यदि हम बच गए
तो भी क्या वाकई बचे रह पाएंगे
मंच पर मृत्यु का दृश्य सजा है
एक-एक कर कम होते जा रहे
कांधा लगाने वाले और रोने वाले भी
गिनती के पात्र हैं और नेपथ्य में सूत्रधार
नाट्यशाला के दर्शक भी तो
एक-एक कर लुढ़क रहे देखो
मौत का डर हर तरफ है
भूख से या बीमारी से
दोनों हालात एक जैसे हैं
जीवित लोग जिनके घरों में
दो महीने का राशन मौजूद है
वे सिर्फ अपनों को
बचा ले जाने की जुगत में हैं
ऐसे निर्मम समय में
पूर्णतः सुरक्षित कुछ लोग
जो चाह रहे इस आपदा में
भूख, बीमारी के अलावा
नफ़रत भी बन जाए एक कारण
मौत तो हो ही रही है
एक कम, एक ज़्यादा
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।।।
अनवर सुहैल
09 अक्टूबर 1964 /जांजगीर छग/
प्रकाशित कृतियां:
कविता संग्रह:
गुमशुदा चेहरे
जड़़ें फिर भी सलामत हैं
कठिन समय में
संतों काहे की बेचैनी
और थोड़ी सी शर्म दे मौला
कुछ भी नहीं बदला
कहानी संग्रह
कुजड़ कसाई
ग्यारह सितम्बर के बाद
गहरी जड़ें
उपन्यास
पहचान
मेरे दुख की दवा करे कोई
सम्पादन
असुविधा साहित्यिक त्रैमासिकी
संकेत /कविता केंद्रित अनियतकालीन
सम्मान / पुरूस्कार
वर्तमान साहित्य कहानी प्रतियोगिता में ‘तिलचट्टे’ कहानी पुरूस्कृत
कथादेश कहानी प्रतियोगिता में ‘चहल्लुम’ कहानी पुरूस्कृत
गहरी जड़ें कथा संग्रह को 2014 का वागीश्वरी सम्मान / मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा
सम्प्रति:
कोल इंडिया लिमिटेड की अनुसंगी कम्पनी साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स के हसदेव क्षेत्र /छग/ में वरिष्ठ प्रबंधक खनन के पद पर कार्यरत
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