‘‘आज बाबू जंगीसिंह के हिंयां गरीबन का कम्बल बांटे जइहैं। लंगड़ू का दस बजे भेज दिहे।’’
मैं उस समय आंगन में बैठा चबेना चबा रहा था, जब मेरे गांव में स्थापित ‘जंगीसिंह मेमोरियल ट्रस्ट’ में काम करने वाले रामजनक ने मेरे बापू को यह आमंत्रण दिया था। रामजनक के मुख से प्रत्येक शब्द एक शीत-निर्लिप्तता के साथ निकला था और शीतकालीन प्रातः की ओसभरी वायु को कम्पित कर शीघ्र ही विलीन हो गया था। बापू के किसी उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना रामजनक भी हमारी आंखों के सामने से ओसभरी प्रातः की शीत में विलीन हो गया था। वह अपनी इस धारणा, कि कम्बल के लालच में मेरे बापू मुझे भेजने के अतिरिक्त कुछ और सोच भी नहीं सकते हैं, पर इतना आश्वस्त था कि उसे बापू के उत्तर की प्रतीक्षा में समय बरबाद करना अर्थहीन लगा था। पता नहीं मेेरे लिये ‘लंगड़ू‘ संज्ञा से बापू के मन मे क्रोध, प्रतिरोध अथवा दीनता का भाव उभरा अथवा नहीं उभरा, परंतु कम्बल मिलने की सूचना देने पर कृतज्ञता का भाव अवश्य उभरा होगा। उनके सपाट चेहरे पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया परिलक्षित नही हुई थी। मैं जानता हूं कि मेरी विकलांगता के विषय में बापू भी इस ओसभरी शीतकालीन प्रातः की भांति ठंडे एवं निर्लिप्त हो गये हैं; और यह स्वाभाविक ही तो है क्योंकि पिछले दस वर्ष, जब से मेरे दोनों पैर पोलियो के कारण पतले हो गये हैं और मैं चलने फिरने में असमर्थ हो गया हूं, गांव के सभी बच्चे, बूढ़े, और जवान मुझे ‘लंगड़ू’ कहकर ही तो बुलाते हैं। यहां तक कि बड़े भइया को भी मेरा नाम लेने के बजाय ‘लंगडू़’ कहना अधिक सुविधाजनक लगता है। प्रतिदिन अम्मा केे खाने में से रोटी का एक दो कौर पा जाने वाला कुत्ता, जो अपने को घर का सदस्य मानता है, भी जब कभी मुुझे अपने साथ बाहर टहलने को उकसाता है और फिर मेरे पैरों की असमर्थता का आभास पाता है, तो कुछ देर मेरी ओर करुणा भरी दृष्टि से देखने के पश्चात मुझे छोड़कर मेरी छोटी बहिन सुग्गी के साथ खेलने लगता है।
चूल्हे को जलाने के लिये फुंकनी में फूंक मारती अम्मा ने भी मेरे लिये रामजनक का ‘लंगड़’ सम्बोधन सुना था, परंतु उनकी प्रतिक्रिया का आभास हो पाना सम्भव नहीं था क्योंकि माॅ की आंखों में चूल्हे के धुंएं के भरने से उत्पन्न आंसू पहले से ही ढुलकने को आतुर हो रहे थे। मुझे याद है कि प्रारम्भ में जब मुझे पोलियो हुआ था, तो माॅ मुझे अपने सीने से चिपटाकर ऐसे घूमा करतीं थीं जैसे बंदरिया अपने मरे बच्चे को सीने से चिपटाये घूमती रहती है। मैने उन्हें अनेक बार मेरे पैरों की ओर देखकर