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महामारी के दिनों में ... कहानी : 'डर'

  • अशोक गौतम
  • 25 मार्च 2020
  • 16 मिनट पठन

रोज दिन को जब बड़े डाकखाने से पंचायत के ब्रांच पोस्ट ऑफिस में डाकिया डाक का थैला लाता था तो वह बाजार के आसपास के अखबार शौकीनों को पांच सात अखबार भी ले आता था। उसमें चार पांच हिंदी पढ़ने वालों के होते तो एक दो अंग्रेजी के स्कूल के मास्टरों के। आसपास के गांवों में पांच-पांच सात-सात पास फेल पढ़े तो थे, पर अखबार पढ़ने का इतना शौक नहीं था।

मठ बाजार के पास वाले सरकारी प्राइमरी स्कूल के मास्टर जी तो अनटुट रोज शाम को रीड़कू दुकानदार की दुकान पर आ मुफ्त का तंबाकू पीने के साथ-साथ अखबार भी पी लेते थे। इस बात का रीड़कू लाले ने कभी भी बुरा नहीं माना। उसे इस बात का गर्व था कि उसकी दुकान पर इसी बहाने प्राइमरी स्कूल के बीए पास मास्टरजी रोज आकर उससे नए-नए टापिकों पर चर्चा कर लेते हैं और महीने का राशन भी उससे ही लेते हैं।

मठ बजार में पहले तो एक ही होटल था महेश का। पर जबसे वहां का मिडल स्कूल दसवीं तक हुआ था, तो तीन चार होटल और खुल गए थे नए। होटल काहे के, बस चाय पानी वाले। घास की छान के। ज्यादा ही हुआ तो हफ्ते में एकाध बार किसी ने दो चार किलो लड्डू, शक्करपारे बना दिए तो बना दिए। बाद में वे महीने में बिक गए तो बिक गए।

हाई स्कूल में जब कच्ची छुट्टी होती तो कुछ बड़े घरों के बच्चे आकर इनमे होटलों में आकर चाय पी लेते या फिर किसी के पास ज्यादा ही पैसे हुए तो आधी ब्रेड लेकर चाय के साथ चार बच्चों ने बांटकर खा ली। कुछ तो ऐसे भी होते थे कि आधी छुट्टी होते ही जोड़ की ब्रेड लेते और बिन चाय के सूखी ही खा लेते।

लेखराज का होटल तो चलता ही इन्हीं स्कूली बच्चों के आसरे था। उसके पास कच्ची छुट्टी में बच्चे इसलिए आ जाते थे कि वह इसी स्कूल का मैट्रिक पास था। बच्चों को लगता था कि अपने स्कूल से पढ़ा है। अपने जैसा है। दूसरे वहां बच्चों को रोक टोक भी कोई न थी। जो कोई उसकी आंख बचाकर या उसके सामने पकौड़े के थाल से पकौडे़ उठा लेता तो भी वह कुछ न कहता। कोई कोने में बीड़ी पी लेता तो भी वह कुछ न कहता। बल्कि कई बार तो वह उनके जगह-जगह छुपाए बीड़ी के बंडलों से बीड़ियां निकाल कर खुद भी पी लेता। यही वजह थी कि उसके पास स्कूली बच्चों का जमावड़ा लगा रहता। इसी वजह से दूसरे होटल वाले उससे चिढ़ते थे कि बच्चों को खराब करके रख देगा।

सुबह की चैल्वार खेतों में काम करने के बाद दोपहर को आसपास की धारों के गांवों से मर्द बिना नागा कंधे पर परना धरे मठ बाजार को उतर जाते , चाहे बरखा हो चाहे धूप। इस बहाने आपस में एक दूसरे से मेल मिलाप भी हो जाता और गप्प-शप्प भी। बाजार आते ही अपनी-अपनी जूट की कटी फटी बोरियों पर ताश की दगड़ियां जम जातीं। कोई इस होटल के आगे तो कोई उस होटल के आगे। और दूसरे जिनकी बारी ताश खेलने को नहीं आती वे इस ताक में रहते कि ज्यों ही कोई ताश की दगड़ी में से उठे तो वह ताश खेलने को उसकी जगह ले। नए पैदा होते ताश के खिलाड़ी ताश खेलने वालों के पीछे घंटों मौन खड़े रहते और उनकी हर चाल को गौर से देखते, समझते।

