top of page
डॉ. हरीश नवल

हजामत यू ऐस ए

‘फेयरफैक्स सेंटर’ का जुआन नॉवल्टी स्टोर गुलशन को बेहद पसंद था। जब भी वह अमरीका में होते, हफ़्ते में एक बार इस स्टोर पर ज़रूर आते। शुरू से ही उन्हें विंडो शॉपिंग का शौक थ। बचपन में चाँदनी चैक, कॉलेज के दिनों में कनॉट प्लेस और अब दिल्ली के नये-नये मॉल उनकी सूची में थे।

इस बार गुलशन को विंडो शॉपिंग नहीं सचमुच की शॉपिंग करनी थी, वह नाना बने थे। उनकी बेटी सौम्या और दामाद विमल वर्षों की तपस्या के बाद माता-पिता बन सके थे। उन्होंने गुलशन और बिंदु के लिए, के॰एल॰एम॰ के बिजनेस क्लास के टिकट भेजे थे। फोन पर बिंदु ने दामाद जी से कहा भी था कि बिजनेस क्लास मत भेजना, इतने पैसे में तो हम तीन बार अमरीका आ जाएँगे ...’ पर विमल ने वही किया जो उसने सोचा हुआ था।

डलस एयरपोर्ट’ पर विमल और उसका भाई कमल उन्हें रिसीव करने आये थे, वहीं कमल ने गुलशन को सूचित कर दिया था कि भइया-भाभी उनका ‘साठवाँ जन्मदिन’ मनाने की तैयारी ज़ोर-शोर से कर रहे हैं। ‘पर हम तो अपनी नातिन से मिलने आये हैं उसी की ख़ुशियाँ ज़ोर-शोर से मनाएँगे, मेरा जन्मदिन छोड़ दो’ गुलशन ने कहा था। इस पर दामाद विमल का जवाब मिला, ‘‘पापा गुड़िया एक महीने की हो चुकी है, उसका फंक्शन पिछले तीन दिनों से लगातार चल रहा है, आप साठ के यंग होनेवाले हैं, वही मनेगा बस आप तैयार रहें।’’ अपनी बड़ी गाड़ी रैव-4 के स्टीरियंग पर बैठे दामाद का कहना था।

नातिन ‘अंकिता’ को पाकर नाना-नानी निहाल थे, उन्हें अब समझ में आया था कि मूल से वास्तव में ब्याज अधिक प्यारा होता है। उनके लिए विश्व की सबसे अनमोल वस्तु उन्हें अपनी नन्हीं गुड़िया ही लगती थी, हर समय उसी का ध्यान गुलशन और बिंदु को रहता था। स्टोर या माॅल में उन्हें अब बच्चों का सेक्शन ही भाता था। घुटनों की तकलीफ की वजह से बिंदु अधिक नहीं चल पाती थी, वह केवल निर्देश देती थी और गुलशन निर्देश के अनुसार गुड़िया के लिए ख़रीददारी कर लाते थे।

यद्यपि अपार्टमेंट से ‘फेयर फैक्स सेंटर’ की दूरी बहुत कम थी पर वहाँ आते-जाते बिंदु थक जाती और जगह-जगह घुटने पकड़कर बैठ जाती थी। बिजनेस क्लास का टिकट बच्चों ने उनकी ऐसी हालत को देखते हुए ही भेजा था ताकि सफर आराम से कट सके।

जुआन नॉवल्टी स्टोर’ में गुलशन ने पत्नी के लिए मेडीकेटेड स्टाकिंग्स लीं और फिर वह बच्चों के सेक्शन ‘टोडलर विंग’ में टँगे नन्हें-नन्हें खूबसूरत परिधानों में खो गये। उन्हें लगता था कि हर डेªस उनकी गुड़िया पर फबेगी और हर रंग उस पर खिलेगा इसीलिए इस बार उन्होंने विंडो शॉपिंग कम और रियल शॉपिंग ज़्यादा की। इस पर स्टोर मैनेजर मार्था ने काफी आश्चर्य व्यक्त किया था और अपनी ओर से दस प्रतिशत का अतिरिक्त ‘एम्पलाई डिस्काउंट’ दिया था। दो सौ डॉलर की ख़रीद पर बीस डॉलर की बचत। बीस डॉलर यानी तेरह-चैदह सौ रुपए की बचत ... भारतीय ही जानते हैं कि एक-एक डॉलर विदेश में उनके लिए कितना बेशकीमती होता है।