आंसू ढुलकाते हुए एवं अपने भाग्य को कोसते हुए भी देखा है। फिर मैं बड़ा होने लगा और माॅ के पेट में सुग्गी आ गई और मजबूर होकर माॅ को मेरे ऊपर उमड़ने वाली अपनी करुणा से जनित मेरे प्रति लगाव के प्रदर्शन को कम करना पड़ा था। परंतु मेरा विश्वास है कि आज भी किसी के मुंह से मेरे लिये ‘लंगडू़’ का सम्बोधन उनके अंतस्तल को झकझोर जाता है; यह अलग बात है कि वह अब इस झंझावात को अपने वक्षस्थल में ही दबा देतीं हैं, और एक बार उस व्यक्ति को निष्प्राण सी निगाहों से देखकर चुपचाप अपने काम में जुट जातीं हैं। आज भी अम्मा ने रामजनक की बात सुनकर उसकी ओर एक तीक्ष्ण दृष्टि डाली थी और फिर चूल्हा फूंकने में ऐसे जुट गईं थीं जैसे उन्होंने कुछ सुना ही न हो।
मैं अपने घर के खुले दरवाजे़ के पार देख रहा हूं कि रामजनक के पीछे नीम के चबूतरे पर झाडू़ लगाती हुई रामदेई ने भी रामजनक की बात को ध्यान से सुना है। उसने रामजनक की बात सुनकर एक पल को अपना मुंह मेरी ओर उठाकर एक निगाह भर मुझे देखा है; और उसके पश्चात सबसे निगाह चुराते हुए झाड़ू के साथ सिमटने वाले कूड़े को एकटक देखने लगी है। मैं जानता हूं कि रामदेई की यह उखड़ी सी निगाह मात्र एक दिखावा है। रामदेई को जब से यह भान हुआ है कि उसकी छातियों के बढ़ते उभारों पर मेरी निगाहों का देर तक ठहरना मात्र एक संयोग नहीे है, उसकी मुझ पर पड़ने वाली निगाह कुछ ऐसी ही उखड़ी उखड़ी सी रहने लगी है। जब जब उसकी निगाह मुझ पर पड़ती है वह आंखें फेरकर किसी अनजाने झंझावात में डूब जाती है। मुझे आभास है कि रामदेई के मेरे प्रति व्यवहार में बचपन का खुलापन शीघ्रता से लुप्त हो रहा है। कभी कभी उसकी निगाह मेरे किशोर चेहरे पर उभरती मूंछों की रेख देखकर वहां अटकने के लिये उसको विवश करने का प्रयत्न करती हुई सी लगती है, परंतु वह उस विवशता को एक झटके में झटक देती है। मेेर मन में उसकी निकटता की उत्कंठा जितनी बढ़ रही है, वह उतनी अधिक सशंकित सी रहकर अपने को निःस्पृह एवं निर्लिप्त दिखाने का प्रयत्न करती हैं। उसका यह निर्लिप्तता प्रदर्शित करने का प्रयत्न मेरे हृदय को कचोटता रहता है। आज रामदेई के झाड़ू लगाने के काम में जुट जाने के पश्चात भी वह अपने को निर्लिप्त प्रदर्शित करने के प्रयत्न में पूर्णतः सफल नहीं हो पा रही है। वह बार बार अपने बांयें हाथ से अपनी अलकों केा उठाकर पीछे कर रही है और इस क्रिया के दौरान बांयें हाथ की तर्जनी से अपनी आंख का कोना भी साफ़ कर लेती है। मुझे पोलियो होने के प्रारम्भिक वर्षों में जब वह प्रायः मेरी अम्मा के पास बातें करने व खेलने आया करती थी और मैं उठकर