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पूर्णाहुति

  • भारती पंडित
  • 4 अप्रैल
  • 9 मिनट पठन

 पूर्णाहुति

 

कुरियर वाला एक पैकेट दे गया था| बड़ी उत्सुकता से मैंने पैकेट खोला| पैकेट में एक निमंत्रण पत्र और पुस्तक की प्रति थी| मैंने निमंत्रण पत्र टटोला| “प्रसिद्ध लेखक वीरेन मिश्रा की पुस्तक कहाँ से कहाँ तक” का लोकार्पण जिलाधीश श्री राकेश मोहन त्रिपाठी जी के हाथों|

राकेश मोहन त्रिपाठी यानी मेरा नाम बड़े ही विशिष्ट ढंग से उकेरा गया था| सरकारी कुर्सी का भी अपना जलवा होता है|

मैंने निमंत्रण पत्र को फिर से ध्यान से पढ़ा था मगर जिस नाम को मैं ढूँढ रहा था वह नाम निमंत्रण पत्र में कहीं नहीं था| मैंने पुस्तक खोली| वीरेन ने पुस्तक समर्पित की थी अपने स्वर्गीय माता पिता के नाम पर|

मेरे होठों पर मुस्कुराहट फैल गई थी| जहाँ तक मुझे मालूम था वीरेन के जन्म के ठीक एक महीने बाद उसके माता-पिता एक दुर्घटना में चल बसे थे और वीरेन का लालन-पालन उसके ननिहाल में ही हुआ था| उन अनदेखे, अनजाने अभिभावकों के प्रति इतना लगाव और वह स्त्री जो सालों वीरेन की गृहस्थी में खटती रही,  उसके अच्छे बुरे वक्त की साथी रही, उसका नाम न तो निमंत्रण पत्र में था, न ही पुस्तक के किसी कोने में| प्रगतिवादी लेखक होने का दावा करने वाले वीरेन के इस पूर्वाग्रह पर मुझे भयानक क्रोध ही आया था...

“साला, बास्टर्ड, बाज नहीं आएगा अपनी हरकतों से|” मैंने लिफाफा टेबल पर पटक दिया था| वीरेन से मेरा परिचय काफी पुराना था| वीरेन और मेरा ननिहाल एक ही शहर में, एक ही मोहल्ले में था| ननिहाल में मामा-मामी की दया पर पलता वीरेन अंतर्मुखी और हीन भावना से ग्रस्त रहता था| मेरा और उसका स्वभाव कहीं मिलता न था फिर भी ना जाने कौन सी डोर हम दोनों को बांधे रखती थी| जब भी मैं छुट्टियों में ननिहाल जाता, मेरा ज्यादातर समय वीरेन के साथ बीतता|




पूर्णाहुति
पूर्णाहुति

कॉलेज में पहुँचे तो वीरेन साहित्य में रुचि रखने लगा था| छोटी-मोटी तुकबंदियाँ, लेख, कहानियाँ आदि लिखता और हम उसकी तारीफों के पुल बांधते रहते| आखिर हम अंधों में तो वह काना राजा ही था| हमारी तारीफ ने उसे एक उम्दा लेखक होने के दंभ से भर दिया था और उसने लेखन को ही कैरियर का विकल्प बनाने का ठान लिया था| मगर पोस्ट ग्रेजुएशन करते ही मामा-मामी ने उस पर नौकरी ढूंढने और अच्छी सी लड़की देख कर विवाह कर लेने का दबाव डालना शुरू कर दिया| आखिर वे भी सालों से ढोई जा रही जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते थे| मामा जी की पहचान का दायरा विस्तृत था तो जोड़-तोड़ करके स्कूल मास्टर के सरकारी पद पर वीरेन को नियुक्ति मिल गई|

 शारदा को देखने वीरेन के साथ मैं भी गया था| सामान्य, सादगी भरी लड़की थी वह मगर आंखों में तेज था| सामान्य बातचीत के बाद वीरेन ने साहित्यकार होने का दम भरते हुए उससे पूछा,  “लिखने-पढ़ने में कोई रुचि है या नहीं?”

