जब एक कदम आगे बढ़ते हैं हम, एक कदम पीछे छूट जाती हैं ज़मीं। छूटता रहता है सब-कुछ नई राह पर, छूटता है हर कोई इंसान एक रिश्ते से नए रिश्ते के पंख लिए। कितना कुछ छूट जाता है प्रतिदिन हमारे हाथों से, पैरों से, मन से, आत्मा से…!
छूटते-छूटते न जाने हम कभी किसी के लिए अछूते हो जाते हैं,किसी के लिए दुश्मन तो कभी दोस्त बन जाते हैं, रिश्तों के बंधन में बंधते हुए भी अनगिनत धारणाओं से छूटने लगते हैं या फिर छूटी हुई धारणाओं के बंधन में खुद को बांधकर आगे बढ़ते है किसी के लिए प्रभाव या अभाव को लिए!
मेले में बच्चों को लेकर जाते हैं तो गैस के गुब्बारों-सा मन बच्चों के बहाने हवा में लहराता है और हम पलभर के लिए बच्चे बन जाते हैं। जवानी छूट जाती है तो बुढ़ापा आता है और वहाँ से फिर कभी छूटकर मन बच्चा बन जाता है। छूटना और छोड़ना ही नियति है,तो हम क्यूं बार-बार बंधन में फंसने लगते हैं ? छूटने की मंशा, ख्वाहिश, इच्छा… ये सब-कुछ बंधन का ही परिणाम है, तो फिर बंधन के प्रति इतनी घृणा, अस्वीकार या तर्क करने की जरुरत ही कहाँ ?
सब-कुछ छोड़कर, समाज का त्याग करते हुए, जीने का अर्थ साधुता तो नहीं है न ? हम अगर धर्म की आड़ में संसार के सुख को भोगने का त्याग करके घर से निकल पड़ते हैं, तब एक इंसान के नाम की पहचान को पूर्वाश्रम में छोड़कर नए अवतार में जन्म लेते हैं। वहाँ भी एक नया परिवेश हमारा इंतज़ार करता हुआ हमें बाँध लेता है। वो बंधन होता है समाज के लोगों की नज़रों में साधुता का! इस रूप में भी हम पर अनगिनत आँखों द्वारा निगरानी होती है। हमारे यूनिफ़ॉर्म होते हैं एक साधु, संन्यासी या फ़कीर का। उन लोगों के लिए निश्चित किए गए यूनिफार्म में रहना, भौतिक सुविधाओं को त्यागना, नंगे पाँव चलते हुए धर्मग्रंथों की, ज्ञान की या उपदेश की बातें करना …यह सब-कुछ करना बंधन नहीं है? हम मुक्ति पाने को निकले हुए हैं फिर भी मुक्ति के नाम पर छूटने की प्रक्रिया होती ही नहीं है।
छूटने की प्रबलता हमें उन बंधनों में कुछ ज्यादा ही घसीटकर ले जाती है,जिससे हम ऊब चुके हैं,नफ़रत का अनुभव करते हैं और ‘कुछ’ नहीं से शुरू होती यात्रा ‘कुछ’ की खोज में हमें ले जाती है आगे। हम पल-पल छोड़ते हुए कुछ न कुछ पकड़ लेते हैं। सब-कुछ छोड़ने का दावा करने वाला इंसान चाहे किसी भी रूप में इस धरती पर विचरण कर रहा हो,क्या वो अपनी संवेदना,मन की भावनाएं,अपने विचार और अपनी इच्छाओं को छोड़ पाता है ? अगर इंसान से कुछ भी छूटता नहीं है तो फिर सब-कुछ छोड़ने की जद्दोजहद में क्यूं फँसने लगे हैं हम ? संसार की रचना के अनुसार कोई भी इंसान दूसरे इंसान के साथ किसी भी कारण से जुड़ा हुआ रहता है। आप उसे गुरु-शिष्य,परिवार के सदस्य,दोस्ती या किसी रिश्ते का नाम दें या नहीं भी देते हैं। इंसान इस धरती को छोड़कर कहीं भी नहीं जा सकता। अगर जाता है तो उनका शरीर जाता है,उनकी आत्मा अविनाशी है इसलिए वो किसी न किसी रूप में इस धरती पर विचरण करता है। जब हम छूटने का अनुभव करते हैं,तो हमें यह भी समझना चाहिए कि हम कहीं,किसी अलग रूप में किसी दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं। हर कदम पर एक नई साँस,नई राह,नया साथ, नई दिशा और नया मुकाम होता है। हमें बस चलते रहना है एक इंसान के रूप में जो ईश्वर का अंश है। समय के साथ आते बदलाव में ज़िंदगी को ढालते हुए साक्षी भाव से जीना है। अपने व्यक्तित्व की आभा से बाहर रहकर खुद के व्यक्तित्व को देखना है,उनके बारे में सोचना है और उसे ईश्वर के दूत के रूप में ढालते हुए ज़िंदगी को आगे ले जानी है। ज़िंदगी के साथ समय चलता है और समय ही हमारे मुकाम को तय करता है,वो ही हमें एक हाथ से दूसरे के हाथों में सौंपता है,और हमें सिर्फ समय की कठपुतली बनकर उसका साथ निभाना है। छोड़ने की जिद से ज्यादा जो छूट रहा है,भूलकर जो जुड़ रहा है उसका स्वागत करना है,उसी में हमारी नियति और खुशी को स्वीकार करना है। जो कुछ हमसे छूट जाता है,या हम छोड़कर कदम बढ़ाते हैं,उसके बाद हर नया कदम हमें एक नए बंधन से जोड़-देता है।
