सन्1979 में मैं गाँव के ही जूनियर हाईस्कूल में अध्यापक के रूप काम करता था। यह विद्यालय "गढ़ी" में चलता था। जो लगभग तीन एकड़ में फैली हुई, गाँव की एक बहुत पुरानी इमारत है, जो उस समय महंत परमेश्वर दास आचार्य बाटी वालीकुंज मथुरा के आधिपत्य में थी। इसमें एक मंदिर भी है कई दिन से सुनने में आ रहा था कि महंत जी अपना कोई आदमी भेजेंगे जो मंदिर की सेवा पूजा, विद्यालय और इस इमारत की देखरेख अर्थात एक आदमी तीन काम करेगा।
एक दिन जब मैं अपनी कक्षा में जा कर बैठा ही था, सामने से दरवाजे में एक वृद्ध महात्मा प्रवेश करते हुए दिखाई दिए। धीमे-धीमे मार्ग तय करते हुए दो मिनट बाद मेरे पास तक आ ही गए। मुसकुराते हुए बोले, “मुझे महंत जी ने भेजा है। मेरा नाम रामचरन दास है।”
मैंने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने ताला खोला और मंदिर में चले गए। जैसे पहले से ही सब कुछ देखा हुआ हो। चाबी अपने साथ ही लेकर आए थे। यद्यपि एक चाबी प्रधान अध्यापक के पास भी थी।
महात्मा जी की उम्र लगभग अस्सी वर्ष रही होगी, मध्यम कद, गेंहुआँ रंग, दुबला बदन सफेद बाल जो गर्दन तक गिरे हुए थे, लेकिन बीच-बीच में से उड़े हुए थे। सफेद दाढ़ी। सफेद मूँछें। गर्दन में रुद्राक्ष नाक थोड़ी सी लम्बी नाक के अग्र भाग पर तिल स्नेह पूरित मोटी-मोटी आँखें दाहिनी आँख के नीचे काला मस्सा और दमकता हुआ चौड़ा ललाट जिसकी आभा रामचरन दास जी के ब्रह्मचारी साधक होने का दावा करती थी। मुख की मुद्रा जो बिना कहे ही बहुत कुछ कहने की सामर्थ्य रखती थी। अधरों की शोभा बढ़ाती हुई मुस्कान जो सदैव प्रसन्न रहने का संदेश देती थी। लम्बी भुजाएं पतली उंगलियाँ अर्ध-नग्न बदन अचला लपेटे हुए।
पैरों में साधारण सी चप्पलें।
इस आकर्षक व्यक्तित्व को बार-बार झाँकने का मन हो रहा था। दो-तीन घंटे बाद मैं मंदिर की ओर गया और हल्की सी आवाज लगाई तो बाबा बाहर निकलते हुए दिखाई दिए। दाढ़ी बालों के साथ-साथ सारा बदन धूल धूसरित हो रहा था। बोले, “भैया मंदिर में बहुत गंदगी है। मुझे पूरे दो दिन लगेंगे।” ऐसे कहते हुए बड़ी तेजी से अंदर वापिस हो गए बोल-चाल कुछ-कुछ पूर्वी लहजे में लगती थी। शायद कानपुर के आस-पास के रहने वाले थे।
अगले दिन रविवार था। सोमवार से बाबा रामचरन दास जी की दिनचर्या एवम् उनके क्रिया-कलापों से विस्तृत परिचय आरम्भ हुआ जनवरी के अंतिम सप्ताह में। रामचरन दास जी गढ़ी में आए थे। ठाकुर जी की सेवा पूजा के काम से निवृत्त होकर लगभग साढ़े ग्यारह बजे मंदिर से बाहर आते हुए दिखाई देते थे। दाहिने कंधे पर कुदाल जिसका लम्बा बेंटा दाहिने हाथ की पकड़ में बाएँ हाथ में खुरपी और हथौड़ा अर्द्ध नग्न बदन लंगोटी पर अचला वो भी आधा ऊपर दुबरा हुआ, बाएँ कंधे पर अंगोछा, तेज चाल से आगे बढ़ते हुए। जैसे कोई मेहनतकश किसान लम्बी यात्रा से काफी दिन बाद घर लौट कर खेती-क्यारी के पिछड़े हुए काम को जल्दी संभालने की आतुरता में हो।
