‘‘गोंदली’’ अलसुबह ही मुंह में दातुन चबाते हुए अपने घर के बाहर का फाटक खोल दिया। फाटक क्या था चर्र-चर्र बजने वाला यंत्र लकड़ी के खोटले (गठ्ठे) को ही फाटक बना दिया गया हो। इतना ही काफी था। जहां विश्वास का पहरा हो वहां भारी-भरकम दरवाजे की जरूरत होती ही कहां है? अगर ऐसा होता तो शहरों में सात-सात तालों के बाद भी खुले आम सरे राह विश्वास की डकैतियां होती क्या? मोरटपाल गांव ही क्या ? बस्तर के अनेक गांवों में भी ऐसी ही दुनिया होती है। फसल तो क्या गाछ तक को बिना इजाजत बकरी नहीं चरतीं। गोंदली ने घर की बाड़ी के केले की गाछ ने नीचे बरतन मांजा और राख वाले पानी को पेड़ों में डाल दिया। ये केले की गाछ इस राख वाले पानी जिसमें गोंदली का श्रम मिला हो मला उसे ऐसे ही ले लेते क्या? गाछ के रूप में प्रतिदान करके ही मानते थे। गोंदली ने पास के मिर्ची की गाछ को दुलारा। सूर्ख लाल, तोतिया हरी मिर्चियां नानी असन (छोटी सी) पर खूब तीखीं। गोंदली का व्यक्तित्व था ही ऐसा गोंदली (प्याज) सी पर्तदार। एक परत श्रम की तो दूसरी परत स्वाभिमान और तीसरी परत अपनी शर्तों पर जीना। चौथी परत कोमल मन की जो किसी के दुख से भी भर आये। आंखें पनीली-पनीली हो जायें ऐसी। पर यह परत सबसे अंतिम और भीतरी परत था जो बाहरी परतों के अनावृत होने के बाद ही दिख सकता था। सबसे बाहर की परत इतनी तीखी और तेज थी कि गोंदली के लिये मुहफट्ट की उपमा भी कम पड़ जाये। क्या पता ये अपनी सुरक्षा के लिये रचा गया छद्म सुरक्षा कवच ही हो। अपने ऊपर होने वाले अनावश्यक कटाक्षों को वह अपनी तीखी जबान से ही ठिकाने लगा दिया करती थी। बिल्कुल मिरी असन (मिर्च जैसी)।
अचानक आवाज आई। जो री (चलो री) बेरा होली। (समय हो गया)। जंगल जाना है। तेंदू-चार महुआ, इक्टठा करना है। हव-
गोंदली ने चलते-चलते तुमा में पेज (तरल पेय) पुड़िया में नमक रखा। कान में मिरी खोंस लिया। कौन जाने वह कान में मिर्च खोंसे बिना एक कदम भी क्यों नहीं चलती थी? पेड़ के डारों को ही हैंगर बना कर अपनी पोटली टांग कर टेसू बीनने में व्यस्त हो गई। सिर पर बद्द से कुछ टपका। देखा तो टेसु उसकी देह पर झर रहे थे। मंगली फूलो सबके सब खिलखिला पड़े। गोंदली ने अपने तेज तेवर के साथ अपनी नजरें ऊपर की वो देखा कोयलू पेड़ पर चढ़कर डालियों को हिला रहा था।
गोंदली ने जोर से कहा - तुचो आंईख फूली से (तुम्हारी आंख फूट गई है क्या) दिखता नही कि हम सब नीचे हैं।
‘‘कोयलू’’ पहले तो सकपका गया और इतनी तेज आवाज सुन कर लड़खड़ा भी गया। अगर वह पेड़ पर चढ़ने का आदी नही होता तो कब का टेसूओं के साथ गोंदली के सामने बद से गिर गया होता। पर उसने वहीं से संभलकर पलटवार किया।
तुईच्च तो झपाईलिस लेकी। (तू ही सामने आ गई लड़की।
इतना सुनते ही गोंदली ने महुआ का कच्चा फल मारने के लिये उठाया ही था कि झट से टेसू और झरने लगे। कोयलू शाखों को हिलाकर जा चुका था। क्या पता टेसू धरती पर झरे थे कि गोंदली के मन पर। नेह का रंग ही बाकी रह गया।