हर दगड़ी में दुस्सर। जो जीतते उन्हें हारने वाले चाय पिलाते। ताश की बाजी चाय पर लगती। ज्यादा ही हुआ तो चाय के साथ पकौड़े हो गए। ताश के पुराने खिलाड़ी ताश की बीस बीस बाजियां लगा कई बार तो अंधेरा हो जाने के बाद भी ताश खेलने में ही डटे रहते। बाद में चाहे फिर उन्हें गिरते पड़ते ही घर जाना पड़े तो जाना पड़े। होटल वाले भी उनको जाने को नहीं कहते थे, क्योंकि हर बाजी के बाद जो जीतते उन्हें हारने वाले चाय पिलाते। इस बहाने उनकी चाय पकौड़ों की बिक्री भी हो जाती और उनका मन भी हल्ले में रमा रहता।

उस दिन जब अखबार, रेडियो से इलाके वालों को पता चला कि बाहर की बाछाइयों की तरह अपने देश में भी महामारी पांव पसार रही है, और यह महामारी एक दूसरे को छूने से फैलती है, तो धीरे-धीरे बाजार की आवाजाही कम होने लगी। धीरे-धीरे लेखराज तक के होटल के बाहर जहां ताश खेलने वालों का सबसे अधिक हल्ला पड़ा रहता था, जहां ताश खेलते हुए मुआ-फुक्या, मादरचोद, भैनचोद होती रहती थी , वहां पर अब सुनसान होने लगा। बस, मठ बाजार में कभी-कभार इधर उधर साबुन-लून के बहाने कोई दिख गया तो दिख गया। मठ बाजार के सबसे बुजुर्ग लाला रीड़कू नब्बे साल को होने को आ गया था, पर उसने बाजार में मड़थीउणी सा सन्नाटा कभी देखा हो, उसे याद नहीं। उसके दादा के बाप के बख्त में ऐसा हुआ होगा तो हुआ होगा। चाय बनाने को चूल्हे पर रखी केतली में पानी उबलता हुआ। हर होटल के आगे कुत्ते अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से पसरे हुए। कोई होटलवाला उनको पकौड़े का टुकड़ा फेंक देगा, इस उम्मीद में।

धीरे-धीरे मठ बाजार के सारे लाले गाहकों के दर्शन तक से मोहताज होने लगे। ऐसे में पास वाले गांव से पांच सात दिन को आ जाते तो लालों के फेफड़ों में सांस जाती। सारा दिन जिस बाजार में खूब चहल-कदमी रहती थी , लगता, ज्यों लोगों ने खुद ही डर से भी बड़े डर के डर से खुद ही तय कर कर्फ़्यू लगा दिया हो।

इसी डर के बीच अचानक एक और बात हुई। मठ के साथ लगते आठ दस घरों के गांव में अच्छरू दादे की ज्वाण्स देउकु मतलब, पूरे गांव की दादी को पता नहीं एकदम कैसी खांसी हुई कि सारा दिन काम कर-करके न थकने वाली जच्छ दूसरे ही दिन मंजा पकड़ गई। उसको जो एक बार खांसी हुई तो उसने उसके मरने के बाद ही उसका गला छोड़ा।

दो दिन हुए! चार दिन हुए! पर एक दादी की खांसी थी कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अच्छरू दादा अपने आप छोटी मोटी बदंगी करते थे। आसपास के इलाकों में उनकी बदंगी की धाक थी। उनकी बंदगी को लेकर कइयों को उन पर इतना विश्वास था कि कई तो यहां तक मानते थे कि वे अपनी दवा के जोर पर यमराज के द्वार से भी जीव को ले आते हैं।

अच्छरू दादा को इकलौता बेटा सिमला में बिजली बोर्ड में क्लर्क था। उसकी घरवाली बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने के बहाने दो साल पहले उसके साथ सिमला चली गई थी। तब अच्छरू दादा ने उसे कई बार कहा भी था कि तू भी तो इसी स्कूल से पढ़ा है। बच्चों को सिमला ले जाकर पढ़ाने की क्या जरूरत है? जिसने बनना हो वह कहीं भी पढ़ कर बन जाता है। यहां हम सब एक साथ भी रह लेंगे और बहू घर भी देख लेगी। ऊपर से चार पैसे बुरे दिनों के लिए बचेंगे सो अलग। पर सिमला जाने की जिद बहू की थी, सो अच्छरू दादा के बेटे की एक न चली और बहू उसके साथ सिमला जाकर ही मानी। भले ही अब महीने दो महीने बाद घर आकर उसे आटा दाल घी ले जाना पड़े तो ले जाना पड़े।