 जी हाँ, साहित्य की छात्रा हूँ, खूब पढ़ती हूँ और थोड़ा बहुत लिखती भी हूँ | शारदा ने नम्रता से जवाब दिया था|

अच्छा,  लिखती भी हो, तो चलो कुछ सुना दो अपना लिखा हुआ... वीरेन ने मजाक उड़ाने वाले लहजे में हँसते हुए कहा|

जी सुनाती हूँ...

 

शारदा ने बड़ी सरलता से कविता की चार पंक्तियाँ कह डाली| इतनी खूबसूरत पंक्तियों पर मैं वाह कर बैठा| वीरेन का चेहरा उतरने लगा था, मैं समझ गया था कि सेर को सवा सेर तो अब मिला है|

हालाँकि लड़की देखने की तो औपचारिकता मात्र की जा रही थी| वीरेन के मामा मामी रिश्ता पहले ही तय कर चुके थे| शारदा ने भी हामी भर दी थी, बस इतनी गुजारिश थी उसकी कि उसे लिखने पढ़ने की छूट दी जाए|

अत्यंत सामान्य रस्मों रिवाजों के साथ वीरेन का विवाह हो गया|  विवाह के 2 महीने में मामा मामी ने वीरेन के माता-पिता का सामान उनके हवाले कर उसकी गृहस्थी अलग कर दी थी| वीरेन का लेखन जारी था मगर शारदा को गृहस्थी से फुर्सत कैसे हो? वीरेन को तो शारदा के रूप में मानो 24 घंटे हुकुम बजाने वाली नौकरानी मिल गई थी| नौकरी के 6 घंटे निकाल दिए जाए तो सारा दिन घर पर डेरा लगा रहता| कुछ अच्छा लिखने के चक्कर में कमरे में कागजों का ढेर लगा रहता, शारदा बैठे-बैठे कमरा समेटती रहती | कभी दोस्तों का जमावड़ा और उनका चाय पानी| उनकी जिंदगी बस यूं ही बीत रही थी |

मैं भी सिविल सेवा की तैयारी कर रहा था सो वीरेन से मुलाकात कम ही हो पाती थी|

 

एक बार एक समाचार पत्र में शारदा की रचना पढ़ने को मिली | रचना पढ़ते ही शारदा को फोन लगाया, फोन वीरेन ने उठाया | मेरी बधाई के प्रत्युत्तर में तल्खी से बोला, “अरे एक रचना छपी है, कोई पुस्तक नहीं छपी है | सुबह से लोग बधाई दिए जा रहे हैं, हद है |” मैं वीरेन को जानता था| इतना लिखने के बाद भी उसे कभी किसी कॉलम में स्थान नहीं मिला था अतः उसकी यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी| मैंने चुपचाप फोन रख दिया|

एकाध साल बाद एक बार ननिहाल जाना हुआ| घर को वापस निकलने से पहले सोचा वीरेन के घर चक्कर लगाता आऊँ| वीरेन घर पर नहीं था, शारदा ने ही भीनी मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया| पता नहीं उसे देखते ही मेरा मन आदर से भर उठता था| हाल-चाल पूछने के बाद मैंने पूछा, “लिखना जारी है कि नहीं?”

 “बस यूं ही थोड़ा बहुत”... उसने सिर झुकाए जवाब दिया|

मैं फुर्सत में था, मैंने वही थोड़ा बहुत पढ़ने की इच्छा जाहिर की| उसने अपनी कॉपी मेरे सामने रख दी| साफ-सुथरे अक्षरों में लिखी कहानियों की उत्कृष्ट भाषा और बिम्ब पढ़कर मैं हैरान रह गया| यह सरस्वती इस झोपड़ी में और वह भी इतनी बेकद्री से...मगर वक्त का जंजाल इसी को कहते हैं| मैं उसकी रचनाओं पर दाद दिए बगैर नहीं रह पाया था| उस दिन वीरेन्द्र से मुलाकात न हो पाई थी, मगर शारदा से मिलकर अच्छा लगा था|

 5 साल यूं ही बीत गए| मेरा चयन प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया था| इस बीच वीरेन से प्रत्यक्ष मुलाकात तो नहीं हो पाई थी, हाँ, फोन पर या अन्य मित्रों के जरिए उसका समाचार मिलता रहता था| एक दिन दिन वीरेन का मेल मिला कि उसे उसकी एक रचना के लिए श्रेष्ठ कहानीकार का पुरस्कार मिला है साथ में उसने रचना की प्रति भी भेजी थी| वीरेन की सफलता पर मन प्रसन्न हो गया|

