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अभिज्ञात

सम्मान


वह जगदम्बिका एक कारखाने में मज़दूर था। मन लगाकर काम करता और अपने परिवार को हमेशा खुश रखने की भी कोशिश में लगा रहता। उसे लगता कारखाने में ईमानदारी से काम करना उसके परिवार की खुशहाली को सुनिश्चित करेगा। उसे अपनी मेहनत के नतीजे पर यक़ीन था। तीन बच्चे थे, जैसे तैसे वह उनके पढ़ाई की सुविधाएं जुटाने में भी लगा रहता था। कारखाने के दौरान उसकी कोशिश रहती कि उसे उसकी ईमानदारी और लगन के बदले प्रमोशन मिल जाये। तरक्की की मतलब वेतन में इजाफा और वेतन में इजाफा का मतलब बच्चों की पढ़ाई के बढ़ते खर्च का इन्तजाम। वह कारखाने में उत्पादन बढ़ाने की तरीकों पर भी मगज खपाता रहता जैसे कि कारखाने के मुनाफे को बढ़ाने का सारा दरोमदार उसी पर हो। जब भी किसी अफसर से सामना होता और कोई बात होती तो मौके बे मौके वह सुझाव ज़रूर देता। हालांकि उसकी इस आदत पर कई बार अफसर उसका मज़ाक उड़ा चुके थे। और दो-एक अफसर उसे यह कहकर डांट भी चुके थे कि तुमसे सलाह किसने मांगी?


उसे नहीं पता था कि वह किसे सलाह दे रहा है। एक प्रभावशाली बुजुर्ग कारखाने में विजिट के लिए आया था। वह उसके सुपरवाइजर से बात करते हुए उसके सामने से गुज़र रहा था। वह उत्पादन बढ़ाने के विषय में उसके सुपरवाइजर की राय भी मांग रहा था –

‘सभी लोगों से परामर्श लेना चाहिए। पता नहीं कौन अच्छी सी राय दे दे। कई बार मामूली से मामूली व्यक्ति भी बहुत अच्छी राय दे सकता है। हमें उत्पादन बढ़ाने के लिए किसी की भी आइडिया पर विचार करने में क्या दिक्कत है। मान लो इसी मज़दूर से पूछा जाये कि तुम्हारी नज़र में वह क्या उपाय हैं जिनके करने से उत्पादन बढ़ सकता है, या मेहनत कम लग सकती है, या फिर काम जल्दी हो सकता है। किन चीज़ों में कटौती करके हम अपना खर्च बचा सकते हैं। तो यह इस पर क्या सोचता है यह जानने में क्या हर्ज है।

हजार सलाह में एक सलाह भी काम की निकल आयी तो हमें फायदा ही होगा। सबकी बात धैर्य से सुनी जानी चाहिए।’

इतना कहते हुए वह फिर सुपरवाइजर के साथ बात करते करते आगे बढ़ा ही था कि जगदम्बिका उनके पीछे हो लिया। सुपरवाइजर ने उसे घुड़का –

‘क्या हुआ, तुम पीछे क्यों आ रहे हो चलो अपना काम करो?’

जगदम्बिका ने साहस जुटा कर कहा -

‘सर मेरे दिमाग में बहुत से उपाय हैं। मैं कब बताने के लिए आऊं।’

सुपरवाइजर उसकी बात सुनकर हक्का-बक्का रह गया –

‘अरे तुम काम करने के बदले हमारी बातें सुन रहे थे। भागो यहां से नहीं तो काम से बैठा दूंगा। जानते हो ये हमारे बड़े मालिक हैं। अपनी बकवास अपने पास रखो।’

मालिक ने सुपरवाइजर से कहा –

‘यह क्या मिस्टर बैनर्जी। मैं क्या आपसे मज़ाक कर रहा था। इसकी बात सुनी जानी चाहिए। आपको फुरसत नहीं हो तो मैं सुनूंगा।’

