top of page
रहीम मियाँ

बल बहादूर


आज रविवार है और मैं हमेशा की तरह अपने पुराने एलबम को देख रहा हूँ। उनमें लगे कई तस्वीरों में निगाह दौड़ाकर अपने पुराने दिनों में खो जाने की मेरी आदत है। ऐसा करना मुझे बहुत अच्छा भी लगता है। हफ्ते भर की थकान वाली जिन्दगी, रोज सुबह उठकर ट्रेन पकड़ कर कार्यस्थल पर जाना, वहाँ कॉलेज में बच्चों के बीच दिन गुजार कर फिर तीन घंटे ट्रेन की यात्रा कर वापस घर आना। यही तो मेरा दिनचर्या बन चुका है । एक बात का शुक्रगुजार हूँ कि पत्नी समझदार मिली है, जो सुबह से घर का सारा काम निपटाती है, मेरे लिए नाश्ता, दोपहर का भोजन सब बन्दोबस्त करती है, उसके बाद एक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाने भी जाती है। बेटे को स्कूल भेजना हो, कोई सामान लाना हो या फिर कुछ भी काम हो वह मेरे बिना ही कर लेती है। शाम को जल्दी घर लौटती है ताकि बच्चे को स्कूल बस से ले सके। तस्वीरों को देखते हुए कॉलेज के दिनों की एक तस्वीर पर निगाह टिक गई। तस्वीर में मेरे कई मित्र थे, और उन मित्रों के बीच एक मित्र था – बले। यूँ तो बले का पूरा नाम बल बहादूर राई था, लेकिन सभी उसे बले कहकर ही पुकारते थे।

बहुत मिलनसार और खुशमिजाजी स्वभाव का लड़का था वह। दुबला, पतला सा लम्बा कद काठी था। उस जमाने में भी जब मेरे पास साईकल भी नसीब नहीं होती थी, वह रोज मोटर बाईक से कॉलेज आया करता था। सच कहें तो मैंने बाईक चलाना भी उसी के स्पलेन्डा बाईक से सीखा था। एक बार वह मेरे कमरे में आया था, तेज बारिश हो रही थी, लेकिन मुझे तो बाईक सीखने का भूत सवार था। उसे कमरे में बैठने के लिए कहकर मैं बाईक की चाभी लेकर निकल गया। चूंकि मैं अभी सीख रहा था, मन में काफी उत्साह था। जैसे ही मैंने चाभी लगाकर स्कलेटर दबाया, बाईक ने अचानक से गति ले ली और सीधे आगे जाकर बालू में स्किट कर मैं गिर गया। मुझे थोड़ी चोट भी लगी, मैंने चारों तरफ घरों की खिड़कियों की ओर देखा, किसी ने मुझे गिरते नहीं देखा था। मैं झटपट बाईक लेकर उठ खड़ा हुआ और चोट न लगने का बहाना बनाकर चुपचाप बाथरुम में घुस गया। मेरे दोस्तों को यह बात तब पता चली जब देखा गया कि बाइक का लूकिंग ग्लास टूट चुका था।

एक बार अपने कमरे में अपने मित्र प्रभात के साथ किसी विषय पर वाद-विवाद कर रहा था, तभी बले का आना हुआ। उसके कहने पर हम दोनों उसके साथ बाईक में सवार होकर कहीं चल पड़े। बाईक एक थी और हम तीन। इसलिए हम पुलिस से बचते हुए, हाईवे से न जाकर, गली-गली का चक्कर लगाते हुए जा रहे थें। बाईक प्रभात चला रहा था, अभी तक हम जा कहाँ रहे है, मुझे अंदाजा तक नहीं था।

मैंने बले से पूछा- ‘’हम कहाँ जा रहे है?”

