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अजय ओझा

सिक्स्थ सैंस

बिलकुल फिजूल की चिन्ता करते हो. मैं तो कहती हूँ कि उसके मन में ऐसा कुछ भी नहीं है. उसके मतलब ... राजू के. कोई मुझे फ्लर्ट करने की कोशिश करे और मैं उसे समझ न सकूं इतनी भोली तो नहीं हूँ मैं. तुम्हें पता हैं? औरत की सिक्स्थ सेन्स कितनी तेज़ होती है! किसी भी मर्द के कदमों की आहट से ही पढ़ लेती हूँ कि उसके मन में क्या चल रहा है. जरा याद करो तुम्हें भी तो ऐसे ही पहचान गई थी या नहीं?

क्या कहते हो? आवाज़ क्यों कट रही है? ज़रा नेटवर्क में आओ ना. लो? मैं तुम्हारे नेटवर्क में नहीं रहती? फरियाद करते हो? जाओ ना अब. अभी फोन किसने लगाया है? तुमने या मैंनै? बताओ तो?

मतलब? तुम कहना क्या चाहते हो? हाँ. सिक्स्थ सेन्स लगातार इस्तेमाल करूँगी तो कमजोर नहीं पड़ जायेगी? ओ हेलो ... मैं अपना वक्त ऐसे सब मर्दों के कदमों को पहचानने में बरबाद करती रहती हूँ? ऐसा तुम कहना चाहते हो? जरा सोच समझकर बोलो. तुम्हारी बीवी हूँ मैं बीवी. ऐसा कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?

नहीं. नहीं, मैं समझ रही हूँ तुम्हारे कहने का मतलब. हाँ, शायद मुकेश के बारे में तुम सही थे. लेकिन ... लेकिन, अभी आज किसके मन में क्या चल रहा हैं ये सब हम कैसे जान सकते है? सिक्स्थ सेन्स भी कदाचित गलत हो सकती है. लेकिन इस राजू के मन में ऐसा कुछ नहीं है.

क्यां? क्या? मुकेश के लिए भी मैंने उस वक्त ऐसा ही कहा था? हो सकता है, कभी-कभी मैं भी गलती कर बैठूं तब तुम्हें ही तो मुझे संभाल लेना चाहिए! नहीं, नहीं लेकिन ये राजू के लिए ऐसा नहीं है. अरे, जूनियर है मेरा. शायद दो-चार साल छोटा भी होगा मुझसे. नया-नया है. अलमस्त नौजवान.

लो ... ! मैंने अलमस्त कहा इसलिये मैं उसे चाहती हूँ ऐसा समझ लेने का? तुम भी ... बिलकुल फिजूल की चिन्ता कर रहे हो. अगर ऐसे ही गलतफहमी करते रहोगे तो मैं कुछ नहीं कर पाऊँगी. कह देती हूँ. हाँ लेकिन और क्या. तुम्हारी तो आदत बनती जा रही है. गलतफहमी करने की.

देखो, राजू अभी नया-नया है, मैं उसकी सिनीयर हूँ, इसीलिये मुझे ही उसको ट्रेन करना पड़ेगा ... वेट वेट वेट, आई नो डीयर, मुझे पता है तुम्हारा ये प्रश्न आने ही वाला था कि जब-जब तुम फोन करती हो तब वो तुम्हारे आसपास ही क्यों होता है? लेकिन वो नया है, कोई गलती कर देगा तो जिम्मेदारी किसकी? अरे मेरी ही होगी न? हर काम में मुझे उसे काबिल बनाना है. उसे बार-बार मुझसे पूछने के लिये भी आना पड़ता है. इसीलिये मैंने ही उसका टेबल अपने टेबल के पास रखवा दिया. वो पास में रहे ये मुझे भी बिलकुल पसंद नहीं, लेकिन क्या करें उसे बात-बात में कुछ न कुछ नया सीखने की उम्मीद भी होगी या नहीं? बस एक बार पूरी तरह तैयार हो जाये, बाद में जान छूटे!

देखो, हमारे बीच फोर्मली जो रीलेशन है इतना ही, ज्यादा कुछ नहीं. तुम तो जानते हो मैं ऐसे किसी के लिए फालतू में खींची चली जाऊँ इतनी भोली भी नहीं हूँ. साथ में नौकरी करते हैं, बस इतना ही. हाँ, अपडाउन में भी बस में कई-बार साथ में हो जाते है. लेकिन उस वक्त भी मैंने उसके साथ जरा भी बात नहीं की. और नाहीं मैं उसके सामने जाऊँ. तुम तो जानते हो कि अपडाउन के वक्त तो बस में मैं तुम्हारे साथ हेडोफोन पर बाते ही करती रहती हूँ.