फिर वह जगदम्बिका से मुखातिब होकर मालिक ने कहा –

‘तुम दस मिनट बाद मैनेजर के कमरे में आकर मुझसे मिलो। मैं तुम्हारी बात सुनूंगा।‘

और फिर वे सुपरवाइजर के साथ आगे बढ़ गये।


जगदम्बिका का कलेजा धक्-धक् करने लगा। उसे लगा भगवान ने उसकी सुन ली। यदि उसकी एक भी योजना मालिक को पसंद आ गयी तो क्या पता उसकी तरक्की हो जाये। बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का उसका सपना पूरा हो जायेगा। हालांकि उसे यह भी सपना ही लगा रहा था। उसने सुन रखा था मालिक मुंबई में रहते हैं। देश भर में उनके कई कारखाने हैं। वह नौ साल से इस कारखाने में काम कर रहा है पर मालिक पहली बार यहां आये हैं। हालांकि उनके बेटे साल में तीन चार बार ज़रूर आते रहते हैं। लेकिन उसे क्या पता था कि साक्षात मालिक को आमने सामने ही उसे देखने का मौका नहीं मिल जायेगा बल्कि वह उनसे बात कर पायेगा और यहां तक की उन्हें सुझाव भी देगा।

वह मैनेजर के चेम्बर के सामने यह सोचते हुए खड़ा था। उसने चेम्बर के बाहर खड़े चपरासी से कहा –

‘मालिक अन्दर होंगे। उन्होंने मुझे बुलाया है।’

पहले तो चपरासी को लगा कि जगदम्बिका शराब पीकर कारखाने चला आया है और नशे में बहकी-बहकी बातें कर रहा है। भला मालिक को क्या पड़ी है कि किसी मज़दूर से बात करें, वह भी आफ़िस में बुलाकर। लेकिन बार-बार समझाने पर भी जब जगदम्बिका टस-से-मस नहीं हुआ तो वह बोला –

‘ठीक है। तुम कहते हो तो अन्दर पूछ आता हूं। पर सोच लेना यदि उन्होंने नहीं बुलाया होगा तो इस गुस्ताख़ी पर तुम्हारी नौकरी गयी समझो। अपने बाल-बच्चों का ख़याल कर लो।’

चपरासी ने मन ही मन भगवान को याद किया। किस मुसीबत में वह फंस गया है क्या पता इसे बुलाया गया हो और वह न जाने दे तो कहीं उस पर ही न आफ़त टूट पड़े। फिर तुरन्त ही वापस आकर बढ़े अदब से उसे अन्दर ले गया और कान में फुसफुसा कर अनुरोध भी किया –

‘यार यह मत बताना का मैंने तुम्हें रोका था।’

जगदम्बिका को स्वयं के मान-अपमान का होश ही कहां था। उसे तो अंदर जाकर तब नशा सा हो गया जब मालिक ने उसे सामने की कुर्सी पर बैठने को कहा और चपरासी को बुलाकर उसके लिए ठंडा लाने को कहा। जगदम्बिका पहली बार मैनेजर की बगल में बैठा था और सामने मालिक थे।

मालिक ने स्टैनो को बुलवाया और उससे कहा कि जो भी जगदम्बिका कहे उसे नोट किया जाये। मालिक ने जगदम्बिका से बात शुरू करने से पहले उसका नाम, विभाग और पद पूछा था।

फिर क्या था जगदम्बिका जो पिछले कुछ अरसे से लगातार सोच रहा था और खोज खोज कर लोगों को अपनी सलाह देता फिरता था, बोलना शुरू किया तो बोलता ही गया। उसके बताने का अंदाज हल्का फुल्का और मजेदार था जिस पर कई बार मालिक हंसे भी। और दो तीन बार तो उसकी सलाह पर शाबाश-शाबाश भी कहा जिससे उसका हौसला बढ़ा और अपनी योजनाओं को जोश-खरोश के साथ पूरी बारीकी से बताता गया। वह तब रुका जब मालिक ने कहा अब बस कीजिए। हम आपकी बातों को समझ गये हैं। और जल्द ही आपको अच्छे-अच्छे सुझाव के लिए इनाम दिया जायेगा।

जब वह मालिक से मिलकर मैनेजर के चेम्बर से बाहर निकला तो वह अपने को बदला महसूस कर रहा था। उसे लगा कि वह कोई और है। उसकी चाल और हाव भाव स्वयं उसे ही बदले-बदले लग रहे थे। इस बीच कारखाने भर में यह बात आग की तरह फैल चुकी थी कि मालिक ने मज़दूर जगम्बिका को बुलाया है और उसके लम्बी बातचीत कर रहे हैं। रास्ते में उसके एक सहकर्मी ने उससे हंस कर पूछा –

‘क्यों जगदम्बिका भाई ठीक हो ना? ज़रा हमारा भी ख़याल रखना। अब तो मालिक से तुम्हारा डायरेक्ट कनेक्शन है।’

और खुद हंसने लगा। पता नहीं उसकी हंसी में प्रसन्नता थी, दिल्लगी थी, या ईर्ष्या!