हँसते हुए उसने उत्तर दिया – “चलो आज मैं तुम्हें अपने गाँव लिये चलता हूँ।“

वह इसी तरह हमेशा हँसता रहता और उसके आगे की ओर निकले दो दाँत कुछ ज्यादा ही दिख जाते। उसके गाँव के बारे में कई बार बले के मुँह से ही सुन चुका था। आज पहली बार जाने का मौका मिल रहा है, यह जानकर मैं बहुत खुश था। सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। दूर तक लालिमा छाई हुई थी। दोनो तरफ घने जंगल के बीच काली जीभ सी सड़क पर हमारी दो पहिया सरपट दौड़ रही थी। ठंड का मौसम होने से थोड़ी ठंड लगनी शुरु हो गई थी। प्रभात ने बाईक को हाईवे से दाहिने तरफ जंगल की कच्ची सड़क की ओर मोड़ दिया।

मैंने उससे पूछा – “ये तुम जंगल की ओर कहाँ जा रहे हो?”

इसका उत्तर बले ने दिया – “मेरा गाँव इसी जंगल के अंदर है। और सिर्फ मेरा ही नहीं, और भी दो गांव जंगल के अंदर है।“

बस मन ही मन सोचता रहा कि घने जंगलों के अन्दर भी भला गाँव हो सकता है! अंधेरा काफी गहरा हो चुका था और हम घने जंगलों के बीचों बीच थे। केवल हमारे बाईक के हेडलाइट से ही दूर तक देखा जा सकता था, किन्तु अपने दांई और बांई तरफ कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

तभी बले ने मुझसे कहा – “तुम अपने बांई तरफ ध्यान रखना, मैं दाई तरफ रखता हूँ।“

मैंने पूंछा – “क्यो?”

उसने कहा - “कभी-कभी अचानक से हाथी निकल पड़ता है और कभी तो पेड़ों पर चितवा बाघ घात लगाए बैठा रहता है और यात्रियों पर ऊपर से ही हमला कर देता है।“

उसकी बातें सुनकर मैं थोड़ा डर तो गया, किन्तु एडवेंचर का मुझे बचपन से ही शौक था, इसलिए बिना कुछ बोले बांई तरफ अंधेरे में आँखों को दौड़ाता रहा। वह रास्ता क्या था, जंगल के बीच लोगों के चलते रहने से खुद ही रास्ता बन गया था। कहीं-कहीं बीच में गड्ढ़े मिल जाते थे तो कहीं कमजोर लकड़ी का पुल। एक पुल पिछली बारिश में ढ़ह गया था, लोगों ने बगल से ही मिट्टी काटकर जाने का अस्थायी रास्ता बना लिया था। हम लोग एक ढलान में पहुँचकर रुक गये। बले ने हमें नीचे उतरने को कहा और बाईक को पास के ही एक पेड़ के पास छोड़ आया।

मैंने पूछा – “तुम बाईक को यहीं जंगल में इसप्रकार छोड़ रहे हो! कोई चुरा ले गया तो?”

‘’हमारे गाँव में चोरी नहीं होती है। यहाँ मेरी ही नहीं, कईयों की बाईक इसी तरह लगी रहती हैं।‘’ उसने हल्की हँसी हँसते हुए बात कही।

मैं अपने शहर के बारे में सोच रहा था जहाँ दिन दहाड़े चार चक्का गायब हो जाता है।

मैंने फिर पूछा - “गाँव कहाँ? मुझे तो कुछ दिख नहीं रहा है?‘’

उसने नीचे की ओर टिमटिमाटे जुगने के समान रोशनी की ओर इशारा करते हुए कहा – “वो रहा हमारा गाँव।“

नीचे ढ़लान के खत्म होने पर कई घरों में जुगनु के समान चमकते देये की लौ को देखा जा सकता था। लौ को देखकर ही घर होने का अंदाजा लगाया जा सकता था।

हमें अब सीधे एक ढलान में उतरना था। मैं और प्रभात एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अंधेरे में नीचे ढलान पर धीरे-धीरे उतर रहे थे।

