top of page
आचार्य नीरज शास्त्री

सामाजिकता


दोपहर का समय था। संजय शुक्ला अपनी कुर्सी पर बैठे हुए पुस्तक पढ़ रहे थे। दोपहर के समय बैठक में अपनी आराम-कुर्सी पर बैठकर पुस्तक पढ़ना उनका शौक था। इसलिए आज भी वे अपने पाठक-धर्म का निर्वाह कर रहे थे। अचानक उनके कानों में एक परिचित आवाज ने दस्तक दी- ‘‘शुक्ला जी! नमस्कार।’’ सुनते ही शुक्ला जी के नेत्र आवाज की दिशा में घूम गए। दरवाजे पर अरविन्द अस्थाना थे। अस्थाना जी शुक्ला जी के पुराने मित्र हैं; परन्तु वे एक मुद्दत के बाद आज उनसे मिल रहे हैं। सीतापुर से लौटने के बाद अब आठ साल बाद मुलाकात हुई है।

अतः शुक्ला जी खड़े होकर बाहर तक गए। अस्थाना जी से गले मिले और उन्हें साथ लेकर अंदर आए। सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए उनसे हाल-चाल पूछे। नौंकर को आवाज लगाकर चाय-नाश्ते की व्यवस्था कराई और चाय की चुस्कियाँ लेते हुए दोनों मित्रों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ।

अरविन्द अस्थाना ने कहा- ‘‘शुक्ला जी सुना है, सुधा नहीं रही!’’

‘‘पता नहीं’’- शुक्ला जी ने उत्तर दिया।

अरविन्द अस्थाना चौंकते हुए बोले- ‘‘क्या? आपको सचमुच पता नहीं चला।’’

‘‘हाँ, मुझे पता नहीं चला’’- शुक्ला जी ने कहा।

‘‘अरे ! उसे हार्ट अटैक हुआ था। एक महीने पहले चल बसी।’’

यह सुनकर शुक्ला जी ने ऊपर की ओर देखा; फिर संयत होकर बोले- ‘‘हमारा तो सुधा से कोई सम्बन्ध ही नहीं था।’’

अस्थाना ने प्रश्न किया- ‘‘क्या कह रहे हैं आप? वह तो बहुत मानती थी आपको। मैं जब भी उससे मिला, उसने आपके और भाभी जी के बारे में अवश्य पूछा। आपको याद कर उसकी आँखें भीग जाती थीं।’’

शुक्ला जी उत्तर की मुद्रा में बोले- ‘‘सुधा अच्छी लड़की थी। लक्ष्मी और मैं उसे सूचना देकर जब भी इंदौर जाते थे, वह दरवाजे पर खड़ी इंतजार करती मिलती थी। हमारे पहुँचते ही स्वागत सत्कार में जुट जाती थी। उसके पत्र भी हमें तीन-चार दिन बाद मिलते ही रहते थे।’’

अस्थाना जी ने एक बार पुनः पूछा- ‘‘फिर ऐसा क्या हुआ कि उससे आपका कोई वास्ता नहीं रहा?’’

शुक्ला जी ने कहना शुरू किया - ‘‘यह सच है कि वह हमसे बहुत प्रेम करती थी। लक्ष्मी की सभी बहनों में वह सबसे अच्छी थी। वह हमें अपने माँ-बाप की तरह मानती थी और हम भी उसे बेटी की तरह ही समझते थे। हमारे बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह मानती थी। मेरा छोटा बेटा जब हुआ तब भी उसका ही सहयोग लक्ष्मी को मिला; लेकिन कब कौन सा सम्बन्ध टूट जाए, यह ईश्वर ही जानता है।’’

‘‘शुक्ला जी! पूरी बात बताएँ, आखिर हुआ क्या?’’ अरविन्द अस्थाना ने पूछा तो शुक्ला जी ने पुनः कहना शुरू किया- ‘‘मेरे छोटे बेटे के जन्म के कुछ दिन बाद वह एक लड़के को लेकर हमारे घर आई। मैंने पूछा तो बताया कि वह लड़का पड़ोसी है और उसे छोड़ने आया है। पर बाद में उसने लक्ष्मी को बताया कि वह उस लड़के से प्यार करती है। वह लड़का भी उसे चाहता है और दोनों शादी करना चाहते हैं। लक्ष्मी ने यह बात मुझे बताई।

