बहुत दिनों से नौवीं की छात्रा कलिका, स्टाफ- रूम में चर्चा का विषय बनी हुई है. शिक्षिकाएं एकमत हैं कि उसे कोई मानसिक समस्या जरूर है. सबको श्रीमती मीरा वर्मा का इंतजार है, जो अपने ढीली सेहत के चलते, लम्बी छुट्टी पर थीं और वापस स्कूल ज्वाइन करने वाली हैं. आठवीं में वे ही कलिका की कक्षाध्यापिका रहीं और अपनी इस हंसमुख, मेधावी शिष्या की तारीफ़ करते, थकती नहीं थीं. आठवीं में कलिका अव्वल आयी थी; किन्तु इधर कुछ महीनों से वह, विचित्र व्यवहार करने लगी है. बात बात में रो पड़ती है. पढ़ाई से भी, उसका जी उचाट हो गया है. उसके पिता किसी दूसरे शहर में नौकरी करने लगे हैं अतएव उनसे बातचीत संभव नहीं. माँ थोड़ी जाहिल हैं, ऐसा कलिका की सहपाठियों ने बताया.
वापस आने पर मीरा को, तत्काल ही, समस्या का पता चला. वे हैरान रह गयीं. चंचल स्वभाव वाली कलिका हर जरूरी और गैरजरूरी चर्चा, उनसे किया करती थी. कई बार तो वे उसे, प्यार भरी झिड़की दे डालतीं...यह कि वह अपने पालतू तोते और शरारती सहेलियों का जिक्र, उनसे न करे. स्कूल में स्कूल की बातें ही होनी चाहियें. लेकिन कलिका अक्सर, उनकी हिदायत भूल जाती. अब ऐसा क्या हुआ, जो वह गुमसुम रहने लगी थी?? और तो और, साथवाली लड़कियां कह रही थीं कि बातूनी कलिका, अब खाली पीरियड में, रफ़- बुक लेकर बैठी रहती है. उसमें आड़ी- टेढ़ी रेखाएं खींचती है या कविताओं जैसा कुछ लिखती है.
मीरा को यह खतरे की घंटी जैसी लगी. उन्होंने फ़ौरन उसे बुलवा भेजा. स्कूल में अलग ही माहौल था. सब जलसे की तैयारी में लगे थे. एनुअल डे आने वाला था और कलिका किसी इवेंट का हिस्सा नहीं थी; उससे बातचीत करने का, यह सही समय था. मीरा लाइब्रेरी में बैठी हुई थीं. वहां किसी के आने की, कोई संभावना न थी. कलिका आई और चुपचाप खड़ी हो गयी. उसे गंभीर पाकर मीरा ने पूछा, “यह क्या? तुम्हारे पास मुझे बताने के लिए कुछ नहीं?? इतना समय बीत गया...अब तक तो तुमने...ढेर सारे किस्से, जमा कर लिए होंगे!”
मीरा मैम के अपनत्व ने, उसे अभिभूत कर दिया. मन की पीड़ा, आँखों की राह से बह निकली. उन आसुंओं को देख, मीरा विचलित हो उठीं. वे अविलम्ब उठ खड़ी हुईं. उन्होंने सहानुभूति से, कलिका के सर पर हाथ फेरा. इसके साथ ही कलिका फफक पड़ी. उसने वह सब कुछ उगल डाला जो उसे परेशान कर रहा था. मन की गाँठों को, अपनी प्रिय शिक्षिका के समक्ष खोलते हुए, वह बहुत हल्का महसूस कर रही थी. मामले की जड़, उसके परिवार में थी. उसका भरा- पूरा संयुक्त परिवार था- उसके माता- पिता, छोटा भाई, दादाजी, दादीजी, साथ में उसके दो चाचा और दो बुआ. चाचाओं और बुआओं का विवाह होने के बाद, वे अलग रहने लगे. दादा, दादी, छोटे चाचा के साथ गाँव चले गये. बड़े चाचा, दिल्ली में रहकर, जॉब करने लगे और दोनों बुआ, अपनी ससुराल की हो गईं.