क्या? लेकिन मैं इन दिनों बस में बात क्यों नहीं करती? नहीं ... नहीं, ऐसा है कि अभी मैं बस में जाती ही नहीं. क्या? पैदल चल के जाना चाहिए? इतनी मोटी भी नहीं हो गई. नहीं, जरा भी वजन नहीं बढ़ा. केवल 56 किलोग्राम ओनली है. राजू भी मेरी ओर देखकर मेरा फिगर सिमेट्रिकल है ऐसा ही कहता है. अरे नहीं, वो तो ऐसे ही. वो नौकरी करने ही आता है. मेरा फिगर देखने क्यों आयेगा? मैंने कहा न, वो ऐसा नहीं है. ऐसा मतलब, मुकेश जैसा. और उसने ऐसा कहा तो इसमें गलत क्या है? मेरा फिगर ऐसा ही तो है ...

नहीं, बस तो शुरू ही है लेकिन मैं बस में नहीं जाती. कार में जा रही हूँ. अरे नहीं, मैं करकसर करनेवाली महिला हूँ, तुम कहाँ नहीं जानते. वो तो ऐसा है कि इस महीने उसने कार ली है. किसने? उसने, मतलब राजू ने ही तो! नयी-नयी खरीद लाया ... इको! नहीं रे प्रमोशन क्या खाक मिलेगा! ये तो बाप के पैसे पर लहर कर रहा है. नहीं मैं तो बस में ही जाना चाहती थी, लेकिन उसने बहुत आग्रह किया था कि आपको मेरी गाड़ी में ही आना होगा. उसकी भावना ऐसी रहती है कि मैं मना नहीं कर सकी. इसीलिये अभी मैं उसकी गाड़ी में ही जा रही हूँ. हाँ तुम्हे ये बात बताना तो भूल ही गई. लेकिन फिर तुम फिजूल में चिन्ता करोगे इसीलिये.

क्या? हाँ, कार में भी हेडफोन पर तुम्हारे साथ बात तो हो सकती है, पहले दो दिन मैंने की भी थी. लेकिन उस वक्त मैं पीछे की सीट पर बैठी थी. देखा ... देखा, फिर से गलतफहमी हुई न? हुई न? तुम बिलकुल गलत सोचते रहते हो. इसीलिये तुम्हें बताने का मन नहीं होता. फिर भी मैं इतनी सरल हूँ कि तुम्हें कहे बगैर रह भी नहीं सकती ... हाँ ... हाँ.

देखो, मैं जब पीछे की सीट में बैठती थी तब राजू शीशे में से लगातार मुझे ताकते रहता था, ऐसा मुझे लगा. नहीं, शायद उसके मन में ऐसा कुछ नहीं होगा, मेरा ही वहम होगा, लेकिन मुझे ये सब कैसे ठीक लगता? तुम ही बताओ न? नहीं तुम कुछ कहो इससे पहले मैंने ही रास्ता सोच लिया. अब मैं आगे उसके बगल की सीट में ही बैठने लगी हूँ. एन्ड युनो ... प्रोब्लेम सोल्वड!

हाँ, तुम्हे तो गलत विचार ही आयेंगे. लेकिन अब उसकी बगल की सीट पर बैठ के तुम्हारे साथ फोन पर बातें कैसे करूँ यार! इतना जरा समझो ना डियर! और हाँ कभी-कभी तो मोबाइल की बैटरी भी उतर जाती है या नहीं. एक बार राजू की गाड़ी में मोबाइल चार्ज करने के लिए रखा, लेकिन तब क्या हुआ कि मैं जब मोबाइल देखने के लिए लेने जा रही थी उसी वक्त राजू का हाथ गियर बदलने के लिये मेरे हाथ को छू गया. भले ही ये उसने जानबूझ कर न किया हो, लेकिन मैं कैसे बर्दाश्त कर लूँ? पहले तो मैंने मुँह पे ही डाँट देने का सोचा, लेकिन बाद में सोचा कि इससे अच्छा मोबाइल चार्ज करने ही क्यों रखूँ? वो समझ गया था, हाथ छूते ही ‘सोरी मे’म ... सोरी मे’म’ करने लगा था.