तेज़ी से चलने का प्रयत्न करने पर गिर पड़ता था, तब भी मैने कभी कभी उसको अपनी उद्विग्नता इसी प्रकार व्यक्त करते देखा है। अब उसकी माॅ ने उसे अकेले दुकेले मेरे घर आने को मना कर रखा है और हमारा मिलना कम हो गया है। इसके अतिरिक्त उसकी निकटता मिलने पर मै अपनी हीनता के भाव से मुक्त नहीं हो पाता हूं, अतः अपने प्रति उसके वास्तविक भावों से अनभिज्ञ हूं। इस कारण मैं नहीं कह सकता कि आज की उसकी प्रतिक्रिया मेरे प्रति प्रेम से उभरी है अथवा दया से। मुझे यह भी लगता है कि मेरी अम्मा को छोड़कर कोई भी व्यक्ति मेरे प्रति दया के अतिरिक्त अन्य कोई भाव कैसे रख सकता है।
‘‘रमेसर! जाउ जल्दी चले जाउ, जेहिसे लाइन माॅ आगे लग जइहौ।’’ बापू ने मेरी तिपहिया सायकिल लाकर मेरे बगल में खड़ी कर दी है और मेरी विचार श्रंखला भंग हो गई है। बाबू जंगी सिंह ट्रस्ट द्वारा गत वर्ष भी इन्हीं दिनों कम्बल बांटे गये थे और देर से पहुंचने पर मैं पीछे रह गया था। फिर अन्य लोग, जो मुझसे बाद में आये थे, मुझसे आगे निकलकर कम्बल ले गये थे। मेरा नम्बर आया ही नहीं था क्योंकि कोई न कोई मुझसे आगे निकलकर कम्बल पा लेता था। अंत में थोड़ी सी मिठाई लेकर मुझे वापस लौटना पडा़ था।
इस साल शासन द्वारा विकलांगों को दी जाने वाली सहायता के अंतर्गत एक तिपहिया सायकिल का जुगाड़ मेरे बापू ने मेरे लिये कर लिया है- जुगाड़ इसलिये कि जौनपुर के बड़े डाक्टर ने बापू से अपनी गाय हेतु मुफ़्त में छप्पर छवाने के बाद बड़ा अहसान दिखाते हुए मेरा विकलांगता का प्रमाण पत्र निर्गत किया था और समाज कल्याण विभाग के बड़े बाबू ने अपना हक प्राप्त करने के पश्चात ही मेरे लिये ट्राइसिकिल के स्वीकृति-पत्र पर साहब के हस्ताक्षर कराये थे। सायकिल देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी और अनेक वर्षों बाद अब आस पास कहीं आने जाने में मैं अपने को परतंत्र नहीं पाता हूं। दोनों हाथ से चलाने पर जब यह गति पकड़ती है तो मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं आकाश में पक्षियों की भांति उड़ रहा हूं। आज भी मैं बड़े वेग से सायकिल दौड़ाते हुए जंगी सिंह मेमोरियल ट्रस्ट पहुंचा हूं- मेरे मन में वेग से सायकिल दौड़ाने का प्रयोजन जल्दी से ट्रस्ट पहुंचने का नहीें था वरन् अपने शरीर मेंं ऊष्मा एवं स्फूर्ति भरना था; ट्रस्ट जाकर कम्बल प्राप्त करने में मुझे अपने में एक भिक्षुक जैसी हीनभावना का आभास होता है, परंतु मैं अपने एवं अपने परिवार के लिये कम्बल की आवश्यकता एवं उपयोगिता को भलीभांति समझता हूं और बापू की अवज्ञा करने का साहस भी कैसे कर सकता हूं?