आज गांव में मुनादी हो गई थी। पास के गांव में मड़ई थी। तपती दोपहरी में इमली के पेड़ के नीचे सभी ने अपना-अपना सामान रख दिया था। दुकाने सजा ली थी। गोंदली ने ईंट के ऊपर अपना आसन जमाया। पर धूप तो सीधे गोंदली के मुंह से मुंहजोरी कर रही थी। गोंदली की त्वचा में परतें नही थीं लिहाजा धूप बे रोक-टोक आ रही थी। उसने टोकनी को चेहरे के आगे कर लिया। टोकनी की सुराखें मानों तेज धूप को खुद-ब-खुद ही गोंदली का पता दे रही थीं। अचानक छांव का टुकड़ा आ गया। गोंदली ने चेहरे के सामने से टुकनी हटाई, सामने ‘कोयलू’ खड़ा था। भला सूरज की आँच के बीच भी कोई पल भर स्नेहिल छांँव कर सकता है।
कोयलू के साथियों ने आवाज लगाई। झट के आ। (जल्दी आओ) नाट परब शुरू होने वाला था।
धूप तेज थी। गोंदली ने अपनी सहेलियों को आवाज दिया। जो री (चलो रे)। पेज खायबा काजे (पेज पीने)।
दोनों में पेज उड़ेल कर गोंदली ने कान में खोंचे मिर्च को निकाला ही था कि एक आवाज हवा में उछाल कर आयतू आगे बढ़ चला ‘‘मिरी खाई’’.....। नाट परब के लिये अलग-अलग गांवों की दो टोलियां बनी थी। एक लड़कियों का दूसरा लड़कों का। उन्मुक्त पर स्वस्थ परंपरा का निर्वाह तो बस्तर के आदिवासी सदियों से करते आ रहे थे। निश्छल नेह कोयलू और गोंदली के बीच पसर चुका था। गोंदली ने अपनी कंगन ठीक की और कानों के खिलवा को कसा। जूड़े में पंख और गेंदा फूल, खोंसा। इतने में कानों में कोई मिरी (मिर्च) खोंस गया। पलटी तो सामने कोयलू खड़ा हंस रहा था। ‘‘मिरी खाई’’ जाने यह कौन सा बदना था। जो दोनों बदने जा रहे थे। ताउम्र मित्रता वाली फूलों जैसी कई बदने बस्तर के चप्पे थापे ने बिखरे मिलते हैं। आज गोंदली चुप थी। मानो संबोधन सबके सामने उसने स्वीकार कर इस निश्छल नेह के लिये अपनी सहमति दे दी हो। पर इस समय एक जोड़ी लंपट आंखें सिर्फ और सिर्फ ‘‘सिरहा’’ की गोंदली की टोह ले रही थी। झाड़-फूंक करने सिरहा कई बार गोंदली के गाँव आ चुका था। सांझ हो चली थी। सुरमई झुरमुटिया अंधेरा राह तक रहा था। कान में खोंचे गये मिरी को सहलाते नेह के इस श्रृंगार से गोंदली खुद ही सी-सी कर उठी। आज गोंदली के बाबा को सुबह से ही बुखार था। ऐसा पिछले कई दिनों से हो रहा था। गोंदली की आंखें छलक उठी। बाबा के आलावा उसके सिर पर किसी का साया नही था। कोयलू भी तो दूसरे गांव का था। शहरिया ईलाज के लिये सामर्थ्य और ज्ञान दोनों ही गोंदली ही क्या गांव के किसी व्यक्ति में नही था। अधपकी जानकारियों से अपना जीवन साधना कितना दुरूह होता है उन्हें तो यह भी मालूम नही रहता कि जानकारियों के संपर्क घोल को ज्ञान नही कहते। वर्तमान में ज्ञान परचून की दुकान पर पुड़िया बांधकर बेचा जा रहा है। बर्फ से ढके पर्वत पर भी धूप-छांव की सहायता से समय को बहुत अनुभवी पढ़ लेते हैं। ग्रामीण लोग वृक्ष पर चिटियों को घर की ओर लौटते हुए देखकर शाम के आने का अनुमान लगा लेते हैं। बाबा के बुखार का न उतरना क्या उनके सांझ रूपी यात्रा का अंतिम पड़ाव था? ‘सिरहा’ ने अपना जाख गोंदली के घर के आंगन में रखा। चेहरे पर राख, मला, देसी शराब को छींटा। अब वह झूप रहा था। करिया कुकरी (मुर्गी), बोकरा लागु आय (लगेगा) गोंदली थर-थर कांप रही थी। अजीब सी दुर्गंध, वासना से आरक्त आँखें सिरहा के सिर पर नाच रही थी।