हम लोग बले के घर पहुँचे। घर लकड़ी का बना दो मंजिला था। नीचे वाली मंजिल खाली थी, जहाँ पशुओँ के लिए चारा, भूसा, पुवाल रखा हुआ था और पास ही लकड़ी का बंडल। उस समय तक गैस चुल्हे की व्यवस्था नहीं थी। उसके घर में उसके पिता, एक बहन और माँ थी। उसके पापा को देखकर लगता था कोई अवकाश प्राप्त फौजी हैं, लेकिन वे फोरेस्ट डिपार्टमेंट में कार्यरत थे। हम लोग हाथ-मुँह धोकर कमरे में आ गये। गाँव में लोग जल्दी खाना खा लेते हैं। अतः हमें भी जल्दी ही खाना मिल गया था। खाना खाकर हम बाहर निकले। ठंडी हवा चल रही थी। पास ही तिस्ता नदी अपने मधुर आवाज में बह रही थी। घर के पीछे जंगल से कई कीड़ों के बोलने की आवाजें आ रही थी और सामने खुली जगह से गीदड़ों के बोलने की आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। दूर पहाड़ों पर आकाश के तारों के समान रोशनी विभिन्न आकृति लिए जगमगा रही थी। बले एक-एक आकृति को दिखाकर मुझे बता रहा था - “देखो, वह जो झुंड है, वह कर्सियांग है, वो लाट पम्चर है और वो तीन धरियाँ ...“

गाँव में अभी तक बिजली नहीं पहुँची थी। हर विधान सभा चुनाव में नेताओं द्वारा आश्वासन मिलने के बावजूद अभी तक लोगों को बिजली का सुख नहीं मिल पाया था। फिर भी कुछ घरों में बैटरी लगाकर टी. वी. देखने की व्यवस्था थी। हम बालू के रेतों पर टहल रहे थे, क्योंकि इतनी जल्दी सोने की हमारी आदत नहीं थी, तब तक आधा गाँव सो चुका था।

बले ने बताया – “जानते हो. हमारे यहाँ रोज हाथी आता है। हमारे फसलों को बर्बाद कर जाता है। मकई के सीजन में तो हाथियों का उत्पाद कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। इसलिए फसल को बचाने के लिए गाँव से हर एक युवक को एक दिन उस मचान पर रात जगकर बितानी पड़ती है।“

उसने एक युवक को लालटेन लेकर मचान पर जाते हुए दिखाया भी था। मेरे पूछने पर कि हाथी का सामना वह कैसे करता है। उसने कहा – “उसके पास कुछ चॉकलेट बम है। वह पहले तो उस बम को फोड़कर हाथियों को डराता है, चिल्ला कर पूरे गाँव वालों को इत्तला कर देता है। फिर हम सभी हल्ला करते हुए हाथी को खदेड़ कर दूर भगा देते हैं।“

मैं हाथियों और मनुष्य के बीच हुए ऐसे संघर्ष की कई कहानी सुन चुका था। कई बार अखबारों में भी पढ़ चुका था कि फालाना गाँव में हाथियों ने कई घर को तोड़ दिये या किसी को कुचल डाला। पशुओं और मनुष्य का संघर्ष तो प्राचीन काल से चला आ रहा है। किन्तु आज संघर्ष का कारण मानव द्वारा जंगलों का अपार दोहन है। विकास की लालसा ने जंगल को बर्बाद कर दिया है। पशुओं के भोजन को हमने अपना भोजन बना लिया और उनके वास स्थान को अपने लिए चुन लिया। अब पशु बेचारे जाएं तो कहाँ जाएं? इसलिए जंगली जानवरों के किसी गाँव में घुसने की खबर को मैं इस रूप में समझता हूँ कि वे हमारे घरों में नहीं घुसते हैं, सच्चाई तो यह है कि हम उनके घरों में घुस बैठे है। तराई से दुआर्स की ओर जाने वाली रेल पटरी पर हर बार हाथियों का झूँड कट कर मर जाता है। अभी पिछले महीने ही किसी माल गाड़ी ने एक साथ सात हाथियों को कुचल डाला था। कुछ दिनों तक लोकल समाज सेवी संगठन हो-हल्ला मचाते हैं, कुछ महीनों के लिए रेल गाड़ी की गति पर लगाम लगा दी जाती है। फॉरेस्ट आफिसर का एक–दो दौरा हो जाता है, फिर सब चुप हो जाते हैं। मैंने किसी अखबार में पढ़ा था कि केवल इसी एक रूट में 200-250 हाथी हर साल मारे जाते हैं। प्रभात मुझे हाथियों के पैरों का निशान दिखा रहा था, जो पिछली रात ही आये थे। खेतों के बीच से गुजरे हुए निशानों को साफ देखा जा सकता था।