बाहरवालों की दृष्टि में उनका कुटुंब आदर्श कुटुंब है; किन्तु असलियत की, किसी को भनक तक नहीं. उसके पिता सुदर्शन, घर के सबसे बड़े बेटे हैं; इसी से, कम उम्र में ही, जिम्मेदारियों का बोझ, उन पर आन पड़ा. गाँव में उनकी अच्छी- खासी खेती है. सीमित आवश्यकताओं वाले परिवार का गुजारा, उस फसल की आय से, सरलतापूर्वक हो सकता है. परन्तु कुनबे के लोगों की आकांक्षाएं, सामान्य न थीं. जब कलिका के पिता की नौकरी, शहर में लगी; उनकी मांगें आसमान छूने लगीं. गाँव की पुरानी रीतियों के अनुसार, कम आयु में ही, सुदर्शन को, विवाह- पाश में जकड़ दिया गया. उस समय वे बारहवीं में पढ़ रहे थे. उनकी पत्नी शीतल ने आठवीं पास कर, नौवीं में प्रवेश लिया था.
सुदर्शन की पढ़ाई बदस्तूर जारी रही. वे शहर के हॉस्टल में रहकर, आगे की पढ़ाई करने लगे; किन्तु शीतल के लिए विवाह, जी का जंजाल बन गया. उन्हें ससुराल में रहकर, उस बड़े कुनबे को संभालना पड़ा. घरेलू कामों में वह, कोल्हू के बैल की तरह, झोंक दी जातीं; शरीर पस्त पड़ जाता; किन्तु उनकी सुध कोई न लेता. भविष्य मटियामेट हो गया...स्कूल छूटा सो अलग. धीरे- धीरे उनके भीतर, कुंठा के बीज पनपने लगे... ससुरालियों के प्रति द्वेष पलने लगा. एक दिन कलिका ने चुपके से मामा, मामी की बातें सुनीं तो पता चला कि काम के बोझ से, जब माँ बेतरह उकता जातीं; उन पर ‘आत्मा’ सवार हो जाती. अपढ़ ग्रामीण और कुटुम्बी, उनकी अवस्था को सच मान बैठते; किन्तु यह कोई न जान पाता कि शीतल की मनोग्रंथि ही, उनसे यह सब करवा रही थी. इस सबसे, एक उपेक्षित स्त्री, लोगों का ध्यान खींचने में समर्थ हो जाती...क्लांत देह को भी आराम मिल जाता! कलिका को लगता है कि मामा- मामी ठीक सोचते होंगे. माँ के भावनात्मक असंतुलन को भी उन्होंने, सही तरह समझा होगा. वे लोग ज्यादा पढ़े- लिखे और समझदार जो हैं.
शीतल की कहानी में, अभी और भी पेंच थे. समय के साथ वह, प्यारी सी बच्ची की माँ बन गयीं. पति की अच्छी नौकरी लग गयी. फिर भी उनके दिन नहीं फिरे. कम पढ़ी- लिखी होने के कारण, सुदर्शन की नजर में, वे कभी चढ़ नहीं पाईं. पति का रुझान, अपने घरवालों की तरफ ही रहा. निजी खर्चों में कटौती करके, वे उन सबको तुष्ट करते रहे. इस कारण शीतल को, बार- बार, मन मारना पड़ता. अपने लिए जी खोलकर, वे कभी कुछ नहीं खरीद पाईं. हद तो तब हुई, जब सारे दायित्व पूर्ण होने के बाद भी, उन्हें बख्शा नहीं गया. बिरादरी के मांगलिक- कार्यों में, उन्हीं से भेंट- चढ़ावे की उम्मीद की जाती है. ननदों को हर बार मायके आने पर, कुछ न कुछ देना पड़ता है. कई बार तो अपनी नई साड़ी उठाकर दे देती हैं. सास- ससुर की दवाइयों और इलाज का जिम्मा भी उनका...बीमारी- हारी में वे, उनके पास रहने चले आते हैं...दूसरे भाइयों को तो जैसे, कुछ मतलब ही नहीं!
सुदर्शन ने फिर भी, उनकी कीमत नहीं समझी. संभवतः इसीलिये, उनके बर्ताव में, रूखापन आ गया है और बोलों में कड़वाहट. वे बहुधा आक्रामक हो जाती हैं. उन्होंने बात- बात पर, पति को ताने देने शुरू कर दिए. उनके रवैये से, कलिका को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. वह नौंवीं कक्षा में क्या पहुंची, माँ ने मान लिया कि बिटिया बड़ी हो गयी; उस आयु में तो उनका ब्याह हो गया था. उन्होंने यह भी मान लिया कि अपनी दिक्कतों को, बेटी से साझा किया जा सकता था...और उसको हथियार बनाकर, वार भी! अम्मा की यह सोच, कलिका पर बहुत भारी पड़ी. जब गाँव से छोटी चाची आती हैं तो वे उसे चुपके से, अपनी नेलपॉलिश या लिपस्टिक को, चाची के बैग में रख आने को कहती हैं; ताकि उन्हें चाची को कोसने का बहाना मिल जाए.