ये बाटे आस लेकी। (इधर आओ लड़की)।
पूरा गांव तमाशबीन बना देख रहा था।
सिरहा ने घोषणा की कि बुखार उतरतो बेर लागे दे। (बुखार उतरने में वक्त लगेगा)। रात को दो बजे फिर झाड़-फूंक अंधेरे में करनी होगी। और कुकरी-बोकरा, शराब पहाड़ वाली चोटी में स्थित पखना में लाली बुरक कर चढ़ाना ही होगा।
बाबा लगभग मरणासन्न की स्थिति में पड़े थे। अंतिम आशा के रूप में गोंदली को यह भी करने के लिये बाह्य कर दिया गया। पिछली बार ऐसे ही फूलों को भेजा गया था सिरहा के साथ। उसके बाद से फूलों विक्षिप्त ‘‘फेरहिन’’ बन कर गांव-गांव फिरती है। जाने भूत उतारने के नाम पर सिरहा ने क्या उतार लिया? पिछवाड़े के केले की गाछ से लिपट कर गोंदली फफक पड़ी। कोयलू भी नहीं था। आखिर वह तो दूसरे गांव का मुनुख है। अगली मड़ई में ही उससे मुलाकात हो सकती है। पूरा घर माँय-माँय कर रहा था। क्या ये तूफान के पहले का सन्नाटा था? मिर्ची की गाछ छोटे-छोटे चार पांच मिरी को आदतन अपने कान में खोंस वह बेमन से चल पड़ी, पहाड़ी की ओर। सिरहा लड़खड़ा रहा था। बुदबुदाता जा रहा था। कांख में दबी कुकड़ी (मुर्गी) भी छटपटा रही थी। अचानक जोय (आग) की तेज लपट के साथ तेज-तेज आवाज फिर कुछ गिरने की आवाज आई ऐ लेकी ऐ बाहे आस। (ये लड़की इधर आ)। धड़धड़ गोंदली की सांस धौकनी हुई जा रही थी। सिरहा आगे-आगे गोंदली पिछे और पीछे सरकती जा रही थी। गोंदली के हाथ अनायास ही अपने कान में खोंसे मिरी की ओर बढ़ गये। सिरहा झूप रहा था। झूपते-झूपते गोंदली के अनावृत सौंदर्य के हवन में अपनी लालसा का हमे डाल रहा था। सिरहा की नजरों से उसके व्यक्तित्व की सारी परते बिंधी जा रही थी। मन लहुलुहान हो चला था। अचानक एक सेकेंड के हजारवें हिस्से से भी कम समय में गोंदली के दोनों हाथ दोनों कान में खोंसे मिरियों को कस कर पकड़ लिया। सुबह पहाड़ियों पर सिरहा मृत पाया गया उसकी आंख उबली पड़ी थी। मानो किसी ने उन पर मिर्च बुरक दिया हो। पर मिरी कहां गई? ये अंधविश्वास के जाले मन झोपड़ी के मुज्जे में अटके रहते हैं। जरा सा हिलाया नही की सीधे उपर गिर पड़ते हैं। और इतने महिन की दिखेंगे भी नही और बिना प्रयास के निकलेंगे भी नही। पर गोंदली वापस नही आई। कहां गई? किसी को नही मालूम। सदियां बीत गईं। लोग कहते हैं आज भी उस पहाड़ी की ढलान पर खूब सारी मिर्चि की गाछ अपने आप उगी है। उस पहाड़ी का नाम ही मिरी खाई पहाड़ हो गया मानो गोंदली की जिजीविषा ही खुद पहाड़ हो गई। सदियां बीत गईं। गांव की लेकियां (लड़कियां) आज भी अपने कोनों में मिरी खोंसती हैं। क्या वे बन पायेंगी मिरी खाई? हवा में तेरती है फुसफुसाहट.... बस्तर की वादियों में आवाज गूंजती है। पहाड़ चुपचाप है... निःशब्द है.... सुन रहे हैं मिरी-खाई को...?
लेखक - श्रीमती रजनी शर्मा बस्तरिया 116 सोनिया कुंज देशबंधु प्रेस के सामने रायपुर छत्तीसगढ़ mb 9301836811
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rajnibastariya.153@gmail.com
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