दूसरे दिन सुबह उठते ही हम सब नदी की ओर चले गये। मुझे पानी देखते ही डुबकी लगाकर नहाने की इच्छा हुई, किन्तु पानी को छूते ही मेरे होश उड़ गये। इतना ठंडा पानी! वहाँ से हम सभी गाँव देखने निकल पड़े। रास्ते में एक प्राईमरी स्कूल मिला। कुछ बच्चे अपना बोरिया बिछाकर पढ़ रहे थे। अभी तक मास्टर जी का आगमन नहीं हुआ था। बले ने बताया – “यूँ तो यहाँ के लोग ज्यादा पढ़े- लिखे नहीं है, पर स्कूल खुलने से अब यहाँ बच्चे जरूर पढ़ने आते हैं।“

मैंने अनुमान लगाया। गाँव में कुल घरों की संख्या 50-60 के करीब थी और जनसंख्या 250-300 के बीच होगी। हम लोग बले के चाचा के घर गये। उसके चाचा उस गाँव में सबसे सम्मानित व्यक्ति थे। गाँव में किसी भी समस्या का समाधान वे ही करते थें। उनसे पूछे बिना गाँव में कोई भी काम नहीं होता था। वे नदी के बालू और बोल्डर उठाने का छोटा से कंट्रेक्ट लिए हुए थे। सारा दिन नदी पर होते और कभी–कभी बालू या बोल्डर उठाने आये ट्रकों से रोयल्टी भी काटते थे।

इसी तरह दिन बीतते गये। अब तक तो हमारा बले के गाँव में कई बार जाना हो चुका था। कई गाँव वाले हमें पहचानने भी लगे थे। गांव के कई नव जवानों से हमारी दोस्ती भी हो चुकी थी। गाँव में सत नारायण पूजा हो या किसी की शादी, हम लोगों को निमंत्रण मिलता और हम सभी दोस्त गाँव पहुँच जाते थे। एक दिन बले के पापा जी को रात में दिल का दौरा पड़ा। इससे पहले कि उन्हें शहर के अस्पताल में ले जाया जाता, रास्ते में ही उनके प्राण निकल गये। गाँव में एक भी चिकित्सा केन्द्र का न होना उस दिन बले को बहुत खला था।

बले पर अब जिम्मेदारियों का पहाड़ टूट पड़ा था। किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी। अब उसने अपने परिवार ही नहीं गाँव को भी समुन्नत बनाने की ठान ली। गाँव में रात-बिरात किसी को परेशानी हो, अस्पताल जाना हो, वह तत्पर रहता। धीरे-धीरे वह अपने गाँव का चहेता बन गया। बरसात के मौसम में अक्सर उसके गाँव में नदी का पानी घुस जाता था। बले ने इसके लिए कई मिनिस्टरों को लिखा भी था। वह खुद कई ऑफिसों के चक्कर लगवा आया था ताकि गाँव के पास छोटा सा बाँध बनवा सके। अपने गाँव में बिजली लाने के लिए भी वह लगातार नगर विकास मंत्री से भेंट-मुलाकात करता रहता। एक तरीके से उस गाँव को सवाँरने की पूरी जिम्मेदारी उसने अपने कंधों पर ले रखी थी। बले को थाने के लोग ही नहीं फॉरेस्ट के आला अधिकारी भी जानने-पहचानने लगे थे। एक तरफ जहाँ बले को चाहने वालों की संख्या बढ़ रही थी, वहीं उससे ईर्ष्या करने वाले भी बढ़ने लगे थे।