 उत्सुकता से मेल पर आई रचना पढ़नी शुरू की तो शब्द-शब्द पहचाना सा लगा| लगा कि इसे तो मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ...मगर कहाँ? दिमाग पर जोर डाला और मुझे अचानक याद आया कि यह तो शारदा की कहानी थी जो मैंने उसकी कॉपी में उस दिन पढ़ी थी| मेरा मन तल्खी से भर गया था| आखिर कोई इतने ओछेपन पर कैसे उतर सकता है और शारदा...वह भी इतनी बेवकूफ कि ऐसे समझौते करती आ रही है? मैंने वीरेन के मेल का कोई जवाब नहीं भेजा|

थोड़े समय तक संपर्क सूत्र टूटा रहा| पता चला कि वीरेन लेखन के किसी बड़े अवसर की तलाश में मुंबई के चक्कर काट रहा है| उस तरफ जाना हुआ तो सोचा एक बार मिलकर उसे समझा दूँ कि जिन दिवास्वप्नों में वह जी रहा है वे कभी सच नहीं हो सकते क्योंकि उसकी उतनी काबिलियत नहीं है| बेहतर होगा वह अपनी नौकरी करें और बीवी बच्चों की ओर ध्यान दें|

वीरेन के घर पहुँचा तो दरवाजा शारदा ने ही खोला| मुझे देखकर एक पहचानी सी मुस्कुराहट फैल गई थी उसके चेहरे पर| दरवाजे से हटते हुए मुझे अंदर आने का निमंत्रण दिया था| घर की हालत जर्जर सी ही थी| शारदा का भी चेहरा और शरीर इन सालों में झेले गए थपेड़ों की गवाही दे रहा था| घर के एक कमरे में पाँच- छह बच्चे पढ़ रहे थे शायद ट्यूशन के बच्चे थे|

“वो क्या है न कि यह तो अक्सर मुंबई जाते रहते हैं, अब मैं खाली बैठी क्या करूं तो ट्यूशन कर लेती हूँ| मन भी लगा रहता है और दो पैसे भी हाथ आ जाते हैं|” शारदा ने सफाई देने वाले लहजे में कहा था मैं समझ सकता था कि जब पति नौकरी पर ना जाता हो तो पैसा कमाना औरत का धर्म बन जाता है|

शारदा ने ट्यूशन के बच्चों की छुट्टी कर दी और चाय नाश्ता बना कर ले आई| टेबल पर कुछ रचनाएँ पड़ी थीं जिन्हें शारदा शायद ठीक कर रही थी|

 यह क्या है? मैंने पूछा|

इनकी पहली पुस्तक की तैयारी हो रही है| मुझे काफी वक्त होता है तो थोड़ा प्रूफ देख लेती हूँ शारदा ने जवाब दिया|

 मैंने यूँ ही रचनाओं को टटोला तो प्रूफ का मतलब मुझे बखूबी समझ में आ गया|

 तुम्हारे लेखन का क्या हुआ? मैंने पूछा

अब गृहस्थी के झमेले में लिखना सूझता ही कहाँ है| अब तो इन्हीं की सफलता की कामना करती रहती हूँ|

एक पतिव्रता पत्नी का कर्तव्य सफलता से निर्वाह कर रही थी शारदा मगर क्या इस सबके लिए पति की नजरों में कोई मान सम्मान था? क्या ये औरतें सचमुच अपने साथ हो रहे अन्याय को समझ नहीं पातीं? क्या घुट्टी पिलाई जाती हैं इन्हें कि सब कुछ बस चुप हो सहती जाती हैं? इन्हीं प्रश्नों को मन में लिए मैं वहाँ से चला आया था| उसके बाद वीरेन का फोन आया, मुझसे न मिल पाने का अफसोस था उसे| अपनी पुस्तक का भी जिक्र करता रहा|

करीब 6 महीने बाद वीरेन मुझसे फिर मिलने आया| बहुत खुश था, हाथ में प्रकाशक का स्वीकृति पत्र था|