वह घर लौटा तो पत्नी व बच्चे फूले नहीं समा रहे थे। रात भर न उसे नींद आयी और ना ही उसकी पत्नी को। पत्नी ने रात में कई बार अंधेरे में उससे पूछा –

‘क्यों जी नींद नहीं आ रही न। अब सो जाओ। कल काम पर भी जाना है। रात भर जगोगे तो बीमार पड़ जाओगे।’

हर सवाल के बाद वह करवट बदल लेता। आख़िरकार उसे नींद भी आयी और तरह-तरह के अच्छे- बुरे सपने भी।

..

अगले दिन कारखाने में काम पर पहुंचे उसे तीन घंटे ही हुए थे कि सुपरवाइजर ने खुद उसके पास आकर कहा –

‘एक घंटे बाद तुम घर लौट जाना। आज तुम्हें आधे बेला ही काम करना है। शाम को मालिक के बंगले में पार्टी है। वहां ठीक सात बजे पहुंच जाना। मालिक ने बुलाया और और वहां पार्टी में तुम्हें वे इनाम देना चाहते हैं।’


वह घर लौटा। पूरा परिवार मंत्रणा में जुट गया। जगदम्बिका ने कहा –

‘मुझे लग रहा है कि वह घड़ी अब करीब है, जब हमारे दिन बदलेंगे। लेकिन एक दुविधा है। कहा जा रहा है कि मुझे इनाम दिया जायेगा। इनाम से क्या होना है, मुझे तो तरक्की चाहिए। तरक्की मिल गयी तो भविष्य में बच्चों की जो फीस बढ़ेगी उसकी समस्या नहीं रहेगी। मैं तो ठीक से पढ़ लिख नहीं पाया, बच्चे तो होनहार निकल जायेंगे। मुझे और क्या चाहिए। इनाम में क्या होगा, थोड़ा बहुत रुपये मिल गये भी तो कितने दिन चलेंगे?’

पत्नी - ‘यह तो आप तब कह सकते हैं जब आपसे पूछा जाये कि आपको क्या चाहिए। यह तो वे अपने मन से कर रहे हैं। जो भी करेंगे कुछ न कुछ भला ही तो करेंगे।’

बेटा – ‘पापा मान लो प्रमोशन नहीं मिला और एक लाख रुपये मिल गये तो क्या हर्ज है?’

बेटी - ‘मैं तो दो दो नयी ड्रेस खरीदूंगी और मुझे वो चाबी वाली गुड़िया भी लेनी है। पापा ले दोगे न? प्रामिज करो।’

इन सब बातों के बीच एक बड़ी समस्या पेश आयी कपड़ों के चयन को लेकर। पत्नी ने जिस कपड़े का चयन किया तो बेटी ने उसे रद्द कर दिया। बेटे को उसका कोई भी कपड़ा इस लायक नहीं लगा जिसे पहन कर वह सम्मान समारोह में जा सके। आनन-फानन में वे पास की दुकान पर गये मगर वहां भी कोई ऐसा परिधान नहीं दिखा जिस पर सभी एकमत हों। अंततः जगदम्बिका ने कहा –

‘मैं जो रोज पहनता हूं और जो अब मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बने चुके हैं मैं उन्हीं में से एक कोई कपड़ा पहन कर जाऊंगा। मैं कुछ ऐसा पहन कर नहीं जाऊंगा जिसमें मैं खुद अपनी की निगाहों में अजूबा लगूं। मुझे जिस रूप में पसंद किया गया है, मुझे उसी का सम्मान करना चाहिए।’

अंततः एक धुले कपड़े को पास की लांड्री से इस्तीरी करा कर वह पहन कर तैयार हो गया।

जब पत्नी ने कहा कि क्या वह रात का खाना उसके लिए भी बनाकर रखे तो जगदम्बिका ने हंसकर कहा –

‘वहां पार्टी है। ऐसी पार्टियों में तरह-तरह के खाने-पीने का इंतज़ाम होता है। मुझे सम्मानित किया जायेगा तो क्या मुझे बग़ैर खाये वापस आने देंगे!’