क्या कहूँ? ‘इट्स ओ.के.’ कह दिया. सिर्फ फोर्मालीटी डियर. फिर कहने लगा, ‘मे’म बुरा लगा?’

बेचारा इतना घबराया हुआ था कि मुझे कहना ही पड़ा, ‘नहीं, बुरा नहीं लगा. लेकिन ध्यान रखना.’

क्या कहते हो तुम? तो क्या किसी को ऐसा कहना चाहिए कि हाँ भई मुझे तो बहुत बुरा लगा है? तुम भी गजब हो भाईसाहब! वो तो ऐसा ही कहते है. उसमें वो समझ जायेगा इतना समझदार है वो.

हाँ ... हाँ ... तुम दूर हो इसीलिये तुम्हें ऐसा हो, ये स्वाभाविक है, लेकिन मेरी बात मानो, तुम बेकार में ही परेशान हो रहे हो. अब फिर कोई मुकेश या राजू अपने बीच कभी नहीं आ पायेंगे. मैं ध्यान रखूँगी. तुम्हें पता न चले इस बात का नहीं, मुझे कोई फँसा न दे इसका, बुद्धू! हाँ, ठीक है, समझती हूँ तुम्हारा मज़ाक. अच्छा लगता है मुझे. तुम बेफिकर रहना. अब मेरे बारे में चिन्ता करने की जरा भी जरूरत नहीं है. मुझे अकेले ही मर्दों से लड़ने की आदत है. तुम तो जानते हो.

क्या? क्या? नहीं ऐसा नहीं, लेकिन आदत पड़ गई है. अकेली रहकर नौकरी करनेवाली स्त्री को अपने आसपास रहनेवाले पुरुषों के साथ कैसे रहना चाहिए ये मैं समझती हूँ. तुम ज़रा भी परेशान मत होना. मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूँ कि कोई मुझे पटाकर ले जाये.

देखो फिर से प्रश्न हुआ? मुझे मालूम ही था. ये प्रश्न को आने में देर क्यों लगी? देखो, उसका टेबल पास में होगा तो लंच के वक्त भी वो मेरे पास में ही होगा न. नहीं पहले तो वो केन्टीन में ही खाना खाने जाता था. लेकिन तुम्हें तो पता ही है कि मेरे हाथ की दाल कैसी बनती है? एक बार मेरे लंच बौक्स की खुशबू उसके टेबल तक पहुँच गई. अब तुम ही बताओ कोई सामने से खाने के लिए आये तो हम उसे मना कैसे कर सकते है? मुझे तो दो रोटी ज्यादा बनानी है इतना ही ना! भले ही खाये बेचारा. नहीं, नहीं अभी भी तुम गलत समझ रहे हो. वो बेचारा भी कोई न कोई फ्रूट लेकर ही आता है.

हाँ, तुम्हारी ये फरियाद सही है कि हमको भी लंच टाईम में ही फोन पर बातें करने की जो हमेशा की आदत पड़ गई है वो राजू की मौजूदगी के कारण ही डिस्टर्ब हो रही है. लेकिन तुम बिलकुल परेशान मत होना. भले ही लंच के वक्त वो होता है. लेकिन रात तो हम दोनों की है. हम दोनों इसी तरह सारी रात बाते करते रहेंगे तो भी कौन रोकने वाला है! और वैसे भी रात के इस वक्त तुम्हारा मूड मैं तो दूर से भी जान लेती हूँ. ठीक है ... और ... तुम ... कहाँ गये? कहीं वो सब खयालों में तो नहीं खो गये हो? देखना फिर से, झूठे ...

क्यों? देखा ... देखा? फिर से गलत सोच में पड़ गये. ये तो एक ही बार हुआ था. और उस में भी मजबूरी थी. नहीं नहीं, बारिश के कारण मुझे घर तक छोड़ने ही तो आया था वो. इसमें क्या? सारी रात रुके, इतना बुरा आदमी है ही नहीं वो. मैं झूठ क्यूं बोलूं? अगर मुझे झूठ ही बोलना होता तो अपना फोन ही स्विच औफ नहीं कर देती? क्या? बोलो तो. हाँ लेकिन वो तो औफिस से आकर सायलन्ट मोड में रखे हुए फोन को जनरल मोड में लाना भूल गई थी. इसीलिये तुम्हारा एक भी फोन रिसीव नहीं कर पाई. बारिश में फोन भी भीग चुका था. बारिश ज्यादा थी इसलिये वो मुझे घर तक छोड़ने आया था. यहाँ तक आयेगा तो हम ज़रा शिष्टाचार तो करेंगे ही कि नहीं? .... तो जरा-सा किया.

