहे बात यही क्यों न हो कि बेटी को ज्यादा पढ़ाना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। साधना दूर तक पढ़ाई करना चाहती थी, मेधावी जो थी, लेकिन उसके पापा को माँ की दलीलें ही सही लगती।
साहित्य हमारा प्रिय विषय था, लेकिन साधना साहित्य को दर्शन और मनोविज्ञान के साथ जोड़कर रिसर्च करना चाहती थी। वह केवल घर-गृहस्थी तक ही सीमित न रहकर नाम कमाना चाहती थी..... लेकिन उसकी माँ उसकी जल्द सी जल्द शादी करना। उन्होंने लड़का भी पसंद कर लिया और दलील पेश की कि लड़का दहेजू है तो क्या हुआ, साधना जैसी बेहद सामान्य सी शक्ल और भारी डील-डौल वाली लड़की का हाथ लखपति का बेटा विनम्रता की सब हदें पार कर मांग रहा है, यह क्या कोई कम बड़ी बात है।
फिर वही हुआ जो होना था।
बी.ए. का रिजल्ट भी नहीं आया था और साधना की शादी हो गई।
साल दो साल संपर्क बना रहा फिर शहर दूर हो गए। संपर्क माध्यम आज जैसा न था। हम कटते चले गए। साधना से बिछुड़ कर मैंने छह साल में एम्.ए. और पी.एच.डी किया ....फिर शादी ….उसे भी दस साल बीत गए। सोलह साल बाद आज साधना से मिल भी रही थी तो इस रूप में....... सशरीर नहीं, टीवी पर।
जैसे मिट्टी-खाद-बीज सब एक सा हो, लेकिन माली अलग हो, वातावरण और हवा-पानी अलग हो तो पेड़ अलग-अलग रंग-रूप आकार में पनपते है, हम दोनों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
जिसको इतने वर्षों के अंतराल में लगभग भुला चुकी थी, आज उसके विषय में सब कुछ जान लेने को मन व्याकुल हो उठा, लेकिन कैसे? कोई उत्तर न था मेरे पास सो चुप लगा गई और अपने दैनन्दिन के क्रिया-कलापों में व्यस्त हो गई।
एक दिन बालकनी के कोने में बासी परांठा-चाय के साथ नरेंद्र कोहली जी की किताब “सैरंध्री” का लुत्फ़ उठा रही थी कि मोबाइल बज़ा और दूसरी तरफ से जो आवाज़ आई वह चौंकाने वाली थी।
“सवि, तू ही बोल रही है न….”
“साधना.....” बिजली से लगे झटके की तरह मैं उछल गई। इतने सालों बाद चन्द दिनों पहले ही मुझे उसकी याद आई और आज फोन भी आ गया। मन से मन के तार जुड़ना क्या इसी को कहते हैं। टेलीपैथी क्या यही होती है। कहते हैं न कि ..... शिद्दत से जिसे याद किया जाए, सारी कायनात उसे मिलाने में जुट जाती है। अकस्मात् आए साधना के फोन ने मुझे दार्शनिक बना दिया। मेरी खुशी का पारावार न था। मैं बीसियों साल का इतिहास बड़े से परदे पर चल रहे सिनेमा की तरह जान लेना चाहती थी।
“साधना तुझे एक दिन टीवी पर देखा...... यह साध्वी कब से बन गई तू.... बड़ी-बड़ी बातें करने लगी है। बातें तो तू पहले भी बहुत किया करती थी...... दर्शन-शास्त्र में पी.एच.डी. कर ली क्या? इतने सालों बाद किस बात ने मेरी याद दिला दी और तूने मुझे खोज भी लिया।”
“मेरी भी सुनेगी या बोलती ही जायेगी…. बिमला जीजी के जेठ के लड़के की शादी में तेरी दीदी मिली, उन्हीं से तेरा नंबर लिया। अच्छा किया तूने इतने साल मेरी खबर नहीं ली, ली होती तो दुःख होता। अब सब ठीक है।”
इतने से मुझे कहाँ संतोष होता, मैंने पूछा, “तूने मेरी बात का जवाब नहीं दिया। तू दार्शनिक कब से बन गई, और यह क्यों कह रही है कि मैंने खबर नहीं ली तो अच्छा किया।”
उधर से आवाज आई।
“तेरे शहर में मेरा प्रवचन है। अगले हफ्ते आ रही हूँ। मिल कर बैठेंगे तब दुनिया जहान की बातें होंगी। अभी रखती हूँ...... आरती का समय हो गया।”
मेरा माथा ठनका।
एक बार लगभग मुझे खींचते हुए साधना अमरूद के पेड़ के नीचे ले गई थी। यूनिवर्सिटी का वही अमरूद का पेड़ जो हमारी मित्रता, रूठना-मनाना और पढ़ाई का एकमात्र गवाह हुआ करता था। वहाँ पहुँच कर वह आवेश में बोली थी, “सवि, तू ही बता भगवान के चारों ओर गोल-गोल दिया घुमाने से क्या किसी के पाप धुल जायेंगे … माँ कहती है मुझे आरती याद होनी चाहिए, इसलिए रोज़ पूजा में बैठना चाहिए..... शादी के बाद यही काम आयेगा..... पढाई-लिखाई धरी रह जायेगी…. ये भी कोई तर्क है..... मैं नहीं करने वाली आरती-वारती...... कितना टाइम वेस्ट होता है। एक प्रोजेक्ट बना लूंगी इतनी देर में......”