दादा दादी से भी वह, माँ के सिखाने पर, कुछ कड़वा बोल देती है. बड़ी चाची के आने पर, अम्मा की ही प्रेरणा से, उनसे चॉकलेट और नए कपड़ों के पैसे मांगती है. यहाँ तक कि बिना पूछे, उनका सामान खंगाल देती है और साधिकार, उनकी चीजों पर कब्जा कर लेती है. जब छोटे चाचा का ब्याह हुआ तो खानदान की रीत के अनुसार, औरतें बारात में नहीं गयीं; वहां कलिका ही, एक तरह से, उनकी प्रतिनिधि थी. उसके संग चचेरे- फुफेरे भाई- बहनों की टोली थी. वे सभी आयु में उससे छोटे थे. उधर वह एक- एक करके, वधू- पक्ष की व्यवस्था में, खोट निकालने लगी- जैसे कि जनवासे में कम्बल कम थे...स्नानघरों की सफाई ठीक से नहीं की गयी...कुछ वाशबेसिनों के नल, काम नहीं कर रहे थे... आदि आदि. उसकी बातें सुन, बड़े- सयानों नें, दातों तले उंगली दबा ली. जान पड़ता है कि अम्मा के मन का विष, धीरे धीरे उसके भीतर उतर रहा है...और वह कुछ कर नहीं पाती...बस छटपटाकर रह जाती है!
माँ ने हाल में ही, उससे बड़े चाचा को संबोधित करते हुए, चिट्ठी लिखवाई- यह कि आपने छोटे चाचा के लिए चार लाख खर्च किये...मेरे लिए कम से कम छः- सात लाख तो खर्च कर ही सकते हैं. मेरी सहेली के पास डायमंड- ज्वेलरी का सेट है...मुझे भी अपने जन्मदिन पर वैसा ही चाहिए. चिट्ठी पढ़कर वे दंग रह गये. यह सच था कि वे प्रशासनिक अधिकारी थे और एक मोटी तनख्वाह, हर हफ्ते, उनके हाथ में आती थी. यह भी सच था कि वे छोटे भाई की आर्थिक मदद कर दिया करते थे ताकि वह गाँव के फार्म- हाउस और खेतों का रखरखाव, ठीक से कर सके ...पर इसका यह मतलब तो नहीं कि अपनी गाढ़ी कमाई, यूँ ही, उड़ा दें! हालांकि कलिका को अम्मा से बेहद सहानुभूति है पर कुकृत्यों में उनका साथ देकर, वह अपनी ही नज़रों में गिरने लगी है.
कभी उनके बहकावे में आकर तो कभी उनकी भावनात्मक धमकियों से विवश होकर, वह कुछ न कुछ ऐसा- वैसा कर बैठती है. बाद में अपनी करनी पर पछताती भी है. स्थिति यह है कि उसे चाचा लोगों से घुड़कियाँ मिलने लगी हैं... और दादी! वे तो गाहे- बगाहे, उस पर व्यंग कस ही देती हैं. लगता है कि उसके पापा सुदर्शन को भी, उसकी हरकतों की भनक मिल गयी है. उन्होंने उसकी वह डायरी फाड़ कर फेंक दी, जिसमें वह अपनी व्यथा, कविताओं के रूप में दर्ज करती थी...उनसे हिदायत मिली कि ऐसी फालतू बातों से चित्त हटाकर, वह पढ़ाई में लगाये. दिल की उथल- पुथल और खिंचाव उसे बेहाल कर देते हैं. अम्मा के झगड़ों से तंग आकर, पापा ने अपना तबादला ऐसी जगह करवा लिया है, जहाँ बच्चों के स्कूल तक नहीं. वे परिवार से दूर, शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं. उसको डर लगा रहता है कि कहीं वे उसे और माँ को छोड़ न दें! अब वे बिरले ही उनके पास आते हैं...यदि आते भी हैं, तो तने- तने रहते हैं और जल्द वापस लौट जाते हैं.
