top of page
सुशील यादव

आत्म चिंतन का दौर ....


गनपत कई दिनों से पीछे पड़ा था, गुरुदेव हमको भी कुछ व्यंग्य–संग लिखना-पढ़ना सिखला दो| हम जो लिख के लाते हैं, आप उस पर नजर भी नहीं मारते?

मैंने कहा गनपत, व्यंग्य लिखना बहुत आसान है, इसमें बस ‘आत्म-चिंतन’ की जरूरत होती है, जो सामान्य दिखता है उसके उलट क्या हैं? परदे के पीछे का रहस्य क्या है? ये समझ लो, एक खोजी किसम की निगाह फिराने की बात होती है| इनको परत दर परत उतारते जाओ अपने आप व्यंग्य की चाशनी गाढ़ी होना शुरू हो जाती है|

गुरुदेव, आपने हमारी पहली बाल को ही बाउंड्री ठोक दिया, क्या कहे, सीधे सर से ऊपर?

मैंने कहा, क्या समझ में नहीं आया बोलो. ’आत्म चिन्तन’ समझते हो न?

गुरुदेव किसी एक बात को घंटों तक विचारने को आप लोग यही नाम देते हैं ना?

मैंने कहा, लगभग ठीक कह रहे हो| तुम यूँ ही समझ लो| किसी बात की गहराई तक जाने के लिए उस पर चारों तरफ से सोच विचार कर लेना, निगेटिव और पाजिटिव सिरों को ढूंढ़ लेना ही आत्म चिन्तन का मकसद होता है, यानी कि सच की गहराई से जड़-उखाडू तलाश|

गुरुदेव, तफसील से स-उदाहरण समझाइये|

मैंने कहा तुम्हारे राज में कल जो इनकाउंटर हुआ उसे टी वी पर देखा न अब तुम उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप दो पेज लिख कर लाना| इससे तुम्हारे खोजी होने, मामले की तह तक जाने और पुलिस या प्रशासन से भिड़ने-टकराने की क्षमताओं का आकलन हो जाएगा|यही व्यंग्य कार होने की कसौटी है| इस्सी से सिद्ध होगा तुममें व्यंगकार होने की कुवत कितनी है| गनपत दंडवत करते हुए चला गया|

अगले दिन पायलागी भूमिका में अपना लिखा स्क्रिप्ट धर दिया, मैंने उठाते हुए पूछा, बन गया?

उसने कहा, गुरुदेव आपने धांसू आइडिया दिया, हम लोग तो सोच नहीं पाते, यही फर्क है| खैर पढ़ लीजिये हमने कानपुर के दुबे जी को महाकाल के बाद से पकड़ा है|

“एक दुर्दांत अपराधी जिस पर आठ खाकी वर्दी धारी के नृशंस हत्या का आरोप है सात दिनों से पुलिस को चकमा देते छुप रहा था| पुलिस दबाव बनाने उसके सहयोगियों–साथियों की पीछे पाँच दिनों से तलाश कर इनकाउंटर–इनकाउंटर खेल खेलते हुए टपकाए जा रही थी| दुर्दांत का ऐसे में पसीना छूटना वाजिब था| उसे अपने इनकाउंटर होने के अंदेशे होने लगे| हालांकि उसने अपने अपराधी जीवन में दसों मर्डर किये हों, किडनेपिंग, फिरौती, धमकी के चाकू लहराए हों, पर अपने में जब आ बनती है, तब की बात की जात में फर्क होता है|

“अपने बचाव में चाहता तो सर मुंडन कर भगवा पहन, नोट के दो थैले लेकर अज्ञातवास में मुंह में करोना मास्क पहन निकल जाता तो, बरसो फरारी काट लेता, मगर विधि का विधान भी अपराधी को तत्काल दंड देने उतावला होता है वही दुबे (जी) के साथ हुआ| मुझे नाम में जी जोड़ने की यूँ तो जरूरत नहीं है मगर दबंगई के उस्ताद के सामने उनके जीते जी सैकड़ों चमचों का दिल रखने का भी ख़याल आ गया, खैर ...

“दुबे जी ने अपनी पहचान जगह–जगह जानबूझ कर प्रकट करने का खेल खेला| उन्हें जैसे महाकाल पर अटूट श्रृद्धा से यह आत्मिक बाल मिल रहा हो| फूल बेचने वाले के समक्ष, मास्क-हीन होकर सौदा करना, ये जतलाता है कि वो किसी न किसी तरह पहचाना जाए| फूल वाले, भले आदमी ने अपना राष्ट्रहित में निर्भीक हो के खबर कंट्रोल रूम तक भेज दी|सतर्क पुलिस वाले, जिन्हें शायद किसी और श्रोत से भी ये आशंका थी, क्यों कि पिछली रात मुआयने में जिला मुखिया और पुलिस प्रमुख मंदिर परिसर का चक्कर मार गए थे| वे दबोच लिए गए|

