रोल-नंबर दस?
किसी अनजान आदमी को स्वाभाविक ही प्रश्न उठे कि मैं रोल-नंबर नौ भूल ही गया, टीचर को ठीक से गिनती भी आती नहीं! लेकिन मुझे या मेरे वर्गखंड के बच्चों को इस बात का जरा भी आश्चर्य नहीं हो सकता। क्योंकि आठ के बाद हमेशा दस नंबर ही बोलना था। नौ नंबर तो विक्रम का था। और उसका नंबर मैं बोलूं या ना बोलूं, वो कहां सुनने वाला था!
लालजीभाई के वर्ग में जब वो दाखिल हुआ था तब से सब उसे ‘मूँगला’ कह के ही बुलाते थे। लेकिन असल में वो जन्म से मूक-बधिर कतई नहीं था। हाँ, उसे बोलने में काफी कठिनाइयाँ होती, थोड़े-बहुत अस्पष्ट उच्चारणों से कुछ आवाजें भी निकाल सकता था। ये बात अलग थी कि उसकी आवाज सब जरूर सुन सकते थे लेकिन कोई उसे समझ नहीं पाता था।
परंतु, सब उसे इस तरह ‘मूँगला’ कह के बुलाये ये मुझे अच्छा नहीं लगता था। तो मैंने लालजीभाई से बिनती कर के उसे अपने क्लास में ले लिया। उस समय लालजीभाई ने कहा था, ‘क्या फर्क पड़ सकता है भला? मेरे पास पढ़े या आपके पास। हैं? उसे तो ना ही कुछ बोलना है और ना ही कुछ सुनना। बिलकुल मूँगला ही रह जायेगा वो मूँगला।’
‘कोई बात नहीं, बिफिकर रहिए। रजिस्टर में दर्ज उसका नाम सही-सही उसके कानों में सुना सकूँ तो भी बहुत है मेरे लिए,’ मैंने कहा और लालजीभाई जोर-जोर से हँसने लगे, फिर व्यंग में बोले, ‘बहुत अच्छे ... बहुत अच्छे, पढ़ा दीजिए ... पढा दीजिए, सारा ज्ञान भर दीजिए उसके दिमाग में। बना दो उसे जल्दी से बहुत बड़ा अफसर। हम तो जैसे कुछ पढ़ाते ही नहीं होंगे न! लेकिन एक बात सुनिए, यदि आप उस मूँगले की अगर सिर्फ भाषा भी समझ पाएँ न, तो आपका गुलाम बन जाऊँगा ... जाइए।’
मेरे वर्ग में आने के बाद, जैसे-जैसे मैं उसके करीब जाता गया, वो वैसे ही और भी खिलने लगा। जितना मुझे उससे था उससे भी ज्यादा लगाव उसे मुझसे होने लगा। शाला के मैदान में मेरा स्कूटर दाखिल होते देख तुरंत ही वो मेरे पास दौड़ के आ जाता था। स्कूटर के सामने दीवार बन के खड़ा हो जाता, तब मुझे स्कूटर उसको सौंप देना पड़ता था। वो स्कूटर को पेड़ की छाया में रख देता। मेरा लंचबोक्स व पानी की बोतल ले के आ जाता। वर्ग में सब चीजें मेरे टेबल पर ठीक से रख देता। रीसेस में मैं खाने पे बैठूँ तब मुझे कहीं उसका कोई काम तो नहीं पड़ा, उस बात की जाँच खुद ही दो-तीन बार कर लेता। छुट्टी के समय फिर वो लंचबोक्स और बोतल स्कूटर