लेकिन राजू तो तुरंत ही निकल गया था, हाँ जैसे ही बहुत सुबह में बारिश कम हुई कि तुरंत! मैंने समझाया था, कि रुक जाओ, शहर के रास्तों पर सब जगह पानी भर गये है, लेकिन वो माना ही नहीं. सज्जन लड़का है! वैसे मैं भी वो जाये तो अच्छा ऐसा ही सोच रही थी. इस वक्त उसके मन में क्या चल रहा होगा कैसे पता चले? मैंने उसे कौफी पिला के जाने ही दिया था. और थकी हुई होने के बावजूद भी सुबह जागकर मैंने सबसे पहले तुमसे ही तो बात की थी.

क्या? मेरा फोन व्यस्त आ रहा था? देखा, फिर से गलतफहमी! अरे, वो तो बहुत सुबह में इतनी बारिश में सारे रास्ते बंद थे इसलिए वो घर पहुँचा या नहीं सिर्फ यह जानने के लिये मैंने उसे फोन किया था. अनजान शहर में अकेला लड़का, मेरा जूनियर, इतना तो खयाल रखना पड़ेगा या नहीं? तुम ही बताओ ना. अरे नहीं, खयाल मतलब सिर्फ चिन्ता. उस बेचारे का कौन है यहाँ? इसीलिये जरा चिन्ता होती है. बाकी हमें और उसे क्या? तुम ही मुझे नहीं समझोगे तो मैं तुम्हें कहना भी बंद कर दूंगी. मैं तुम्हें छोड़ के कहाँ जाऊँगी? कभ्भी नहीं ... मुझे तो ख्याल भी नहीं आयेगा. क्या? बस फिर. तुम भी बेकार में ही ...

ऐसा मत सोचो पगले, तुम मेरे पति हो. तुम्हें हक है ये सब पूछने का, सब कुछ जानने का अधिकार है तुम्हारा. सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी ये बात ही बहुत पसंद है. आखिर तुम्हे ही तो मुझे संभालना होगा. लेकिन मेरे लिये परेशान मत होना. तुम परेशान होते हो तो मुझे तुरंत ही पता चल जाता है. सिक्स्थ सेन्स इतनी तेज़ जो है. तुम बेकार में परेशान हो, ये मुझे कैसे अच्छा लगेगा? है ना!?

 

मेरी बात.....

..कोई बडी बात नहीं हैं मेरी । गुजरात में मेरा वतन है, मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा से भी लगाव रहा है । इसलिए दोनो भाषाओं में कहानियां लिखता हूँ ।

जीवन के किसी भी कोने में मिले अनुभव को कभी न कभी ऐसे किसी न किसी स्वरुप में बाहर आना ही होता है । मन में बोये गये बीज अपने आप ही अपने समय पर पनपते रहते है कहानी का प्रसव भी पीडादायक होने के साथ आनंददायक भी होता है ।

व्यवसाय से शिक्षक हूँ । प्रारंभ में हिन्दी में ही डायरी (रोजनीशी) लिखने की आदत पडी थी । बाद में गुजराती और हिन्दी दोनो में कहानियां लिखना पसंद आया । भावनगर गद्यसभा का भारी सहयोग मिला, जिससे कि मेरी लिखावट में जान आई ।

पहली पुस्तक सन २००२ में प्रगट हुई । बाद में दोनो भाषाओ में कुल मिलाकर पाँच कहानी संग्रह प्रगट होने तक का सफर कट गया । तीन लघुनवलकथायें (लघु उपन्यास) भी लिखी हैं । लेकिन कहानी से मुझे भारी लगाव रहा है । कहानी मेरा सनातन प्रेम है ।

पाठको और कहानी के बीच से स्वयं को निकालते हुए मैं अपनी कहानियों के ऊन सभी किरदारों का ऋणस्वीकर करना चाहूँगा, जिन्होंने मुझे कहानियों की ओर मोडा है, जिनकी यादें अनजाने में – या – जान-बूझकर, मैं यहाँ लिख नहि पा रहा हूँ ।

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अजय ओझा. (०९८२५२५२८११) ई-मैल oza_103@hotmail.com

प्लोट-५८, मीरा पार्क, ‘आस्था’, अखिलेश सर्कल, घोघारोड, भावनगर-३६४००१(गुजरात)

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