पत्नी ने कहा –

‘सुनते हैं अफसरों की पार्टियों में दारू शारू पीने का भी प्रोग्राम रहता है। फोकट की मिलेगी तो ज्यादा मत लगा लेना।’

इस बात पर सब एक साथ हंसने लगे। खुद जगदम्बिका भी।


मालिक के बंगले में पहुंचा तो वहां उसे यह देखकर अच्छा लगा कि वहां केवल अधिकारी वर्ग के लोग ही अपने पूरे परिवार के साथ आमंत्रित थे। उसके जैसा मज़दूर कोई और न था। हां, चपरासी आदि थे, जो खाना-पीना सर्व करने में लगे थे। मुख्य समारोह अभी शुरू नहीं हुआ था। लोगों का आना अभी शुरू हुआ था। उसे समझ में नहीं आया कि वह कहां जाये, किसके बीच बैठे। लोग पहुंचते ही कोल्ड ड्रिंक, काफी, टमाटर सूप और अन्य हल्के-फुल्के पकौड़े टाइप की चीज़ें ले रहे थे। कोई अपने दोस्तों के बीच था तो कोई अफसर अपने नज़दीकी अफसर के साथ। अंततः उसने तय किया कि वह भी कोल्ड ड्रिंक्स सर्व करने वालों में शामिल हो जाये।

इसी बीच थोड़ी देर में मालिक अपने परिवार व बेटे के साथ पार्टी में पहुंचे। और कार्यक्रम शुरू हो गया। मंच पर उसका नाम पुकारा गया तो उसे पता ही नहीं चला कि उसका नाम पुकारा जा रहा है। अन्य लोगों ने उसे बताया वह हड़बड़ा कर मंच पर चढ़ा। मालिक ने माइक पर कहा कि हमारे बीच एक आदर्श मज़दूर है जिसने बहुत सी उपयोगी सलाह दी है कि कैसे कारखाने में उत्पादन बढ़ाया जाये और खर्च में कटौती की जाये। हालांकि विचार-विमर्श के बाद पाया गया कि कोई भी सलाह व्यवहारिक नहीं है लेकिन इस मज़दूर के जज्बे को सलाम कि वह अपने काम से ही काम नहीं रखता बल्कि वह कम्पनी की भलाई के बारे में भी गंभीरता से सोचता है। अपने काम के प्रति ऐसा लगाव लोगों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है। आज मैं उसे एक ऐसा पुरस्कार देना चाहता हूं जो उसे ज़िन्दगी भर याद रहेगा।

उन्होंने उसे पास बुलाया। उसे एक शाल ओढ़ाई, एक शिल्ड दिया, गुलदस्ता दिया और उसे गले से लगा लिया।

फिर मालिक ने कहा –

‘मैं जगदम्बिका चौधरी को इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का सम्मान देता हूं। मेरे देश भर में दस कारखाने हैं। उन सबमें सर्वश्रेष्ठ। इन्हें इसका प्रमाणपत्र देते हुए मुझे खुशी हो रही है। यह सम्मान मज़दूरों को प्रेरणा देगा।’

जगदम्बिका जैसे आसमान से गिरा। उसे समझ में नहीं आया है यह कैसा सम्मान है। लोग तालियां बजाने लगे और मालिक अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गये तो उसे समझ में आया कि उसे मंच से उतर जाना है।

मंच से उतरते ही तमाम अधिकारियों ने उससे हाथ मिलाकर बधाई दी। फिर आपस में बात करने लगे –

‘अपने मालिक ग्रेट हैं। बहुत बड़ा दिल है। घमंड तो उन्हें छू नहीं गया है। देखो, कैसे प्यार से मज़दूर को गले लगा लिया। वह भी सबके सामने।’