पर रख आता और स्कूटर भी मैदान के बाहर निकाल देता। ये सारे काम अगर मैं उसे ना करने देता या कोई और ये काम कर लेता, तो नाराज हो के विचित्र आवाजें निकाल के पूरा स्कूल सर पे ले लेता। वैसे भी पढ़ाई में तो उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, तो बाहर के इन सब कामों में अपना हुनर दिखाने का उसे भारी शौक रहता।
एक दिन छुट्टी के समय स्कूटर बाहर निकाला तो उसने देखा कि पहिये में पंक्चर हुआ था। इशारे और आवाजों से उसने मुझे पंक्चर दिखाया। उस दिन किसी महत्वपूर्ण काम से मुझे कहीं जाना था, सो मैं बहुत व्याकुल हो गया। सामने के गैरेज तक वो मुझे ले गया। पंक्चर होने तक मैं तनावग्रस्त होकर बैठा रहा। समय व्यर्थ जाने से मैं बहुत खिन्न और उदास हुआ। मेरे साथ विक्रम भी मुझे देखता हुआ बैठा रहा। मानो वो निरंतर मेरे तनाव को भाँपने की फिराक में था। मुझे व्याकुल देख वो खुद भी परेशानी महसूस करने लगा था।
अगले दिन विक्रम में एक परिवर्तन दिखाई दिया। छुट्टी होने के समय से एक घण्टे पहले ही वो मेरे स्कूटर के पास जाँच-पड़ताल कर आया। मैंने पूछा, ‘क्यों भई? क्या हुआ?’
उसने इशारों से बुलंद आवाज़ में मुझे समझाया, ‘देख रहा था कि आज तो पंक्चर नहीं है न? वो कल आप कितने परेशान हुए थे न!’
उस दिन से रोज वो एक घण्टे पहले ही पंक्चर की जाँच-पड़ताल खुद ही करने लगा था। जितना मैं उसके संकेतों की भाषा को समझने लगा था उतना ही मेरा उससे लगाव भी बढ़ रहा था। उसके खास तरह के संकेतो को समझना मुश्किल होता, उसके अस्पष्ट उच्चारणों का अर्थघटन करना कठिन होता, दिमाग पर जोर डालकर भी जब उसकी बात तक पहुँचने में सफलता मिलती तब मन को सुकून मिल जाता।
एक बार किसी कारणवश मुझे पाँच दिनों की छुट्टी पर जाना हुआ। अगले हफ्ते जब मैं छुट्टियों से वापस लौटा तब मेरे स्वागत के लिए स्कूल के दरवाजे पर विक्रम हाजिर नहीं था। पूछने पर लालजीभाई ने बताया, ‘अरे ... विक्रम... यानी वही मूँगला न? क्या बताएँ, आपके बिना तो हम उसको सँभाल ही ना पाए। आपके जाने के बाद पहले ही दिन वो क्लास में बैठा ही नहीं, तो मैंने उसे अपने क्लास में बिठाया। लेकिन रीसैस के बाद तो कब, कैसे और कहाँ भाग गया, पता ही न चला! लेकिन हां, जाते-जाते भी एक कारस्तान कर गया है आपका वो मूँगला। हम लोग भले ही उसे पढ़ना-लिखना सीखा न सके, लेकिन आपने तो उसे बिगाड़ ही दिया?’