अपराधी का जुर्म करने के बाद की फरारी, फिर सरेंडर एक आम जाहिर प्रक्रिया है| शहर-शहर आये दिन ऐसी वारदातें कुछ कम-ज्यादा लहजे में होते रहती हैं|

अब सफर महाकाल की नगरी से चरम उद्योग नगरी तक, उस दुर्दांत और खाकी वर्दी धारियों का जिसे कमांडो फोर्स की हैसियत प्राप्त है, सफर शुरू हुआ| ज्यादा ताकत रखने वाले कमांडो को शायद अपने बाहुबल पर भरोसा था, उन्होंने अपराधी को हथकड़ी नहीं लगाईं, वरना लोकल दरोगा लोगों को एक ग्राम अफीम पुडिये और अज्ञात सटोरियों को हथकड़ी में शहर घुमाते भी देखा जाता है| वे सब महान थे| रात भर की सफर बिना झपकी लिए, सब ने कर ली| रिक्क वाली गाड़ी पीछे होनी चहिये, थी कि नहीं पता नहीं| दुर्दांत को कार में खिड़की सीट नहीं मिले ये सुनिश्चित होना था, किया या नहीं? वर्दी में कमर के जिस छोर रिवाल्वर हो उसके विपरीत अपराधी बैठे यह अनिवार्य शार्ट लागू हुआ या नहीं? हमारे फिल्म दुनिया वाले नाहक में इन सावधानियों को फिल्माते हैं, फुरसत में दोनों पक्षों को देखा जाना चाहिए?

“कार स्किड कर कितनी दूरी तय किया, आधुनिक टायर ने गीली जमीन का कुछ बिगाड़ा या नहीं? फूल स्पीड में चलते, वायपर उस समय होने वाली बरसात का बयान कर रहे थे, अपराधी के हाथ पैर कितने मिटटी सने मिले, पता नहीं|

“अपराधी कमांडो से पिस्टल छीनने की हिम्मत, साहस और अकूत बल शायद यमराज के द्वारा दिए अतिरिक्त समय से पा गया हो? अतिरिक्त समय अवधि की समाप्ति पर, इनकाउंटर की भेट चढ़ने, और सीने में शायद उलटे पाँव भागने वाला पहला अपराधी हो|

“इति, वर्दी अनंत वर्दी कथा अनंता, जब तक दुबे जैसे अपराधी होंगे, जासूसी नावेल या फिल्मों के लिए अनंत प्लाट उपलब्ध होते रहेंगे|”

मैंने गनपत से कहा, बस और क्या चाहिए, हो गई व्यंग्य कथा ....

 

सुशील यादव - परिचय लेख

आदमी कुछ भूलता नहीं.....

एक देहात नुमा शहर अपना नया आकार ले रहा था. दुर्ग शहर से दस किलोमीटर के फासले पर भिलाई की जमीन में स्टील प्लांट की नीव रखी जा रही थी तब उम्र लगभग आठ -दस साल की थी.

उन दिनों पालक का बच्चों पर निगरानी - पास कहीं खेल रहा होगा - के हिसाब से, नहीं के बराबर होती थी. तब हमउम्र लड़को के साथ पैदल लंबी-लंबी सड़के नाप लिया करते थे. जेब में दुअन्नी भी नहीं होती, और दो आने वाली फ़िल्म की लंबी लाइन को गौर से देखा करते. हमारे कस्बे-नुमा शहर में भारी तादात में ‘रशियन’, जिनके सहयोग और देखरेख में स्टील प्लांट का काम चलता था, गले में कैमरा लटकाये घूमते थे. सब्जी मार्केट में उन गुलाबी चेहरों को साबुत गाजर-मूली को खाते देखते तो उनके गोरे होने का कुछ अंदाजा बाल-मन में घर कर बैठता. घर में वही फरमाइश करते तो महीने में दो एक बार बाबूजी ला देते. मूली के तीखेपन को चखते ही रशियन को लानत भेजते, पता नहीं वे कैसे खाते हो. वे हेल्थ कांशस रहे हों, इसका इल्म अब जाकर हुआ. वे फोटो खींचने में माहिर ... हम किसी न किसी बहाने उनको प्रोवोक करते कि उनके किसी क्लिक में आ जाएँ. पता नहीं रूस में किस जगह फिकी होगी उस दौरान की हमारी तस्वीरें?

स्कूल जाने के दिनों में घूमने की आजादी के साथ 'एक सायकल' कभी-कभार जुड़ जाता. घर में पांच-छह लोगो के बीच एकलौते सायकल का होना फक्र का सबब था. किसी सन्डे बड़े भाई को जब सायकल को धोते, हवा भरते और आइल देने के उपक्रम में देखता तो हमे पता चल जाता कि वे भिलाई पिक्चर जाने की जुगाड़ में हैं. हम घर में बता देंगे की आड़ में पीछे पड़ जाते, वे दोस्तों सहित हमे शामिल कर लेते. पिक्चर देख के आओ और स्टोरी किसी को न सुनाओ, ये बात उन दिनों हजम नही होती थी लिहाजा ट्रेलर बताते -बताते कब पिक्चर देख लेने की पोल खुल जाती पता नहीं चलता. जो डांट पड़ती तो दुबक के किताबे खोल लेते.

