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अशोक गौतम

महामारी के दिनों में ... बाहर का हाल

हालांकि महामारी के डर से सहमने तो लोग तब से ही लग गए थे, जब से वे बाहर के देशों में इस महामारी से हो रही मौतों में लगातार होते इजाफे के बारे में पढ़, सुन, देख रहे थे। पर फिर भी अधिकतर इस बात से संतुष्ट थे कि अपने यहां ऐसा वैसा कुछ नहीं। धीरे-धीरे इस बात की अफवाह शहर के लोगों के बीच अफवाह फैल गई जो बाद में सच्ची निकली की शहर में किसी भी वक्त तालाबंद हो सकती है। और यह पता नहीं कब तक चलेगी? बस, फिर क्या था लोगों ने चार-चार महीने का राशन भरना शुरू कर दिया। हर दुकान के आगे मेला लगा हुआ। हर दुकान के आगे हर एक दूसरे को पीछे करने की कोशिश में। दुकानों में भीड़ को देखकर लगता ज्यों कल से सदा-सदा को दुकानें बंद हो जाएंगी या कि कल के बाद राशन बिकना बंद हो जाएगा।

लौकडाऊन पर पशु आए शहर घूमने

और फिर वही हुआ …

रात को सरकार द्वारा महामारी फैलने के भय से पूरे देश में पूरी तरह तालाबंदी घोषित कर दी गई। सरकार ने हर तबके के लोगों को आदेश किए कि जितना हो सके अपने को अपने घर में ही रखें। महामारी अपने यहां भी पांव पसारने लगी है। ऐसे में केवल जरूरी चीजों की दुकानें और जरूरी दफ्तर ही खोले जाएंगे। बाकी सब कुछ बंद। डरने की कोई बात नहीं। सरकार इस महामारी में सब के साथ है। देश के पास खाने के सामान की कोई किल्लत नहीं। यह महामारी हाथ मिलाने से भी होती है। अपने हाथ एक दूसरे से दूर रखें। जिसे जान प्यारी हो घर से बाहर न निकले। सरकार को हर एक की जिंदगी प्यारी है।

सरकार द्वारा इस घोषणा के होते ही कल तक शहर की जिन सड़कों पर रात को भी चहलकदमी रहती थी, सुबह सारा बाजार एक दम सुनसान। इक्का-दुक्का कोई बाजार में दिखा तो दिखा।

बाजार और उसके आसपास की गलियों को पुलिस ने सील कर दिया। बाजार में तब कुछ सुनाई देता तो बस पुलिसवालों के जूतों की आवाज – ठक ... ठक ... ठक ... या फिर बिजली की तारों पर बैठे कबूतरों की गुटरगूं ... गुटरगूं ... गुटरगूं ... ज्यादा ही हुआ तो पुलिसवालों की सीटियों की आवाज। जमीन पर डंडे मारने की खट- खट- खट-।

तालाबंदी के बीच जो कोई ढील देने पर जरूरी सामान लेने एक दूसरे के सामने से गुजरता तो एक दूसरे को बड़ी हैरानी से मुस्कुराते देखता, और फिर घूरते हुए पुलिसवाले को देख आगे हो लेता।

महामारी के डर से शहर के करियाना, सब्जी के दुकानदार सरकार के उन्हें अपनी दुकानें तय समय तक खुली रखने के आदेश देने के बाद भी दुकानें बंद ही रखने लग गए थे। कल तक खरीदारों से हरदम खचाखच भरे रहने वाले मेन बाजार में तालाबंदी के बाद कुछ सुनाई देता तो बस दुकानों के शटर गिरने की आवाजें – चर्र- चर्र- र्र- र-