पुरानी इमारत की ध्वस्त दीवारों के खंडहर जो चूने से चिपकी हुई (ककैया )छोटी ईंटों के ढिम्म-खंगर थे। बाबा रामचरन दास कुदाल मार कर चूने से लिपटी हुई ईंट को खंगर से अलग करते थे। फिर हथौड़े की चोट से ईंट और चूने को अलग करते थे।
उत्तर काल का यह पड़ाव और कुदाल कोई मामूली काम नहीं था। फिर भी कुदाल की तेज गति को देख कर लगता था कोई ऋषि मरुभूमि में हरित क्रांति लाने के लिए पहाड़ का सीना चीर कर नदी बहाने के लिए संकल्प-बद्ध हो , लेकिन हथौड़े तक पहुँचते-पहुँचते दम फूलने लग जाता था जैसे किसी पैदल पथिक की थकान दूर तक रास्ता तय करने के बाद विश्रांति चाहती हो । उम्र जो थी।
जूट की बोरी बिछाए सामने भारी पत्थर, पत्थर पर दाहिने हाथ में ईंट बाएँ हाथ में हथौड़ा, हथौड़े की चोट से चूना इधर-उधर बिखर जाता था। हाथ में साफ ईंट दिखाई देती थी। कंधे पर पड़े हुए अंगोछे से बार-बार हाथ-पैर झाड़ लिया करते थे।
दाहिने हाथ की तरफ ईंटों का ढेर बाईं ओर चूने का ढेर ईंटों के अलग हट कर चट्टे लगाना चूना बुहार कर अलग करना।
जो जगह खाली होती थी खुरपी से उसकी घास निकाल कर साफ मैदान बनाने तक एक दिन का काम पूरा होता था। दो-तीन माह गुजरने के बाद तो ईंटों के लगे हुए चट्टे किसी ईंट उद्योग का गोदाम प्रतीत होने लगे।
मंदिर में प्रवेश करने से पहले विद्यालय में लगी हुई कक्षाओं पर कुछ अनजानी सी मुद्रा में इस तरह दृष्टि पात करते थे जैसे कोई दृश्य दृष्टा की अवलोकित दृष्टि से अनविज्ञ ही रह जाता है। कौन सा अध्यापक किस दिन छुट्टी पर रहा कौन विद्यालय में किस समय आया किस समय चला गया। जिस तरह आज संस्थाओं में लगे सुरक्षा कैमरे (सी.सी.टी.वी) काम करते हैं।
उस समय इस काम को बाबा रामचरन दास की सजगता बखूबी अंजाम देती थीं। कक्षा में बैठ कर अध्यापक गप-शप तो नहीं करते हैं। मासिक फीस के अलावा कुछ और तो नहीं लेते। सारी बारीकियों के अलिखित दस्तावेज प्रत्येक रविवार को शहर जाकर बाबा महंत परमेश्वर दास जी के समक्ष प्रस्तुत करते थे।
यह तो पूर्व में ही विदित था कि प्रबंध मंडल का प्रतिनिधि मंदिर, विद्यालय एवम् ध्वस्त राजसी भवन(गढ़ी) की देख-रेख करेगा। किंतु यह सूचना भी अधूरी सी प्रतीत हो रही थी।
क्योंकि ऐसा कौन सा काम था जिसे बाबा रामचरन दास नहीं करते थे। विद्यालय की ऊसर सी भूमि प्रांगण के कोने-कोने को हरियाली के सौंदर्य से सजने लगे । विद्यालय में प्रवेश करने वाले प्रत्येक आगंतुक का हरियाली रंग-बिरंगे और नाना फूलों के साथ स्वागत करने लगी। यह सब बाबा रामचरन दास के पसीने की बूंद का जौहर था। मंदिर के सामने पुराना कुआं जिसकी दीवारों को 100 फुट की रस्सी नापती थी तब एक बाल्टी पानी ऊपर आता था। पानी खींचते समय बाबा की दुबले-पतले शरीर के कंधे जब आगे पीछे गति करते थे तो ऐसा लगता था कि कंधे शरीर से अलग हो जाएंगे तब यह पानी कहीं पौधों तक पहुँचता था। एक नहीं दिन में पचास बाल्टी से कम काम नहीं चलता था।