...... लेकिन समस्या तब विकट हो गई जब सुधा और लक्ष्मी के भइया-भाभी को यह बात पता चली। वे इस प्रेम सम्बन्ध के पूरी तरह विरुद्ध थे।

एक दिन वह उस लड़के के साथ घर से भाग निकली और उसके साथ कोर्ट में शादी कर ली। शादी के बाद उन्हें आश्रय की आवश्यकता थी। इसलिए वे दोनों सीधे हमारे घर चले आए। एक रात यहाँ रुके पर अगली सुबह उसके भइया-भावी आ धमके। उसकी भाभी ने कहा- ‘‘जीजाजी! इसने तो अपना मुँह काला कर लिया पर अब जो भी इससे सम्बन्ध रखेगा, उससे हमारा कोई रिश्ता नहीं है।’’

मैंने कहा- ‘‘भाभी जी! जो होना था, हुआ पर देर-सबेर रिश्तों को स्वीकार करना ही पड़ता है।’’

यह सुनते ही वे कहने लगीं- ‘‘जीजाजी! हमने तो बात स्पष्ट कर दी है। अब देखना है कि आप हमारा साथ देंगे या इसका?’’

मेरे सामने गम्भीर समस्या थी। भारतीय लोग संभवतः हत्या को भी उतना घिनौना अपराध नहीं मानते जितना कि विवाह पूर्व स्त्री व पुरुष के प्रेम को। इसलिए मैं जहाँ उन दोनों को आशीर्वाद देना चाहता था, वहीं मुझे कहना पड़ा कि यदि आप इसी बात पर हैं तो मैं स्पष्ट शब्दों में कह रहा हूँ कि हमारा इनसे कोई रिश्ता नहीं है लेकिन याद रखना कि कहीं बाद में आप लोग ही अपने बात से न हट जाएँ।’’

उसके भइया ने कहा- ‘‘हम इसे कभी स्वीकार कर ही नहीं सकते।’’

मैंने कहा- ‘‘और सोच लो।’’

तो उसने उत्तर दिया- ‘‘यदि राखी बाँधने भी आई, तो मैं इसे दरवाजे से भगा दूँगा।’’

इतना सुनते ही सामाजिकता के निर्मूल, रूढ़िवादी, संकुचित बंधनों में बँधे होने के कारण मैंने सुधा और उसके पति से तुरन्त चले जाने का कहा।

उस दिन वे आँखों में आँसू लिए चले गए और फिर कभी नहीं आए। लक्ष्मी ने भी भरी आँखों से उन्हें जाने दिया और संभवतः मेरे द्वारा कही गई बात, इकलौते भैया-भावी से प्रेम और सामाजिकता के कारण ही कभी उनसे मिलने की कोशिश न की।

शुक्ला जी इतना कहते हुए रुआँसा हो गए। उनकी आँखें डबडबाने लगीं।

अस्थाना जी ने कहा ‘‘कुछ भी हो शुक्ला जी! मैं आप से सहमत नहीं हूँ। सामाजिकता कभी रिश्ते से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होती। जो हमसे प्रेम करता है, बुरे वक्त में हमें भी उसका साथ देना ही चाहिए। प्रेम और रिश्तों की परक बुरे वक्त में ही होती है।

संजय शुक्ला अपने आँसू पोंछते हुए बोले- ‘‘ठीक कह रहे हैं अस्थाना जी! लेकिन यह समझ मुझे उस समय तो नहीं थी। प्रेम सदा रिश्तों का निर्माण करता है; यदि वह विवाह से पूर्व हो तब भी तो उसे नकारा नहीं जा सकता क्योंकि प्रेम में ही जीवन की सुगंध है।’’

अरविन्द अस्थाना ने महसूस किया कि संजय शुक्ला के मन-मस्तिष्क से सामाजिकता की चादर उतर चुकी है किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

 

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page