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अशोक गौतम

महामारी के दिनों में ... व्यंग्य/ कोरोना के नाम पाती

परमादरणीय कोरोना!

पाय लागूं!

वैसे तो अब दुनिया से पाती लिखने का रिवाज उठ चुका है, पर फिर भी मैं तुझे पाती लिख रहा हूं। हालांकि हाथ से लिखना कभी का भूल चुका हूं।

डियर कोरोना! अब तो शांत हो जा। बहुत गुस्सा हो लिया। सबको अब पता चल गया कि तू चीन से महान है। जिसने तुझे जन्म दिया तूने उसे भी नहीं बख्शा। अब तो अपना गुस्सा थूक दे कोरोना! अब तो अमेरिका को भी पता चल गया कि तू उससे भी शक्तिशाली हो। हर किस्म जात भक्तों को भी अब पता चल गया कि तू भगवान से भी पावरफुल है। कल तक जो तुझसे अपने भगवान का पावरफुल बता रहे थे, आज उनका कहीं अता पता ही नहीं कि वे तेरे डर से कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। अब तो भगवान ने भी तुझसे परेशान होकर अपने भक्तों से सोशल डिस्टेंसिंग क्या, पूरी डिस्टेंसिंग कर ली है। उसने भी मास्क लगाना शुरू कर दिया है। अब वे अपने भक्तों की सूरत देखना तक पसंद नहीं कर रहे। क्या पता कौन तुझसे संक्रमित उनके चरण छू ले। तुझसे अपने अपने भगवानों को बचाने के लिए कुछ भक्तों ने तो अब अपने अपने पूजनीय साहबों के पीछे भी मास्क लगाने शुरू कर दिए हैं। साहब सकुशल तो वे सकुशल।

अब तो शांत हो जा हे कोरोना। राजा से लेकर रंक तक, कमल से लेकर पंक तक सब तुझसे परेशान हैं। बहुत उत्पात मचा लिया तूने बावरे! तेरे डर से देख तो सभी अपने अपने घर में किस तरह दुबके छुपके बैठे हैं। कोई किसी से हाथ मिलाना तो दूर, किसीसे बात भी नहीं कर रहा। ये हंसते खेलते समाजों का तूने क्या बना कर रख दिया रे कोरोना! चंद दिनों में ही किसीसे हाथ मिलाए, गले लगे बिना अब तो ऐसा लग रहा है ज्यों किसीके गले लगे, हाथ मिलाए बिना युगों हो गए।

देख तो, तेरे डर बच्चे बाहर नहीं निकल रहे। देख तो, तेरे डर से जवान घर से बाहर नहीं निकल रहे। देख तो, तेरे डर से बूढ़े घर से बाहर नहीं निकल रहे। तेरा आतंक गब्बर से अधिक हो गया है। झुग्गी में जब कोई बच्चा भूख से रोता है तो मां कहती है, सो जा! नहीं तो कोरोना आ जाएगा। और मजे की बात! उसे तेरे बारे में कुछ भी पता न होने के बावजूद भी वह चुपचाप सो जाता है।

मेरा भी औरों की तरह घर बैठे बैठे , कभी इधर तो कभी उधर लेटे लेटे, खाते खाते पेट और बाहर को आने लगा है। सच कहूं कोरोना! तेरे आने पर पहले तो लगा था कि इस बहाने घर के सारे सदस्य कुछ दिन साथ रह लेंगे। पर अब सब एक दूसरे को झेलते झेलते परेशान होने लगे हैं। इससे पहले कि हम आपस में एक दूसरे के जानी दुश्मन हो जाएं, हमें अपने डर से मुक्त कर दे कोरोना बंधु! अपने ही घर में, अपने को, खुद ही हम कैद हुओं को अब हमें घर से तनिक बाहर निकलने की इजाजत दे दे इच्छाधारी कोरोना! अपने हित के लिए लगे कर्फ्यू में अब पता नहीं क्यों और नहीं जिया जाता?

हे कोरोना! तेरे पास संवदेनापूर्ण आंखें हो तो देख, बीवी मुझसे परेशान है तो मैं उससे। बच्चे मां से परेशान हैं तो मां बच्चों से। यहीं नहीं, हममें सबसे सबसे अधिक परेशान हैं तो बाबूजी। घर में ले देकर जीव पांच तो एक दूसरे से परेशानियां पांच हजार। अब तो घर का माहौल कुछ अधिक ही तनाव पूर्ण होने लगा है। कोई भी किसीको झेलने में अब पूरी तरह अक्षम दिखने लगा है। आपस में आक्रामकता बढ़ने लगी है। डर है हम कल को अहिंसा के पुजारी हिंसक न हो जाएं। जब हम एक दूसरे के सामने होते हैं तो एक दूसरे को ऐसे घूरते हैं जैसे हम एक परिवार के सदस्य ही न हों।