जब दादी की खांसी ठीक होने के बदले बढ़ती गई तो गांव वाले तो डरे ही, पर अच्छरू दादा भी डर गए। उन्हें भी लगा कि ये खांसी कोई मामूली खांसी नहीं। उनकी दवाई से तो कल तक पूरे इलाके की खांसी ठीक होती रही है, पर ज्यों-ज्यों मैं इस बुढ़िया को खांसी की दवाई दे रहा हूं, इसकी खांसी ठीक होने के बदले और बढ़ रही है।

जब देखो, दादी बीउंद में मांजे पर पड़ी-पड़ी सारा दिन खों-खों रहती। खांस-खांसकर उसकी आवाज तक फट गई थी। अच्छरू दादा ने उसके मांजे के नीचे स्वा से भरी परातड़ी रख दी थी। खांसते हुए जब उसके मुंह में कफ आता तो वह मांजे पर से टेड़ी होकर, बुरा सा मुंह बनाकर उसमें थू से कफ थूक देती।

दादी को लगातार खांसते-खांसते पंद्रह दिन हो गए मांजा पकड़े। अच्छरू दादा परेशानी में घर का आधा पौना काम जैसे-तैसे कर लेते। ये तो शुक्र था कि दादी के ये हाल होने से पहले ही उन्होंने दादी के लाख विरोध करने के बावजूद भी जबरदस्ती ताजी सुई गाय बेच दी थी वरना ... तब दादी ने उन्हें गाय बेचने से जितना वह रोक सकती थी उससे भी कई गुणा अधिक रोका था। पर वह नहीं माने तो नहीं माने। पैंसठ साल की बुढ़िया घास लाते-लाते इस उम्र में कहीं गिर गई तो पड़ गया स्यापा।

जब गोरखु दो हजार नगद में गाय ले जाने आया तो अच्छरू दादा को भीतर ले जाकर दादी ने आखिर बार फिर समझाया, ‘ देख लो! आखिरी बार कह रही हूं। गाय मत बेचो। इस बहाने घर में अपना धीणचा तो है। कल को मेला लीपने को गोबर भी दूसरों की ग्वाइणी से लाना पड़ेगा। इतना कि तो मैं मरते-मरते भी कर लूंगी। पहले चार-चार हाथी जैसी भैंसें खुंडे पर बंधी रहती थी। नीले बैलों की जोड़ी अलग।’

‘तू समझती क्यों नहीं? वह बात और थी। वे दिन और थे। अब तो उठने के भी साइंसे पड़ने लगे हैं। दिन पर दिन हम बूढे ही तो होते जाएंगे देउकु! उम्र पीछे हटने से तो रही। तू बुरा मना या खरा, पर अबके मैं तेरी एक नहीं सुनने वाला।’

‘बिन काम किए मेरे हाड़ जुड़ जाएंगे, तुम ये क्यों नहीं सोचते? गाय के बहाने इधर उधर तो हिल लेती हूं थोड़ा बहुत। शहर में बच्चे पता नहीं कैसा दूध-घी खाते होंगे? इस बहाने महीने दो महीने बाद किलो दो किलो ही सही, उनके लिए अपने घर का घी तो जुड़ जाता है। और ऊपर से शाम को तुम्हें भी गिलास भर दूध। अपने घर की छा किसे अच्छी नहीं लगती? फिर जाते रहो लोटकु बजाते कभी इसके घर तो कभी उसके घर। ताकते रहो सबका मुंह कि वह छा देगा भी कि नहीं ... और रामेसरी का तो तुमको पता ही है, जो कभी गलती से उसके घर छा लाने चले गए तो छा के नाम पर कैसा नसत्रा पानी देती है, छा देने से पहले ऐसी-ऐसी दिल चीरने वाली सुनाती है कि ...’ दादी ने एक बार फिर सब सच बता-सुना अच्छरू दादा को गाय बेचने से रोकना चाहा। पर वे तो जैसे तय कर चुके थे कि गाय देनी है तो बस देनी है। वैसे उन्हें यह भी पता था कि गाय बिकेगी तो ताजी-ताजी सुई हुई ही बिकेगी। गाय बेचने के बाद घर में धीणचे की जो तंगी होगी, ऐसा नहीं कि वे उससे वाकिफ़ न थे। पर उन्हें ये भी मालूम था कि जो इसके बाद वह गाय बेचने में महीना भी लेट हो गए तो गाय के उन्हें आधे पौने ही मिलेंगे। क्या पता फिर देउकु गाय बेचने ही न दे।