ट्राली का सामान दो बैगों में रखकर गुलशन स्टोर के ऑटो एक्जिट से जैसे ही बाहर निकले, एक अजब तरह की आशंका की तीव्र अनुभूति उन्हें हुई, उन्हें लगा, उन्हें कुछ लोग साभिप्राय देख रहे हैं, ऑटो डोर के शीशे पर परछाइयों के दिखने से यह आशंका जगी थी। बैग संभालते हुए और आँखों पर काला चश्मा चढ़ाते हुए उन्होंने भाँप लिया कि सामने पार्किंग में खड़ी एक एस॰यू॰वी॰ के पीछे खड़े दो अमरीकी उन पर नज़र रख रहे हैं। गुलशन को तो पैदल ही जाना था अतः पार्किंग की ओर उनके क़दम नहीं बढ़े, वे दायीं ओर पीछेवाले रास्ते पर चल पड़े, आशंकित नजरों से एक बार पीछे मुड़कर देखा ... वही दोनों - एक ऊँचा तगड़ा और दूसरा दरमियाने क़द का उनके पीछे ही आ रहे हैं... आशंका भय में तब्दील होने लगी, दोपहर के साढे़ तीन बजे थे, जुलाई की धूप अपने यौवन पर थी, ऐसी धूप जिसमें कई अमरीकी नंगे बदन भी सड़कों पर दिखाई देते हैं। ... गुलशन ने दायें-बायें नज़र घुमायी, कारें द्रूत गति से भाग रही थीं, पटरियों पर दो-एक व्यक्ति धूप से बचने की कोशिश में सिर पर हथेली रखे तेज कदमों से चलते हुए नज़र आ रहे थे। गुलशन ने पीछे देखा दोनों व्यक्तियों के चेहरे कुछ ज़्यादा ही कठोर दिखे, दोनों तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहे थे। गुलशन की सांस धौकनी हो गयी, उनके क़दम थमने लगे, भय और थकान के मारे वे रुक गये और दोनों बैग ज़मीन पर रख दिये।

पीछा करनेवाले आगे आ चुके थे, लंबे ने एक बैग को किक किया - गुड़िया के लिए ख़रीदा गया खिलौना भालू, संगीत के साथ आवाज़ करने लगा, दूसरा व्यक्ति गुलशन के सामने आकर तनकर खड़ा हो गया। अस्फुट स्वरों से गुलशन ने अंग्रेज़ी में पूछा, ‘‘क्या चाहिए, कौन हो तुम?’’ लंबे ने गुलशन के गाल पर एक जोरदार तमाचा मारते हुए गालियों की बौछार कर दी, दूसरे ने ‘नौ सितंबर’ ‘ट्विन टाॅवर’ आदि लफ़्जों को दोहराते हुए बहुत कड़ी अभद्र भाषा में दोहराया। गुलशन जान गये कि वे दोनों उन्हें मुस्लिम समझ रहे हैं और ट्विन टाॅवर गिराने का आरोप लगाकर रोष प्रकट कर रहे हैं, गुलशन ने प्रतिवाद करते हुए बताना चाहा कि वह मुस्लिम नहीं हिंदू हैं पर बलिष्ठ लंबे युवक ने गुलशन की दाढ़ी के बाल नोंचते हुए कहा, ‘‘झूठ बोलते हो मक़्क़ार तुम्हारी दाढ़ी बता रही है तुम मुसलमान हो, खान हो, अमरीका के दुश्मन हो ...।’’

अब गुलशन को पछतावा हो रहा था, कल ही सौम्या ने उनसे कहा था कि दाढ़ी कटवा लो या छँटवाकर फ्रेंचकट कर लो, ‘नाइन इलेवन’ के बाद से पूरी-भरी दाढ़ीवालों को यहाँ शत्रु माना जाता है, कई अमरीकी उन्हें बर्दाश्त नहीं करते पर वह केवल हंसकर टाल गये थे।