बले अब ग्रेजुएट हो चुका था। संभवतः वह अपने गाँव से पहला ग्रेजुएट था। इसी बीच उसने हमारी ही एक महिला मित्र पिंकी से शादी भी कर ली थी। हिन्दू रिवाज के अनुसार खानदान में किसी की मृत्यु होने पर एक वर्ष तक कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है। अभी तक बले के पापा के गुजरे एक साल नहीं हुआ था, इसलिए बले की माँ थोड़ी नाराज थी। बले आधुनिक सोच वाला था। वह इसी तरह दिन-रात गाँव की भलाई के कार्य में लगा रहा। गाँव में कोई अफसर आए या नेता वे बले को ही खोजते और सारी जिम्मेदारी उसको दे जाते। बले ने कंट्रेक्ट का लाइसेन्स निकाल लिया था। बिना लाईसेन्स के भी छोटा-मोटा काम वह पहले कर चुका था। इस बार तिस्ता नदी पर बड़ा बाँध बनाने का टेन्डर निकला। टेन्डर कई करोड़ का था। कंट्रेक्टरों के बीच टेन्डर पाने के लिए राजनीतिक दाँव-पेंच शुरु हो चुका था। फिर सामने चुनाव भी आने वाला था। बले के हाथ में अपने गाँव के अलावा, आस-पास के चार गाँवों का वोट भी था। सारा राजनीतिक समीकरण मिलाने के उपरान्त बाँध का टेन्डर बले को मिला। अब वह एक बड़ा काम करने जा रहा था। इससे उसका ही नहीं, पूरे गाँव वालों का भविष्य बदलने वाला था।

अपने कमरे में बैठकर हम चार दोस्त कैरेम खेल रहे थें। तभी विजय दा का फोन आया। फोन मेरे एक दोस्त संजीव के मोबाईल में आया। उस जमाने में हम दोस्तों में केवल उसी के पास मोबाईल था। उसे वह हर समय एक पाउच में भरकर अपने कमर के बेल्ट के साथ चिपकाये रखता। ऐसा नहीं था कि वह हम सभी से बहुत धनी था। बात यह थी कि वह एक कम्पनी में मैनेजर था, उसे वह फोन कम्पनी की ओर से मिला था। विजय दा ने प्रभात से बात की और हमें यह सूचना मिली कि पिछली रात बले के साथ बाईक दुर्घटना हो चुकी है और वह शहर के एक नर्सिंग होम में भर्ती है। खबर मिलते ही हम सभी नर्सिंग होम की ओर दौड़ पड़े।

बले को आई. सी. यू. में रखा गया था। अभी किसी को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। विजय दा ने बताया – “कल रात बले जब घर को वापस लौट रहा था। तभी हाईवे पर उसका एक्सीडेंट हुआ।“ दुर्घटना के 16 घंटा बीत जाने के बाद भी बले अभी तक बेहोश था। शाम को विजिंटिंग टाइम होने पर हम सब एक–एक कर उसे देख आये। वह अभी तक बेहोश पड़ा हुआ था।

पुलिस के कहने पर हम सब थाने गये। थाने में बले की बाईक और लेदर जैकेट रखा हुआ था। मैंने जैकेट और बाईक को देखकर प्रभात को बताया – “न तो बाईक में एक भी स्क्रैच है और न लेदर का जैकेट ही कहीं से फटा या घिसा हुआ है। अगर यह दुर्घटना है तो फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि इन दो चीजों को खरोंच तक न लगे और बले इतनी बुरी तरह से घायल हो जाये?’’

प्रभात भी असमंजस में पड़ गया। उसने बताया – “मैंने बले के सर पर एक भी चोट के निशान नहीं देखे। डॉक्टर का कहना है कि सर फटा नहीं और इंटरनल ब्लिडिंग हो गया है।“

मुझे दाल में काला नजर आने लगा। दूसरे दिन हम सभी घटना स्थल पर पहुँचे। पुलिस का कहना था कि बाईक बांई तरफ गिरा पड़ा था और बले दांई तरफ कुछ दूर झाड़ियों में बेहोश पड़ा हुआ था। हमें सारा खेल समझ में आने लगा था। दूसरे दिन डॉक्टर ने कहा – “ब्रेन में इंटरनल ब्लिडिंग बहुत हुआ है। खून के कई धब्बे जमे हुए है। इसका ऑपरेशन यहाँ सम्भव नहीं। अगर जान बचानी है तो इसे तुरंत फ्लाईट से कोलकाता ले जाना पड़ेगा।“

किसी तरह इधर–उधर से पैसे का बन्दोबस्त कर प्रभात और पिंकी, बले को लेकर कोलकाता रवाना हो गये। मैं यहीं रहकर बले के घरवालों को सांतावना देता रहा। घटना के चौथे दिन शाम को प्रभात ने फोन किया। उसकी आवाजं रूधी हुई थी। वह रो रहा था।

