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धर्मपाल महेंद्र जैन

जब प्रजा बोलती है



जब राजा बोलता है

तब कोई नहीं बोलता।

राग दरबारी उसे सुनते हैं, समझते हैं।

उसकी आवाज़ दरबारे-ख़ास में गूंजती है

पर बाहर आते-आते दम तोड़ देती है।

प्रजा फुसफुसाहट के सिवाय

कुछ सुन नहीं पाती।

वह फुसफुसाहट के सिवाय

कुछ कह नहीं पाती।

 

जब प्रजा बोलती है, सब बोलते हैं।

बहरों के सिवाय सब सुनते हैं।

एक दिन ये आवाज़

इतनी बुलंद हो जाती है कि

जो नक्कारखानों में नहीं सुनाई देती थी

वह सड़कों पर दिखने लगती है।

जो सुन नहीं पाते थे, वे देखने लगते हैं।



 

लेखक परिचय - धर्मपाल महेंद्र जैन



प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (3 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।


स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।


नवनीत, वागर्थ, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक आदि में रचनाएँ प्रकाशित।

 


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