पंकज त्रिवेदी
परिचय
जन्म- 11 मार्च 1963
अभ्यास :- बी.ए. (हिन्दी साहित्य), बी.एड., जर्नलिज्म एंड मॉस कम्यूनिकेशन (हिन्दी), माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय – भोपाल
अखबार स्तम्भ : अखंड राष्ट्र (लखनऊ और मुम्बई)
साहित्य क्षेत्र-
संपादक : विश्वगाथा (हिन्दी साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक मुद्रित पत्रिका) चार वर्षों से
लेखन- कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, रेखाचित्र, उपन्यास ।
पत्रकारिता- राजस्थान पत्रिका ।
अभिरुचि- पठन, फोटोग्राफी, प्रवास, साहित्यिक-शिक्षा और सामाजिक कार्य ।
प्रकाशित पुस्तकों की सूचि -
1982- संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन)-गुजराती
1996- भीष्म साहनी की श्रेष्ठ कहानियाँ- का- हिंदी से गुजराती अनुवाद
1998- अगनपथ (लघुउपन्यास)-हिंदी
1998- आगिया (जुगनू) (रेखाचित्र संग्रह)-गुजराती
2002- दस्तख़त (सूक्तियाँ)-गुजराती
2004- माछलीघरमां मानवी (कहानी संग्रह)-गुजराती
2005- झाकळना बूँद (ओस के बूँद) (लघुकथा संपादन)-गुजराती
2007- अगनपथ (हिंदी लघुउपन्यास) हिंदी से गुजराती अनुवाद
2007- सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली उषा मेहता, अमेरिकन साहित्यकार नोर्मन मेईलर और हिन्दी साहित्यकार भीष्म साहनी की मुलाक़ातों पर आधारित संग्रह) तथा मर्मवेध (निबंध संग्रह) - आदि रचनाएँ गुजराती में।
2008- मर्मवेध (निबंध संग्रह)-गुजराती
2010- झरोखा (निबंध संग्रह)-हिन्दी
2012- घूघू, बुलबुल और हम (હોલો, બુલબુલ અને આપણે) (निबंध संग्रह)-गुजराती
2013- मत्स्यकन्या और मैं (हिन्दी कहानी संग्रह)
2014- हाँ ! तुम जरूर आओगी (कविता संग्रह)
2017 मन कितना वीतरागी (चिन्तनात्मक निबंध संग्रह)
प्रसारण- आकाशावाणी में 1982 से निरंतर गुजराती-हिन्दी में प्रसारण ।
दस्तावेजी फिल्म : 1994 गुजराती के जानेमाने कविश्री मीनपियासी के जीवन-कवन पर फ़िल्माई गई दस्तावेज़ी फ़िल्म का लेखन। निर्माण- दूरदर्शन केंद्र- राजकोट
प्रसारण- राजकोट, अहमदाबाद और दिल्ली दूरदर्शन से कई बार प्रसारण।
स्तम्भ - लेखन- टाइम्स ऑफ इंडिया, जयहिंद, जनसत्ता, गुजरात टुडे, गुजरातमित्र,
फूलछाब, गुजरातमित्र
विश्वगाथा (प्रकाशन संस्थान) : गुजराती-हिन्दी पुस्तक प्रकाशन में 35 से ज्यादा किताबें प्रकाशित
सम्मान –
(१) हिन्दी निबंध संग्रह – ‘झरोखा’ को हिन्दी साहित्य अकादमी (गुजरात) के द्वारा 2010 का
पुरस्कार
(२) सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मेलन में तत्कालीन विज्ञान-टेक्नोलॉजी मंत्री श्री बच्ची सिंह राऊत के
द्वारा सम्मान।
(३) त्रिसुगंधि साहित्य कला एवं संस्कृति संस्थान (पाली) राजस्थान के द्वारा 'साहित्य रत्न सम्मान'
–2015
(४) कवि कुलगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सम्मान-2016, भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता
(५) “साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-२०१७” शब्द प्रवाह साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामजिक
मंच, उज्जैन
(६) ‘साहित्य चेतना सम्मान’, अभिमंच संस्था, नई दिल्ली – २०१८
संपर्क- पंकज त्रिवेदी
"ॐ", गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फ़ीट रोड, सुरेन्द्र नगर, गुजरात - 363002
ગુજરાતી - हिन्दी साहित्यकार एवं संपादक - विश्वगाथा (हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक प्रिंट पत्रिका)
सुरेन्द्रनगर (गुजरात)
vishwagatha@gmail.com (M) 08849012201 - Only for Calling (M) 09662514007 - What's app