गाय बेचनी ही तो है। आज नहीं तो कल। और जब गाय बेचनी ही है तो क्यों न पूरे लेकर ही दी जाए? और जो कल को गलती से कहीं बच्छी मर गई फिर तो ... असल में गोरखु भी गाय खरीदने आया था तो बस, बच्छी के लालच में ही। अगर गाय के बच्छी के बदले बच्छा होता तो वह गाय न खरीदता। खरीदता तो खरीदने से पहले पचास बार सोचता, हजार सौदे बाजी करता।

... और डाल बराबर लोयटू वाली गाय अच्छरू दादा ने बेच दी। जब दादी को लगा कि गाय खुंडे से जाकर ही रहेगी, दादा गाय के बताए फायदों को लेकर टस से मस होने वाले नहीं, तो जब गोरखु गाय लेने आया तो वह रसोई में गई, एक कटोरी में तवे की काल़ख झाड़ कर उसमें तेल मिलाकर बाहर आई और उससे गाय के सींग चोपड़ कर चमका दिए। गाय को चार मक्की की रोटियां घी लगाकर खिलाईं। उसकी पीठ पर हाथ फेरा तो गाय दादी को चाटने लगी। उस वक्त दादी ही जानती थी कि उसकी क्या दशा थी। तब दादी ने एक बार गाय से भी अधिक कातर भाव से दादा की तरफ देखा था। पर अच्छरू दादा तो निर्णय ले चुके थे, फाइनल। उनके अनुसार इस घर से गाय को अब जाना ही था। वैसे वे भी गाय कहां बेचना चाहते थे? पर इस गाय के कारन दादी को कल को जो कुछ हो गया तो??

जैसे ही अच्छरू दादा ने गाय का गल़ावां गोरखु के हाथ में पकड़ाया दादी तो रोई ही, पर अच्छरू दादा भी सुबक लिए। ऐसी नस्ल की गाय पूरे इलाके में किसी के पास नहीं थी। चार किलो दूध सुबह देती थी तो इतना ही शाम को। सलीण इतनी की बच्चा भी जो उसके थन छुए तो उसे भी दूध देने को तैयार हो जाए। दूध ऐसा कि जितना मजट्ट पानी डालो, पर क्या मजाल जो पतला हो। छा ऐसी मीठी कि ... हर ब्रेस्त को नौणी गाल़ो तो पूरा-पूरा पांच सरे घी निकले। नौणी गाल़ते हुए बास ऐसी कि पूरे गांव में फैल जाए और सब को पता चले कि आज देउकु नौणियां गाल़ रही है।

ग्वाइणो खाली होने के बाद दादी को लगा कि अब जैसे घर में कोई काम ही न बचा हो। जब गाय थी तो सुबह उठकर सबसे पहले ग्वाइणी जाओ। वहां जाकर उसका गोबर उठाओ, फिर गोटू पाथो। उसके बाद उसका चिक्कड़ गोबर डाल में भर दो। फिर चिक्कड़ की डाल उठाई चिक्कड़ और खेत में बनाए सज्याड़े पर फेंकी और लग गए गाय को हरा फरा इकट्ठा करने। आकर दो जीवों की रोटी बनाई, गाय को घास पानी किया। यों ही एक बज जाता। फिर रोटी खाई और तनिक सुस्ता लिए। सांझ को फिर गाय का छोटा मोटा काम किया। गाय के बहाने खेतों में घूम आए, ओड्डे बन्ने भी देख आए, और आते-आते अध प्रद्दी डाल इधर-उधर से छिन्न छान हरे फरे की भी ले आए।