जौनपुर जनपद के शिवपुर बेलवा गांव जहां निर्धनता एवं विपन्नता कच्ची और बिना प्लास्टर की दीवालों पर रखे पुराने खपरैलों एवं छप्परों से प्रतिपल टपकती सी रहती है, में रंगों से सुसज्जित एवं लता-गुल्मों से आच्छादित जंगीसिंह मेमोरियल ट्रस्ट के विशालकाय भवन की उपस्थिति स्वतंत्रता के उपरांत प्रगति के अवसरों की उपलब्धता की एक जीवंत कहानी है। बाबू जंगीसिंह जो अपने परोपकारी स्वभाव एवं मानवीय सोच के कारण ग्रामवासियों के श्रद्धा के पात्र रहे हैं, का बड़ा बेटा बीसवीं सदी के सातवें दशक में इंजीनियरिंग पास कर अमेरिका, जो कर्मठ व्यक्तियों के लिये सदैव ही ‘अवसर की भूमि’ रहा है, चला गया था। इस लायक बेटे ने वहां उपलब्ध अवसरों का समुचित उपयोग कर पर्याप्त श्रीवृद्धि की। तत्पश्चात अपनी मातृभूमि का ऋण चुकाने के उद्देश्य से अपनी पत्नी के सहयोग एवं प्रयास से अपने पैतृक मकान का विस्तार एवं नवीनीकरण कराकर यह ट्रस्ट स्थापित किया है। अब वे दोनों वर्ष मे पांच-छः महीने यहां आकर रहने लगे हैं। मकान के साथ लगी भूमि पर बालिकाओं हेतु निःशुल्क माध्यमिक विद्यालय की स्थापना कर दी है। निर्धनों के स्वास्थ्य की देखभाल हेतु प्रत्येक रविवार को हेल्थ-कैम्प लगवाते हैं। सुना है कि इस बार अमेरिका से उनकी मित्र लीलाबेन आईं हुईं हैं जो आज अपनी ओर से सौ कम्बल गरीबों को वितरित कर रहीं हैं।
ट्रस्ट के लम्बे चौड़े प्रांगण में मैं पहंुच चुका हूं। अभी यहां पर कम्बल लेने वाले थोड़े से लोग ही आये हैं जो इधर उधर धूप मेंं बैठे हुए हैं। अभी कम्बल वितरण प्रारम्भ होने में देरी है और कोई लाइन नहीं लगी है। नीचे ठंडी ज़मीन पर बैठने के बजाय मैं अपनी सायकिल पर बैठा रहना अधिक आरामदेह समझता हूं। यहां धूप भी अच्छी मिल रही है। अरे यह क्या? सामने से मेरे पड़ोस के देवीदीन की अम्मा अपने बड़े पोते चुन्नू का हाथ पकड़ कर कम्बल लेने आ रहीं हैं। देवीदीन के यहां तो खाने पीने भर को पर्याप्त पैदावार होती है और कोई विकलांग भी नहीं है। हां, देवीदीन की माॅ की कमर अवश्य झुक गई है और वह घर का कामकाज नहीं कर पातीं हैं। उनके चार हृश्ट पुश्ट बेटे हैं परंतु माॅ का खाने पीने का खर्चा उठाने पर चारों की बहुओं में रोज़ चख-चख होती रहती है।
ट्रस्ट भवन का लोहे का बड़ा सा दरवाज़ा खुलता है और उसमें से रामजनक निकलता है और सभी को लाइन में लग जाने को कहता है। उसके निकलते ही सभी बैठे हुए व्यक्ति उठकर जल्दी से लाइन में आगे लग जाने के लिये दौड़ते हैं। मैं भी जल्दी से सायकिल से उतरता हूं और लाइन में लगने को घिसटने लगता हूं, परंतु सब मुझे पीछे धकियाकर आगे निकले जा रहे हैं; यहां तक कि चुन्नू, जो मेरे पैर खराब होने से पहले प्रतिदिन मेरे साथ तीन-टांग और गुल्ली डंडा खेला करता था और अब भी कभी कभी मुझसे बोलने बतियाने आ जाता है, मुझे पीछे कर अपनी दादी को लाइन में आगे लगा देता है। लाइन बन चुकी है और मैं उसमें इतने पीछे लग पाया हूं कि इस वर्ष भी कम्बल मिल पाने की मेरी आशा क्षीण हो गईं है।
