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अशोक गौतम

ओए मेरीए बोबो !

गांव में सबसे बुजुर्ग कोई है तो यह पीपल का पेड़ है। इस पीपल के पेड़ ने अपनी छांव में राजाओं के राज के जाने से लेकर लोकतंत्र को आते देखा है। कहते हैं , जब राजाओं का राज था, इस रियासत का राजा जब गांव के साथ लगते जंगल में अपने दरबारियों बगारियों के साथ हेड़े पर आता था तो वह इस पीपल के पेड़ पास पहुंचते ही पालकी से उतर जाता। पालकी से उतर वह पीपल के साथ पता नहीं कबसे बने पत्थरों के चबूतरे पर रखी न पहचानी जानी वाली पत्थर की सिंदूर लगी दो मूर्तियों के पास जाकर कुछ देर तक मौन नतमस्तक होता और उसके बाद उस गांव के बीचोंबीच के रास्ते से पैदल जाता तो गांव का बच्चा राजा के दर्शन करने रास्ते के दोनों ओर खड़े हो अपने राजा का इस्तकबाल करते। आगे आगे राजा तो पीछे पीछे उसकी खाली पालकी कहारों के कंधों पर। तब राजा के पीछे चलते कहारी बगारी दरबारी अपनी अपनी पाहनिया अपने पैरों से उतार अपने हाथों में ले लेते। जब गांव की सरहद खत्म हो जाती तो वह पालकी में बैठ जाता और उसके कहारी बगारी दरबारी अपनी अपनी पाहनिया पहन लेते।

इस पीपल के पेड़ ने न जाने गांव में कितनों को खेतों में मुंह अंधेरे काम करने जाते देखा है, न जाने कितनों को अपनी छांव में खेतों में काम करने के बाद घर को आते, न जाने कितनों को अपनी छांव से सदा सदा को जाते देखा है। इस पीपल के पेड़ ने न जाने कितने घरों को बसते देखा है, न जाने गांव के कितने घरों को उजड़ते देखा है। इस पीपल के पेड़ ने न जाने गांव के कितने घरों को हंसते देखा है , न जाने कितने घरों को रोते देखा है। गांव वालों को याद हो या न ,पर इस पीपल के पेड़ को एक एक गांव से ब्याह कर जाने वाली लडकियों की डोलियां याद हैं। पीपल को गांव में ब्याह कर लाई जाने वाली हर दुल्हन की डोली याद है। इस पीपल को पता नहीं खेतों से घास लाते उसकी छांव में घड़ी भर आराम करने बैठने वालियों के कितने ही सुख दुख के किस्से याद हैं, वे भूल गईं हों तो भूल गईं हों। गांव वालों को याद हों या न कि गांव में अब तक कितने गुजर चुके, पर इस पीपल के पेड़ को उंगलियों पर वे सब याद हैं। याद इसलिए कि हरेक के जाने के बाद साल भर इस पर उनके नाम का पानी धूप चढ़ाया गया है। वैसे न चाहकर भी सदियों तक जिंदा रहना बहुत कष्टकारी होता है। इस बात को पीपल जानता है, पर कर कुछ नहीं सकता। जानते हुए भी कुछ न कर पाने की विवशता मौत से भी दर्दनाक पीड़ा देती है।

इसी पीपल के पेड़ के पास से गांव शुरु हो जाता है। इससे आगे का गांव का रास्ता गोबर से भरा हुआ। सारे पशु यहीं से पीपल के साथ पुश्तों से बने बारहमासी पानी से भरे पोखर में पानी पीने आते हैं और पशुओं के पानी पीने के बहाने गांव के बच्चे नहाने। गांव के रास्ते के किसी ओर दाएं तो किसी ओर बाएं बाजू खड़ी पत्थर की दीवारों के साथ साथ जिनकी पशुशालाएं हैं उन्होंने रास्ते की इन्हीं दीवारों पर गोबर के उपले बना सूखने को पाथे हुए ।