गुलशन की छठी इंद्रिय जाग गयी, उनके सामने क्षण भर में 1984 के दंगों की छवि आ गयी जब उनके देखते ही देखते दंगाईयों ने पड़ोसी सिक्ख भाइयों के मकान में आग लगा दी थी। उसी क्षण में गुलशन की स्मृति में उनकी बीजी के बताये सन् 47 के खौफनाक नजारे भी आ गये। वह सजग हो गये, सचेत हो गये और मानो उतने ही जवान हो उठे जितना सन् 84 में थे। उन्होंने पलक झपकते ही हुंकार भरकर बलिष्ठ अमरीकी को एक ज़बरदस्त धक्का दिया। अप्रत्याशित और आश्चर्यपूर्ण शौर्य देखकर अमरीकी घबरा उठा और दूसरे पर जा गिरा, दोनों अमरीका की सुंदर घास युक्त पटरी पर जुआन नावल्टी स्टोर के दोनों बैगों की तरह लुढ़क गये ... लम्बे के माथे से खून की बूँदे रिसने लगीं। उसका सिर खम्भे से टकरा गया था, गुंलशन ने भागकर बड़ी सड़क को फुर्ती से पार कर लिया जिसे बुलवर्ड कहते हैं, बिना सिगनल आप इसे कहीं भी पार नहीं कर सकते पर गुलशन ने मानो चकमा दिया, एक-दो कारें रुकीं, एक ने हॉर्न बजाकर वर्जिनिया को हैरान कर दिया क्योंकि वहाँ कोई हॉर्न नहीं बजाता, पर जिसको जान की पड़ी हो उसे इन सबसे क्या। गुलशन सड़क पार के वृक्षों के झुरमुट के घनेपन में घुस गये। वे बेमौत मरना नहीं चाहते थे। बेमौत मरना भी हो तो वे अपनी वतन की मिट्टी पर ही मरेंगे, यह उनके अंतर-मन का छिपा भाव था जिसने उन्हें अनायास ऐसी शक्ति दी।

दोनों अमरीकी उठे, वे गुस्से से तमतमाये हुए थे, अंदाज़ से वे गुलशन को पकड़ने के लिए सड़क पार करके आये और इधर-उधर ताकने, ढूंढ़ने लगे, उनके गोरे मुखों से काली गालियाँ और अभद्र शब्द बरस रहे थे। बलिष्ठ ने हाथ में एक छोटी-सी पिस्तौल भी तान ली थी और वे आगे बढ़ने लगे थे ....।

सांस रोके गुलशन वृक्षों की आड़ में छिप गये थे, अमरीकी सरकार ने सड़कों के किनारे मिट्टी के बड़े-बड़े टीले बनाकर वृक्षारोपण किया है जिसने ग्रीन बफर्स बन गये हैं जो भ्रम देते हैं कि वहाँ वन है। जिस बफर में गुलशन छिपे थे उन्हें मालूम था कि ठीक उसके पीछे ‘जफरसन अपार्टमेंट्स‘ हैं जहाँ नं. 202 में विमल, सौम्या और अपनी नानी के साथ नन्हीं अंकिता है। इस वन को गुलशन हर सुबह पार करते हैं विगत 10 वर्ष से वे सुबह की सैर पर होते हैं। वर्जीनिया आकर इसी वन के पीछे जॉगिंग करते हैं।

गुलशन ने सौम्या को फोन कर दिया कि उन्हें देर हो गयी है पर वे चिंता न करें। फिर मोबाइल को साइलेंट करके घास पर लेट गये। वे थकान महसूस करने लगे थे, उनके दिल पर ज़ोर पड़ रहा था, बी॰पी॰ की गोली की कमी महसूस हो रही थी। वे तन्द्रा में चले गये ... उनके सामने सन् ‘84 के दृश्य फ्लैशबैक में आने लगे ....