दादी की खांसी ठीक होने के बदले जब उसे ठंड देकर बुखार भी आने लगा तो अच्छरू दादा डर गए। गांववालों ने धीरे-धीरे उनके यहां आना बंद सा कर दिया। वे भी जो दिन में किसी के घर जाते तो उनका पहले वाला सत्कार न होता। उन्हें लगा कि अब उसे सरकारी अस्पताल बता ही लेना चाहिए। अब उसका रोग उनकी बदंगी की समझ से बाहर जा रहा है। ऐसी ही सलाह बलासपुर से इतवार को घर आए पोतो के लड़के कसोरी ने भी अच्छरू दादे को दी थी। जैसे ही उसे अपने बापू से दादी की बीमारी के बारे में पता चला, वह दिन में उनके यहां दादी का हालचाल पूछने आया। अच्छरू दादा ने तब जैसे-कैसे दादी को पकड़-पकड़ कर धूप में ला पराल़ की मांजरी पर बैठाया हुआ था।

‘ताऊ! लगता है ताई को ...’

‘क्या मतलब तुम्हारा?’ अच्छरू दादा कुछ शंकित हुए।

‘मेरी मानो तो दादी को सरकारी अस्पताल में दिखा ही लो।’

‘यारा! सोच तो मैं भी रहा हूं पर ... रत्न ही पता कर लाया था कि महीने से सरकारी अस्पताल में डॉक्टर है ही नहीं।’

‘तो रमेश को ही बुला लेते? सिमला में तो एक से एक बड़े डॉक्टर हैं ...’

‘यह भी सोचा था। पर वहां आजकल बच्चों के पर्चे लगे हैं। ऐसे में जो वह घर आ गया ... ये वहां चली गई तो बच्चों की पढ़ाई खराब हो जाएगी। तू तो जानता ही है कि वह बच्चों को शहर इसीलिए ले गया है कि वहां जाकर उसके बच्चे बड़े आदमी बनें। अंग्रेजी सीखें। हमारा क्या? हमें तो मरना ही है, आज नहीं तो कल। पर उनके आगे तो अभी दुनिया पड़ी है।’

कसोरी को अच्छरू दादा ने चाय बनाई और वह चाय पीकर ताई अपना ख्याल रखियो, कहकर रामलाल के घर हो लिया। चार महीने बाद गांव आया था। अब उसे हर घर में हाजरी जो देनी थी।

पहले जिस दादी के हालचाल पूछने वालों का अच्छरू दादे के घर दिन रात जमावड़ा लगा रहता था और वह सब को चाय बनाते-बनाते थक जाते थे, पर गांव वालों को ज्यों लगा कि हो सकता है, ताई महामारी की चपेट में आ गई है, जो रोगी के पास जाने से तो फैलती ही है पर, रोगी का चेहरा देखने से भी फैलती है, तो दादी के हालचाल पूछने आने वाले धीरे-धीरे मुंह फेरने लगे। उन्होंने दादी के घर आना तो बंद ही कर दिया पर जो गांव वाले पहले गालियां भी हाथ मिलाते हुए देते थे, वे अब एक दूसरे से अपने हाथ छिपाने लगे। जो गांववाले कभी अपने घर में कम ही दिखते थे, हरदम एक दूसरे के घर में पसरे रहते थे, वही गांववाले एक दूसरे से बात करना तो दूर, एक दूसरे का मुंह देखने से भी परहेज करने लगे, मानों ज्यों सब का अपना-अपना घर ही गांव हो। किसी अज्ञात डर से गांववालों ने अब अच्छरू दादा के घर की ओर जाने वाले रास्तों में बाड़ के खूंगे लगा दिए थे ताकि गलती से कहीं बच्चे उस ओर खेलते-खेलते न चले जाएं।

कोई पंचायती नल़के के पास पानी की टोकणी, गागर, घड़ा लाने जाता तो पहले दस बार झांक-झांक कर उस ओर देख लेता कि वहां कोई दूसरा पानी भरने तो नहीं गया है। अब गांववालों के बदले केवल गांव के बीउल़ों खड़क-खड़कियों, सीमल़ों पर बस पंछी ही चहचहाते। कभी-कभार आपस में कहीं किसी गली, आंगन में कुत्ते गड्डते तो लगता कि यहां भी गांव है। आंगन में पेड़ पर बैठे किसी कौवे को जो कहीं कागबल़ फेंका दिख जाता और वह उसे देख जब कांव-कांव करने लगता तो लगता कि यहां गांव भी है। अपने-अपने आंगन में बंधे पशु जब बासणे, जड़ुकणे तो लगता यहां गांव भी है। यह सब देख तब लगता ज्यों गांव के एक-एक जीव को एक-एक भयंकर अजगर ने अपने में कसकर जकड़ रखा हो।