गांव में बीस पच्चीस कच्चे घर! कइयों की छतों पर स्लेट तो कइयों की छत पर खपरे। घरों के साथ जुड़ी लगभग सभी रसोइयों पर घास की छतें। सुबह शाम जब इन रसोइयों के चूल्हों में आग जलती है तो घास की छतों से छन छन कर धुआं यों बाहर निकलता है ज्यों कई बुजुर्ग इधर उधर बैठे अपने अपने हुक्के गुड़गुड़ा रहे हों। सबकी घास की छतों वाली पशुशालाएं । गांव में जितने लोग, उनसे अधिक गाय, भैंस, भेड़ बकरियां। किसी घर में गाय हो या न, भैंस हो या न, पर बैल जरूर । गांव में कहावत है कि दूध बिना रहा जाए , पर हल चलाए बिना न रहा जाए। गांव के बीचों बीच मुस्तरका जमीन में पता नहीं कबकी बेहड़। बच्चों के सामूहिक खेलने की सार्वजनिक जगह। स्कूल से आकर गांव के बहुत से बच्चे यहीं आकर कबड्डी ,घोड़ा कबड्डी, गुल्ली डंडा, जंजीर, पिट्ठू खेलते हैं। बताते हैं कि जब राजाओं का राज था तो इसी बेहड़ में सब गांव वालों को इकट्ठा कर राजा का आदेश नंबरदार द्वारा सुनाया जाता था।




जून महीने के शुरु की दोपहरी!

अपने मक्की के खेतों में चले करने के बाद लगभग सारे गांव वाले घर में आकर आराम कर रहे थे। शाम को फिर मक्की के खेतों में चले करने जो जाना था।

एक की बजे के आसपास का टाइम रहा होगा। पीपल के पास जैसे ही बंगां चूड़ियां बेचेने वाली पहुंची, उसने सिर पर गांव की औरतों के जरूरतों के सामान से भरी गत्ते की पेटी बाहर से कपड़े से बंधी सिर पर उठाई गाठ को एक हाथ से पकड़े तो दूसरे हाथ से अपने चेहरे पर बहता पसीना पोंछने के बाद पीपल के साथ लगते पहले घर के आंगन की भींडली पर उतारते आवाज दी,‘ नी लाटा वालिए ! नी जोता वालिए ! बंगां वाली ! बिंदियां वाली ! काजल वाली ! नसपालस वाली... सुइयां वाली... रंग बरंगे धागेआ वाली.. ओ... नी शेरावालिए ! ...’

बंगैड़न की आवाज सुन हालांकि रामदेई का मन उठने को कतई न था। वह चिलक लगते ही पशुओं का काम निपटा मक्की के खेत में चले साफ करने चली गई थी। वह दो जणिया ही रहती हैं घर में, एक वह तो दूसरी उसकी सास! उसका मर्द फौज में है।

हालांकि दस बजे तक खेत में चले साफ करते करते उसकी कमर टूट चुकी थी। पर वह फिर भी डटी रही थी, यह सोच कर कि आज घर जाना है तो बस, इस खेत के सारे चले करके ही। नहीं तो सांझ को फिर इसी खेत में चले करने आना पडे़गा। अभी इस खेत के चले खत्म हो गए तो शाम को पारले हाड़े के खेत में चले साफ करने चली जाऊंगी। अब बरसात कभी भी आ सकती है। और एक बार जो बरसात शुरू हो गई तो मक्की बीजे खेतों में चळे बनाने मुश्किल हो जाएंगे। एक बार जो खेतों में पानी खड़ा हो गया तो मक्की खत्म।

वह उसी वक्त रोटी खाकर बाण की चारपाई पर कमर सीधी करने को बी में लेटी ही थी। पर जैसे ही उसने बंगैड़न की आवाज सुनी कि वह कमर पकड़े पकड़े अपना चादरु संभालती उठी और बाहर आ गई। बाहर बंगैड़न बैठी थी, करे की छांव में भींडली पर ।

‘होर बजणी ! क्या हाल हैं? घर में सब राजी बाजी तो है न! पैरी पौणा बजणी !’ अधेड़ उम्र की मझोले कद की बंगैड़न ने रामदेई के पास कुछ दूर से मत्था टेका।

‘राजी रहो मुइए! बड़े दिनों बाद आई अबके तेरेको हमारे गांव की याद ? कहां गुम हो गई थी? ठीक तो थी न?’ रामदेई ने अपने सिर पर से सरकती चुनरी ठीक करते बंगैड़न से उसका हालचाल पूछा तो बंगैड़न बोली ,‘ आहो मेरीए बजणी ! सब ठीक है। एबकी बार आने में ऐसे ही देर हो गई बस!’