आज वही साधना ....... कुछ बात तो ज़रूर है। उससे मिलने, बात करने का मेरा निश्चय दृढ़तर होता गया।
पिछले एक घंटे से सारी कोशिशों के बावजूद मैं उस मुद्दे पर न आ सकी जो जानना चाहती थी। साधना कब पहुंची, कितने भक्त उसके साथ थे, कहाँ ठहरी, प्रवचन कैसा रहा ...... सारी बातें कर ली मैंने, पर वही नहीं पूछने की हिम्मत जुटा पा रही थी, जो पूछना चाहती थी। तभी सुन्दरी बेहद शालीनता से चाय की ट्रे ले आई। सुन्दरी के परिचय से बात शुरू हुई तो दुल्हनिया रधिया से होते हुए साधना तक पहुँच गई।
“सवी ..... मैं तो तेरी सुन्दरी और रधिया से भी ज्यादा कमज़ोर निकली। सुन्दरी पढ़ना चाहती है तो घरों में झूठे बर्तन धोकर, माँ-बाप का विरोधकर, मामा के घर रहकर पढ़ रही है ..... मैं तो इतनी सी भी हिम्मत न जुटा पाई......और वह गंवार डरी-डरी सी रहने वाली रधिया ने दहेजू से शादी करने से इनकार कर दिया, बारात दरवाजे पर आती उससे पहले भाग गई, उसके साथ जिसे पसंद करती थी…. जिसके साथ उसका नैन-मटक्का था। है…. न….”
“हाँ...... पर हुआ क्या तेरे साथ?”
“एक लाइन में तुझे अपनी कहानी सुनाती हूँ ...... इन्होंने शादी की पहली रात में ही मुझे बता दिया कि उनकी पहली पत्नी की दो संतानों को पालने के लिए उन्होंने शादी की है और मुझसे उन्हें कोई बच्चा नहीं चाहिए ...... सास ने समझाया कि मेरा पति किसी ऐसी बीमारी से ग्रसित है जो पत्नी के सानिध्य से जानलेवा हो सकती है........ ननद ने समझाया कि मैं बहुत समझदार हूँ...... प्रभावी ढंग से बोलती हूँ, ज़रा सी मेहनत की तो सम्मान से, स्वाभिमान से जी सकती हूँ, बिना किसी को नाराज़ किये।
दर्शन-शास्त्र में मेरी रूचि थी ही...... मेरे धर्म-ग्रन्थ पढ़ने में किसी को आपत्ति न थी। असमय ये मुझे छोड़कर ईश्वर को प्यारे हो गए। मुझे कोई दुःख नही हुआ। मेरी आँखों से दो बूँद आँसू नहीं निकला। मेरा आहत मातृत्व अब किसी भी रिश्ते को स्वीकार करने की अवस्था में न था और मैंने यह राह चुन ली, जहाँ आज मैं हूँ।” साधना ने मेरी ओर मुस्कुरा कर देखा और चुप हो गई।
कुछ भी कहने और सुनने को शेष न था।
अंत में यही कहना चाहूंगी कि बासी परांठे सी रधिया, चटक मसालेदार दालमोठ सी सुन्दरी और साधना की मधुर-मीठी यादों सामान बालकनी का यह कोना, मेरे अभिन्न अंग हैं।
सुधा गोयल " नवीन"
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इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मास्टर्स (हिंदी )
'और बादल छंट गए " एवं "चूड़ी वाले हाथ" कहानी संग्रह प्रकाशित
आकाशवाणी से नियमित प्रसारण एवं कई पुरस्कारों से सम्मानित ...
झारखंड की चर्चित, एवं जमशेदपुर एंथम की लेखिका