कलिका की उलझन छोटी नहीं थी. उसका आत्मसम्मान बार- बार चोटिल हो रहा था, उसे स्वयं से निराशा हो रही थी...किशोर वय की संभावनाएं, पथरा रही थीं... नकारात्मकता उन पर हावी हो रही थी! कलिका इतनी परिपक्व न थी कि परिस्थितियों से निपट सके. मीरा ने मन ही मन, एक रणनीति सोची और उसकी अम्मा को मिलने के लिए बुलवाया. उनके निर्देश पर, दूसरे ही दिन, शीतल का आगमन हुआ. उन्होंने चपरासी से, अपने आने की सूचना, मीरा को भिजवा दी. स्कूल के एकांत कमरे में, वे दोनों, आमने सामने थीं. मीरा ने शीतल को, बैठने का इशारा किया.
मीरा ने पाया, शीतल को सजने – संवरने में रूचि थी. मांग में चौड़ी सिन्दूर की रेखा, होंठों पर लाली, बड़ी कुमकुम की बिंदी...ढेर सी चूड़ियाँ खनकाती हुई कलाइयाँ...पायल, बिछिया, आलता...नेलपॉलिश! उन्होंने शीतल के साथ क्या विमर्श किया, यह रहस्य तो उस कमरे की चारदीवारी में ही दफ़न हो गया; पर जो औरत वहां से बाहर निकली, वह शीतल थी ही नहीं...दिल को मानों एक नया जूनून और नजरों को नया नजरिया मिल गया था...वह खुद को बदलने की ठान चुकी थीं.
शीतल को पति की व्यंग्योक्तियों का उत्तर देना था. उनका बार- बार अपढ़, मूरख कहकर बुलाना, अंदर तक छलनी कर देता था. मीरा के निर्देश पर, बतौर व्यक्तिगत परीक्षार्थी, वे हाई स्कूल की कोचिंग लेने लगीं. जीवन में नवीन उत्साह का संचरण हुआ. सुदर्शन की उपेक्षा और दुर्व्यवहार, उन्हें प्रायः याद आते; तब लक्ष्य- भेद का संकल्प, और भी प्रबल हो जाता. पति का फिर से गृह- स्थान पर स्थानान्तरण, कम से कम, चार वर्षों तक संभव न था. इस बीच, कैसे भी करके, उन्हें अपना ध्येय पा लेना था. इन गतिविधियों को पति के संज्ञान में, नहीं आने देना था. सुदर्शन को यह जानकारी भी न थी कि आखिरी साँस गिनते हुए, उनकी सासू माँ ने, शीतल को कुछ दिया था...कि वही पूंजी और गहने, उसके आर्थिक- संबल थे. अब वही उसके काम आने वाले थे- खुद को साबित करने के लिए... पति से सहयोग की, न तो कोई उम्मीद थी और ना बताने से ही कुछ लाभ!
खुद को बेहतर बनाने लगन में, बेटी को परेशान करने की आदत, खुदबखुद छूट गई. कलिका अब अम्मा के दबाव से मुक्त हो गयी थी. उन्हें विक्षिप्तता से, उबरते पाकर, उसकी ख़ुशी का ठिकाना न था. उनकी सकारात्मकता उसे भी सकारात्मक बना रही थी. उल्लास के रंग, उसके जीवन में फिर से लौट रहे थे. पापा जब आते तो माहौल में, बदलाव को महसूस जरूर करते; पर वह बदलाव फिर भी, उनके लिए रहस्य बना हुआ था. शीतल ने बिटिया के साथ ही, प्रथम श्रेणी में, दसवीं की परीक्षा उतीर्ण की. इतनी बड़ी उपलब्धि भी उन्होंने, पति से छुपा ली; भाग्य ने उनके साथ, जो खेल खेले थे...उन्होंने जो अन्याय झेला था, उसका प्रतिकार, योजनाबद्ध तरीके से होना था. कलिका को ऑनर्स के साथ, फर्स्ट डिवीज़न मिलने के बाद, सुदर्शन का रुख, कुछ नरम पड़ा. वे हफ्ते भर की छुट्टी लेकर आये. रिश्तेदारी और पड़ोस में मिठाई भी बांटी.