बीवी जैसे तैसे अपनी ब्यूटी को बचाने की कोशिश करती ब्यूटी पार्लर को लेकर परेशान है। वह हर दो मिनट बाद शीशे के आगे खड़ी अपने चेहरे को निहारती निहारती भीतर ही भीतर रोती रहती हो जैसे। उसके असली रूप का मुझे अब पता चला। मुझ पर तुझे दया नहीं आ रही तो कम से कम उस अबला जात पर तो दया कर हे कोरोना! देख तो बेचारी के चेहरे का महीना ही ब्यूटी पार्लर गए बिना क्या हाल हो गया है? अगर जो ऐसे ही चला तो हो सकता है कल को मैं भी उसे पहचानने से इंकार कर दूं। जो ऐसा हुआ तो ऐसा होने की सारी नैतिक जिम्मेदारी तेरी ही होगी। तू इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेना या न! देख लेना, तब मैं तो तुझे भले ही माफ कर भी दूं , पर मेरे जैसों किसकी भी बीवी तुझे कभी माफ नहीं करेगी। तुझे ऐसा श्राप देंगी कि...

हे कोरोना! बच्चे तो हमसे पहले भी परेशान रहते थे, पर वे अब तुझसे भी परेशान हैं कि तूने उनको बाजार घूमने, उछलने कूदने से वंचित कर दिया। जानते क्यों नहीं कोरोना कि ये दिन उनकी मौज मस्ती के दिन हैं, घर में बैठने के दिन नहीं। देख सके तो देख, तेरे कारण वे दोस्तों से मिल नहीं पा रहे। वीडियों कॉलिंग में वो मजा कहां जो साक्षात् मिलने पर होता है। इत्ते दिनों से केवल अपने मां बाप का लटका लटका मुंह निहारते निहारते अब वे पूरी तरह ऊब चुके हैं। थोड़े संस्कारी हैं, इसलिए खुलकर नहीं कहते, ये बात जुदा है।

पर तू ये सब तब जाने समझे जो तू बीवी बच्चों वाला हो कोरोना! बाबू जी घर में वैसे ही पल पल बढ़ती उम्र से परेशान रहते हैं। पर जबसे तुम आए हो वे अपने बुढ़ापे से, हमसे उतने परेशान नहीं, जितने तुमसे हैं। उन्हें हमसे, बढ़ती उम्र से अब उतना डर नहीं लग रहा जितना तुमसे लग रहा है। उनको इनदिनों जो जरा सी कहीं भी खांसने की आवाज सुनाई देती है तो वे राम ! राम ! रटने लग जाते हैं। जो बाबूजी पहले टेस्ट कराने को आनाकानी किया करते थे, वे अब जरा सी खांसी आने के बाद टेस्ट! टेस्ट! बकाने लगते हैं।

तू सच सुन सके तो सुन हे कोरोना! हमेशा खुश रहने वाला आज मैं भी तेरे कारण अपने घर में होने के बावजूद बहुत परेशान हूं। अब बस, इसी इंतजार में हूं कि कब जैसे तू मुझे हंसते हुए बाहर निकलने का आदेश दे तो मैं ... घर में इतने दिनों से एक ही बीवी का थोबड़ा देखते देखते तेरी कसम! मैं बहुत ऊब खीझ गया हूं।

अब ऑफिस खुले तो ऑफिस जा मूड थोड़ा चेंज हो । घर की चिल्ल पों से मुक्ति मिले। बड़े दिन हो गए शर्मा की गप्पें सुने बिना। उस बेचारे के पेट में तो सच झूठ सुनाने को पेट में मरोड़ फिर रहे होंगे। पता नहीं, वह अपने मरोड़ों पर कैसे काबू रखे होगा।

हे कोराना! तेरे कारण अमेरिका की अर्थव्यवस्था की कमर ही नहीं टूटी। तेरे कारण चीन की अर्थव्यवस्था की ही कमर नहीं टूटी। तेरे कारण कमर नहीं, अपनी रीढ़ की हड्डी ही टूट गई है। देख तो, तेरी वजह से एक तो सरकार ने अगले साल तक महंगाई भत्ते पर रोक लगा दी और ऊपर से इतने दिनों से घर में बैठे बैठे ऊपर की कमाई के नाम पर ठेंगा।

घर में टीवी देखते देखते तेरी कसम मैं बहुत बोर हो गया हूं माई डियर कोरोना! अब ऑफिस जा दोस्तों से बातें करने को अब बहुत मन हो रहा है। अब घर में रहने से अच्छा तो ऑफिस जाना है। वहां कम से चार दोस्तों से गप्पें तो होंगी। घर में तो अब आपस में बातें करने को भी मन नहीं करता। जब देखो बस, सब एक दूसरे से चिढे चिढ़े से बैठे रहते हैं।

मैंने मन की जो व्यथा जैसी है, बिल्कुल वैसी तुझसे कह दी। अब आगे तेरी मर्जी डियर!

तेरा ही!

अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़

नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

 

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।

गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।

जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।

जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।

.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।

आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।

अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089

E mail- ashokgautam001@gmail.com

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