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देवी प्रसाद गौड़

तीन चवन्नी


गाँव में मेरे घर के ठीक सामने गुलकंदी देवी का घर, इनके तीन बेटे नाती भरा पूरा परिवार था इनके यहाँ लकड़ी का काम होता था। कालांतर में बिजली का काम भी होने लगा था।

गुलकंदी देवी बहुत ऊंचा सुनती थी इसलिए हम सभी बच्चे उन्हें बहरी दादी ही कहते थे। बहरी दादी की उस समय उम्र रही होगी करीब पिचहत्तर, छिहत्तर, कद छोटा, लगभग पाँच फुट, रंग साँवला, सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियाँ, दाँत एक भी नहीं, कमर झुकी हुई, हाथ में हल्की सी लठिया जिसके सहारे से वे चल पाती थीं। पहिनावे-उढ़ावे में लम्बी सी कमीज हल्का सा घाघरा सर पर ओड़नी जिसे हम कहते थे लूबरा। कभी पैर नंगे तो कभी टायर की चप्पलें जो चलते वक्त आवाज भी करतीं थीं। रास्ते में धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाते हुए चलना, सिर्फ़ अपनी-अपनी ही कहना सामने वाला भी कुछ कह रहा है इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं। ठक-ठक-ठक लठिया टेकते हुए। आस-पड़ोस सबको पता लग जाता था कि बहरी दादी निकल पड़ी हैं। सबको अपनत्व के आँचल की छाँव से ढकते हुए वाणी से टपकने वाले मधुरस से पूरी गली में मिठास घोलना उनके स्वभाव का सच था। जिस किसी की दादी पर नजर पड़ती थी जोर-जोर बोलते थे दादी राम-राम, काकी राम-राम। बस फिर क्या था खोल देती थी दादी प्रीति पगे आशीर्वाद का अक्षय पिटारा। निश्छल मन के भाव जब शब्द बन कर सामने वाले के हृदय को खींचते थे लगता था कि निर्मल गंगा की शीतलता दस्तक दे रही है। दादी का विस्मयकारी भोलापन एक युगीन चित्र प्रस्तुत करता है।

एक दिन दादी जब मेरे दरवाजे के सामने से गुजर रही थी तो उसने मुझे स्कूल जाते हुए देखा। मेरे हाथ में बस्ता देखकर पूछने लगी।

" तू या थैला से ए लैकें भूमरे ते ई कहाँ चल दियौ?

मैंने कहा, "दादी मैं पढ़िवे जाइ रह्यौ हूँ। "

"कहा कह रह्यौ ए। "

मैंने जोर से कहा, "पढ़िवे जाइ रह्यौ हूँ।"

दादी ने अपनी लठिया को दोनों हाथों से पकड़ा और ठोड़ी के नीचे लगाया। मुझ से नजर मिलाती हुई मेरी तरफ ठगी-ठगी सी देखने लगी। और बोली, "जि तू कहा कह रह्यौ है - तू इतनौ बड़ौ है गयौ अबई पढ़िबेई जाँतु है? पढ़िवे तौ पट्टी लैकें छोट-छोटे बालक जाओ करते। तौ तू अब कितनों पढ़ि गयौ है?"

" मैं अब सात दर्जा में पढ़ि रह्यौ हूँ।"

" सात में लेउ बताऔ हमारे जमाने में तौ एक-दोइ दर्जा पढ़ि कें अपने-अपने कामन में लगि जांतें।"

मैंने कहा, "दादी अबई तौ मैं औरु पढ़ुगो।"

बहरी दादी माथे पर हाथ रख कर बोली, " तौ तेरी तौ आधी सी उमरि पढ़िबे में ई निकरि जाइगी तू कब अपने काम धंधे ते लगेगौ और कब तेरौ ब्याहु होइगौ?"

कहते हुए लठिया ठक-ठक करती हुई आगे बढ़ने लगी।

सामने गोबर पड़ा था। पैर फिसलने लगा, मैंने आगे बढ़ कर तुरंत थामने की कोशिश की।

"अरे अब मोइ कछू दीखै नाँय कछू शरीरु ऊ संग नाँय देइ।"

मैंने कहा, "दादी अब बाहर कम आऔ करो, घर में हीं बैठि कें भजन करौ।"

भजन का नाम सुन कर चेत गईं और बोली, "क्यों रे मैंने ऐसौ कहा बुरौ काम कर लियौ ए जो तू मोते भजन करिबे की कह रह्यौ है। भजनु तौ बे करतें जिन्नें पाप करें एं। तू तौ कल्लि-परसों कौ छोरा ए बूढ़े बड़न्ने पूछि मैंनें जिंदिगी कैसें बिताई ए?"