उसने बस एक वाक्य कहा – “बले हमें छोड़कर चला गया।“

मेरी आंखों से आँसू टपकने लगे। मैं फोन का रिसिवर रख चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया। पुरुष स्त्रियों की तरह चिल्ला–चिल्ला कर नहीं रो पाता है, पर अंदर ही अंदर घुटता रहता है।

अगले दिन बले के शव को बागडोगरा एयरपोर्ट पर लाया गया। वहाँ से लेकर बले के गाँव पहुँचने तक हजारों लोगों और गाड़ियों का ताँता लगा हुआ था। गाँव पहुँचने के बाद रीति रिवाजों के उपरान्त पूरे गाँव में उसकी शवयात्रा निकाली गई थी। उस दिन पूरे गाँव वालों की आँखें नम थी। किसी भी घर में रसोई का चूल्हा नहीं जला था। नेपालियों में राई समुदाय के लोगों में शव को दफनाने की प्रथा है। एक साल पहले ही बले के पापा गुजरे थे। उसके पापा के कब्र के पास ही बले के शव को दफनाने के लिए कब्र खोदा गया था। हम सभी मित्र वहाँ मौजुद थे। किसी के गले से एक भी आवाज नहीं निकल रही थी। बस हम एक दूसरे को देख रहे थे और अनायास ही आँसू की धारा बह रही थी। पिंकी बार-बार मूर्छित हो रही थी। कुछ लोग उसे संभाल रहे थे। हमारी हिम्मत उसके पास जाने की नहीं हो पा रही थी। उसे सफेद साड़ी में देख हमारी अंतर-आत्मा रो रही थी। मुझे याद है मैं चिल्ला कर नहीं रोया था, किन्तु जब बले को दफनाया जा रहा था और मैं मिट्टी डाल रहा था, तब मैं खुद को नहीं रोक पाया था और चीख निकल पड़ी थी।

हम सब जानते थे कि बले किसी दुर्घटना में नहीं मारा गया है, बल्कि उसकी हत्या हुई है। वह एक बड़े साजिश का शिकार हुआ है। उस दिन न केवल बले गुजरा था, उस गाँव का भविष्य भी मिट्टी में दब गया था।

हमने पुलिस थाने के कई चक्कर लगाए थे। हत्या बताने की हमने बहुत कोशिश की थी। किन्तु हमारे पास कोई सबूत ही नहीं था। यहाँ तक कि पुलिस द्वारा एक रिपोर्ट तक दर्ज नहीं किया गया। पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट तक बदला जा चुका था। उसकी एक प्रति भी हमें नहीं मिली। हम कमजोर थे। हम विद्यार्थी कर भी क्या सकते थे। यहाँ कंट्रेक्टर, अफसर, पुलिस ही नहीं मिनिस्टर तक की मिलीभगत थी।

आज भी वह दिन हमें सालता है कि हम कुछ नहीं कर पाये थे। आज हम सभी मजबूत है, काश, उस वक्त होते तो उसके हत्यारे यूँ बेखौफ न घूम पाते। बले की मृत्यु के 15 साल बीत जाने के बाद भी पिंकी ने आज तक किसी और लड़के से शादी नहीं की है। वह इंडियन ऑयल में नौकरी कर रही है। ऐसा क्या था बले में कि पिंकी आज भी उसे नहीं भूल पाई है, यह बात आज के नव-युवतियों के पाले नहीं पड़ती है।

मुझे याद है वह दिन, बले की मृत्यु के एक साल बाद तिस्ता नदी से गुजरते हुए मैं निर्माणाधीन बाँध देख रहा था, जहाँ हजारों मजदूर काम कर रहे थें। नीचे बालू की रेत पर एक कुर्सी में बैठे बले का चाचा सिगरेट पी रहा था और उसके चारों ओर कुछ इंजिनियर कलम और पेपर लेकर खड़े थे। ठंडी हवा चल रही थी। तिस्ता का जल कल-कल करते हुए बह रहा था। ऊँची-नीची रेत पर मेरी आँखें बले को ढूँढ़ रही थी।

 

रहीम मियाँ

एसिसटेंट प्रोफेसर

बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज

बानारहाट, जलपाईगुड़ी

मो.- 9832636020

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page