तालाबंदी की घोषणा होते ही शहर की गलियों मुहल्लों की तरह शहर के साथ-साथ सटे गांवों में भी शहर जितने ही हालात। जहां देखो, बस, सन्नाटा ही सन्नाटा। दिन को कोई रास्तों पर अचानक दिख जाए, तो दिख जाए। शहर तो शहर, शहर के साथ लगते गांवों के लोगों ने भी मौत के डर से खुद को अपने घरों में खुद ही कैद कर लिया हो ज्यों। तब जैसे उनको भी तब पता चल गया हो कि मौत की नजरों में सब बराबर होते हैं। वह किसी को अपने साथ ले जाते कुछ नहीं देखती। मौत का कोई वर्ग नहीं होता, मौत की कोई जात नहीं होती, मौत का कोई मजहब नहीं होता। उसका हर वर्ग, जात, मजहब के लोगों से बराबर सरोकार होता है। तब मौत के इसी डर से हर आदमी अपने घर से बाहर न निकलने की खुद ही शपथ लिए हुए। उसे अब लगने लगा था कि ज्यों ही वह अपने घर की देहरी पार करेगा कि चील की तरह कहीं से भी झपट कर उसे मौत पक्का उठा ले जाएगी।

जिस शहर की तालाबंदी होने से पहले तक हर किस्म के लोग अपने-अपने ढंग से मौत को मात देने के लिए हर सुबह होने से पहले ही सड़कों पर हांफते हुए दौड़ने लगते थे, अब वही मौत के भय से घर के बाहर नहीं निकल रहे थे। घोषित और अघोषित मौत के बीच यही एक फर्क होता होगा शायद! अघोषित मौत के बीच आदमी हर खतरा उठाने को तैयार रहता है, उसे लगता है कि वह नहीं मर सकता। उसे सब कुछ होने के बाद भी कुछ नहीं हो सकता। पर ज्यों ही किसी भी वक्त मौत होने की घोषणा हो जाए तो वह हर पल चौकस रहने लगता है।

तालाबंदी से पहले शहर के जो बच्चे ट्यूशन के लिए सुबह चार बजे ही दौड़ जाते थे, तालांबदी होने के बाद अब घर में ही किताबों से उलझे हुए। सात बजते ही शहर में बच्चों को स्कूल लाने के लिए जो स्कूल की गाड़ियां पीं पी करतीं हर घर के पास रुकतीं... कि माएं बच्चों के बस्तों में भागते भागते लंच डालती दौड़तीं, कि कहीं स्कूल बस न छूट जाए, वैसा अब कुछ नहीं। बच्चों को स्कूल लाने वाली सारी बसें हर स्कूल के बाहर मौन सी खड़ी हुईं। मानों, वे कोई अज्ञात प्रार्थना कर रही हों या ऋषियों की तरह गहन चिंतन में लीन हों।

कल तक जो मौत से पेट के लिए हंसते हुए जूझा करते थे, जिनका पेट के लिए मौत से जूझना ही रोज-रोज का पेशा था, वे भी तालाबंदी होते ही सहम गए थे। अपने पेट पकड़े हुए। प्रश्न बस एक, अब सांझ को क्या पकेगा? अपने पास कोई ठोस सोच न होने के बावजूद भी ये सोचते कि वे साले जिंदगी की परवाह किए बगैर में कल तक मौत के साथ कितने रिस्क लेते रहे हैं।

महामारी की आते दिनों में विकरालता को देखते शहर के स्कूल, कॉलेज अहतियात के तौर पर पहले ही बंद कर दिए गए थे। स्कूल कॉलेज बंद होने के चलते अधिकतर स्कूल, कॉलेजों के दूर दराज क्षेत्रों से पढ़ने आए बच्चे धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को जाना शुरू हो गए थे या कि उनके घरवालों ने उन्हें घर बुला लिया था। इसी कारण भी तालाबंदी से पहले ही शहर धीरे-धीरे खाली-खाली सा दिखने लगा था।

शहर की पांच बजे के बाद वाली अब सब चहलपहल खत्म हो चुकी थी। एक वे भी दिन थे जब पांच बजे के बाद शहर की सड़कें घूमने वालों से इस कद्र ठसाठस भरी होती थीं कि तिल धरने को जगह न मिलती। और अब...