एक युवा सिक्ख उनके घर के आगे से भागता जा रहा था उसके बाल खुले हैं, वह बड़बड़ा रहा है, ‘‘मेरी दाढ़ी नोची, मेरी पगड़ी गिरा दी, मुझे पीटा, मेरा क्या कसूर ...’’ फिर गुलशन ने देखा जनकपुरी की बड़ी सड़क पर दो सिक्ख भाग रहे हैं, उनके पीछे दंगाइयों की भीड़ है, एक सिक्ख के गले में जलता हुआ टायर है, वह गिर पड़ा है, दंगाई उसके देह से खिलवाड़ कर रहे हैं दृश्य बदल गया, गुलशन अपनी माँ के पास बैठे हैं, माँ बता रही है सन् ‘47 में कैसे दंगाइयों ने उनके और उनकी पाँचों बहनों के लिए उनके नाम के बुरके बनवा लिये थे और तय कर लिया था कि कौन शख़्स किस पर बुर्क़ा डालकर उसे पाकिस्तान ले जाएगा। बीजी बता रही हैं गुलशन की दाई एक हाजिन थी जो उन्हें बहुत अच्छी शिक्षा देती थी, उसी ने छह बहनों को बचाया। उन्हें दो बड़े सन्दूकों में 13 घंटे छुपाये रक्खा ... सन्दूक में जहाँ साँस घुटने लगती है ...

गुलशन सहसा झटके से उठे, उनकी सांस उखड़ रही थी, उन्होंने व्यायाम की मुद्रा में हाथ-पैर हिलाये। सामान्य होते ही उन दोनों दुष्टों को आड़ से देखने के लिए सड़क की तरफ़ बढ़े ... वे दोनों अभी वहीं थे। बारी-बारी से दो दिशाओं में जा रहे थे ... गुलशन निर्धारित रास्तों को छोड़कर अनुमान से उपवन मार्ग में से ‘जैफरसन अपार्टमेंट’ का रास्ता खोजने-बनाने लगे ... इस बीच दो बार बिंदु का फोन आ चुका था।

अपार्टमेंट की लाल छतें दिखने लगीं और ‘केवल मेम्बरस के लिए’ प्रवेश द्वार से गुलशन जबरन अपार्टमेंट्स के क्षेत्र में दाखिल हो गये। जहाँ दोनों दुष्ट थे, यह अपार्टमेंट उनसे तनिक दूरी पर ही था, दूसरी मंज़िल की खिड़की से वे गुलशन को नज़र आ गये थे। उनकी संख्या बढ़कर चार हो चुकी थी।

विमल अभी काम से लौटे नहीं थे, सौम्या और बिंदु को गुलशन ने सारी बात बता दी थी, बिंदु रोने लगीं, उन्होंने गुलशन से कहा कि ये सब तुम्हारी दाढ़ी की वजह से हुआ है इसे फौन मुँड़वा लो। जब तक विमल घर पहुँचता उससे पहले ही उसके रेज़र से गुलशन दाढ़ी साफ कर चुके थे। विमल आया, सारी बात सुनी, वह थोड़ा घबरा गया और उसने मूँछे भी काटने की सलाह दी, उसका मत था कि वे लोग मूँछों से भी पहचान सकते हैं। दूसरी बात क्योंकि वे हिट हुए हैं उनके खून भी निकला है, वे बदला ज़रूर ले सकते हैं।

अनमने मन से गुलशन ने मूँछे भी हटा दी। विमल ने उन्हें एक बिना नम्बर का चश्मा भी लगा दिया ताकि वे पहचान में न आ सकें। गुलशन को यह सब अटपटा-सा लग रहा था पर वह समझ गये थे कि विमल जानता है कि ग्यारह सितंबर के बाद क्या-क्या हो रहा है और क्या-क्या हो सकता है। सचमुच शक निराधार नहीं था।

दो दिन बाद अपार्टमेंट की घंटी बजी, दोपहर का एक बजा होगा, सौम्या गुड़िया को सुला रही थी और बिंदु किचन में सब्जी पका रही थीं। गुलशन ने ऐनक लगा, पर्दा हटाकर बाहर देखा - डाक गाड़ी थी, गुलशन ने दरवाजा खोजा। डाकिया एक पार्सल लिए खड़ा था। डाकिया की शक्ल देखकर एक बार तो गुलशन को साँप सूंघ गया, वह वही दरमियाने क़द वाला था जो उस दिन तमाचा मारने वाले के साथ था। काँपते हाथों से पार्सल लेते हुए भर्राये स्वर में गुलशन ने शुक्रिया अदा किया। उस व्यक्ति ने गुलशन को घूरते हुए एक बैग दिखाया जिस पर ‘जुआन नाॅवल्टी स्टोर’ लिखा था, उस पर लगी पर्ची देख गुलशन सिहर उठे। यह वही बैग था जिसमें गुड़िया का सामान रक्खा था। दुष्ट अमरीकी ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘आपके घर में कोई बच्चा है जिसके लिए ‘जुआन स्टोर’ से खिलौने खरीदे गये?’’