‘क्यों? क्या किया उसने?’ मुझे आश्चर्य हुआ।
‘मेरी बाइक में पंक्चर कर गया।’ लालजीभाई रुआब से बोले, ‘और बस, उस दिन मैंने उसे बराबर मेथीपाक चखाया। फिर एक भी दिन स्कूल में दिखाई नहीं दिया।’
झटका लगा मुझे। विक्रम ऐसा कर सकता है भला! लालजीभाई की बात से मुझे एक बात समझ में आई कि विद्यार्थी जो भी अच्छा-बुरा काम करे उसमें उसके शिक्षक की परछाई देखी ही जाती है। वर्गखंड में जाकर मैंने दूसरे बच्चों से कहा, ‘जाओ जल्दी से विक्रम को बुला के लाओ।’
बच्चों ने बताया, ‘सर, आप आयें हैं ये पता चलते ही हम उसे बुलाने गये थे, उसने हम लोगों को कहा था कि जिस दिन हमारे सर आ जायें, मुझे बुलाना ... देखिए, वो आ भी गया।’ मेरी तरह उसके दोस्त भी उसकी भाषा को कुछ-कुछ समझने लगे थे।
विक्रम आया। मुझे देखकर उसके उतरे हुए चेहरे पर कुछ चमक आ गई। मेरी कुर्सी से सटकर खड़ा रहा पर मुझसे आँखें नहीं मिला रहा था। फिर यकायक हाथों को फैलाकर जोर-जोर से तरह-तरह की आवाजें निकालकर मेरे कान और दिमाग को उसने अपनी बातों से भर दिया, मानों कोई भड़ास निकाल रहा हो। उसकी प्रतिक्रियाओं का अर्थघटन करने में मुझे काफी देर लगी। उसकी आवाज में मेरे लिए डांट भी थी और इतने दिन मुझसे न मिल पाने का दर्द भी था। दूसरे शिक्षको ने उसे अपमानित किया होगा, उसका गुस्सा भी छलका।
फिर भी, लालजीभाई की बाइक में उसके पंक्चर कर देने की बात का कोई हिसाब मुझे मिला नहीं। लेकिन उसे इस बारे में पूछना मुझे उचित नहीं लगा। उस दिन भी रीसेस के समय जब सारे छात्र बाहर गये थे तब विक्रम चुपके से लालजीभाई के बाइक के पास गया और मैने अपनी आँखों से उसे उसमें कील लगाते हुए देखा! एक और झटका मेरे को लगा। लालजीभाई की शिकायत जरा भी गलत नहीं थी। ये लडका ऐसी करतूत कैसे सीख गया? वो भी ऐसे यकायक?
मैं तुरंत लालजीभाई के पास दौड़ा गया और बोला, ‘आपकी बात सही साबित हुई, इतना ही नहीं आज भी विक्रम ने वो ही पराक्रम दोहराया है।’
लालजीभाई आगबबूला हो गये, ‘देखा न? मैंने कहा था न, आप क्या सिखा पायेंगे उसे? ये? ये सिखाया? बुलाओ ... बुलाओ उस मूँगले को, उसके बाप को भी बुलाओ, आज तो सब के सामने सच उगलवाएँगे। मूँगला ... मूँगला क्या हुआ, बिगडा हुआ डॉन हो गया! उसमें भी आप तो उसकी भाषा समझने के लिए ले गये थे मेरे रजिस्टर से। क्या समझ पाए आप उसकी भाषा? बताइए न? आज मैं उसको छोडनेवाला नहीं। है कहाँ वो? बुलाते हो या मैं ही जाऊँ?’
मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘मैं डांटूगा उसे, आप चिंता ना करें। पंक्चर भी मैं ठीक करवा दूँगा। लेकिन जरा मुझे एक बात बताइए, उस दिन और कुछ हुआ था क्या?’
‘आप कहना क्या चाहते हो भई? प्रिन्सिपल साहब भी थे उस दिन, हम लोग आप की तरह उसकी गलतियां नजरअंदाज कैसे कर सकते है? उस दिन जो भी हुआ होगा, आप उससे ही क्यों नहीं पूछ लेते? हम क्यों बताये, उससे ही पूछिए कि आखिर हुआ क्या था?’ गर्म और ऊँची आवाज में लालजीभाई बोले और फिर होठों को मोड के कडक स्वरों में कहने लगे, ‘नहीं हमें तो कहना ही नहीं, जाइए, बडे लाटसाहब बन के उस मूँगले की भाषा समझने निकले थे न ... तो उससे ही जानिए पूरी हकीकत। वो मूँगला कैसे बतायेगा? लिख के? हाँ? लिखना तो आप उसे सिखा नहीं पाए! हाँ? तो बोलेगा भी क्या? हाँ? और बोलेगा भी तो क्या बोलेगा? जैसे तैसे हकीकत बतायेगा तब तक तो आप रिटायर्ड हो चुके होंगे! हा ... हा ... हा...’