मेरी निगाहों के सामने वे लोग कम्बल लेकर जा रहे हैं जो मुझसे बहुत बाद में आये थे। चुन्नू की दादी की तरह खाते पीते घरों के लोग भी कम्बल लेकर जा रहे हैं। मैं कम्बल न पाने के कारण यह साल भी किटकिटाती ठंड सूती चादर में काटने की विवशता की कल्पना से घबरा रहा हूं। परंतु उससे कहीं अधिक इस अपराधबोध से ग्रस्त हो रहा हूं कि बापू इस साल फिर मुझे मेरी अकर्मण्यता हेतु हिकारत की दृष्टि से देर तक देखते रह जायेंगे। गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी मुझ जैसे पीछे लगे लोगों का नम्बर आने से पूर्व ही कम्बल समाप्त हो गये हैं और बचे हुए लोगों को चना-चबेना देकर विदा किया जा रहा है। मेरी कुंठा मुझे आगे बढ़कर चना-चबेना लेने से अवरोधित करती है और मैं अपने स्थान पर मूर्तिवत बैठा हुआ हूं। अब मुझे छोड़कर अंतिम व्यक्ति जा रहा है और मैं भी अपनी सायकिल की ओर खिसकने का उपक्रम करने लगा हूं कि तभी बाबू जंगी सिेह की पुत्रवधू अपने पास छिपाया हुआ एक कम्बल लेकर मेरे पास आ जातीं हैं और मेरी रुंआसी आखों में देखकर मुझसे मेरा नाम पूछने लगतीं हैं। उनके हाथ में कम्बल देखकर मेरा गला भर आता है और मैं कठिनाई से अपना नाम बोलकर उनकी ओर एकटक देखने लगता हूं। पता नहीं क्यों मुझे उनकी आंखों में अपने प्रति एक दयालु व्यक्ति की करुणा के अतिरिक्त अम्मा के आंसू, रामदेई की उद्विग्नता, बापू की उदासीनता, भैया की सम्वेदनहीनता एवं चुन्नू की मुझे घकेलकर आगे बढ़ जाने की ललक के भाव एक के बाद एक आते जाते दिखाई देते हैं और उनके हाथ से कम्बल लेने हेतु मेरे हाथ नहीं उठते हैं। वरन मेरे मन में अनायास एक निश्चयी भाव उत्पन्न हो रहा है।
मुझे भान हो रहा है कि चाहे कोई मेरे लिये आंसू बहाये अथवा मुझे पीछे घकेले, जब तक मैं अपने स्वतंत्र अस्तित्व को स्थापित करने की क्षमता प्राप्त नहीं कर लेता हूं, मैं मात्र दया का पात्र रहूंगा; और मैं कम्बल लिये बिना एक नवीन उमंग के साथ अपनी सायकिल की ओर बढ़ लेता हूं।
विवरण नाम: महेश चंद्र द्विवेदी पताः ‘ज्ञान प्रसार संस्थान’, 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनउू-226010 / फोनः 0522 2304276 / 9415063030 ई-मेल; mcdewedy@yahoo.com जन्म-स्थान एवं जन्मतिथिः मानीकोठी, इटावा / 07 जुलाई, 1941 शिक्षाः 1. एम. एस. सी./भैतिकी/-लखनऊ विश्वविद्यालय/गोल्ड मेडलिस्ट/ 2. एम. एस. सी./सोशल प्लानिंग/-लंदन स्कूल आफ़ इकोनोमिक्स 3. डिप्लोमा इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 4. विशारद जीवनयापन हेतु सेवावृत्तः 1. 1961-1962 - अघ्यापन, आई. टी. कालिज, लखनऊ 2. 1963- साइंटिस्ट, डी. आर. डी. ओ., दिल्ली 3. 1963- 2001- आई. पी. एस.- पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत प्रकाशित पुस्तकें; 1. उर्मि- उपन्यास 2. सर्जना के स्वर- कविता संग्रह 3. एक बौना मानव- कहानी संग्रह 4. सत्यबोध- कहानी संग्रह 5. क्लियर फ़ंडा- व्यंग्य संग्रह 6. भज्जी का जूता- व्यंग्य संग्रह 7. प्रिय अप्रिय प्रशासकीय प्रसंग- संस्मरण 8. अनजाने आकाश में- कविता संग्रह 9. लव जिहाद- कहानी संग्रह 10. भीगे पंख- उपन्यास 11. मानिला की योगिनी- उपन्यास 12. इमराना हाजिर हो- कहानी संग्रह 13. महेश चंद्र द्विवेदी के 51 व्यंग्य 14. वीरप्पन की मूंछेँ - व्यंग्य संग्रह 15. Interesting Exposures of Administration (ENGLISH) राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनः 1. दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, लोकमत, अमर उजाला, आदि समाचार पत्रों में अनेक लेख, कहानी, कविताओं का प्रकाशन 2. अनेक वर्ष आई-नेक्स्ट /जागरण समूह/ में मुख्य-लेख का पाक्षिक प्रकाशन 3. हंस, कादम्बिनी, कथाक्रम, कथादेश, व्यंग्य यात्रा, लफ़ज़, सरिता, मसि-कागद, मनोरमा, मधुमती, पुलिस पत्रिका, उत्तर प्रदेश, सुरभि समग,्र मनोहर कहानियां, युगीन, अट्टहास, गर्भनाल, सोच-विचार आदि पत्रिकाओं में अनेक रचनायें प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं मेँ प्रकाशनः 1. लंदन से प्रकाशित पत्रिका पुरवाई एवं अमेरिका से प्रकाशित विश्व विवेक में रचनायें प्रकाशित 2. ई-पत्रिकायें- शारजाह से प्रकाशित अभिव्यक्ति एवं अनुभूति, कनाडा से प्रकाशित साहित्यकुंज, अमेरिका से प्रकाशित ई-विश्वा, भारत से प्रकाशित हिंदीनेस्ट, सृजनगाथा, स्वर्गविभा, कलायन पत्रिका आदि ई-पत्रिकाओं में अनेक रचनायें प्रकाशित अंग्रेजी़ पत्र-पत्रिकाओं मेँ प्रकाशनः 1. पायनियर, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ़ इंडिया में सामाजिक विषयों पर रचनायें प्रकाशित 2. ई-पत्रिका ‘बोलोजी.काम’ पर अनेक रचनायें प्रकाशित प्रसारणः 1. अनेक कहानियों/कविताओँ का आकाशवाणी पर प्रसारण 3. कविता का दूरदर्शन पर प्रसारण 3. वर्ष 2001 में दूरदर्शन दिल्ली द्वारा साक्षात्कार का प्रसारण 4. वर्ष 1998 में बी. बी. सी., बर्मिंघम द्वारा साक्षात्कार का प्रसारण 5. ई. टी. वी., सहारा समय द्वारा साक्षात्कार एवं साहित्य का प्रसारण मंचीय कविता पाठः 1. भारत में लखनउू, गाजि़याबाद, गढ़, मथुरा, आगरा, बदायूं, बिझनौर, फर्रुखाबाद, गोला, इटावा, खीरी, इलाहाबाद, कटनी, सोनभद्र आदि मेँ मँचीय काव्यपाठ 2. लंदन/1998/,डिट्रौइट/2002/,सिन्सिनाटी/2002/, राली/2002/, शिकागो/2007/, एटलांटा/2002 एवं 2007/ बर्मिंधम/2002 एवं 2007/, वूल्वरहैम्प्टन/1998/, स्विट्झरलैंड/2011/ में मंचीय पाठ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भागीदारीः 1. रामायण ज्ञान केन्द्र, यू. के. /बर्मिंघम-2007/ 2. विश्व हिंदी सम्मेलन, /न्यूयार्क-2007/ 3. शतो द लाविनी /स्विट्झरलैंड/ में अंतर्राष्ट्रीय लेखकों के साथ 21 दिन की रेजीडेंसी- 201 4. अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, दुबई – 2013 5. अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, चाइना- 2014 6. अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, मिस्र- 2016 सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यः 1. ‘श्री महेश चंद्र द्विवेदी ज्ञान प्रसार संस्थान’ के अंतर्गत निर्धन बच्चोँ को निःशुल्क शिक्षा, सद्गुणों का विकास, वस्त्र वितरण एवं चिकित्सीय सहायता 2. अपने ग्राम मानीकोठी एवं कुदरकोट में वाचनालय की स्थापना एवं बच्चों की प्रतियोगिताओं का आयोजन 3. लखनऊ में त्रैमासिक तथा ग्राम मानीकोठी में वार्षिक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन 4. अध्यक्ष /उत्तर प्रदेश/- भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन राष्ट्रीय परिषद 5. अध्यक्ष, वानप्रस्थ सेवा संस्थान, लखनऊ 6. अध्यक्ष /उत्तर प्रदेश/- राइटर्स ऐंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन पुरस्कार एवं सम्मानः अः 1. सराहनीय सेवाओं हेतु पुलिस पदक 2. विशिष्ट सेवाओं हेतु राष्ट्र्पति का पुलिस पदक 3. मानवाधिकार संरक्षण समिति, छत्तीसगढ़- भारत श्री 4. लखनऊ विश्वविद्यालय मेँ गोल्ड मेडल ब. 1. आल इंडिया कान्फ़रेंस आफ़ इंटेलेक्चुअल्स- यू. पी. रत्न 2. आथर्स गिल्ड आफ़ इंडिया, वाराणसी 3. भारत विकास परिषद, इटावा 4. अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच, लखनउू 5. प्रोग्रेसिव कल्चुरल सोसायटी, लखनउू 6. सर्वधर्म चेतना सेवा संस्थान द्वारा घोंघा-शिरोमणि सम्मान 7. संस्कार भारती- फर्रुखाबाद 8. महाकोशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद- भारत भारती 9. अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन- गढ़-गंगा शिखर सम्मान 10. हिंदी एवं संस्कृति प्रसार समिति /भारत/- हिंदी रत्न 11. इटावा हिंदी सेवानिधि- गंगदेव सम्मान 12. शब्द सरिता- काव्य रत्न 13. डा. सुरेश चंद्र शुक्ल राष्ट्भाषा पुरस्कार 14. अखिल भारतीय ब्रज साहित्य संगम, मथुरा- कला रत्न 15. अ. भा. अगीत परिषद, लखनऊ- डा. शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार 16. अ. भा. अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार, सागर/मघ्य प्रदेश/ 17. ‘अभिव्यक्ति’. ई-पत्रिका में कथा पुरस्कार 18. सोनांचल साहित्यकार संस्थान, सोनभद्र 19. साहित्यानंद परिषद, खीरी 15. हिंदी प्रसार निधि, बिधूना 16. अखिल भारतीय वागीश्वरी साहित्य परिषद, लखनउू 17. साहित्य प्रोत्साहन, लखनउू 18. अखिल भारतीय साहित्य परिषद, राजस्थान -प्रथम पुरस्कार 19. अनहद कृति काव्य उन्मेष – विशेष मान्यता सम्मान 20. प्रो. सहदेव सिंह स्मृति सम्मान- (मिस्र मेँ प्राप्त)- 2016 21. उत्तर प्रदेश शासन - हिंदी संस्थान- शरद जोशी पुरस्कार- 2004 22. उत्तर प्रदेश शासन - हिंदी संस्थान- हरि शंकर परसाई पुरस्कार- 2014 23. लखनऊ मैनेजमेँट एसोसिएशन व्यंग्य-सम्मान 24- रोटरी-क्लब, लखनऊ द्वारा व्यंग्य-पाठ सम्मान आदि, आदि अन्यः 1. डा. जितेंन्द्र कुमार सिंह ‘संजय’ द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी एवं उनकी पत्नी नीरजा द्विवेदी के साहित्य पर ‘साहित्यकार द्विवेदी दम्पति’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित 2. एम. फि़ल, लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्रा कु. श्रुति शुक्ला द्वारा श्री महेश चंद्र द्विवेदी के साहित्य पर शोध 3. ईकविता/काव्यधारा/कविताकोष/कहानी मंच समूहोँ की सदस्यता
समाज की विचारधारा का एक सही चित्रण और एक दुःखी अपाहिज व्यक्ति के करुण हृदय वेदना का सटीक वर्णन किया गया है कहानी में। पाठक को एक सन्देश जरूर मिलता है कि वह समाज में रह रहे किसी गरीब असहाय के प्रति अपनी कटु सोच न रखें और कटु शब्दों का प्रयोग न करें।
महेश चंद्र दिव्वेदी जी इतने बड़े पद पर कार्य करने वाले व्यक्ति इतनी बारीकी से समाज का मूल्यांकन करते हैं यह बेहद ही खास बात है। धन्यवाद महेश चंद्र दिव्वेदी जी।