गुलशन ने चेहरे पर विश्वास ओढ़ते हुए कहा, ‘‘बच्चा तो है पर अभी पैदा ही हुआ है, खिलौनों से अभी नहीं खेल सकता है और यह जुआन स्टेार क्या है हमें नहीं मालूम, हम तो अभी इंडिया से आये हैं, हिंदू हैं, हमारा नाम है गुलशन कुमार कपूर ....’’ दुष्ट कुछ सोचते हुए सिर हिलाता हुए विदा हुआ और गुलशन ने राहत की सांस ली, उनका अभिनय चल गया था।

उस दिन भी सब बहुत डर गये थे क्या करें, क्या कहें, क्या पुलिस को इत्तिला करें। यहाँ तो 911 डायल करते ही तुरंत 16-17 पुलिस और अन्य कर्मी आ जाते हैं। तय हुआ कि किसी को बताना ठीक नहीं पुलिस को बतानो पर वे नज़र में आ जाएँगे, नज़र में आना ठीक नहीं, जान बचाना ही सबसे बड़ी बात है। विमल ने कहा, ‘‘अब जुआन स्टोर जाने की ज़रूरत नहीं। पापा को जाना होगा तो मेरे साथ शनि या रविवार को ‘वाल्मार्ट’ या ‘कोस्टको’ ही जाएँगे। क्या पता वो लोग पहचान लें क्योंकि वे अपमान का बदला तो ले ही सकते हैं।’’

विमल खुद कुछ वर्षों से विर्जिनिया के क्षेत्र में रहने लगा था क्योंकि यहाँ पर भारतीयों की संख्या बहुत है, पहले वह न्यूयार्क में किराये के मकान में रहता था, पर वहाँ काले-गोरे का भेद बहुत था। दंगे भी होते थे। उसके बॉस ने उसको समझा दिया था अश्वेत दंगाइयों से दूर रहना वो 5-7 डॉलर के लिए भी मारपीट करते हैं।

विमल को जब यहाँ जॉब मिला, वह देखकर खुश हुआ कि यहाँ श्यामवर्ण वाले बहुत कम और उसके जैसे गेहुंए विशेषतः दक्षिण भारतीय बहुत हैं। उसे बेहद सुरक्षा का अनुभव हुआ था। हालाँकि सैलरी न्यूयार्क से कम थी पर शांति बहुत थी, पर अब पापा के साथ घटी घटना और उससे पहले भारतीयों के विरुद्ध हुए अत्याचारों ने उसे हिला दिया था। एक गुरुद्वारे में आकर दंगाइयों ने कई बेकसूरों को मौत की नींद सुला दिया था और अभी हाल ही में एक सिक्ख प्रोफेसर को मुस्लिम आतकंवादी होने के शक में मार दिया था। विमल असुरक्षा महसूस कर रहा था, उसे यह विचार भी आ रहा था कि वह कैसे ऐसे देश में रह रहा है जहाँ बिना किसी कारण के कभी कोई सिनेमा हॉल में फायर कर देता है तो कभी किसी बाज़ार में।

गुलशन का प्रबल मत बन गया था कि सौम्या और विमल का भारत ही लौट चलना चाहिए, भारत में तन्ख्वाहें अच्छी हैं, सॉफ्टवेयर इंजीनियर के लिए बहुत कुछ हैं, फिर वहाँ घरेलू काम-काज करने के लिए काम करने वाले मिल जाते हैं, वहाँ लौटना ही बेहतर है। विमल का इस पर कहना था कि उसने बैंक से क़र्जा लेकर घर ख़रीदा है, घर खरीदने के लिए ओबामा सरकार ने उसे कुछ पैसा अपनी ओर से भी दिया है। बिना ऋण चुकाये जाना नहीं हो सकता।

घर-परिवार में मानों भय का राज्य स्थापित हो गया था। सेंटर वाली घटना के बाद से पहले-सी खुशी और चहक लगभग ग़ायब थी। केवल गुड़िया ही थी जिसे देखकर भूख-प्यास और भय आदि कुछ नहीं सताता था। वही आतंक से थोड़ा-सा सब को बचा रही थी। गुलशन और बिंदु प्रायः घर पर ही रहते थे, कभी जाते तो भी कार के भीतर बेल्ट बांधे ही बैठे रहते, मॉल , स्टोर आदि सब पार्किंग में ही से अनुभव किया जाता, दूध का जला छाछ फूँक-फूँककर पी रहा था।