इधर दादी की तबीयत थी कि दिन पर दिन और भी बिगड़ती जा रही थी। महीने में ही साठ किलो की हट्टी कट्टी दादी मात्र बीस किलो रह गई। ये सब देखकर किसी की भी मौत से न डरने वाला अच्छरू दादा भीतर तक हिल गए। हालांकि उन्होंने दादी के सामने अपने इस डर को उसके मरने तक जाहिर न होने दिया। पर उन्हें अब लगने जरूर लग गया था कि अब वह शायद देउकु को सदा सदा को जल्दी ही खोने जा रहे हैं। फिर यह मान कर मन मना लेते कि सदा को तो भगवान भी नहीं रहे, देउकु वे तो मट्टी के बने हैं। देह को तो एक न एक दिन सभी को त्यागना है, देउकु को भी और उन्हें भी। हम चाहें या न! किसी के मरने से लाख इनकार करने से भी कुछ नहीं होता। जब जाना है तो बस, सारे काम छोड़ कर जाना है। आगा पीछा लगा रहता है।

हार पच कर जब कुछ भी ठीक न दिखा तो दादी के पास जबरदस्ती पुछाड़े वालों की शीला चाची को बिठा अच्छरू दादा ने उस दिन मठ बाजार जा सिमला में अपने बेटे को सुखदेव लाले की दुकान से फोन कर ही दिया, ‘ तेरी मां बहुत बीमार है। हो सके तो घर आ ले। चाहे एक रात को ही सही। वह तुझे बहुत याद कर रही है। लगता है ...’ कहते कहते अच्छरू दादा को लगा था जैसे वे सबसे गहरे समंदर की तलहटी पर जा गिरे हों।

‘पर बापू ... देखो तो सब का आना जाना बंद हो गया है। सरकार ने आर्डर दे दिए हैं कि कोई जरूरी काम से भी घर से बाहर न निकले? ऐसे में...’

‘तेरी मां बीमार है। क्या उसे देखना जरूरी नहीं?’

‘सो तो ठीक है बापू पर ... जो मैं घर आ गया तो वहां शांति और बच्चे ... जैसे ही हालात ठीक होते हैं मैं ...’

‘तो तेरी मजट्ट! तेरी मां ने तुझे बताने को कहा था सो ...’

और उसी रात दादी ने सुरग की बाट पकड़ ली। वैसे अच्छरू दादा को लग तो दिन को ही गया था कि अब किसी भी बख्त कुछ भी हो सकता है। वे पता नहीं किस डर से सांझ से ही दादी की नब्ज हर दस मिनट बाद पतरोल़ने लग गए थे। और दादी की नब्ज थी की हरबार ढूंढने में ज्यादा समय लेती। अपने बचपन के यार कीत्थु को जब उन्होंने आंगन से यह सब बताने को आवाज दी तो वह कन्नी काट गया। पोलो को आवाज दी तो उसने भी अनसुनी कर दी। उस वक्त उन्हें लगा ज्यों बियाबान जंगल में उनका ही एकमात्र घर हो। वे चुपचाप भीतर आ गए और बाहर चांद की बढ़ती चांदनी के साथ भीतर अंधेरा होता महसूस करने लगे। छत से सौ वाट का बल्ब टंगा होने के बाद भी उन्हें बीउंद में कुछ दिख नहीं रहा था सिवा दादी के। उन्हें लगता ज्यों दादी की सांसें नहीं, उनकी सांसें पल दर पल मंद पड़ रही हों। दादी के दिल की धड़कन नहीं, उनके दिल की धड़कने रुकती जा रही हो।