‘ देख तो मुइए, तेरा इंतजार करते करते मेरिया बांईं कितनिया रळमुंडळिया हो गइयां हैं,’ कहते कहते रामदेई ने बंगैड़न को अपनी दो दो चूड़ियां बची कलाइयां बताईं तो बंगैड़न अपनी दुकान खोलती बोली,‘ कोई गल्ल नी बजणी ! मैं आ गई न! अब तेरी पूरी बाजुएं चूड़ियों से ओडकणियों तक भर के ही जाऊंगी,’ कह उसने कपडे की गाठ में बंधी गत्ते के डिब्बे में बंद औरतों की दुकान खोली तो एक से एक रंग बरंगी बांगों के गुच्छों को देखते परखते रामदेई बोली ,‘ वा मुइए! अबकी बार तो तू एक से एक रंग बरंगी बांगां ल्या रखी। ’

‘छांट लो अपनी पसंद की जो छांटणिया तूने बजणी ! सबसे पहले तेरे ही घर आई हूं।’

‘ये वाली कैसे दरजन दी? पक्की तो है न? मिन्ना तो नहीं गिर जाना इनका?’ रामदेई ने बांगों का एक गुच्छा उठाया और उसको देखने परखने लगी।

‘ बारह आन्ने दरजन। होर बोल्ल, कौन सिया पहननिया मेरी बजणी ?’

‘पक्किया तो है न?’

‘बैहणे! कांच ए ! कांच होर जीउ पक्का हुआ कब्बी?’

‘ अच्छा तो ये वाली पहना दे,’ रामदेई ने सुरख लाल बांगों की ओर इशारा किया और उसकी गत्ते की पेटी में खुली दुकान के पास बैठ गई उकड़ू अपनी दाईं बाजू आगे कर कर बांगें पहनने। बंगैड़न सुरख लाल बांगों के गुच्छे में से चार चार बांगें निकाल उसकी बाजू में पहनाने लगी। उसने पहले दाईं बाजू में रामदेई को बांगें पहनाईं फिर बाईं बाजू में। जब उसने रामदेई की दोनों बाजुओं में दरजन दरजन बांगें पहना दीं तो एक एक बांग सुहागी की अलग से पहनाई। जब रामदेई बांगें पहन चुकी तो उसने दाएं हाथ से अपनी चुनरी का पल्लू पकड़ बंगैड़न के पास मत्था टेका तो बंगैड़न ने उसे सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद दिया,‘ होर बोल बजणी ! क्या दूं तुझे?’

‘ये बिंदियों का पत्ता कैसे दिया?’

‘ कौन सा? बड़ी बिंदीया वाला या छोटी बिंदिया वाला?’

‘बड़ी बिंदिया वाला। भीतर लैरवाटी सासु से पिटवाना है क्या मुझे छोटी बिंदी वाला पत्ता लेकर?’

‘ बी पैसे का एक मेरिये बजणी ।’

‘ अच्छा , चार पत्ते ये दे दे, एक पत्ता ये वाला बालों की पिन का दे दे, दस कुरते में लगाने वाली पिनें, और एक ये कंघी बी दे रख। लाल रंग वाला नस पालस कितने का है ये तेरा?’

‘पचास पैसे का बजणी ! आज तक तुझे गलत लगाया क्या! अब सारा दिन गांव गांव ठोकरा खाई रोटी तो मेरा पेट भी चाहंदा कि नां बजणी!’

रामदेई ने अपनी पसंद का सारा सामान छांट कर बंगैड़न के सामने रखने के बाद पूछा,‘ मुइए बंगैड़नी! देखना मुझे ठगे तू? कितने हुए सारे समान के?’ रामदेई के पूछने पर उसने अपने सामने रखे सारे सामान के एक एक कर पैसे जोड़े , बारा जमा बारा आन्ने बंगा दे, हुइए गे डेढ, चार पत्ते बिंदिया दे तो हुइगे डेढ जमा अस्सी पैसे बोलो तो ... बोलो तो दो रुपैया ती पैसे, बालों की पिन का पत्ता दस पैसे तो हुइगे दो रुपैया चाली पैसे जमा कांगिया दे बी पैसे बोलो तो दो रुपैया साठ पैसे । अब बचिया ये पिन्ना! तो दसा पिन्ना दे हुए दस पैसे। मतबल कुल हुइगे दो रुपैया सत्तर पैसे । होर बजणी! तुझे ये नस पालस के लगाई ठान्नी , वैसे मैं ये बारह आने से कम नहीं देती किसीको बजणी। अच्छा तो अब हो गए सारे तीन रुपैया बीस पैसे। इनमें से बीस पैसे तंजो छोड़े । बोहणिया दे बख्ते ! सुइया नी लैणिया क्या? अब बचे तीन रुपैये। ’

‘ न मुइए! अभी हैं। पर मेरे पास तो अभी टुट्टा एक रुपैया ही है,’ मजाक करते रामदेई ने हंसते हुए बंगैड़न की आंखों में देखा तो बंगैड़न हंसती हुई बोली,‘ तो मैं मरी तो नहीं जा रही हूं न बजणी ! तू भी यही रहना और मैं भी। अगली बार दे देना सारे जब आऊंगी। ये बी रख रख अपने पास ही। होर दस्स, क्या दूं ? सब जीउंदे जीउआ रे मेले । पता नी फिर कब मिलना हो। राजी रहने चाहियो सारे कमाने खाने वाले बस!’