बोला “बहुत बड़े प्रकाशक ने मेरी पुस्तक छापने की स्वीकृति दी है, वह भी बिल्कुल मुफ्त| राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार प्रचार का काम भी वही करेंगे| आखिर मेरी बरसों की मेहनत रंग लाई है|”

 वीरेन जोश में भरा बोलता जा रहा था और मेरी आंखों के सामने शारदा की तस्वीर घूम रही थी| प्रूफ ठीक करती शारदा, ट्यूशन पढ़ाती शारदा, घर के काम निपटाती शारदा, घर का ख्याल रखती शारदा, बच्चों को बड़ा करती शारदा...मेहनत किसकी? वीरेन की या शारदा की?

 “और मेरी इच्छा है कि मेरी पुस्तक का लोकार्पण तुम्हारे ही हाथ हो...मेरे जिगरी दोस्त के हाथों|” वीरेन ने हँसकर कहा|

दोस्त के हाथों या जिलाधीश के हाथों? मैंने न चाहते हुए भी प्रश्न दाग ही दिया था|

 अब मेरा दोस्त बड़ा अधिकारी है तो यह तो मेरी खुशकिस्मती हुई न...वीरेन खिसियानी हँसी हँसते हुए बोला| मैंने कार्यक्रम में आने की हामी भर दी थी|

 

कार्यक्रम के लिए वीरेन ने खासा खर्च किया था| कार्यक्रम के लिए भव्य ऑडिटोरियम को किराए पर लिया था, संचालन के लिए प्रसिद्ध रेडियो जॉकी को बुलाया गया था|  स्वागत सत्कार से लेकर जलपान तक की सभी व्यवस्थाएँ बेहतरीन थीं|

कार्यक्रम प्रारंभ हुआ| मंच पर आसीन होते समय मेरी नजरें शारदा को ढूँढ रही थीं| पहली दो पंक्तियाँ विशिष्ट अतिथियों और प्रेस के के लिए आरक्षित थीं| तीसरी पंक्ति में एक कोने में सकुचाई सी बैठी थी शारदा और उसके अगल-बगल में दोनों बच्चे शांत चुप से बैठे थे| प्रारंभिक औपचारिकताओं और स्वागत भाषण के बाद वीरेन को पुस्तक का परिचय देने के, लिए मंच पर बुलाया गया| वीरेन ने बड़े ही भावुकता भरे लहजे में कहना प्रारंभ किया, “कहाँ से कहाँ तक” यह शीर्षक मेरे जीवन के सफर का ही प्रतीक है| एक अनाथ बच्चा जिसके माता-पिता बचपन में ही स्वर्ग सिधार गए, दूसरों की दया पर पलते हुए जो कुछ जीवन में देखा और अनुभव किया, उसी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है| मुझे खुशी है कि इस पुस्तक का लोकार्पण उस व्यक्ति के हाथों हो रहा है जो न केवल मेरे जिगरी दोस्त है, वरन मेरे जीवन संघर्ष के साथ साक्षी भी हैं...राकेश जी...

वीरेन ने मुझे लोकार्पण के लिए आमंत्रित किया था मगर मैंने उससे पहले लोगों से कुछ कहने की इच्छा जाहिर की| संचालक ने मुझे डायस पर बुलाया| डायस पर आकर माइक संभालते हुए मैंने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया, “वीरेन को मैंने बचपन से देखा है और उनकी हर बात की सत्यता का गवाह हूँ मैं, मगर उनकी इस यात्रा में केवल मैं ही नहीं, कोई और भी उनके साथ है...वह जिसने अपनी इच्छा-आकांक्षा की आहुति दी और जो वीरेन के कदमों से कदम मिलाकर उसे यहाँ तक ले आई है| अब तक सुना था कि हर सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है औरों के बारे में तो नहीं कह सकता मगर वीरेन की सफलता का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह है उसकी पत्नी शारदा|”

मेरे मुँह से अपना नाम सुनकर शारदा हतप्रभ थी, वीरेन भी मेरे इस अप्रत्याशित आक्रमण से हकबकाया था|