अच्छरू दादा ने जमीन पर बिछाई पराल़ की मांजरी पर बिछी तल़ाई पर सुला दादी का हाथ कसकर कड़ा मन कर अपने हाथ में ले लिया, यह सोच कर कि अब वे उसका हाथ कभी नहीं छोड़ने वाले, चाहे जो होना हो, हो जाए। जिसको उनसे दादी का हाथ छुड़ाना हो वह जितनी चाहे उतनी कोशिश कर ले। पहली बार उन्होंने दादी का हाथ अपने हाथ में तब लिया था जब उनके ब्याह की वेदी में पंडितजी ने उनके हाथ में दादी का हाथ दिया था। और दूसरी बार अब। दादी को गला सूखता तो वे लोटे में डाले तुलसी के पत्तों वाला थोड़ा-थोड़ा पानी उसके मुंह में चम्मच से डाल देते। दादी तब बुझती आंखों से उनकी ओर देखती और आंखें बंद कर लेती। तब वे उसको तसल्ली देते कि दादी के पास वे हैं, उसके कुछ नहीं होने देंगे।

जब दादी की तड़छ ज्यादा ही बढ़ गई, उसकी सांस एक तरफा हो गई, गले में घरड़-घरड़ होनी शुरू हो गई तो दादा ने दादी को गीता सुनाना बंद कर रूंधे गले से कहा, ‘ री देउकु! तुझे जाना ही है तो चली जा अब! मुझसे अब तेरी और पीड़ नहीं सही जा रही। तू पता नहीं इतनी पीड़ कैसे सह रही है और किसके लिए? जा, अब अपना आगा सुधार! मैं ठीक हूं। तुझे अपने इस जन्म के रिश्ते से मुक्त करता हूं। भगवान ने चाहा तो जल्दी ही इस देह में फिर मिलेंगे। चाह कर भी मैं तेरे कर्जों से इस जन्म तो क्या जो मानुस बन हजार बार भी जन्म लूं तो भी नहीं पाऊंगा। मेरा कहा सुना माफ करना देउकु। जा, मेरी चिंता न कर। जिंदा जी तूने मुझे धूप का सेक भी न लगने दिया। मैं अब तेरे बिना भी जी लूंगा। अपने बेटे को लेकर बहुत परेशान है न तू? तो ले, तेरे बेटे की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। जितना तू उसका ख्याल रखती थी न, मैं उससे भी ज्यादा उसका ख्याल रखूंगा,’ अच्छरू दादा ने दादी के पैरों में सिर रखे दोनों हाथ जोड़े मन कड़ा कर कहा तो दादी जैसे उनके इस कहने का इंतजार ही कर रही थी। जैसे कि उसके बेटे की जिम्मेदारी कोई ले तो वह आगे की बाट निहारे। आह री ममता! जो बेटा मरते हुए भी पास नहीं, और तुझे मरते-मरते भी उसकी इतनी चिंता! अच्छरू दादा के इतना भर कहने की देर थी कि दादी यों ज्यों महीना पहले की मरी हो या कि वह कभी जिंदा रही ही न हो।

अच्छरू दादा ने दादी का हाथ पूरी हिम्मत से अपने हाथ से छोड़ दादी के सिरहाने बोरी में भर कर रखे सतनजे को लगाया। फिर हंसते हुए दादी को देखते-देखते उसके हाथ में गोदान को एक सौ एक बांध कर रखी धोती छुआकर किनारे रखी। शेष अपनेपन से दादी का चेहरा सहलाते पंच रत्न की पुड़िया उसके सिरहाने से निकाल दादी के मुंह में डाली और पूजा के चौकड़ू से शंख ला, न खुलते होंठों से बजा पूरे गांव को सूचित कर दिया की देउकु नहीं रही। यह जानते हुए भी कि शंख की फुक्कर सुनने के बाद कोई आने वाला नहीं।

‘अब सबुह कैसे होगा देउकु? तू मरी भी तो ऐसे बख्त में कि ... पर चल! जाने का जो किसी को पता होता तो ...’ उन्होंने दादी को ब्याह कर लाए बख्त के ट्रंक में संभाल कर रखे रीहड़े से सिर से पांव तक ढका और अकेले ही दादी की अगली तैयारियों में जुट गए, कभी इस बीउंद तो कभी उस बीउंद दौड़ते, दोनों हाथों से अपनी कमर को सहारा देते, इतनी फुर्ती से कि जितनी फुर्ती उन्होंने अपने में जवानी के दिनों में भी अपने में कभी शायद ही महसूस की होगी।

 

अशोक गौतम

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।

गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।

जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।

जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।

.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।

आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।

अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089

E mail- ashokgautam001@gmail.com

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