दादी का रुख देखकर मैं चुपचाप सटक लिया।

दादी के हर बोल और क्रियाकलाप में एक युग का दर्शन होता था। दादी सूत कातने में बहुत पारंगत थी। साफ-सुथरा और महीन सूत कातने के लिए गाँव में उनकी अपनी पहचान थी। पुराने समय का बना हुआ एक बड़ा सा चरखा जिसके दोनों पल्लों पर कुछ कशीदाकारी दिखाई देती थी। सूत कातते समय धीमे-धीमे कुछ गुनगुनाना उनकी रुचि को दर्शाता था।

धागे की लम्बाई के साथ जैसे-जैसे हाथ ऊपर जाता था, गुनगुनाने का स्वर भी ऊँचाई पकड़ने लगता था। चरखे की आवाज और गुनगुनाने के सामजस्य से जो ध्वनि उत्पन्न होती थी वो बड़ी सुहानी लगती थी। मैं तो कभी-कभी चुपचाप बैठ कर उस ध्वनि का देर तक आनंद लेता था। सूत और गुनगुनाने के बीच दादी खो जाती थी। जैसे कोई शास्त्रीय संगीत का साधक अपनी साधना की ऊँचाई में हो या फिर कहें कोई सच्चा भगवत भक्त प्रभु की अर्चना में अपना हृदय उढ़ेलता हो यह उनका अपने कार्य के प्रति समर्पण था।

गर्मी के दिनों में कातते समय उनके एक हाथ की तरफ पानी का लोटा जिसका घूँट दो घूँट लेकर बीच-बीच में उपयोग करती रहती थीं। दूसरे हाथ की तरफ हाथ से बना हुआ पंखा जिसे हम बीजना कहते थे। जब काम करते-करते थक जाती थीं तो एक हाथ से धोती के पल्ले से पसीना पोंछते हुए दूसरे हाथ से पंखा हिलाती थीं।

कातने के बाद पारश्रमिक में जो पैसे मिलते थे उन पैसों को गिनना दादी की एक समस्या थी। एक, दो और पाँच के नोट तो वे पहचानती लेकिन खेरीज का गिनना उनकी मुश्किल थी।

एक बार एक ग्राहक से पोंने तीनरुपये लेने थे। उन्होंने अपनी समस्या किसी पड़ोसी के सामने रखी उसने बताया कि पोंने तीन का मतलब दो रुपये बारह आने एक-एक के दो नोट वो तो आप जानती ही हैं। बाकी बचे बारह आने उसके लिए सीधे-सीधे तीन चवन्नी ले लेना गिनने का झंझट ही नहीं।

सांय काल ग्राहक पैसे देने आया एक-एक के दो नोट तो दादी ने स्वीकार कर लिए। बाकी पैसे लेने के लिए जब दादी ने हाथ आगे बढ़ाया तो बारह आने के बदले उसने दस-दस और पाँच -पाँच के सिक्के हाथ पर रखे।

उन पैसों को देखकर दादी भोंचक्की सी रह गई।

और तुरंत हाथ पीछे हटा लिया पैसे नाली में गिर गए।

दादी उसकी सूरत को शकी नजरों से निहारती हुई बोली, "जादा चालाकु मति बनि जि कहा कूरौ सौ दै रह्यौ है। मोइ सब पतौ ए सूधी-सूधी तीन चौहन्नी भंई।“

उस बेचारे ने नाली से पैसे निकाल कर धोए और कहीं से तीन चवन्नी लाया, दादी के हाथ पर रखीं और हाथ जोड़े।

बहरी दादी ने कभी रेल यात्रा नहीं की थी एक दिन कुछ लोग करौली देवी रेल से जा रहे थे। उस दिन मैंने उनसे कहा, "दादी चलौ आज रेल में बैठिवे कौ मौकौ ए।"

द़ोनों हाथों की हथेली हिलाते हुए बोली, "ना भैया ना। बाके इंजन में तौ आँच की झुल्ल सी बरति ए चार आँगुर की पटुरिया पै चलति है बाकौ कहा भरोसौ कब पल्टि जाइ।"

बहरी दादी की सबसे बड़ी खासियत गर्भवती महिलाओं को प्रसव कराने में बड़ी दक्ष थीं। जिस काम को आज महिला चिकित्सक और नर्स नर्सिंग होम में करती हैं, उसे वे घर बैठे बखूबी अंजाम देती थीं। नर्सिंग होम थे ही नहीं इस काम के लिए उन्हें कभी भी बुला सकते थे। अगर कोई रात के दो बजे भी आवाज देता था तो वे तुरंत समझ जाती थी। अंदर से आवाज आती थीं, "कोई बाल बच्चौ हैवे बारौ ए का?"

"हम्बै काकी हम्बै!"

“चलि मैं आई”, अपनी लठिया टेकते हुए तुरंत उसके पीछे-पीछे चल देती थी। यह उनकी निशुल्क निष्काम सेवा थी।

गांव में सैकड़ों बच्चे जो आज वृद्धावस्था से गुजर रहे हैं, दादी के हाथ के जन्मे हुए हैं। जिन बच्चों का वे प्रसव कराती थी उन्हें देखते ही कमल जैसी खिल जाती थीं। उनके सर पर हाथ फेरती हुईं उन्हें आशीर्वाद का कवच पहनाती थीं।

सन् उन्नीस सौ अठहत्तर में लगभग छियासी सतासी वर्ष की उम्र में यह चलता-फिरता युग गाँव से एक दिन अचानक लुप्त हो गया। और गाँव के इतिहास में छोड़ गया तमाम स्मृति चिन्ह जिनकी सुखद स्मृति आज भी हमारे स्मृति पटल पर अंकित है।

 

देवी प्रसाद गौड़

मोती कुंज एक्सटेंशन

निकट धौलीप्याऊ

. मथुरा 281001

मोबाइल 9627719477

deviprasadgaur@gmail.com

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