उन बेफिक्री के दिनों में ज्यादा पढाई सिर्फ डांट खाने की वजह से हो पाती थी. ये तो अच्छा रहा कि खूब उधम किये, खूब डांट पड़ी और कुछ पढ़ लिए.

पढाई में उन दिनों लगता रहा, कोई कॉम्पिटीशन नहीं था . हम लोगो का एम्बीशन घर की माली हालत को देखते हुए, एवरेज रहता. टीचर पिताजी और तीन भाइयों का उसी लाइन में एक के बाद एक चले जाना, हमारे प्रेरणा स्रोत के जनक बनते जा रहे थे. ग्रेजुएशन करते समय कुछ तरक्की पसन्द दोस्तों की संगत मिल गई जिसने सोचने की दिशा को मोड़ सा दिया. अनेक में से एक ने खुल कर चुनौतियों से जूझने, अपने आप को हर जगह साबित करने और जो हक़ है उसे छीन के लेने का मन्त्र सा फूंक दिया. बृजमोहन तुझे आज बरसों बाद याद कर रहा हूँ. क्षमा.

उसने पढ़ने का हुनर दिया. हमने अपना फार्मूला फिट किया,अक्टूबर तक खूब मस्ती, फिर प्रतिदिन टेबल में बैठने का अभ्यास ... पहले दिन आधा घण्टा, फिर पीछे हर दिन केवल पाँच मिनट अभ्यास के दायरे को बढाना ... इस धुन ने कई दोस्तों की लाइफ स्टाइल में अहम रोल निभाया. खुद के लिए एक डायरी लिखी और ईमानदारी से अपने किये को लिखा. पूरा सिलेबस हर सब्जेक्ट को शुरू से आखिरी तक लाइन दर लाइन पढ़ा होता था. दोस्त रिजल्ट वाले दिन, जो किसी दूसरे शहर के अखबार प्रकाशकों से घण्टों टेलीफोन पर पूछताछ कर बताते थे. मुझे मेरा रिजल्ट जानने न देते. तू तो पास है, वाला लेबल चिपका देते थे.

बेरोजगारी के गर्दिश वाले दो-तीन साल भी झेले. कुछ जुगाड़, कुछ लक, कुछ इत्तिफाक से, रोजगार दफ्तर से बुलावा आया. सेंट्रल एक्साइज में इंसेक्टर के पद पर चुन लिए गए. शहर का देहातनुमा चेहरा तब भी नहीं बदला था. किसी परिचित ने इस मोहकमे का नाम तब नहीं सुना था. तंबाखू से जुड़ा है, अल्बत्ता कोई ज्यादा पढा-लिखा इस विभाग की तस्दीक कर लेता था.

पढ़ने की आदत, सच कहूँ तो गुलशन नन्दा के उपन्यासों से, इब्ने शफी की जासूसी कथाओं से आरंभ हुई. बेरोजगारी के दिनों में एक प्राइवेट आर्ट कालेज की लाइब्रेरी में पार्ट-टाइम काम मिला. वहाँ प्रिसिपल के लड़के को घण्टे भर साइंस सब्जेक्ट में पढ़ाना और मुझे सिर्फ पढ़ना होता था. पसन्द की कई चीजें वहां पढ़ने को मिली.

लिखने के दिन शुरू ही हुए थे कि सर्विस की वजह से न ज्यादा लिखा न छपवाया. बस विगत चार सालों में रोज जम के पढ़ा और लिखा. जिसकी बदौलत आज इस बायोपिक के कुछ क्षण लिखने बैठ गया. इस मुकाम तक पहुचने के लिए नेट को पूरा श्रेय देता हूँ.

इधर चार सालों में कादंबिनी, सरिता, मुक्त प्राची सरीखे स्थापित मैगजीन तथा गद्यकोश, रचनाकार, साहित्य शिल्पी, साहित्यकुंज, हिंदी समय, सृजनगाथा, वेबवार्ता जैसी मैगजीन में रचनाएं प्रकाशित हुई. नेट पर एक आन-लाइन किताब शिष्टाचार के बहाने श्री सुमन घई जी के सहयोग से पुस्तक बाजार डट काम पर प्रकाशित है.

मुझे लगता है , साहित्य बिरादरी में पाँव रहने लायक मैंने थोड़ी सी जगह बना ली है.

सुशील यादव

दुर्ग छत्तीसगढ़

RETD FROM VADOADARA,GUJ. AS DY. COMMISSIONER,

susyadav444@gmail.com

 

सुशील यादव

१३७, न्यू आदर्श नगर, जोंन 1 स्ट्रीट 3, दुर्ग (छ.ग.)

9713862473: susyadav7@gmail.com

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page