एक शाम पड़ोस में रहनेवाला कृष्णा अय्यर जो विमल का हमउम्र है, आया और उसने बताया कि उसके पापा-मम्मी बंगलौर से दो महीने के लिए आ रहे हैं। वह चाहता था कि उसके माता-पिता से गुलशन और बिंदु से उसकी दोस्ती हो जाय, उसके माता-पिता हिंदी बोल लेते हैं। हिंदी ना भी बोलते तब भी भाषा दोस्ती के आड़े नहीं आती, यह अनुभवी गुलशन अच्छी तरह जानते थे, उन्होंने उत्सुकता-भरे शब्दों में कृष्णा को कहा कि वे दोस्ती करेंगे। ‘कब आ रहे हैं वे लोग’, गुलशन ने पूछा था? ‘अंकल इसी महीने के आखि़र तक आ जाएँगे, अभी तो तीन हफ़्ते हैं, उनके लिए इंतजाम कर रहा हूँ फिलहाल तो ‘पेलैस शूज स्टोर से उनके लिए फ्लीट खरीदकर लाया हूँ, उन्हें सुबहशाम लंबी सैर की आदत है, अब आप दोनों साथ-साथ सैर पर जाना। कृष्णा ने गर्मजोशी से कहा।

अचानक वातावरण ठंडा हो गया जब विमल ने कृष्णा को चेताने के लिए गुलशन की स्टोरवाली घटना सुना दी। कृष्णा ने उसे विस्तार से सुना और उसने भी एक रहस्य उगल दिया, ‘‘जार्ज मेसन यूनिवर्सिटी में मेरे चाचा का बेटा पढ़ता था, पढ़ाई में अव्वल था। हर सेमेस्टर में उसे सबसे अधिक क्रेडिट मिलते थे। फाइनल सेमेस्टर से दो दिन पहले एक शाम लाइब्रेरी से उसे कुछ अमरीकन लड़के एक सूने पार्क में ले गये और उसकी हत्या कर दी।’’

‘‘क्यों हत्या कर दी?’’ हठात्! सौम्या के मुख से निकला। उसकी गोद में पड़ी बच्ची काँप गयी। ‘‘भाभी , जैलेसी, ईष्र्या, मेरे भाई के नम्बर ज़्यादा आते थे वैसे भी सभी जानते हैं कि भारतीय विद्यार्थी कितनी मेहनत करते हैं, प्रायः वे टॉप भी करते हैं। यहाँ के लोग इस कारण भी उनसे चिढ़ते हैं। भाभी हमसे-आपसे भी चिढ़ते हैं, देखते नहीं पहले हमारी स्ट्रीट में कितने अमरीकन थे, अब वह कम हो रहे हैं, इंडियन बढ़ रहे हैं और जबसे विमल और मेरे जैसे जवान भारतीयों ने बैंकों से मकान खरीदे हैं - वे खुश नहीं हैं। हम उनकी हार की वजह हैं। वे कर्ज न चुका पाने के कारण बेघर हो रहे हैं।’’

विमल भी फूट पड़ा, ‘‘हम लोग फस्र्ट क्लास काम करते हैं, उनके देश को बढ़ा रहे हैं, पर हैं तो सेकेंड क्लास सिटिजन। पापा जब-जब मेरी तरक्की हुई है, कुछ न कुछ विरोधी टिप्पणियाँ मुझे मेरे सामने या गुमनाम खतों से मिली हैं, पर सब चलता है। क्या यह जैलिसी फैक्टर भारत में भी है?’’

गुलशन कुछ न बोले, कहीं खो गये। कृष्णा उन्हें पढ़ने की कोशिश में रहा, बातचीत का सिलसिला बंद-सा हो गया जिसे बिंदु द्वारा तले गये पापड़ों और बनाई गयी आयुर्वेदिक चाय ने किसी भाँति तनिक-सा जोड़ दिया।

कृष्णा के जाते ही गुलशन ने विमल से कहा, ‘‘देखना अब कृष्णा अपने माता-पिता को नहीं बुलाएगा और बेटा ये ऑफिस की जैलेसी वाली बात तुमने पहले कभी नहीं बतायी?’’