शहर के बीचों-बीच सब के आकर्षण का केंद्र पार्क जिसमें बच्चे, बुजुर्ग मजे से सारा दिन धूप में पसरे रहते थे, अब वह बिल्कुल सूना। जो बुजुर्ग सारा दिन अपने घरों से आकर उनके लिए पार्क में अलग बने स्थान की बैंचों पर आकर धूप में एक दूसरे से धूप जाने तक बतियाते रहते थे, वे सारे बैंच उनका बेचैनी से इंतजार करते उदास-उदास से।

तालाबंदी को और मजबूत करने के लिए सरकार ने एक और आदेश जारी किए कि जो कोई भी तालाबंदी को तोड़ता पाया जाएगा, उसे बिन सुने हवालात में डाल दिया जाएगा।

बस, फिर क्या था, हवालात का नाम सुनते ही जो अपनी आंख से आंख बचा चोरी छिपे घर से आधे पौने निकल जाते थे, वे भी सहम गए। इस आदेश के जारी होते ही शहर की तो शहर की, उसके साथ सटे गांवों की गलियों में आदमी को आदमी बड़ी मुश्किल से जब दिखता तो उसे लगता कि नहीं, शहर, गांव में उसी की तरह का दूसरा कोई और अभी है। घर से डरते-डरते छत पर आते हुए जब आसपास किसी पच्छी की आवाज सुनाई देती तो लगता, ज्यों अभी दुनिया बाकी हो।

जिन कुत्तों को तालांबदी से पहले आदमी हर जगह से दुर्र दुर्र करते थे, तालाबंदी के बाद वही कुत्ते शहर की गलियों में उन जालिम आदमियों को ढूंढते दिखते, पर उन्हें कहीं भी, कोई भी आदमी न दिखता तो आदमी को भर मुंह गालियां देने लग जाते। साले एकाएक पता नहीं कहां गुम हो गए? जिन कुत्तों को पहले आदमी पार्क से, सड़कों से भगाया करते थे, अब उन्हीं पार्कों, बाजारों की सड़कों पर कुत्तों का पूरा कब्जा था। वे कभी इस बैंच से उठकर उस बैंच पर पसर जाते, तो कभी उस बैंच से उठ कर इस बैंच पर, पूरे साहब होकर।

इस डर के बीच चौबीसों घंटे पहले की तरह पूरा-पूरा खुला था तो बस सरकारी अस्पताल। इसलिए कि क्या पता कब कौन महामारी का डसा आ जाए। पर उस सरकारी अस्पताल में कर्मचारियों के होने के बावजूद भी था सन्नाटा सा ही। अचानक ड्यूटी पर तैनात कर्मियों को जब कोई आता दिखता तो उन्हें लगता, जैसे आदमी नहीं मौत अपनी टांगों पर चल कर उनकी ओर धीरे-धीरे अपने को बचाने के लिए उनसे सहायता लेने आ रही हो। और तब वे उसको कुछ देर तक डरते हुए देखने के बाद एक दूसरे का उसको देखने का इंतजार करते।

तालाबंदी के बाद शहर की लग्जरी कारों से लेकर दूसरी सब गाड़ियां सड़कों के किनारे यों खड़ी हुईं मानों चोरों ने उनके इंजन चुरा लिए हों, या कि उनके मालिक उन्हें एकाएक छोड़ कर कहीं गायब हो गए हों। जिस शहर की सड़कों पर घंटों गाड़ियों का जाम लगा रहता था, अब उन्हीं सड़कों से सब गाड़ियां गायब! और सड़कें! आराम से पसरे अजगर की तरह जिन्हें दूर चांद पर से भी साफ-साफ देखा जा सकता था। हां! बीच-बीच में कभी-कभार कुछ चलता दिखता तो बस, पुलिस की गाड़ियां, या फिर एंबुलेंस के सायरन की पूरे शहर के सन्नाटे को चीरती आवाज। तब लगता, शहर की ये सड़कें पुलिसवालों की गाड़ियों, एंबुलेस के लिए ही बनाई गईं हो जैसे।

... कल पढ़ियें महामारी के दिनों में ... अगला भाग - कहानी : 'बापू खुश है'

 

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।

गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।

जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।

जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।

.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।

आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।

अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089

E mail- ashokgautam001@gmail.com

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