उसके सामने फिर समस्या थी कि वह क्या करे? क्या वह अधिकारियों की तरह उनके साथ उनके बराबर कुर्सी पर बैठे और उन्हीं की कतार में लगकर खाये। क्या वह पार्टी छोड़कर बिना खाये-पिये घर लौट जाये। अंततः कुछ वह इसी उधेड़बुन में रहा। फिर उसने सम्मान में मिली शाल, प्रमाणपत्र और गुलदस्ता एक टेबल पर रखा और फिर खाने-पीने का सामान सर्व करने में जुट गया। और न तो उसे किसी ने खाना सर्व करने से रोका और ना ही किसी ने उसे कुछ खाने पीने को कहा। पार्टी में कॉकटेल की भी व्यवस्था थी, इसलिए उसके जल्द ख़त्म होने के आसार नहीं थे। रात के साढ़े दस बज गये थे। उसका घर दूर था और उम्मीद नहीं थी कि कोई वाहन उसे घर ले जाने के लिए मिलेगा। उसने एक चपरासी से विमर्श किया –

‘यार मैं क्या करूं समझ में नहीं आ रहा?’

चपरासी ने बताया –

‘हमें तो पार्टी शुरू होने से पहले ही खाना खिला दिया गया था। और कहा गया है कि हमें रात भर यहीं रुकना है। पार्टी खत्म होने के बाद यहीं हमारे सोने के इन्तजाम है। सुबह यहां सब कुछ साफ सफाई करने और सामान हटाने के बाद ही हमें जाना है। हमारी ओवरटाइम की ड्यूटी लगी है। अब तुम्हारे बारे में हम क्या बता सकते हैं। मेरी राय तो यही है कि तुम चुपचाप यहां से खिसक लो। आखिर तुम्हें कल ड्यूटी भी तो जाना है।’

जगदम्बिका को वस्तुस्थति समझ में आ गयी। वह यहां अब अवांछित है। सारे अधिकारी एक दूसरे से अपने सम्पर्क घनिष्ठ करने में लगे हैं और कॉकटेल का लुत्फ ले रहे हैं। उसकी परवाह किसे है। और किसी से कुछ पूछना बेकार ही होगा। तरह-तरह के व्यंजनों को देखकर व उसकी गंधे से उसे जम कर भूख लग गयी थी लेकिन वह अपने मन से खाये तो कैसे खाये। किसी की नज़र पड़ गयी और फटकार दिया या शिकायत कर दी तो लेने के देने पड़ जायेंगे। जैसे ही पौने ग्यारह बजे वह अपना प्रमाणपत्र, शाल और गुलदस्ता लेकर चुपचाप बंगले के बाहर निकल पड़ा।


बाहर सुनसान और सन्नाटा था। कोई वाहन या रिक्शा नज़र नहीं आ रहा था। वह पैदल ही घर के लिए निकल पड़ा। यहां से लगभग पौन घंटे का रास्ता होगा। उसने अनुमान लगाया अर्थात साढ़े ग्यारह तक वह घर पहुंच जायेगा। वह तेजी से आगे बढ़ रहा था। भूख प्यास से अंतड़ियों में दर्द महसूस होने लगा था और गला सूख रहा था। मन तो पहले ही मायूस और उदास था।

थोड़ा और आगे बढ़ा तो सड़क पर सन्नाटा पसरा था। उसे लगा कि कौन देख रहा है क्यों न वह दौड़ लगा दे, जल्द पहुंच जायेगा। उसने दौड़ना शुरू किया। यह क्या! एकएक पीछे से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनायी दी। उफ्फ तो पीछे कुत्ते लग गये हैं। शायद वह दौड़ता नहीं तो कुत्ते उसे परेशान न करते। अब क्या करे, क्या वह रुक कर साहस का दिखावा करे ताकि कुत्ते उसका पीछा छोड़ें या फिर भाग निकले। लेकिन काट लिया तो! उसका बदन सिहर उठा। अचानक उसका पैर फिसला और असंतुलित होकर सड़क किनारे की नाली में जा गिरा। कुत्ते भौंके जा रहे थे। वह किसी प्रकार उठा। गुलदस्ता कीचड़ में सन गया था सो उसे वहीं छोड़ दिया और शाल को गले में लपेटा। शिल्ड और प्रमाणपत्र अब भी हाथ में था, उसे ज़ोर से पकड़ा और खड़ा होकर कुत्ते को भगाने की कोशिश की। फिर ज़ोर-ज़ोर से के.एल. सहगल का गीत गाने लगा - ‘जब दिल ही टूट गया. हम जीकर क्या करेंगे।’