मैंने अपनी बात जारी रखी- “शारदा यदि वीरेन के जीवन में ना होती तो आज हम सब यहाँ न होते| घर का मुखिया किसी उद्देश्य के लिए संघर्ष तभी कर सकता है जब उसे घर की जिम्मेदारियों से पूर्णतः मुक्त कर दिया जाए| यही किया है शारदा ने वीरेन के लिए, उसे जिम्मेदारियों से मुक्त किया ताकि वह प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो सके| जब जीवन यज्ञ की हरेक आहुति शारदा के हिस्से में आई हो तो पूर्णाहुति पर भी उसका पूर्ण अधिकार बनता है| वीरेन की पुस्तक का लोकार्पण यदि किसी के हाथों से होना चाहिए तो वह है शारदा...शारदा कृपया मंच पर आइए|”

सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा| कई आँखें शारदा की ओर उठ गईं| शारदा जैसे-तैसे खड़ी हुई| उसके पैर लड़खड़ा रहे थे, पूरे शरीर में थरथराहट हो रही थी| संचालक नीचे जाकर उसे ससम्मान मंच पर ले आये थे|

मैंने पैकेट में बंद पुस्तकें शारदा के हाथों में दे दी थीं| पुस्तकों पर चढ़ा कवर खोलते-खोलते शारदा की आंखों से आँसुओं की धार बह निकली थी| कृतज्ञता भरी आँखें धन्यवाद देती सी मेरी ओर उठी थी| मैंने हौले से उसका कंधा थपथपा दिया था| वीरेन क्या सोच रहा था मुझे उससे फर्क नहीं पड़ता था| शारदा को उसका सम्मान दिलाकर मेरे चेहरे पर तसल्ली छा गई थी| हॉल अभी भी तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था|



 

                           लेखक परिचय - भारती पंडित




भारती पंडित
भारती पंडित


नाम – भारती पंडित

जन्म – 2 मार्च

शिक्षा – MSc MA (Hindi) UGC NET Hindi

कर्म क्षेत्र – शिक्षा (30 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में, वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन में भाषा विभाग

में कार्यरत )

साहित्यिक प्रकाशन - महक ज़िंदगी की (कहानी संग्रह), सी बीच और अकेली लड़की (कविता संग्रह),

एक मौत के बाद (कहानी संग्रह)

अकादमिक प्रकाशन/ कार्य – कक्षा 1 से 8 तक की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन (नॉर्दन हिल्स

पब्लिकेशन नोएडा), मोहाली विश्वविद्यालय, बाबा अंबेडकर विश्वविद्यालय एवं अज़ीम प्रेमजी

विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विविध सेमीनारों में पर्चे का वचन एवं प्रकाशन, ऑनलाइन

अकादमिक संगोष्ठियों का संचालन

अनुवाद - मंजुल प्रकाशन और जयको प्रकाशन हेतु 10 पुस्तकें अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवादित

उपलब्धियाँ – 100 से अधिक आलेख, कहानियों और कविताओं का प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और समाचार

पत्रों में प्रकाशन, जेंडर विषयक लेखन सामग्री का प्रकाशन, सिनेमा की समीक्षा का प्रकाशन, सभा

संचालन और सभा वक्तव्य का अनुभव, कई काव्य गोष्ठियों का संचालन और प्रतिभाग, दूरदर्शन

भोपाल पर कविता पाठ में हिस्सेदारी, यू ट्यूब पर सभा संचालन एवं साक्षात्कार, स्पोर्टी फ़ाई पर

पॉडकास्ट सी बीच और अकेली लड़की का प्रसारण

संपर्क – bhartipandit@gmail.com

Mobile- 8226005064

 

 

 

3 Comments

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Guest
4 दिन पहले
Rated 3 out of 5 stars.

नायिका की सादगी और गरिमा से भरी हुई सपाटबयानीवाली जैसी साफ़-सुथरी रचना ... अभिनंदनीय 💐

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Guest
Apr 04
Rated 4 out of 5 stars.

एकदम वास्तविक कहानी है। बधाई।

Edited
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Maya Devlekar
Apr 04
Rated 5 out of 5 stars.

Bahut hi satik& Sunder Lakhan isi trash likhati raho Bharti🎉💐🙌🙌🙌

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