उनके स्वर की मायूसी पहचानकर विमल ने ऊँची आवाज़ में कहा, ‘‘डोंट वरी पापा, सब चलता है, कृष्णा के मम्मी-पापा आएंगे ज़रूर पर हाँ, आप की तरह सैर पर शायद नहीं जाएँगे।’’

फ्लीट भी वापिस हो गये और कृष्णा के माता-पिता की टिकटें भी। गुलशन कपूर का मन बुझ-सा गया था। प्रथम श्रेणी होने के बावजूद सेंकड क्लास सिटीजनशिप की बात उनके दिमाग़ में कीड़ा बनकर घूमने लगी थी। दंगा, आतंक, हत्या सबकी मुख्य वजह ईष्र्या, घृणा, द्वेष ... इन्हीं कारणों से आतंकवादियों ने टॉवर गिराये, इन्हीं कारणों से अमरीकी, मुसलमानों के खिलाफ़ हैं, इन्हीं कारणों से होनहार भारतीयों को मार दिया जाता है, उनकी तरक्की पर अंकल सैम के भीतर कुछ जलने की बू तिरती है ... और यह अमरीका में ही नहीं, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि में भी है। विदेश में ही क्यों विमल ठीक पूछ रहा था इंडिया में भी तो यही सब कुछ है, वहाँ भी जाति, भाषा, प्रदेश सबके नाम पर यही ईष्र्या, द्वेष और घृणा का आतंक ... लेकिन अपना देश अपना ही है। तो वहीं जीना है तो मरना भी वहीं है ...।

पंद्रह दिन तक शेव न करने के बाद सोलहवें दिन जब उनका साठवाँ जन्मदिन था जिसे वे अमरीका में नहीं मनाना चाहते थे, गुलशन बिंदु को लेकर वापस दिल्ली की ओर रवाना हो गये। दाढ़ी-मूँछ बढ़ गयी थी। भारत में अब उनसे कोई नहीं पूछ पायेगा कि हजामत किसने, क्यों, कहाँ बनायी।

पर एक बात गुलशन सोचने लगे कि दरअसल हजामत बनी किसकी, क्या उनकी अपनी, अमरीका की या फिर मनुष्यता की? ....

 

(यह कहानी नया ज्ञानोदय में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी है)


जन्म- ८ जनवरी १९४७ को पंजाब के जलंधर जिले में शिक्षा- एम.ए., एम. लिट. तथा पी.एच.डी. की उपाधि

कार्यक्षेत्र- अध्यापन एवं लेखन। डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं। इन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किये हैं। वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर काम कर चुके हैं। वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) का दौरा कर चुके हैं।

प्रकाशित कृतियाँ- व्यंग्य संग्रह- बागपत के खरबूजे, पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, निराला की गली में। समीक्षात्मक लेख- तीन दशक, रंगमंच – संदर्भ, नव साहित्य की भूमिका और माफिया जिंदाबाद तथा छोटे परदे का लेखन संपादित पुस्तकें- भारतीय मनीषा के प्रतीक, रंग एकांकी, गद्य – कौमुदी, धर्मवीर भारती के नाम पत्र, व्यावहारिक हिन्दी, शिव शम्भू के चिट्ठे और अन्य निबंध तथा साहित्य-सुबोध। सह लेखन- भारतीय लघुकथा-कोश, विश्व लघुकथा-कोश आदि देश विदेश के अनेक संकलनों में रचनाएँ संकलित।

पुरस्कार व सम्मान- युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार, गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार (भारत सरकार), साहित्य कला परिषद् पुरस्कार (दिल्ली राज्य), साहित्यमणि (बिहार), बालकन जी बारी इंटरनेशनल सम्मान, साहित्य-गौरव (हरियाणा), मीरा-मौर (दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन), जैनेन्द्र कुमार सम्मान, फिक्र तौंसवी सम्मान, माध्यम का अट्टाहास सम्मान, काका हाथरसी सम्मान व हास्य रत्न, हिन्दी-उर्दू अवार्ड (उत्तर प्रदेश) आदि।

ई मेल : harishnaval@gmail.com

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

Comments


आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page