कुत्तों ने उसकी ठीढाई देख धीरे-धीरे भौंकना बंद कर दिया और फिर उसका पीछा करना छोड़ दिया। वह धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ा। उसके कदमों में लड़खड़ाहट थी। संभवतः यह भूख और ताज़ा लगी चोट का परिणाम था। उसे लगा उसे नशा हो गया है।


घर पहुंचा तो उसका अनुमान था कि बारह से अधिक हो रहे होंगे। उसने सोचा था अब तक पत्नी व बच्चे सो गये होंगे। लेकिन अंदर से खिड़की व दरवाज़े की फांक से प्रकाश छन कर बाहर आ रहा था। उसने भारी मन से सांकल बजायी और फिर अपने मौज़ूदा हुलिए को देखकर मन भारी हो उठा। पता नहीं सब क्या सोचेंगे।

तब सन्नाटे के बीच घर से भीतर से पत्नी की आवाज़ सुनायी दी –

‘बब्बू, रीता उठो। पापा आ गये। बब्बू तुम मोबाइल से फोटो खींचना। फोटो नहीं वीडियो बनाना। वीडियो बनाना तो आता है न। ठीक है। और हां रीता तुम माला पहनाओगी पापा को, चलो ले आओ। और मैं आरती उतारूंगी तुम्हारे पापा की। यह एक यादगार लम्हा है हम सबके लिए।’

तब तक दरवाज़ा खुला। बेटे के हाथ में मोबाइल फ़ोन, बेटी के हाथों में माला और पत्नी के हाथों में आरती की थाली थी।

 

डॉ.अभिज्ञात

जन्मः 1962, ग्राम-कम्हरियां-खुशनामपुर, पोस्ट-दरियापुर नेवादा, ज़िला-आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा- कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में पीएच.डी.।

प्रकाशित पुस्तकें-

कविता संग्रहः एक अदहन हमारे अन्दर (1990), भग्न नीड़ के आर-पार (1990), सरापता हूं (1992), आवारा हवाओं के ख़िलाफ़ चुपचाप (1993), वह हथेली (1996), दी हुई नींद (2000), ख़ुशी ठहरती है कितनी देर (2011), बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई (2016), कुछ दुःख कुछ चुप्पियां (2019), ज़रा सा नास्टेल्जिया (2020)।

उपन्यास- अनचाहे दरवाज़े पर (1994), कला बाज़ार (2008)।

कहानी संग्रहः तीसरी बीवी (2010), मनुष्य और मत्स्यकन्या (2015)।

पुरस्कार/सम्मानः आकांक्षा संस्कृति सम्मान, कादम्बिनी लघुकथा पुरस्कार, क़ौमी एकता अवार्ड, अम्बेडकर उत्कृष्ट पत्रकारिता सम्मान, कबीर सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक साहित्य सम्मान, अग्रसर पत्रकारिता सम्मान, पंथी सम्मान।

विशेष शौकः हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म ‘चिपकू’, बांग्ला फ़ीचर फ़िल्मों ‘एक्सपोर्टः मिथ्ये किन्तु सत्ती’, ‘महामंत्र’, ‘एका एबोंग एका’, ‘जशोदा’, शार्ट फ़िल्मों 'ईश्वर' तथा ‘नोबोफोबिया; और धारावाहिक ‘प्रतिमा’ में अभिनय। पेंटिंग का भी शौक। कुछेक कला प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी।

पेशे से पत्रकार। अमर उजाला, वेबदुनिया डॉट कॉम, दैनिक जागरण के बाद सम्प्रति सन्मार्ग में कार्यरत।


सम्पर्कः 6 स्टेशन रोड, तीसरा फ्लोर, फैंसी बाज़ार, टीटागढ़, कोलकाता-700119 फ़ोन-9830277656


2 टिप्पणियां

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Unknown member
17. Mai 2021

बढ़िया कहानी ,लेखक को बधाई ॰


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Unknown member
18. Mai 2021
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धन्यवाद। आपने प्रतिक्रिया दे हौसला बढ़ाया।

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