शीतल को लगा, उनके दिन बहुरने लगे थे. वर्तमान और अतीत, ज्यों एक ही तुला में तुल रहे थे. कई बिसरी यादें उमड़ पड़ी थीं. कच्ची उम्र में गर्भवती होने के कारण, उनका प्रसव जटिल हो गया. इसी से, बच्ची के जन्म के बाद, वे दूसरी संतान को, जन्म देने में असमर्थ थीं. वह खानदान को उसका चिराग, नहीं दे पाईं. उनका मोल गिर गया था! शीतल को इतना मजबूत बनना था कि नाइंसाफी से जूझ सकें. मीरा के सुझाव पर उन्होंने, ब्यूटिशियन का कोर्स, ज्वाइन कर लिया. खुद को संवारने का शौक, यहाँ काम आया. तीन माह में सर्टिफिकेट मिल जाना था. साथ ही, वे बारहवीं की परीक्षा के लिए, अध्ययन करने लगीं. मीरा और कलिका का प्रयास फलीभूत हो रहा था. सर्टिफिकेट मिलने के बाद, शीतल ने एक पार्लर में, पार्ट- टाइम, नौकरी कर ली. इतना सब करके भी, वे थकती नहीं थीं. कलिका को माँ पर गर्व होने लगा. जब उन्होंने भली- भांति ब्यूटिशियन का काम सीख लिया तो घर के ही एक अतिरिक्त स्टोर- रूम का, कायाकल्प कर, उसे ब्यूटी- सलून बनाया गया. इस सबमें मीरा मैम, मार्गदर्शक बनी रहीं. कलिका ने दौड़- दौड़कर कार्ड छपवाए और उन्हें मेहमानों को भिजवाया. उस ऐतिहासिक दिन, जब अम्मा के सलून का उदघाटन था; पापा चकित होकर, उनका नया रूप देख रहे थे. इस आमूल- चूल परिवर्तन पर, विश्वास करना भी कठिन था! किन्तु इस परिवर्तन ने, उनके घर को टूटने से बचा लिया था...मीरा मैम कोने में खड़ी मुस्करा रही थीं; अम्मा के लिए यह अनुभव, पुनर्जन्म जैसा था ...और कलिका के लिए भी!!
नाम- विनीता शुक्ला
शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)
परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)
अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)
कार्य अनुभव-
सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य
आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य
सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ
सम्पर्क- फ़ोन नं. – (०४८४) २९७६०२४
मोबाइल- ०९४४७८७०९२०
प्रकाशित रचनाएँ-
प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित
‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित
लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित
झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित
द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न
‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित
‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित
कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार
२६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित
‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी(२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन
‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित
‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता
प्रकाशित
जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित
तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित
१८- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर प्रथम अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित
, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के जनवरी (२०१५)
अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
२०- ‘जागरण सखी’ के फरवरी (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित
२१- ‘अटूट बंधन’ मासिक पत्रिका ( लखनऊ) के मई (२०१५), नवम्बर(२०१५) एवं
दिसम्बर (२०१५) अंकों में रचनाएँ प्रकाशित
२२- ‘वनिता’ के अक्टूबर(२०१५), फरवरी (२०१६) एवं दिसम्बर (२०१६) अंकों में
कहानियाँ प्रकाशित
२३- राष्ट्रीय दैनिक पत्र ‘सच का हौसला’ के ‘२०/९/१६’ अंक में कहानी प्रकाशित
२४ – ‘वनिता’ एवं ‘जागरण सखी’ के मई (२०१७) के अंकों में कहानियां प्रकाशित
२५- ‘वनिता’ के जनवरी(२०१८) अंक में कहानी ‘धूप- छाँव” प्रकाशित
२६- कहानी “धूप- छाँव” के लिए द्वितीय पुरस्कार
२७- लखनऊ की ‘सहित्यगंधा’ संस्था द्वारा, सन २०१८ का महिला कथाकार
सम्मान
२८- २ अक्टूबर २०१८ को प्रथम काव्य-संग्रह ‘एक्वेरियम की मछलियाँ’ का लोकार्पण
२९- ‘वनिता’ के अगस्त(२०१९) अंक में कहानी प्रकाशित
३०- २३ सितम्बर २०१९ को आकाशवाणी लखनऊ से कवितायेँ प्रसारित
पत्राचार का पता-
टाइप ५, फ्लैट नं. -९,
एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस,
‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स,
पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोच्चि, केरल- ६८२०२१
vinitashukla.kochi@gmail.com