‘बीस मिनट में अगर पूरा सच बाहर ना लाऊं तो कहना मुझे!’ कहते हुए मैं बाहर निकल गया। मैंने लालजीभाई का चेलेन्ज उठा लिया।
गेरेजवाले को बुलाकर लालजीभाई का बाइक ठीक करने भेज दिया और परेशान-सा अपने वर्ग में आया। सभी बच्चों को बाहर मैदान में खेलने भेजकर विक्रम को पास बुलाया। जैसे ही मैंने बात शुरु की तुरंत ही वो रो पडा।
मुझे खयाल हुआ कि अब वो भी मेरी भाषा समझ सकता है। पूरी मेहनत से और उसकी समज के इशारो-संकेतो से और आवाज की मदद से सब पूछा। उसने भी एक के बाद एक बात इशारों और आवाजों से समझाई। एक-एक बात मेरे सामने खुलती गई और सत्य मेरी समझ में आने लगा। सब कुछ बताते हुए वो बहुत रोया। उसको शांत कर के बाहर सब के साथ खेलने भेज दिया।
दिमाग को शांति दिलाने मैं ऑफिस में आके बैठा कि लालजीभाई आ धमके, ‘कुछ कहा क्या आपके मूँगले ने? बताइए तो सही, चुप क्यों हैं भई? आप उसे बोलना ना सीखा सके, ना सही, लेकिन कहीं उसने ही आपको मूँगला तो कहीं बना नहीं दिया ना? हा... हा... हा...’
‘सब पता चल गया है, उस दिन जो हुआ था ... सब विक्रम ने बताया मुझे।’ मैंने शांत होके कहा।
सामने कुर्सी पे बैठे प्रिन्सिपल साहब की आँखों में भी चमक आ गई, ‘अच्छा? फिर तो बता ही दो भैया, एक मूँगला कितना कह सकता है और आप कितना समझ सके है ... जरा हम भी जानें!’
‘उसने तो पल-पल की बात समझाने की पूरी कोशिश की थी साहब, लेकिन मैं जितना और जैसा समझ सका हूँ, मेरे ही शब्दों में कहूँगा। उसके जैसी डिटेइल नहीं कह सकता ... शायद इसलिए कि मैं तो मूँगला भी नहीं!’ पहली बार मेरे मुँह मे उसके लिए ‘मूँगला’ शब्द आ गया।
‘ठीक है, ठीक है। आप बोल डालिए।’ लालजीभाई बोले।
विक्रम की कोशिश से उस दिन के बारे में मैं जो समझ सका था, मैंने अपने शब्दो में शुरू किया, ‘देखिए, उस दिन रीसेस में कोई नहीं था, आप और प्रिन्सिपल साहब बगीचे में बैठे थे। विक्रम को आपने बगीचे में पौधे को पानी देने के काम में लगाया था।’
‘हाँ, बिल्कुल सही।’ प्रिन्सिपल साहब बोले।
‘उस समय आप दोनों जो बातें कर रहें थें वो तो याद ही होगी?’ मैंने पूछा। और प्रतिभाव का इंतजार किये बिना आगे बोला, ‘आप लोग समझते रहें कि ये मूक-बधिर जैसा बालक आपकी बात क्या सुनेगा? यदि सुनेगा तो भी किसको और कैसे बता पायेगा? ठीक है ना?’