‘ ये बी ले रख! पूरा डेढ गज रीबन है, पैसे एक गज के देना,’ कह बंगैडन उसके खरीदे समान में जब रीबन भी रखने लगी तो रामदेई बोली,‘ ‘बस मुइए! बहुत हो गया। रीबन नी। अभी है मेरे पास,’ रामदेई ने रीबन किनारे करते बाकि सारा खरीदा सामान उठाकर अपनी चुनरी में डाला और उसको भीतर से तीन रुपैये बीस पैसे लाकर देती बोली,‘ ये ले मुइए ! मैं तो मजाक कर रही थी तेरे साथ। ये बीस भी तेरे। ’

‘मजाक बी अपनों के साथ ही होता है बजणी ! राजी रहो तेरा कमाने वाला। सदा सुहागन रहो तू । बी पैसे तो रख ले ,’ बंगैड़न ने रामदई के दिए पैसों में से बीस पैसे उसे देने चाहे पर रामदई ने जब नहीं लिए तो बंगैड़न ने सारे पैसे अपने माथे से लगाए और अपने अपने कुरते की साइड की जेब में डाल दिए ,‘ जय हो तेरी! तो चल रोटी खा ले अब ? दोपहर रही है। ’

‘ न बजणी न ! रोटी तो जैलदारनी बोबो के घरे ही खानी है। उसने पिछली बार ऐसी वाली बंगें लाने को कहा था स्पेसल। अबके खास उसके लिए लाई हूं। वो बोबो भी न! अच्छा चलती हूं अब उसके घर! उसको उसकी पसंद की बंगें भी पहनाऊंगी और वहां जाकर रोटी खाने के बाद जरा पीठ भी सीधी कर लूंगी। पता नहीं उस बोबो ने मेरा किस जन्म का खाया है जो पूरा ही नहीं हो रहा...’ कहते कहते बंगैड़न गत्ते की पेटी में भरी दुकान को कपड़े से बांधने लगी तो मौन रामदेई कभी बंगैड़न को निहारती तो कभी जैलदारनी के घर को। उस वक्त उससे बंगैड़न से कुछ कहते नहीं बन रहा था। वह समझ गई थी कि बंगैड़न को पता नहीं कि जैलदारनी जी दो महीने पहले गुजर चुकी है। बंगैड़न ने जब गत्ते के डिब्बे में बंद दुकान की गाठ अपने सिर पर उठाते रामदेई से कहा ,‘ अच्छा बजणी ! तू भी लक्क सीधा कर होर मैं चली जैलदारनी बोबो के घर!’

‘पर एक गल्ल है मुइए!

‘क्या बजणी?’

‘ जैलदारनी जी तो दो महीने गुजर गई है।’

‘क्या??’

‘हां मुइए।’

‘अच्छा तो बोबो भी गई! ओए मेरीए मरीगीए बोबो ! चली गई तू भी ? ’ कहते कहते उसने अपनी गत्ते की पेटी में बंद कपड़े की गाठ में बंधी दुकान अपने सिर से उतारी और अपना सिर पकड़े लंबी सांस लेते जैलदारनी के घर की ओर मत्था टेकने के बाद अपने आप से बोली,‘ मेरी भगवान सुने तो तुझे सुरग मिले मरीगीए बोबो! बड़ी जल्दी थी तेरे को। पर भगवान के यहां भी बोबो जैसियों की ही जरूरत होती है न! हम जैसे तो पता नहीं कब तक नरक भोगते रहेंगे यहां पर ,’ फिर रामदेई का सहारा लेकर अपनी गाठ में बंधी औरतों की दुकान सिर पर उठाई और मौन जिन पांव गांव आई थी , उन्हीं पांव वहीं से वापस चली गई, चिलचिलाती धूप में। अबके न रामदेई ने उसे रुकने को कहा न वह रुकी।

गांव की भाभियां, चाचियां, ताइयां बताती हैं कि उसके बाद बहुत सी बंगैड़नें गांव में आईं , पर वह बंगैड़न उस गांव में कभी नहीं आई। न ही किसीने उसे आसपास के गांव में बांगें चूडियां बेचते कभी देखा ही।


 

लेखक परिचय - अशोक गौतम



जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं। गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है। जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है। जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा। .....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए। आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा। अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089 E mail- ashokgautam001@gmail.com


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