हाथ की खुरपी कभी मैदान की घास निकालती थी तो कभी बागवानी की। हाथ में खुरपी, चेहरे पर पसीना, आँखों में कर्म के प्रति निष्ठा। उनके जीने की शैली ही अपने आप में गीता के निष्काम कर्म योग का अध्याय था। सेवा भाव से पगा हुआ जीवन का प्रत्येक पल दूसरों के लिए ही समर्पित था।
एक दिन मुझे किसी विशेष कार्य से प्रातः 7:30 बजे विद्यालय जाना पड़ा शायद दिसंबर का महीना था। जैसे ही मैंने विद्यालय के दरवाजे में प्रवेश किया बाबा मुझे बच्चों के खेल के मैदान में बैठे दिखाई दिए। मुझे सिर्फ पीठ दिखाई दे रही थी। चेहरा मंदिर की ओर था। जब मैं उनके निकट पहुंचा तो बाबा नंगे सिर, बदन पर हल्की सी चादर, धीमे-धीमे स्वर से हरि संकीर्तन की धुन में खोए हुए "श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी ...” मैदान से छोटी-छोटी कंकरी इकट्ठी कर रहे थे।
मेरी आहट सुनकर सिर ऊपर उठाया नजरें मिलाईं और मुसकुराए। बोले "छोटी-छोटी कंकरी बच्चों को खेलते समय काफी क्षति पहुंचाती हैं। एक दिन एक बच्चा खेलते समय गिर गया था और कंकरी उसके घुटने में समा गई थी घुटने से खून निकल रहे थे बच्चे को काफी पीड़ा हो रही थी। मैंने उसी दिन निश्चय कर लिया था कि मैदान को कंकर विहीन करना है।”
मैंने कहा, “बाबा मुझे बोल दिया होता तो मैं बच्चों से साफ करा देता।”
फिर मुसकुराए और बोले "मुझे भी तो काम चाहिए।"
बाबा के प्रातः कालीन दर्शन और उनसे संवाद के बाद गत माह मेरे द्वारा पढ़ा गया कल्याण का अंक मेरे स्मृति पटल पर उतरने लगा।
"जो दूसरों के दुख दर्द का अहसास अपने आप में करता है, वही है स्वयं का विस्तार वह दूसरों में स्वयं का और स्वयं में दूसरों का दर्शन करता है। वह आत्म तत्व का ज्ञाता है।
80 वर्ष का बूढ़ा आदमी था या फिर कोई मशीन जो एक बार चावी लगाने के बाद थमने का नाम ही न लेता हो। वो भी बिना किसी लालच के। बाबा रामचरन दास महंत जी के अवैतनिक प्रतिनिधि थे। इससे पूर्व काफी लंबे समय से बाटी वाली कुंज मथुरा में मंदिर की सेवा पूजा और अपनी साधना करते थे।
बाबा रामचरन दास जी की असीमित कार्य क्षमताओं का एक दिन अचानक रहस्य उद्घाटित हुआ। मैं और मेरे जैसे तमाम लोगों की जिज्ञासा शांत हुई। सन् 1981 में विद्यालय का वार्षिक उत्सव आयोजित किया गया । जिसमें रामायण पाठ भी रखा गया। प्रातः 4:00 बजे रामायण पाठ की ज्योति के लिए घी की जरूरत पड़ी जो मंदिर में रखा हुआ था। मैंने मंदिर में प्रवेश किया तो बाबा ध्यान में बैठे थे।