प्रिन्सिपल साहब और लालजीभाई तो सुन्न पड गये! दोनों की आँखे फैल गईं। उसके फड़क रहे चेहरे को देखते हुए मैं आगे बोला, ‘उस दिन मेरे स्कूटर में पंक्चर करने के लिए आपने अपने ही वर्ग के किसी बच्चे को भेजा था न! विक्रम ने वो बात बराबर सुन ली थी, और उसी बात का नतीजा आज आप देख रहें हैं।’
वो दोनो लोग एक-दूसरे के सामने दिग्मूढ-से बने देखते रहे, फिर यकायक दोनों ठहाके लगाने लगे। हँसते हुए प्रिन्सिपल साहब आखिर बोले, ‘मास्टर, वाकई आप जीत गए।’ कहकर उन्होंने लालजीभाई को ताली दी और फिर दोनों हँसने लगे।
अब दिग्मूढ होने की मेरी बारी आई, मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि ये लोग हँस क्यों रहें हैं? मेरे सताये-से चेहरे को देख लालजीभाई ने स्फोट किया, ‘देखिए मास्टरजी, उस दिन हम उसकी और उसके जरिए आपकी एक तरह से परीक्षा लेने ही ये सब बोले थे। लेकिन उसका नतीजा ऐसा आयेगा ये हम भी नहीं जानते थे। लेकिन सही मायने में आप उसके गुरू साबित हुए है। मान गये भई!’
मैं अचंभित हुआ। खड़ा हुआ और जाते-जाते उन दोनों से एक प्रश्न पूछने से अपने आप को रोक नहीं सका तो मैने आखिर पूछ ही लिया, ‘मेरी परीक्षा लेने पंक्चर की और वो सारी बातें बनाईं वो तो ठीक है, लेकिन शिक्षक महोदय, जरा ये बताने का भी कष्ट करें कि, अगर ऐसा ही था तो फिर वो नई-नई आई हुई हमारे स्कूल की खूबसूरत विद्यासहायिका मेडम की बातों को भी मेरे मूँगले के सामने पेश करने की क्या आवश्यकता थी? हाँ?’
पूछ कर प्रत्युत्तर की राह देखे बिना ही उन दोनो ‘मूँगले’ को वही ऑफिस में सुन्न छोडकर बिना देर किये मैं बाहर निकल गया।
मेरी बात.....
..कोई बडी बात नहीं हैं मेरी । गुजरात में मेरा वतन है, मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा से भी लगाव रहा है । इसलिए दोनो भाषाओं में कहानियां लिखता हूँ ।
जीवन के किसी भी कोने में मिले अनुभव को कभी न कभी ऐसे किसी न किसी स्वरुप में बाहर आना ही होता है । मन में बोये गये बीज अपने आप ही अपने समय पर पनपते रहते है कहानी का प्रसव भी पीडादायक होने के साथ आनंददायक भी होता है ।
व्यवसाय से शिक्षक हूँ । प्रारंभ में हिन्दी में ही डायरी (रोजनीशी) लिखने की आदत पडी थी । बाद में गुजराती और हिन्दी दोनो में कहानियां लिखना पसंद आया । भावनगर गद्यसभा का भारी सहयोग मिला, जिससे कि मेरी लिखावट में जान आई ।
पहली पुस्तक सन २००२ में प्रगट हुई । बाद में दोनो भाषाओ में कुल मिलाकर पाँच कहानी संग्रह प्रगट होने तक का सफर कट गया । तीन लघुनवलकथायें (लघु उपन्यास) भी लिखी हैं । लेकिन कहानी से मुझे भारी लगाव रहा है । कहानी मेरा सनातन प्रेम है ।
पाठको और कहानी के बीच से स्वयं को निकालते हुए मैं अपनी कहानियों के ऊन सभी किरदारों का ऋणस्वीकर करना चाहूँगा, जिन्होंने मुझे कहानियों की ओर मोडा है, जिनकी यादें अनजाने में – या – जान-बूझकर, मैं यहाँ लिख नहि पा रहा हूँ ।
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अजय ओझा. (०९८२५२५२८११) ई-मैल oza_103@hotmail.com
प्लोट-५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल, घोघारोड, भावनगर-३६४००१(गुजरात)
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