मैं वापस आ गया दोबारा फिर 5:00 बजे गया तब भी वे उसी आसन में बैठे थे। 7:00 बजे तक मैंने तीन चक्कर लगाए लेकिन बाबा को कोई पता नहीं था कि कौन आया कौन गया। कम्बल के आसन पर पद्मासन लंगोटी के अलावा शेष बदन निर्वस्त्र
रीढ़ सीधी तनी हुई मुद्रा नेत्र बंद मूर्ति वृत मुख मुद्रा और समग्र दर्शन समाधि की निर्विकल्प गहराई से साक्षात्कार करा रही थी।
एक दिन हम सभी अध्यापक बाबा के पास मंदिर में गए। प्रधानाध्यापक बाबा से कुछ पूछना चाहते थे। बाबा अपनी व्यस्तता में से एक दो मिनट का समय निकालकर हमारे पास खड़े हुए, अपनी हथेली के इशारे से कुछ भी कहने से रोकते हुए बोले, “तुम जो पूछना चाहते हो मुझे पता है। आप लोग मेरी शारीरिक कार्य कुशलता से अचंभित रहते हो। योग साधना कल्याण का पथ प्रशस्त करते हुए शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करती है और दुनिया में समय से मूल्यवान कुछ भी नहीं। बस यही है आपके सारे प्रश्नों का उत्तर और शंकाओं का समाधान।”
इतना कहकर अपने मंदिर के काम में लग गए। इस तरह वर्षों बाद समझ पाए हम चमत्कृत कर देने बाले कुदाल का रहस्य।
जनवरी 1982 में मैंने विद्यालय छोड़ दिया था। उसके बाद मेरा आना-जाना भी यदा-कदा ही होता था। मैंने सुना था सन् 1985 के बाद बाबा रामचरन दास बाटी वाली कुंज लौट कर आ गए थे। और कुछ दिन बाद वहाँ से भी अपने जन्म स्थान की ओर चले गए। फिर लौट कर कभी नहीं आए।
संसार में विरले ही बाबा रामचरन दास जैसे निष्ठावान योग जन्य श्रम साधक व्यावहारिक दर्शन में आते हैं। परम पिता परमेश्वर की ये दुर्लभ कृति जिस पथ से गुजरती हैं अपनी सुगंध छोड़ जातीं हैं। जो दीर्घ अवधि तक वातावरण को सुवासित करती है। इसी सुवास के गर्भ से जन्म लेता है सत् साहित्य जो सृष्टि पर युगों तक सम्पूर्ण मानव जाति को मानवीय मूल्यों साथ निर्देशित करता है।
लेखक परिचय।
नाम: देवीप्रसाद गौड़
पिता का नाम: स्व.रामप्रसाद
जन्म तिथि: 7अगस्त 1953
जन्म स्थान: गाँव बाटी(बहुलावन)जनपद मथुरा।
शिक्षा: स्नातक एवं अध्यापक प्रशिक्षण परीक्षा।
गतिविधियाँ: अनेक कविसम्मेलन मंच,दूरदर्शन के
विभिन्न चेंनलों से काव्य पाठ आकाशवाणी
वाणी के मथुरा वृंदावन केन्द्र से तीन
दशकों से सतत एकल काव्य पाठ एवं
काव्य गोष्ठियों का निरंतर प्रसारण।
पूर्व सह सम्पादक: राजभाषिका मासिक मथुरा रिफाइनरी
एवं न्यूज जर्नल मथुरा रिफाइनरी
मथुरा।
सम्मान: लगभग एक दर्जन संस्थाओं द्वारा
साहित्यिक सम्मान।
प्रकाशित कृतियाँ: 1अक्रूर खंड काव्य 2तीखी अनुभूतियाँ
3 मदशाला 4 माधौ 5 जीवन बाजी
तास की 6 स्मृतियों के अटल चित्र
सम्प्रति: 1975 से 1981 तक अध्यापन कार्य
1982 से 2013 तक इंडियन आँयल
मथुरा रिफाइनरी मथुरा में सेवायत
अगस्त 2013 मे लेखा अधिकारी से
सेवानिवृत।
पता: बी-50 मोती कुंज एक्सटेंशन
मथुरा 281001
मोबाइल: 9627719477
अनूठे कथ्य और सधे हुए शिल्प में बुनी हुई बेहतरीन कहानी।